Wednesday, 5 August 2009

उत्तराखंड के रवाईं जौनपुर में प्रचलित है व्यक्ति की अंतिम यात्रा की अनूठी परम्परा

=परंपरायहां शान से होती है अंतिम विदाई --ढोल, दमाऊ व लोकवाद्यों के साथ ले जाते हैं शव को -देवदार की लकड़ी से विशेष डोली तैयार की जाती है, फूलमालाओं से की जाती है सजावट मानव जीवन में बच्चे के जन्म के बाद कई ऐसे मौके आते हैं, जब जश्न का माहौल बनता है, लेकिन जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो वह अपने पीछे मातम मनाते परिजनों, रिश्तेदारों को छोड़ जाता है। सामान्यत: जीवन के इस अंतिम सत्य को दुखदायी माना जाता है, लेकिन उत्तराखंड के सुदूरवर्ती अंचल में बसे कुछ लोगों के लिए मौत महज आंसू बहाने की वजह नहीं है। उत्तरकाशी जिले के रवांई जौनसार इलाके और टिहरी जिले के जौनपुर व में रोने-धोने की बजाय परिजन मृतक की शानदार अंतिम यात्रा निकालते हैं। मृत्यु को मनुष्य जीवन के संकटों से पीछा छूटने का जरिया मानने वाली सदियों पुरानी परंपरा के तहत यहां के लोग मृतक को पारंपरिक वाद्ययंत्रों के साथ अंतिम विदाई देते हैं। रवांई क्षेत्र के विकासखंडों पुरोला मोरी और नौगांव के पट्टी कमल सिंराई, रामा सिंराई, आराकोट, पंचगांई, बडासू, सिंगतूर, अडोर, फते पर्वत, बनाल, ठकराल, मुगरसंती, बड़कोट तथा जौनपुर की दो पट्टियों अलगाड़ व सिलवाड़ सहित जौनसार बावर क्षेत्र के कुछ भागों में रहने वाले हजारों ग्रामीण सदियों से इस परंपरा का निर्वाह करते आ रहे हैं। इसके तहत गांव के किसी की मृत्यु होने पर रोने-धोने की बजाय, उसकी शानदार अंतिम विदाई देने की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। शव के लिए देवदार की लकड़ी से खास डोली तैयार कर उसे रंग बिरंगी फूल मालाओं से सजाया जाता है। मृतक के रिश्तेदार शव के लिए कफन, धूपबत्ती आदि लाते हैं। इसके बाद शव को डोली में रखा जाता है। इस दौरान क्षेत्र के कई गांवों से दर्जनों बाजगी या जुमरिया (लोकवाद्य बजाने वाले लोग) ढोल, दमाऊ व रणसिंघा जैसे वाद्ययंत्र लेकर मृतक के गांव के बाहर एक विशेष स्थान पर इकट्ठा हो जाते हैं। गांव से शवयात्रा जब इस स्थान पर पहुंचती है, तो रिश्तेदार डोली के ऊपर रुपये उछालते हैं। जैसे ही मुख्य बाजगी यह रुपये उठाता है, एक साथ दर्जनों ढोल, नगाड़े, दमाऊ व रणसिंघा बजने लगते हैं। इसके बाद शवयात्रा शुरू होती है। रास्ते भर परिजन मृतक के हिस्से का खाद्यान्न, सेब, मूंगफली, दाल, मिर्च, अखरोट आदि बिखेरते हुए चलते हैं। मान्यता है कि यह सामग्री जानवरों व चिडिय़ों के खाने से मृतक को पुनर्जन्म तक भोज्य मिलता रहेगा। यात्रा के दौरान पूर्वनिर्धारित स्थान पर शवयात्रा को रोका जाता है। यहां डोली को रखकर मुख्य बाजगी उसके सामने एक खास कपड़ा बिछाता है। इसके बाद मौके पर मौजूद सभी बाजगी एक एक कर अपनी जोड़ी के साथ ढोल, दमाऊ, रणसिंघा आदि के वादन कौशल का प्रदर्शन करते हैं। मृतक के परिजन व शवयात्रा में शामिल अन्य लोग कपड़े पर बतौर ईनाम रुपये रखते जाते हैं। जो बाजगी जीतता है, उसे यह राशि मिलती है। इस परंपरा को पैंसारे के नाम से जाना जाता है। अंतिम संस्कार का तरीका भी बेहद खास है। डोली को श्मशान घाट लाने के बाद शव को मुखाग्नि दी जाती है। यह रस्म निभाने वाले व्यक्ति (सामान्यत: मृतक का पुत्र) को सबसे अलग एक खास स्थान पर बिठाया जाता है। इसके बाद शवयात्रा में शामिल सभी लोग एक-एक कर उसकी गोद में रुपये डालते हैं। इसे मुख दिखाई कहा जाता है। इस दौरान गांव में मौजूद महिलाएं महिलाएं गोमूत्र से घर की सफाई करती हैं। शवयात्रा के वापस लौटने पर सभी लोगों पर गोमूत्र व गंगाजल छिड़का जाता है। परंपरा के मुताबिक उस दिन बिरादरी के किसी भी घर में चूल्हा नहीं जलता, बल्कि सभी घरों से थोड़ा-थोड़ा आटा, दाल, चावल मृतक के घर पहुंचाया जाता है। सब लोग एक साथ वहीं भोजन करते हैं। इसे 'कोड़ी बेल' कहा जाता है। क्षेत्र के बुजुर्ग बालकृष्ण बिजल्वाण, खिलानन्द बिजल्वाण, जरबी सिंह, मायाराम नौटियाल, गौरीराम, केशवानंद, गोपाल सिंह नेगी, नोनियालु आदि बताते हैं कि मृत्यु जीवन का अभिन्न अंग है। ऐसे में जिस तरह बच्चे के पैदा होने पर खुशियां मनाई जाती हैं, वैसे ही मरने पर भी उसे खुशी-खुशी विदा करना चाहिए। 'मुख दिखाई' रस्म के बारे में उन्होंने बताया कि परिवार के मुखिया की अकस्मात मृत्यु होने पर परिजनों के लिए धन की व्यवस्था करने में दिक्कतें होती थीं। इसीलिए सभी के सहयोग से थोड़ी-थोड़ी राशि देकर मृतक के परिजनों की मदद की व्यवस्था की गई।

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