Tuesday, 7 April 2009

ढोल को सम्मान मिलने लगा है

अंगरेजी साहित्य के प्रो. दाताराम पुरोहित लोककलाओं पर शोध में ऐसे खोए कि ढोल गले में डाल लिया। आज पहाड़ के तमाम लोकवाद्य उनसे बातें हैं और वह उन बातों को देश दुनिया को सुनाना चाहते हैं। पहाड़ के मेले, उत्सवों को वे नन्हें बच्चे के भोले कौतुक के साथ देखते हैं और दिखाना चाहते हैं। चाहते हैँ कि यहां नए नए प्रयोग हों। 1000 ही क्यों, अपने ढोल से और ताल निकलें। जब किसी एक कलाकार की मौत होती है ये शख्स बहुत टूटता है, क्योंकि वह उसकी कीमत जानता है। मेरी लोग ढ़ोल बजाने वाला कहकर मजाक बनाते मैं इससे और उत्साहित होता। आज गढ़वाल विश्वविद्यालय में ढ़ोल बजाने वाला गांव का कलाकार फैकल्टी है। विदेश से लोग उसको पूछने आ रहे हैं। ढ़ोल को सम्मान मिलने लगा है।

- ढोल को लेकर उनके इस प्रयास पर हुई हमारी बातचीत - ..... उत्तराखंड की संस्कृति पर अध्ययन करते हुए, कया समझा आया? इसको दो रूपों में देख सकते हैं। भौतिक व अध्यात्मिक। सामान्यतया उत्तराखंड की संस्कृति से आशय यहां की भौतिक संस्कृति से है। इसका उदभव जीवन की विविधता व दिनचर्या से हुआ है। इतिहास के विकास क्रम में कई चीजों का समागम हुआ है। इनके बारे में बहुत जानकारी नहीं है। पांडवों के हिमालय आगमन पर उत्सव संकेत से इसे समझा सकते हैं। बाद में मध्य एशिया से आये खस, कत्यूरी, नाग आदि का उस पर प्रभाव पड़ा। पूरब में काली नदी व पश्चिम में यमुना नदी के मार्ग से यहां प्रवेश बड़ा। मध्यम में स्थित गंगा की दुर्गम घाटियों में प्रवेश शंकराचार्य के आगमन के बाद ही संभव हो सका। निचोड़ के रूप में कहूं तो लोकधारा की संस्कृति व शास्त्रीयता की संस्कृति दोनों ने अपना स्थान बनाया। पर चाहे चितई के गोलू देवता हों या भगवान बद्रीनाथ इनके उत्सवों में परफार्मिंग आटर्स के कलाकार हावी हैं। यूं कह सकते हैं कि तमाम कठिनाईयों के बीच जो लोग कला को आगे बढ़ाते रहे कैसे देखते हैं इस योगदान को?

औरों की बनिस्पत इस वर्ग का श्रम से सबसे करीबी नाता रहा है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता। धरती, भूगोल व हिमालय की जटिलताओं के सर्वाधिक भुक्तभोगी वहीं हैं। इसलिए इस खंड की संस्कृति उनकी सांसों व पसीने से निकली। इस वर्ग को अब जाति की जगह कलाकार के रूप में देखना शुरु करें। जिस कला को हम उत्तराखंड की कला के रूप में प्रचारित करते हैँ उसके कलाकारों को सम्मान देना सीखें। हमने श्रीनगर विश्वविद्यालय में रंगमंडल बनाने के लिए सरकार को प्रस्ताव भेजा है। 15 लोक कलाकारों का रंगमंडल बने। उसमें ढ़ोली, हुड़किया, जगरिया आदि के उस्तादों को शामिल करें। उनहें पेशेवर बनाकर उन्हें सम्मानित करें। प्रोफेसरों की तरह उनहें तनख्वाह दें। नहीं तो कलाकारों की नई पीढ़ी इस कला को नहीं छुएगी7 मैंने देखा है पढ़े लिखे लोग इस कला से दूर भाग रहे हैं, जिसमें सम्मान नहीं है। न जीने लायक आजीविका। क्यों जीवित रहनी चाहिए यह कला? ऐसा कहा जा सकता है जो हवा है उसमें ऐसा लग सकता है। लेकिन यह अदभुत कला है। इसे किसी भी हाल में जीवित रखना होगा। मैंने इस पर इतने साल खपाए। मैँ ईमानदारी से कहता हूं। यह बेहद खूबसूरत है। हमारा ढोल से 600 से 1000 तक ताल निकलते हैं। जबकि तबले पर 300 ही बजते हैं। तबला पंडितों के हाथ में कोडिफाईड हो गया। लेकिन ढोल तो जनता का क्रिएशन है। आपको जैसे आनंद दे वैसे बजाओ। यहां नहीं के इस तरफ कुछ बजता है दूसरी तरफ कुछ और। भूगोल की विविधता से इसका प्रसार बढ़ता गया।अभी हम केवी छह जगह के ढ़ोल ही लिपिबद्ध कर पाये हैं। बहुत जगह के होने बाकी हैं। यह अंतरराष्ट्रीय क्षमता की कला है। मैँ अगर यहां का नहीं भी होता तो भी मेरा यही निरपेक्ष मूल्यांकन होता। धीमे स्वर में गायी जाने वाली सघई तो अदभुत है। हमें इस पर बहुत सीरियस एक्सपेरिमेंट भी करने हैं। पर कला के पारखी ही करें। रिसर्च करनी होगी। मछली मारने का उत्सव मौण कितना गजब है। पुरोला में इसमें हजारों लोग शामिल होते थे। 30 हजार लोग मछली मारने का दुनिया में ऐसा कोई उत्सव नहीं है। इसकी बुराईयां निकालकर इसे फिर शुरु किया जाए। गांव से कस्बों में आ गए लोग भी अपनी संस्कृति में लौटें तो उन्हें बाड़ा आनंद आएगा। संयोगवश गिर्दा ने झाूसिया दमाई का रिकार्ड बना लिया। नहीं तो भड़ गायन की यह महान कला कोई नहीं जान पाता। पीपलकोटी का नंदा सिंह नेगी मर गया। मैंने सरकार के पास पास बार बार प्रस्ताव भेजे कुछ नहीं हुआ। खुद भ नहीं कर पाया कुछ। लेनिक कई कलाओं का ज्ञाता यह कलाकार चल दिया। हर दिन कोई न कोई कला मर रही है। हजारों सालों की विरासत गुम हो रही है। युद्धस्तर पर काम करना होगा। हम डाक्यूमेंटेंशन तो कर ही सकते हैं। अगस्त्यमुनि के लोक महाभारत गायन का 100 घंटे का रिकार्ड किया हमने।ऐसे ही काम। केरल के कलाक्षेत्रम व राजस्थान के रूपायन की तरह। राजस्थान का फोक आज अंतरराष्ट्रीय मांग है, लेकिन जब कोमल कोठारी जैसे लोग आगे आये तब। राज्य की संस्कृति को उभारने व मंचों पर लाने के प्रयासों पर आपका मूल्यांकन ? सिर्फ नाज गाना करके कला जीवित नहीं रखी जा सकती। दूसरी तरफ इन प्रयासों का महत्व भी ळे। नए लड़के लड़कियों की अभिरुचि बनाए रखने में इन आयोजना की भूमिका रही है। इन्हें ट्रेनिंग मिली होती तो ये और अच्छा करते। लेकिन मैं कहूंगा संस्कृति चैंतोल व महासू जैसे मेलों ने सुरक्षित रखी है। महासू मंदिर में जब देवता एक जगह से दूसरे जगह प्रस्थान करता है तो एक करोड़ खर्च आता है। नंदा देवी में पिछली बार 56 करोड़ रुपये खर्च हुढ। छह छह मकहीने अलकनंदा की घाटियों में यात्राएं होती हैं। यह सब जनता के सामूहिक प्रयासों से होता है। सरकार आयोजनों के बदले इन गांव से निकले कर्मचारियेां को थोड़े दिन की छुट्टी दे दे। इसी से संस्कृति बचेगी। डंगारियों को गांव जाना ही पड़ेगा ना। मैकाले की शिक्षा पाये लोग आम लोगों की संस्कृति या लोक संस्कृति से नाक भौं सिकोड़ते हैं। आप तो फिर अंग्रेजी के प्रोफेसर रहे, क्या जरूरत लगी ऐसी? बचपन से रंगमंच में रुचि रही। रामलीला में बहुत रोल किया। फिर रंगमंच से जुड़ गया थोड़े समय बाद महसूस हुआ कि लोक पर प्रो। मेहन उप्रेती व बृजेंद्रलाल साह के अलावाकिसी ने कोई काम नहीं किया। उनसे प्रभावित होकर मैंने 1985 से काम करना शुरु कर दिया। पिुर मेरी पीझएचडी का विष मध्यकालीन इंग्लैंड व गढ़वाल की लोकसंस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन था। मैंने इसे पूरा करने में जल्दी नहीं की। पूरे आठ साल लगाए। उसे एमझा। 1996 में मेरे काम से प्रभावित होकर बृजेंद्रलाल साह ने मुझासे नैनीताल में कहा बाबा तू बहुत आगे जाएगा। मेरे बाद तू ही इस काम को संभालेगा। मेरी लोग ढ़ोल बजाने वाला कहकर मजाक बनाते मैं इससे और उत्साहित होता। आज गढ़वाल विश्वविद्यालय में ढ़ोल बजाने वाला गांव का कलाकार फैकल्टी है। विदेश से लोग उसको पूछने आ रहे हैं। ढ़ोल को सम्मान मिलने लगा है। सम्पकॅ-प्रो. (अंगरेजी) दाताराम पुरोहित 09४५६३२९०४६ drPurohit2002@yahoo.com .गढवाल विश्वविद्यालय -श्रीनगर गढवाल इस साक्षात्कार के बारे में अपनी राय दीजिएगां- juyal2@gmail.com

2 comments:

  1. sanskriti ke guldaste mein jo pushp hain vibhinn rangon ke kuchh geet sangeet,kuchh rang utsav, kuchh khan pan, kuchh lok vichar, sahitya, natya,nritya aadi aadi in sabko na kewal sanrakshan balki lok mein rachane basane ki bhi avashyakta hai. aapka prayas prashanshniy hai. apko hardik dhanyavad.

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