Wednesday, 7 January 2009
लोकभाषा व लोकसंस्कृति की उपेक्षा की
7jan उत्तराखंड के पृथक अस्तित्व में आने के बाद यहां और कुछ भले ही न हुआ हो, मगर आंदोलनों की एक श्रृंखला-सी चल पड़ी है। जिस संगठन या संस्था को देखिए, वही आंदोलन पर उतारू नजर आते हंै। ले-देकर रंगमंच व आंचलिक फिल्मों से जुड़े कलाकार बचे हुए थे, लगता है अब उनके भी सब्र का बांध टूट गया है। उन्होंने भी नए वर्ष में जोरदार संघर्ष का मन बनाया है। इसके लिए प्रदेश के साथ ही देश के विभिन्न महानगरों में रोजगार के लिए प्रवास कर रहे सभी कलाकार 11 जनवरी को राजधानी में एकत्र होकर आंदोलन की रणनीति पर विचार करेंगे। मुद्दा इनका भी सरकारों की बेरुखी से जुड़ा हुआ ही है, लेकिन यह बेरुखी सिर्फ कलाकारों के प्रति न होकर लोकभाषा व लोकसंस्कृति की भी है। कलाकारों ने उत्तराखंड फिल्म आर्टिस्ट वेलफेयर एसोसिएशन के बैनर तले 11 जनवरी से प्रदेशव्यापी आंदोलन छेड़ने का निश्चय किया है। इस आंदोलन में प्रदेश के साथ ही दिल्ली, मुंबई, पंजाब आदि राज्यों में प्रवास कर रहे कलाकार भी भागीदारी करेंगे। जाने-माने संगीतकार एवं एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेंद्र चौहान (दिल्ली), महासचिव प्रदीप भंडारी (मसूरी), प्रह्लाद मेहरा (हल्द्वानी), रमेश गोस्वामी (चौखुटिया) आदि बताते हैं कि प्रदेश की फिल्म एवं सांस्कृतिक नीति घोषित करने और स्थानीय भाषाओं को स्कूली पाठयक्रम में शामिल करने की मांग को लेकर कलाकारों ने 12 सितंबर 2007 को विधानसभा पर धरना तक दिया था, लेकिन इसका कोई नतीजा नहीं निकला। उनका आरोप है कि लोकसंस्कृति को बढ़ावा देने के नाम पर संस्कृति विभाग के पास चुनिंदा ट्रेडमार्क गु्रप हैं, जिनसे इतर उसकी दृष्टि ही नहीं जाती। जबकि, देखा जाए तो यही उपेक्षित कलाकार लोकभाषा, लोक संस्कृति व लोकविधाओं को बचाने का जिम्मा उठाए हुए हैं।
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