Friday, 13 March 2009
वेब पर सूचनाएं देने में उत्तराखंड फिसड्डी
देहरादून सूचनाधिकार कानून लागू हुए तीन साल का अर्सा गुजर चुका है, फिर भी उत्तराखंड में सरकारी विभाग और नौकरशाही सुधरने का नाम नहीं ले रहे। सूचना कानून के तहत जो सूचनाएं विभागों को स्वयं ही सार्वजनिक कर देनी चाहिए, उन्हें प्रकट करने में भी कोताही बरती जा रही है। रोचक बात यह है कि सूचना कानून के तहत 120 दिन के भीतर ये सूचनाएं सार्वजनिक हो जानी चाहिए थीं, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। गैर सरकारी स्वयंसेवी संस्था पब्लिक अफेयर्स सेंटर (पीएसी) के एक आकलन में उत्तराखंड को स्वप्रकटन के मामले में सबसे निचली पायदान पर रखा गया है। पीएसी ने गत दिसंबर व जनवरी के मध्य देशभर के 500 से ज्यादा सरकारी विभागों की वेबसाइटों की पड़ताल की और पाया कि इनमें से मात्र 396 ही ठीक से काम कर रही हैं। आकलन में केंद्र के 12 मंत्रालय व उपक्रम, 28 प्रदेशों व छह संघीय प्रदेशों के 16 विभागों की वेबसाइटों की पड़ताल की गई। मंजूनाथ सदाशिव और पूजा बद्रीनाथ द्वारा तैयार क्विक असेसमेंट आफ द डिग्री आफ कम्प्लाएंस टू द सुओ-मोटो डिस्क्लोजर्स प्रोविजंस आफ द आरटीआई एक्ट-2005 रिपोर्ट के मुताबिक नागालैंड 62, दिल्ली 56, बिहार 55, पंजाब 51 व आंध्रप्रदेश 49 फीसदी कप्लाएंस रेट के साथ टाप फाइव में हैं। पांडिचेरी 46, चंडीगढ़ 41 व कर्नाटक 15वें स्थान पर रहा, जबकि पश्चिम बंगाल का स्थान 10वां है। केरल छह और उत्तराखंड तीन प्रतिशत के साथ सबसे कम कप्लाएंस रेट वाले राज्यों में शामिल हैं। सूचना कानून की धारा 4(1)(बी) के तहत 17 सूचनाओं के स्वप्रकटन के आधार पर आकलन किया गया। कानून की स्वप्रकटन की धारा के प्रावधानों को लागू करने पर एक, आंशिक रूप से लागू करने पर आधा व लागू न करने पर शून्य अंक दिए गए। अगर सूचना कानून का पोर्टल है तो एक, नहीं है तो शून्य अंक दिया गया। इसी तरह से वेबसाइट के नियमित अपडेट होने न होने का भी आकलन किया गया। पीएसी के संस्थापक सैमुअल पॉल के मुताबिक सरकारों की राजनैतिक इच्छाशक्ति में कमी, नौकरशाही की जवाबदेह होने से बचने की प्रवृत्ति, सरकारी हलकों की यथास्थितिवादी प्रवृत्तियां मिलकर सूचना कानून के बेहतर ढंग से लागू होने में बाधा पैदा कर रही हैं।
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