Monday, 10 August 2009
गोपीनाथ मंदिर: कभी पूजा कराते थे रावल
-दक्षिण भारत के जंगम गोसाईं रावलों पर था गोपेश्वर स्थित मंदिर की पूजा का दायित्व
-कुल 326 रावलों ने निभाई यह जिम्मेदारी
-आज भी मौजूद हैं कई रावलों की समाधियां
गोपेश्वर:
उत्तराखंड देवभूमि के तौर पर तो जाना ही जाता है,
यहां की सांस्कृतिक विरासत व धार्मिक मान्यताएं देश को एकसूत्र में पिरोने वाली भी हैं। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड में स्थित भगवान श्री बदरीनाथ व केदारनाथ की पूजा-अर्चना का जिम्मा सदियों पुरानी व्यवस्था के तहत आज भी दक्षिण भारतीय पुजारी 'रावलों' पर ही रहता है। उत्तराखंड के अन्य प्रमुख मंदिरों में अब भले ही स्थानीय पुजारी ही यह दायित्व संभालते हैं, लेकिन ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि कभी इनमें भी रावल ही यह कार्य करते थे। ऐसा ही एक मंदिर है गोपेश्वर स्थित गोपीनाथ मंदिर, जहां कभी दक्षिण भारतीय पुजारी रहा करते थे।
उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में भगवान शिव के पांच स्वरूप पंचकेदार के रूप में स्थित हैं। इनमें से चतुर्थ केदार भगवान रुद्रनाथ की शीतकालीन गद्दी गोपेश्वर के गोपीनाथ मंदिर में है। हर वर्ष कपाट बंद होने के बाद भगवान रुद्रनाथ की पूजा यहीं की जाती है। व्यवस्था के तहत केदारनाथ का रावल एक साल केदारनाथ में व फिर अगले साल मदमहेश्वर में पूजा संपन्न कराता है। उसी तरह रुद्रनाथ के रावल ही गोपीनाथ में पूजा कराते थे। मंदिर से मिली जानकारी के मुताबिक गोपीनाथ में वर्ष 1928 तक लिंगायत प्रथा के तहत दक्षिण भारतीय जंगम गोसाईं रावल यहां पूजन करते थे। इन रावलों की सूची श्री श्री 1008 नीलकंठ लिंग ने तैयार करवाई थी। इसका उल्लेख गढ़वाल नरेश के वजीर की लिखी एक पुस्तक में भी मिलता है। इतना ही नहीं, मंदिर में रावलों की समाधियां भी हैं। रावलों की ये समाधियां केदार हिमालय के इन पांचों केदारों में रावल जंगम गोसाईं पंरपरा की साक्षी हैं। केदारनाथ व मदमहेश्वर में आज भी लिंगायत प्रथा विद्यमान है, यहां कर्नाटक के लिंगायत आज भी प्रमुख पुजारी हैं, लेकिन ये रावल श्री बदरीनाथ के रावल की भांति शुद्ध नैष्ठिक ब्रह्मचारी नहीं होते हैं, जबकि रुद्रनाथ व तुंगनाथ में यह परंपरा गायब हो गई है। उधर, कल्पेश्वर में भी जंगम गोसाईं ही पूजा करते हैं, हालांकि वे अब खुद को भल्ला नेगी कहते हैं। उल्लेखनीय है कि सम्वत 1833 विक्रमी में टिहरी राज दरबार ने श्री बदरीनाथ के पुजारी नैष्ठिक ब्रह्मचारी नम्बूदिरीपाद को रावल की उपाधि से विभूषित किया था। इसके बाद केदारधाम के पुजारियों को भी रावल कहा जाने लगा।
रावल व जंगम गोसाईं में अंतर यह है कि रावल अविवाहित होते हैं, जबकि जंगम गोसाईं गृहस्थ जीवन जीते हैं। सन 1929 में रावलों के पूजा प्रबंधन में लापरवाही बरतने पर स्थानीय लोगों ने बदरीनाथ के ब्रह्मचारी रावलों के हाथ व्यवस्था दे दी। इसके बाद 20 जून 1929 को कुमाऊं कमिश्नर के निर्णय के बाद रुद्रनाथ की प्रबंध व्यवस्था को केदारनाथ से हमेशा के लिए अलग कर दिया गया। वर्ष 1929 में ही ब्रिटिश शासनकाल में गोपेश्वर व रुद्रनाथ की पूजा के लिए नंबूदिरी रावल गोपाल ब्रह्मचारी की नियुक्ति की गई, लेकिन वह कुछ समय बाद ही यहां से चले गए। वर्तमान में गोपीनाथ व रूद्रनाथ मंदिर में मुख्य पुजारी गोपेश्वर के गांव के भट्ट व तिवारी लोग हैं।
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गोपीनाथ मंदिर में रहे रावलों का विवरण
गोपेश्वर: गोपीनाथ मंदिर में सन 1928 तक कुल 326 रावल रहे। यहां पर सबसे पहले रावल भुकुण्ड लिंग उसके बाद गणेश लिंग, सोम लिंग, हर लिंग, वीर लिंग, इसके बाद जयलिंग शिवाचार्य, विश्वनाथ लिंग जी महाराज, शांतिलिंग जी महाराज,सिद्धेश्वरलिंग जी महाराज व अंत में भीमाशंकर लिंग जी महाराज प्रख्यात रावल रहे।
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