Monday 2 February 2009

साथी खुद खोज लिए हमनें

२ feb- DEHRADUN दिन : संडे, स्थान : सेंट जोजफ एकेडमी का हॉल. यहां हर रविवार को कुछ लोगों की भीड़ जुटती है. विभिन्न संस्थानों में कार्यरत लोग हों या फिर स्टूडेंट, यहां पर सब अपने सुख-दुख बांटते हैं. वह आपस में बातचीत करते हैं और देश-दुनिया की तमाम खबरों पर डिस्कशन करने के साथ ही खूब ठहाके लगाते हैं. इसमें सब कुछ सामान्य है. असामान्य है तो उनका मूक-बधिर होना, मतलब न वे सुन सकते हैं और न बोल सकते हैं. खुद निकाला रास्ता आप चाहें तो भी इन लोगों की महफिल का हिस्सा नहीं बन सकते. मूक बधिरों की सबसे बड़ी प्रॉब्लम होती है कम्यूनिकेशन गैप. इस समस्या से निपटने के लिए इन लोगों ने खुद हल खोज निकाला है. अब खुद को समझाने के लिए इन्हें दूसरे लोगों की जरूरत नहीं पड़ती, क्योंकि इन्होंने अपने लिए साथी खुद खोज लिए हैं. समझना है मुश्किल कहते हैं जहां शब्दों की सीमा खत्म होती है, वहीं से मनोभाव अपना काम करना शुरू कर देते हैं. जब मानव ने इस धरती पर जन्म लिया तब से लेकर आज तक एक ऐसी भाषा है जिसे दुनिया में हर जगह जाना और समझा जाता है. जी हां, वह है संकेतों की भाषा. एक मूक-बधिर व्यक्ति के मनोभावों को समझना बहुत मुश्किल होता है. आज हम आपको कुछ ऐसे लोगों से रूबरू करवाने जा रहे हैं, जो मूक-बधिर होते हुए भी एक आम जीवन जी रहे हैं. दून डेफ फ्रेंडशिप क्लब एक ऐसा ही क्लब है, जहां मूक-बधिर अपने मनोभाव एक-दूसरे से बांटने के साथ ही साइन लैंग्वेज और अंग्रेजी सीखते हैं. सौ से अधिक सदस्य क्लब की स्थापना के बारे में क्लब के सहसचिव और कोषाध्यक्ष राजेश कुमार बताते हैं कि क्लब की स्थापना 1991 में हुई थी. तब क्लब में केवल चार-पांच लोग थे. आज उनकी संख्या करीब सौ के लगभग है, जिसमें 25 से 30 इयर एज ग्रुप के लोग शामिल हैं. यहां हर संडे को मूक-बधिर लोगों के लिए क्लासेज लगती हैं, जहां मूक-बधिर युवाओं को साइन लैंग्वेज, इंग्लिश व अन्य गतिविधियों के विषय में जानकारी दी जाती है. हर रविवार को वे साढ़े दस बजे से साढ़े बारह बजे के बीच यहां मिलते हैं और एक-दूसरे को समझते हैं. संघर्ष जारी राजेश बताते हैं कि हमारी अपनी रजिस्टर्ड एसोसिएशन भी है, जिसमें उत्तराखंड के बधिर गणों की समस्याओं को सुना और समझा जाता है. हमारा मुख्य उद्देश्य मूक-बधिरों की समस्याओं विशेषकर रोजगार संबंधी प्रॉब्लम्स को दूर करना है. सरकारी मूक-बधिर स्कूल-कॉलेज व साइन लैंग्वेज को मान्यता दिलवाने के लिए हम प्रयासरत हैं. उन्होंने बताया कि हम हर साल अंतरराष्ट्रीय बधिर दिवस मनाते हैं. इसके अलावा परिचय मिलन सम्मेलन का आयोजन करवाया जाता है ताकि मूक-बधिरों को उनका सही जीवन साथी मिल सके. यहां पर हर तरह के लोग हैं, कोई सरकारी नौकरी में कार्यरत है, तो कोई स्टूडेंट है. तकरीबन सौ लोगों में 30 लड़कियां व 70 लड़के शामिल हैं. एसोसिएशन के प्रयास से तीन बधिरों को ओएनजीसी में नौकरी दिलवाई गई है. एसोसिएशन ने तीन साल पहले सरकार के खिलाफ स्ट्राइक की थी, जिसके फलस्वरूप आज 10 बधिर सरकारी सेवा में हैं. पहले बधिरों को साइन लैंग्वेज का ज्ञान नहीं हुआ करता था, इसलिए वह समाज से पूरी तरह कट जाते थे. क्लास के माध्यम से उन्हें इंग्लिश का ज्ञान कराया जाता है. क्लब की अध्यक्ष मिसेज मंजू पॉल हैं. वह पूरी तरह नार्मल हैं. उमेश ग्रोवर क्लब के सचिव हैं. सुमित जोशी, भुवन रौथाण व शशि भूषण पुंडिर यहां टीचर हैं. ये भी डेफ हैं. अदर सिटीज में भी प्रयास राजेश बताते हैं कि हमने एक ऐसा क्लब रूद्रपुर, रुड़की व विकासनगर में भी शुरू किया है. वहां पर हम हर महिने उनको साइन लैंग्वेज सिखाने जाते हैं, क्योंकि हमारी समस्याएं काफी हैं. मान्यता मिले क्लब के सलाहकार व अंतर्राष्ट्रीय प्लेयर प्रेम कुमार बताते हैं कि साइन लैंग्वेज को मान्यता मिलनी चाहिए. साइन लैंग्वेज सीखने वाले लोग केवल इंग्लिश में ही बात करते हैं. इस समय पूरे प्रदेश में लगभग 1 लाख 98 हजार सात सौ छब्बीस विकलांग हैं.