Tuesday, 31 March 2009

दरकते पहाड़, खिसकते खेत और सिसकती जिंदगी।

यहां लोक ढो रहा तंत्र का बोझ उत्तरकाशी दरकते पहाड़, खिसकते खेत और सिसकती जिंदगी। यही है पहाड़ का सच। देश आजाद हुआ तो लगा अपना राज आ गया। देखते ही देखते साठ साल गुजर गए, लेकिन यह सिलसिला नहीं टूटा। इस बीच उत्तराखंड भी बन गया, लेकिन रिसते जख्म पर मरहम तब भी नहीं लगा। आज भी उत्तरकाशी के सेवा गांव के लोग पीठ पर लोकतंत्र का बोझ ढो रहे हैं। ठेठ चढ़ाई पर चलते वक्त पैर पर फूटते छालों का दर्द इस गांव के लोग ही सह सकते हैं। पीढि़यां ऐसे ही गुजर गई और अब भविष्य भी वहीं कहानी दोहरा रहा है। चिमनी के उजाले में रेडियो पर नेताओं के भाषण उनके मनोरंजन के साधन बना हुआ है। तहसील पुरोला के ब्लाक मोरी का सेवा गांव समुद्र तल से 26 सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मुख्यालय से 178 किमी. दूर 5 सौ वर्ग मीटर में फैले गांव की कुल 382 महिला पुरुषों में मात्र 30 प्रतिशत महिला पुरुष ही साक्षर हैं, बालिका शिक्षा का यहां हाल बेहाल है। 16 फीसदी साक्षर महिलाओं में से 5वीं के बाद बालिकाएं स्कूल ही नहीं जाती। शीतकाल में यह गांव 4 से 5 महीने के बर्फ में ढक जाता है और ऐसे में गांव के लोग अपने लड़कियों को 12 किमी. दूर जूनियर शिक्षा के लिए दोणी नहीं भेजते। सड़क से 12 किमी. दूर इस गांव में बिजली आज भी नहीं पहुंची है और संचार के नाम पर यहां सिर्फ रेडियो बजता है। सेब, नाशपाती और आडू उत्पादन यहां के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन है लेकिन गांव सड़क से दूर होने के कारण उत्पादन का बड़ा हिस्सा बाजार तक नहीं पहुंच पाता। ओलावृष्टि, सूखा, वनाग्नि के समय इस गांव के लोगों के सामने पहाड़ जैसी मुश्किलें होती है और ये लोग तब गेंहू, दाल, मंडवा व आलू पर ही निर्भर रहते हैं। चांद-सितारों की बातें और विकास का ढोल पीटने वाले नेता भी सेवा गांव के पैदल रास्ते नापने से कतराते हैं। उनकी कोशिश होती है कि गांव के मतदाताओं किसी तरह वोट उन्हें दें दे। अंगूठे के बाद अब इलैक्ट्रानिक वोटिंग मशीन तक मतदान पहुंच चुका है किन्तु सेवा के ग्रामीण आज भी अंगूठा टेक ही रह गए हैं।

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