Monday, 19 January 2009

उत्तराखंड नहीं,हड़ताल प्रदेश कहिए जनाब

देहरादून आंदोलन की कोख से जन्मे उत्तराखंड में अब हड़तालों का ही राज है। हर कोई हड़ताल करने पर आमादा है। सालाना योजना के लिए उपलब्ध धन वेतन और भत्तों के मुकाबले आधा रह गया है। फिर भी वेतन बढ़ाने को कोई न कोई रोज सड़कों पर उतर रहा है। नाजुक दौर से गुजर रहे राज्य ने आंदोलन से सीख नहीं ली, बल्कि कभी राज्य के लिए सड़कों पर उतरने वाले अब निजी स्वार्थ की लड़ाई लड़ रहे हैं। हालत ये हो गए हैं कि वित्तीय वर्ष 2009-10 के लिए राज्य के नियोजन विभाग द्वारा केंद्रीय योजना आयोग को भेजे गए रिसोर्स पत्र में उत्तराखंड की वार्षिक योजना के लिए 2959 करोड़ के रिसोर्स बताए हैं। इसमें केंद्र सहायतित एवं बाह्य सहायतित मद भी शामिल हैं, जबकि वेतन और पेंशन मद 5000 करोड़ के करीब पहुंच गई है। इसके बाद भी उत्तराखंड में हड़तालें रुक नहीं रही हैं। हड़ताल की एक कॉल गई नहीं कि ब्लाक से लेकर राज्य स्तर के दफ्तरों में ताले लटक जाते हैं। इतनी प्रभावी हड़तालें शायद ही किसी राज्य में होती होंगी। आश्चर्यजनक पहलू यह है कि इतनी हड़तालों के बाद भी राज्य सरकार मूक दर्शक बनी हुई है। एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में आज भी एक व्यवस्था है कि किसी विभाग में हड़ताल होने की स्थिति में संबंधित विभाग में एक कंट्रोल रूम स्थापित हो जाता है। एक वरिष्ठ अधिकारी हड़ताल पर नजर रखता है। कंट्रोल रूम और एलआईयू से आने वाली सूचनाओं को मैच किया जाता है। ये सूचनाएं प्रशासनिक विभाग मुख्य सचिव को देता है। इस आधार पर किसी भी सूरत में नो वर्क नो पे व्यवस्था लागू की जाती है। उत्तराखंड के इतिहास में यह व्यवस्था सिर्फ एक बार कांग्रेस शासनकाल में नगर निकायों की हड़ताल में लागू की गई थी। आश्चर्यजनक पहलू यह है कि कई हड़तालें आधी अधूरी सूचनाओं पर ही हो जाती हैं। यदि संबंधित भत्ता बढ़ने की फाइल शासन में चल रही है, तब भी हड़ताल हो जाती है। यहां तक कि सरकार कुछ अधिक देना चाहती है और पता चलता है कि हड़ताल करने वाले इससे कम मांग रहे हैं, लेकिन हड़ताल करनी है क्योंकि नेतागिरी का सवाल है। एक विभाग ने हड़ताल की तो दूसरा भी कूद पड़ेगा। चिंता वेतन भत्ते या कर्मचारियों की कम नेतागिरी की अधिक है।

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