Thursday, 13 August 2009
-हिमालय में बहाई कथक की गंगा
-उत्तराखंड की परमिता डोभाल हैं कथक की जानी मानी नृत्यांगना
-देश ही नहीं विदेशों में भी दे चुकी हैं कई बार प्रस्तुतियां
-पौड़ी में रहकर दे रही हैं नृत्य की दीक्षा, बेटी काकुल भी है पारंगत
, पौड़ी:
उत्तराखंड अपनी विशिष्ट परंपराओं व लोकसंस्कृति के चलते विशेष पहचान रखता है। यहां के तांदी, रासों, चौंफला, पांडव आदि लोकनृत्य खास जगह रखते हैं, लेकिन यहां शास्त्रीय गीत-संगीत या नृत्यों का अधिक प्रचलन नहीं है। यही वजह है कि कथक, ओडिसी, भरतनाट्यम जैसे विश्वप्रसिद्ध नृत्यों से जनता ज्यादा वाकिफ नहीं है और इन विधाओं में पारंगत उत्तराखंडी मूल के लोग भी अंगुलियों पर गिनने लायक ही हैं। ऐसी ही एक नर्तकरी हैं, पौड़ी की परमिता डोभाल। नृत्य पृष्ठभूमि न होने के बावजूद डोभाल ने अपने समर्पण और कड़ी मेहनत के बल पर कथक में खास मुकाम हासिल किया है और अब वह हिमालय में शास्त्रीय नृत्य की गंगा बहा रही हैं।
भगवान श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला पर आधारित कथक नृत्य सामान्यतया जयपुर, बनारस और लखनऊ घरानों में खास तौर पर प्रचलित है। वर्तमान में दिल्ली इस नृत्य का बड़ा केंद्र माना जाता है, क्योंकि यहां कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय समारोहों के दौरान कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिल जाता है। उत्तराखंड की बात करें, तो यहां शास्त्रीय नृत्य तो नहीं, लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों के विशेष लोकनृत्यों का खास महत्व है। ऐसे में अगर उत्तराखंड की मिट्टी से भारत ही नहीं विदेशों में भी शास्त्रीय नृत्य की महक बिखेरने वाली कलाकार उपजे, तो यह सुखद आश्चर्य से कम नहीं है। जनपद पौड़ी की असवालस्यूं पट्टी के तंगोली गांव निवासी परमिता ऐसी ही कलाकार हैं। दिल्ली में पली-बढ़ी परमिता का रुझाान बाल्यकाल से ही शास्त्रीय नृत्यों की ओर था। इसके लिए उन्होंने पूर्ण समर्पण भी दिखाया, तो परिजनों का भी पूरा सहयोग मिला। परमिता ने राष्ट्रीय बाल भवन दिल्ली से 'फैकल्टी आफ परफार्मिंग आर्ट' की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय मुंबई से संगीत का विधिवत प्रशिक्षण लिया साथ ही पश्चिम कला केंद्र, चंडीगढ़ से विशारद की उपाधि भी हासिल की।
उनके जीवन को सही दिशा तब मिली, जब उन्होंने दिल्ली स्थित 'नेशनल इंस्टीट्यूट आफ कथक डांस' में प्रवेश लिया। यहां तीन साल तक गुरू गीतांजलि से कथक के विधिवत प्रशिक्षण ने उनके जीवन को इस नृत्य के प्रति पूरी तरह समर्पित कर दिया। यहीं से प्रतिभा को विभिन्न अवसरों पर अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका भी मिला। उन्होंने 1988 में मास्को में आयोजित भारत महोत्सव में कथक प्रस्तुत किया। इसके बाद श्रीलंका व जर्मनी में भी कथक की प्रस्तुतियां दीं। इनके अलावा परमिता ने दिल्ली, कानपुर व लखनऊ नृत्य महोत्सवों में कथक नृत्य प्रस्तुत करने के साथ ही स्वर्गीय महाराज कृष्ण कुमार के निर्देशन में भी नृत्य किया। वर्ष 2000 में जयपुर कथक केंद्र की ओर से आयोजित नृत्य प्रतिभा कार्यक्रम, 2001 में दिल्ली संगीत नाटक अकादमी के स्वर्णोत्सव, पहली गढ़वाली फिल्म जग्वाल, 1999 में सुनामी पीडि़त चैरिटी शो, 2000 में पौड़ी शरदोत्सव, 2004 में संगीत नाटक अकादमी की ओर से स्वर्ण प्रतिभा और 2007 में विश्व पर्यावरण दिवस पर श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित कार्यक्रमों में नृत्य प्रस्तुतियां डोभाल के सफर को दर्शाती हैं।
परमिता वर्ष 2005 में 'गढ़वाल के लोक नृत्यों का कथक नृत्य पर प्रभाव' विषय पर पर्यटन व संस्कृति मंत्रालय से फेलोशिप भी ले चुकी हैं। परमिता बताती हैं कि गढ़वाली लोकनृत्यों व कथक के बीच करीबी संबंध है। गढ़वाली लोकनृत्यों व कथक में प्रयुक्त वाद्ययंत्र एक जैसे हैं, जबकि ताल भी समान होती हैं। इतना ही नहीं, परमिता का दावा है कि गढ़वाली संस्कृति का अभिन्न अंग 'ढोल-दमाऊ' का परिष्कृत रूप ही तबला बना है।
वर्ष 1991 में पौड़ी निवासी चंद्रमोहन डोभाल के साथ विवाह के बाद परमिता पौड़ी आ गईं। वह उत्तराखंड में भी इस शास्त्रीय नृत्य को प्रचारित करना चाहती हैं। इसके लिए करीब पांच वर्ष पूर्व उन्होंने पौड़ी स्थित अपने आवास पर ही शास्त्रीय नृत्य केंद्र शुरू किया है। अपनी विरासत को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी पुत्री काकुल को भी प्रशिक्षण दिया है। इसके अलावा अन्य कई बच्चे उनसे प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। 38 वर्षीय परमिता कहती हैं कि कथक ही उनकी जिंदगी है, इसके लिए वह हमेशा समर्पण, निष्ठा भाव से जुटी रहेंगी।
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