Wednesday, 5 August 2009

=अनूठी है उत्तराखंड की रक्षासूत्र परंपरा-

-टिहरी व उत्तरकाशी जिले के अंचलों में डेढ़ दशक से चली आ रही है परंपरा -चंदन, कुमकुम, धूप से उतारी जाती है पेड़ों की आरती, बांधी जाती है राखी -इस रक्षाबंधन पर उत्तरकाशी से की जाएगी वृक्षों को कटने न देने के अभियान की शुरुआत उत्तरकाशी: वृक्ष धरा के आभूषण होते हैं, एक वृक्ष सौ पुत्र समान, और ऐसे ही कई नारे देने के बावजूद जहां वन विभाग व सरकारी की पर्यावरण संरक्षण की तमाम कवायदें विफल नजर आती हैं, वहीं उत्तरकाशी के ग्रामीण अंचलों में एक परंपरा के तहत आम जनता पेड़ों के संरक्षण की मुहिम में जुटे हुए हैं। हर साल रक्षाबंधन के मौके पर यहां की महिलाएं व पुरुष चंदन, कुमकुम, धूप आदि से पेड़ों की आरती उतारते हैं और फिर उन्हें राखी बांध उनके संरक्षण का संकल्प लेते हैं। खास बात यह कि एक संस्था की पहल पर करीब 15 साल पूर्व शुरू हुआ यह अभियान अब वार्षिक परंपरा का रूप ले चुका है। वर्ष 1993 में तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने वन महकमे को निर्देशित किया था कि एक हजार मीटर से अधिक ऊंचाई के स्थानों में लगे चीड़ के पेड़ों को काट कर उनके स्थान पर अन्य प्रजाति के पेड़ लगाए जाएं। इसके बाद चीड़ की आड़ में माफियाओं ने उत्तराखंड में देवदार, बांज, बुरांश, मोरु आदि जीवनदायी पेड़ों का सफाया करना शुरू कर दिया। जंगलों का अंत होते देख हिमालय पर्यावरण शिक्षा संस्थान की प्रेरणा से जनपद टिहरी के दाल व खवाड़ा गांव की महिलाओं ने रयाला के जंगल में पेड़ों को राखी बांधी और कटान में जुटे करीब पांच सौ मजदूरों को वहां से खदेड़ दिया। टिहरी के बाद यह अलख उत्तरकाशी जनपद के ग्राम भड़कोट, चौरंगी, दिखोली गांवों में भी जगी और यहां भी महिलाओं ने भी पेड़ों को रक्षा बंधन पर राखी बांधने का संकल्प लिया। वर्ष 1994 में हर्षिल क्षेत्र में बसंती नेगी के नेतृत्व में महिलाओं ने पेड़ों को रक्षा सूत्र बांध कर उन्हें संरक्षित करने का संकल्प लिया। इससे पूर्व यहां सैकड़ों देवदार के पेड़ काटे गए थे। परिणाम यह रहा कि तत्कालीन प्रभागीय वनाधिकारी समेत वन विभाग के 121 कर्मचारी निलंबित कर दिए गए। इसके बाद से इन गांवों की महिलाओं के बीच रक्षाबंधन के दिन थाली में धूप, दीप और मिष्ठान सजाकर पेड़ों की आरती के बाद उन्हें राखी बांधने की परंपरा चल पड़ी। अब उत्तरकाशी में लोहारीनाग-पाला व पाला-मनेरी जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के लिए इन दिनों पेड़ों का बड़ी संख्या में कटान किया जा रहा है। इससे दुखी स्थानीय महिलाओं ने इस रक्षाबंधन से दोबारा अभियान की शुरुआत का संकल्प लिया है। हिमला उनियाल, प्रेमा बधाणी, सरिता नेगी, सरोजनी, विजया नौटियाल समेत अन्य महिलाओं ने बताया कि अपने-अपने गांवों में पेड़ों पर राखी बांध वे 'भाई' के जीवन की रक्षा करेंगी। उधर, रक्षासूत्र आंदोलन के जनक सुरेश भाई कहते हैं कि परियोजनाओं के लिए पेड़ काटने के कारण समूचे पहाड़ की पारिस्थितिकी पर बुरा असर पड़ रहा है। ऐसे में उत्तराखंड़ के सभी गांवों में रक्षासूत्र आंदोलन की अलख जगाई जाएगी। --------- अनूठी है उत्तराखंड की रक्षासूत्र परंपरा -राखी पर्व पर कुल पुरोहित बांधते हैं यजमानों को रक्षासूत्र -आज भी ग्रामीण अंचलों में पर्व से कई दिन पहले जुट जाते हैं ब्राह्मण तैयारियों में नई टिहरी, जागरण कार्यालय: यूं तो रक्षाबंधन पर्व भाई-बहन के प्यार की निशानी माना जाता है, लेकिन उत्तराखंड में इसके अलावा इस त्योहार का एक दूसरा पक्ष भी है। पहाड़ में सदियों से चली आ रही परंपरा के मुताबिक गांवों में कुल पुरोहित राखी के दिन अपने सभी यजमानों के यहां जाते हैं और उन्हें रक्षासूत्र बांधकर उनकी सुख, समृद्धि की कामना करते हैं। हालांकि, गांवों के शहरीकरण होने का प्रभाव इस परंपरा पर दिखाई देने लगा है, लेकिन आज भी कई जगह पुरोहित व यजमान इसका अनवरत निर्वाह करते आ रहे हैं। देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तराखंड में राखी का त्योहार नजदीक आने पर सिर्फ बहनें ही अपने भाई की कलाई पर राखी बांधने का इंतजार नहीं करतीं, बल्कि ग्रामीण अंचलों में रहने वाले ब्राह्मण भी इसकी प्रतीक्षा करते हैं। दरअसल, इस दिन वे अपने यजमानों को रक्षासूत्र बांधते हैं। लोक मान्यता के अनुसार देव-असुर संग्राम में हार के बाद जब देवराज इंद्र दोबारा युद्ध पर निकले, तो उनकी पत्नी इंद्राणी ने रक्षासूत्र तैयार करवाया और श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन उसे ब्राह्मण से बंधवाने को कहा। इसके बाद उन्हें विजय प्राप्त हुई। तब से सुख, समृद्धि व मंगलकामना के लिए ब्राह्मण से रक्षा सूत्र बंधवाने की परंपरा चल पड़ी। अब भी उत्तराखंड के गांवों में इस परंपरा का बखूबी निर्वाह किया जा रहा है। ग्रामीण अंचलों में किसी भी परिवार में बहन भाई के हाथ पर तब तक राखी नहीं बांधती, जब तक परिवार के कुल पुरोहित घर में आकर सभी सदस्यों को रक्षासूत्र नहीं बांध देते। इस दौरान पुरोहित यज्ञोपवीत संस्कार करा चुके पुरुषों को अभिमंत्रित जनेऊ पहनाते हैं। हालांकि, शहरीकरण के बढ़ते प्रभाव का असर इस परंपरा पर दिखने लगा है, लेकिन अब भी हर साल रक्षाबंधन पर्व के लिए ग्रामीण अंचलों में ब्राह्मण कुछ दिन पहले से ही तैयारी में जुट जाते हैं। बाजार से खास धागा लाकर जनेऊ व रक्षासूत्र तैयार किया जाता है। इसके बाद पुरोहित सभी रक्षासूत्रों की विधिवत मंत्रोच्चारण के साथ जौ, चावल, गंगाजल आदि से रक्षासूत्र व जनेऊ को पवित्र करता है। राखी के दिन पुरोहित अलसुबह ही अपने घर से निकल पड़ता है और एक-एक कर अपने यजमानों के घर पहुंच उन्हें रक्षासूत्र बांधता जाता है। हालांकि बदलते वक्त के साथ इस परंपरा पर भी आधुनिकता हावी होती दिखने लगी है। अब पुरोहित भी बाजार से ही जनेऊ व रक्षासूत्र खरीदकर यजमानों को देने लगे हैं। स्थानीय पुरोहित बालकराम उनियाल कहते हैं कि प्राचीन काल में आश्रमों में पढ़ाने वाले ऋषि-मुनि आसपास के गांवों में जाकर यजमानों को रक्षा सूत्र बांधते थे, बदले में उन्हें दान-दक्षिणा मिलती थी। वर्ण व्यवस्था के तहत ब्राह्मणों को गुरू माना गया। इसके बाद उनके द्वारा रक्षा सूत्र बांधने की परंपरा चल पड़ी। पंडित उनियाल ने कहा कि परंपराओं के निर्वहन को समाज के सभी वर्गों को एकजुट होना चाहिए। --------- रक्षाबंधन पर गूंजती हैं वैदिक ऋचाएं -गुरुकुल शिक्षा पद्धति में श्रावण मास की पूर्णिमा से होता है वेदारंभ -विधानपूर्वक गुरु शिष्यों को धारण कराते हैं ब्रह्मगांठ का यज्ञोपवीत पुष्कर सिंह रावत, हरिद्वार: रक्षाबंधन जहां भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक है, वहीं यह दिन शुक्ल यजुर्वेदी ब्राह्मणों के लिए श्रावणी पर्व के रूप में विशेष महत्व रखता है। इसी दिन से ब्राह्मण परिवारों के वेदपाठी वेदारंभ करते हैं। प्राचीनकाल से ही गुरुकुलीय परंपरा की वाहक तीर्थनगरी के विभिन्न संस्कृत महाविद्यालयों, मठों व आश्रमों में इस दिन नन्हें-मुन्ने छात्रों के मुखों से वैदिक ऋचाएं निकलनी शुरू होती हैं। प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के अनुसार रक्षाबंधन से एक माह पहले गुरु पूर्णिमा पर शिष्य गुरु की पूजा करते हैं। इसके बाद एक माह तक उन्हें आचार विचार की शिक्षा दी जाती है। श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन के दिन से उनकी वेद पढऩे की दीक्षा आरंभ होती है। तीर्थनगरी में विभिन्न संस्कृत विद्यालयों में इसे पूरे विधानपूर्वक शुरू किया जाता है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले हिमाद्री संकल्प लिया जाता है। इसमें भूमंडल के विस्तार वन, पर्वत, अरण्य, सागर, भूमि, वायु, सप्तपुरियों तथा प्राचीन भारत यानी आर्यावर्त के सभी प्रांतों के नामों समेत मुक्ति के लिए एक वर्ष में किए पापों व अपराधों का वर्णन भी होता है। इसके बाद सप्तर्षियों का पूजन व मंडल ब्राह्मण (सप्तऋषियों की वंशावली) का पाठ किया जाता है। पाठ पूरा होते ही गुरु शिष्यों को तीन ग्रंथी यज्ञोपवीत, जिसे ब्रह्मगांठ का यज्ञोपवीत भी कहा जाता है, धारण कराते हैं। पूरे विधानपूर्वक किए जाने वाले इस कार्य में करीब छह घंटे लगते हैं। तीर्थनगरी में गुरुकुलीय शिक्षा के प्रमुख केंद्र गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर, भगवतधाम, भगवानदास संस्कृत महाविद्यालय आदि में श्रावणी पर्व परंपरागत रूप से मनाया जाता है। गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य डा. हरिगोपाल शास्त्री ने बताया कि श्रावणी पर्व पर वेदारंभ की परंपरा का निरंतर निर्वाह किया जा रहा है। इसमें वेदपाठियों को पढऩे का तरीका बताने के साथ ही उच्चारण की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया जाता है। सभी वर्गों को रक्षा सूत्र धारण कराते हैं ब्राह्मण हरिद्वार: अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सोसायटी के निदेशक डा. प्रतीक मिश्रपुरी के मुताबिक उत्तर भारत के ब्राह्मण शुक्ल यजुर्वेदी ब्राह्मण कहलाते हैं। वहीं दक्षिण भारत में सामवेदी ब्राह्मण होते हैं। शुक्ल यजुर्वेदी ब्राह्मण श्रावण मास की पूर्णिमा को समाज के सभी वर्ग के लोगों को रक्षा सूत्र धारण कराते हैं। तीर्थनगरी में इस तिथि पर प्राचीन काल से ही हर की पैड़ी पर तीर्थपुरोहित एकत्र होकर अनुष्ठान करते आ रहे हैं। सामवेदी ब्राह्मण भाद्रपद मास की अमावस्या के दिन इस विधान का निर्वाह करते हैं। लेकिन इस बार 23 अगस्त को हरतालिका तीज पर इस विधान का निर्वहन करेंगे।

1 comment:

  1. hello sir i like the way u r wotking for our uttranchal/ uttrakhand/ u.k.
    thanks to all of ur supporter and u
    have a nice day by take care

    ReplyDelete