Tuesday, 25 August 2009
तीस साल बाद जब मैं वापस आया... विद्यासागर नौटियाल
२९ सितंबर, १९३३ को टिहरी गढ़वाल रियासत के गांव माली देवल में जन्मे विद्यासागर नौटियाल हिंदी कहानी के समकालीन परिदृश्य में सबसे सामथ्र्यवान वरिष्ठ कथाकारों में से एक हैं। उनकी ज्यादातर कहानियों में पहाड़ी जीवन का मार्मिक चित्रण है। लेकिन इस बहाने वे अन्याय और शोषण के वैश्विक घालमेल को रेखांकित करते चलते हैं और उसकी पुरजोर मुखालफत करते हुए नजर आते हैं। 'टिहरी की कहानियां', 'सुच्ची डोर', 'फुलियारी', 'फट जा पंचधार' जैसे कहानी संग्रहों और 'भीम अकेला', 'सूरज सबका है', 'उ8ार बायां है', 'झांड से बिछुड़ा', 'यमुना के बागी बेटे' जैसे उपन्यासों से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाले नौटियाल की बहुत सी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। 'देशभ1तों की कैद में' और 'मोहन गाता जाएगा' जैसी उनकी आत्मकथात्मक कृतियों का भी साहित्य जगत में खूब स्वागत हुआ है। पहल और अखिल भारतीय वीर सिंह देव जैसे पुरस्कारों से स6मानित नौटियाल जी की प्रसिद्ध कहानी 'सोना' पर चर्चित फिल्म भी बन चुकी है। नौटियाल जी की पहचान एक राजनीतिज्ञ की भी है। उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में टिहरी रियासत के खिलाफ सतत आंदोलन किया। चिपको आंदोलन के जन्मदाताओं में एक रहे। कई ट्रेड यूनियनों के अध्यक्ष भी बने। १९८० में वे टिहरी गढ़वाल के देवप्रयाग क्षेत्र से उप्र विधान सभा सदस्य भी निर्वाचित हुए। उनसे हुई मुलाकात का ब्योरा :
कथाकार और कामरेड विद्यासागर नौटियाल की लेखनी की गति उम्र के साथ-साथ ही तेज होती जा रही है। राजनीतिक जि6मेदारियों के चलते कुछ समय लेखन से दूर हो जाने की भरपाई वे जल्द से जल्द कर लेना चाहते
छिहत्तर साल की उम्र में भी आप साहित्य के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय हैं। आपके भीतर वह कौन सी जीवनी श1ित है, जो लगातार आपसे काम करवा ले जाती है?------
राजनीति में सक्रिय होने और वकालत के पेशे से जुडऩे के बाद मुझो इतना अवकाश नहीं मिला कि साहित्य में काम करता रहूं। मेरी पहली कहानी 'भैंस का कट्या' है, जो १९५४ में तब की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका 'कल्पना' में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी ने मुझो साहित्य जगत में पहचान दे दी थी। १९६० तक मैं लिखता रहा। तब मैं बनारस में था। इसके बाद मैंने अपनी मातृभूमि वापस लौटने का फैसला कर लिया। सक्रिय राजनीति से जुडऩे के बाद मुझो इतना समय ही नहीं मिला कि साहित्य के लिए कलम उठा सकूं। तीस साल तक कुछ नहीं लिखा। लेकिन इस बीच आदमी नाम के जानवर का बारीकी से अध्ययन करता रहा। इधर मैं तेजी से काम कर रहा हूं ताकि इन तीस वर्षों की कसर थोड़ी बहुत तो पूरी कर सकूं।
हाल ही में लघु पत्रिका 'आर्यकल्प' ने कथाकार महेश दर्पण के अतिथि संपादन में आप पर एक विशेषांक निकाला है। इस अंक को पढऩे के बाद आपकी स्मृति में कुछ ऐसी बातें कौंधी होंगी, जिन्हें आप विस्मृत कर चुके होंगे। आपने १९६० तक के बनारस को कितनी शिद्दत से याद किया? ----------------
इस अंक में विजय मोहन सिंह का लेख मुझो अतीत में खींच ले गया। अंदाजा नहीं था कि वे मुझो इतने नजदीक से देखते रहे। सूर्यकुमार तिवारी का आलेख पढ़कर आश्चर्य में डूब गया। कुल-मिलाकर मैं रिफ्रेश हुआ हूं यह अंक पढ़कर। निश्चित रूप से मैं बनारस की यादों में डूबा और उतराया। बहुत सी बातें कौंधी।
ऐसा कम हुआ है कि कोई लेखक राजनीति से जुड़े और अपना लेखन स्थगित कर दे। आप पीछे पलटकर देखते हैं, तो ऐसा नहीं लगता कि लेखन को भी थोड़ा समय देना चाहिए था?------------
ऐसा संभव ही नहीं था। मैंने आज के राजनीतिज्ञों की तरह जनता से बर्ताव नहीं किया। मैंने लगातार दुर्गम यात्राएं कीं। जनता के संघर्ष में सक्रिय भागीदारी की। राजशाही के खिलाफ लड़ाई आसान नहीं थी। कई बार भूमिगत हो जाना पड़ता था। मैं १९६० से १९९० तक सुबह से शाम तक देहातों में पैदल यात्रा करता था। ऐसे में लिखने का समय किसी भी विधि नहीं मिल पाता था। लेकिन इस बीच मुझो बहुत सारे अनुभवों से गुजरने का मौका मिला। १९९० में 'फट जा पंचधार' से कथा जगत में मेरी वापसी हुई। यह कहानी हंस में छपी थी। इस कहानी को आम पाठकों और आलोचकों दोनों ने ही बहुत सराहा।
आप तीस साल साहित्य से दूर रहे। इस बीच की साहित्यिक गतिविधियों की जानकारी भी आपको नहीं मिली। कई महत्वपूर्ण कहानियों और उपन्यासों से आप अपरिचित रहे। 1या साहित्य में लौटने के बाद आपने इस कमी को पूरा करने की कोशिश की?-----
यह काम आसान नहीं था। तीस साल कम नहीं होते। साहित्य में लौटने के बाद मैंने अपना लेखन शुरू कर दिया था। मैं जीवन के उन अनुभवों से लबालब था, जो किसी और के पास नहीं थे। मैं अपनी रचनाओं में इन्हें पिरोने के लिए व्यग्र था। ऐसे में मेरे पास समय नहीं था कि मैं सैकड़ों किताबों के अध्ययन के लिए चाहते हुए भी व1त निकाल सकूं।
आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी आपको प्रेमचंद की परंपरा से जोड़कर देखते हैं...
प्रेमचंद ने अपने साहित्य में उसे हीरो बनाया, जो उपेक्षित या वंचित है। मैंने भी यही किया। बहुत सारे कथाकारों ने यह किया। प्रगतिशील लेखन की यही परंपरा है। इस परंपरा से जुड़कर ही मैं थोड़ा बहुत सार्थक लिख पाया हूं। लेकिन यह दौर बहुत खतरनाक है। आज प्रेमचंद होते, तो सिर पीट लेते। आम हिंदुस्तानी का आज जैसा मानसिक शोषण हो रहा है, वह भयभीत करने वाला है।
अमर कथाशिल्पी रेणु पर आपके विचार लोगों को चकित करते हैं। 1यों आपको रेणु की रचनाएं आकर्षित नहीं करतीं और 1यों आप उनकी रचनाओं को कमतर मानते हैं?--------
मुझो रेणु की रचनाएं इसलिए आकर्षित नहीं करतीं, 1यों कि उनकी सारी रचनाओं में कीमियागिरी बहुत ज्यादा है। शिल्प पर उनका बहुत ज्यादा ध्यान दिखाई देता है। उनकी रचनाएं र6य हैं, लेकिन जीवन की बारीकी उनमें काफी कम देखने में आती है। रेणु उल्लेखनीय कथाकार हैं, लेकिन उनके यहां जीवन समग्र रूप में नहीं है। रेणु पर फ्रायड का बहुत प्रभाव है और उनमें अमेरिकन कथाकारों की विचारधारा साफ दिखाई देती है। उनकी तुलना में शैलेश मटियानी अद्भुत रचनाकार हैं। उन्हें आलोचकों ने एक कोने में डाल दिया है। मेरी समझा में वे रेणु से बड़े कथाकार हैं। मैं अमरकांत और शेखर जोशी को भी बड़ा रचनाकार मानता हूं। शेखर जोशी का भी अभी सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। उनकी कहानी 'कोसी का घटवार' 'गुलेरी की कृति' 'उसने कहा था' के बाद दूसरी सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानी है।
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