Monday, 31 August 2009
-35 ग्राम सभाओं को विस्थापन का इंतजार
-रुद्रप्रयाग में त्रासदी के दस वर्ष बाद भी 300 परिवारों का नहीं हो सका विस्थापन
-सरकार ने पचीस हजार देकर पल्ला झााड़ा
रुद्रप्रयाग, आपदा की दृष्टि से अति संवेदनशील जिले की पैंतीस ग्राम सभाओं को त्रासदी के दस वर्ष बीत जाने के बाद भी
विस्थापन का इंतजार है। दैवीय आपदा पीडि़त करीब तीन सौ परिवार खुद को मझाधार में खड़ा महसूस कर रहे हैं। जहां तक सरकारी प्रयासों का सवाल है, तो सहायता के नाम पर ग्रामीणों को पचीस हजार की धनराशि देकर इतिश्री कर दी गई, लेकिन विस्थापन के लिए अब तक भूमि का चयन नहीं किया जा सका है। इतना ही नहीं, कई मामलों में पीडि़तों को महज साढ़े सात हजार रुपये ही दिए गए हैं।
उल्लेखनीय है कि जिले में वर्ष 1998- 99 व 2001 में हुए भूस्खलनों ने ऊखीमठ विकासखंड के जुगासू, सरुणा बल्ला, गणगू, पिलौजी, खोनू, बेडूली, जग्गी बगवान, कालीमठ, स्यासू, ब्यूखी, रासी, कुणजेठी, कोटमा, उनियाणा, राऊलेक, सारी, सल्लू, रोडू ग्राम सभाओं को खासा नुकसान पहुंचाया था। इससे इन गांवों के 1564 परिवारों के अस्तित्व पर संकट गहरा गया था। इसके बाद वर्ष 2001 में ग्यारह ग्राम पंचायतों के 1300 परिवार भी भूस्खलन की जद में आए।
इन सभी गांवों का केंद्र व राज्य सरकार की ओर से सर्वे कराया गया। इसमें 35 ग्राम सभाओं को भूस्खलन की दृष्टि से अतिसंवेदनशील घोषित कर इनके विस्थापन को जरूरी बताया गया था। इसके लिए जिला प्रशासन ने भूमि चयन की प्र्रक्रिया पूरी कर शासन को भेज दी, लेकिन एक दशक से अधिक समय बीतने के बाद भी ग्रामीण मौत के साए में जीने को विवश हैं।
विस्थापन की बात करें, तो आज तक सरकार की ओर से भूमि का चयन नहीं किया गया। अलबत्ता विस्थापन के नाम पर इन परिवारों को पचीस हजार रुपये दिए गए हैं, जबकि कई परिवार ऐसे हैं, जिन्हें मुआवजा भी नहीं मिला है। ग्यारह ग्राम पंचायतों के बाशिंदों को तो मात्र साढ़े सात हजार रुपये ही मिल पाए हैं।
बरसात के समय तो यहां के ग्रामीण कई रातें बिन सोए ही गुजारते हैं। भूस्खलन की संभावना हर समय यहां के लोगों को सताती रहती है। लगभग दो वर्ष पूर्व प्रदेश सरकार ने भूकंप पीडि़तों के लिए दो करोड़ से अधिक मुआवजे की धनराशि दी, लेकिन यहां भी आधा से अधिक पीडि़तों तक यह राशि नहीं पहुंच सकी, इससे पीडि़तों में मायूसी है। दूसरी ओर, जखोली विकासखंड की चार ग्राम पंचायतें पांजणा, सिरवाड़ी, मखैत, घरणा भी भूस्खलन की जद में हैं।
:पार्वती हुईं 105 साल की
-बीमारी उनके करीब तक नहीं फटकी
-कभी नहीं देखा अस्पताल का दरवाजा
-56 पोते-पड़पोते वाली हैं पार्वती भट्ट
पिथौरागढ़: देश में औसत आयु 56 वर्ष है, इसके बावजूद कई लोग हैं जो बगैर किसी चिकित्सकीय मदद के शतायु पूरी कर रहे हैं। ऐसे ही लोगों में शुमार हैं सीमांत जिले के बिण गांव की पार्वती भट्ट। इन्होंने रविवार को 105वें वर्ष में प्रवेश कर लिया। प्रदेश के पेयजल मंत्री प्रकाश पंत ने घर पहुंचकर उनका हाल चाल जाना।
सत्तर-अस्सी वर्ष की उम्र में जहां लोगों के सुनने, देखने की क्षमता प्रभावित हो जाती है, वहीं पार्वती भट्ट की सुनने और देखने की क्षमता आज भी बरकरार है। अपनी दिनचर्या वे खुद ही पूरी कर लेती हैं, इसके लिए उन्हें किसी के सहारे की जरूरत नहीं पड़ती। नाती-पोतों से भरे पूरे परिवार में रह रहीं पार्वती ने आज तक जिला चिकित्सालय का दरवाजा नहीं देखा। उनकी इच्छा एक बार जिला चिकित्सालय देखने की है। बीमारी उनके करीब तक नहीं फटकी, इसलिए कभी अस्पताल जाने की उन्हें जरूरत ही महसूस नहीं हुई। स्वस्थ शतायु का राज वे संतुलित आहार और संयमित व्यवहार बताती हैं। खासकर शाकाहार ने उन्हें लम्बी उम्र बख्शी। अपने समय में आम गृहणियों की तरह वे घरेलू कामकाज भी निपटाती रही हैं। पार्वती भट्ट के तीन लड़के और तीन लड़कियोंं में दो की मृत्यु हो चुकी है। उनकी एक बहू भी अब इस दुनिया में नहीं है। पार्वती भट्ट के 56 पोते और पड़पोते हैं। उनकी सबसे छोटी साठ वर्षीय पुत्री कमला कलपासी बताती हैं कि वे हर रोज दो घंटे अपनी मां के साथ बिताती हैं। उनके पिता का निधन 58 वर्ष पूर्व तब हो गया था जब वे दो वर्ष की थीं। पिता सेना में तैनात थे, उनकी पेंशन आज भी पार्वती देवी को मिलती है।
Sunday, 30 August 2009
एसएसबी जवानों के लिए वर्दी सिलेंगी पहाड़ की महिलाएं
-नाबार्ड व एसएसबी की संयुक्त पहल
पिथौरागढ़: पहाड़ों की महिलाओं को स्वरोजगार से जोडऩे के लिए राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक(नाबार्ड) और सशस्त्र सीमा बल(एसएसबी) ने संयुक्त पहल शुरू कर दी है। इसके तहत सुदूरवर्ती ग्रामीण महिलाओं को सिलाई का प्रशिक्षण दिया जायेगा। प्रशिक्षित महिलाएं एसएसबी जवानों के लिए वर्दियां सिलेंगी।
दो माह के सिलाई प्रशिक्षण की शुरुआत शनिवार को धारचूला तहसील के घाटीबगड़ क्षेत्र में एसएसबी के डिप्टी कमाडेंट बी विक्रमन ने की। उन्होंने कहा यह प्रशिक्षण घाटीबगड़ क्षेत्र की महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने में सहायक होगा। उन्होंने कहा एसएसबी महिलाओं को केवल सिलाई का प्रशिक्षण ही नहीं देगी, बल्कि उन्हें जवानों की वर्दियां सिलने का काम भी उपलब्ध करायेगी, इससे महिलाओं को घर पर ही रोजगार के अच्छे अवसर मिल सकेंगे और उनकी आमदनी बेहतर होगी। इस अवसर पर उप क्षेत्र संगठक अजय उनियाल ने कहा महिलाएं समूह बनाकर जवानों की वर्दियां सिलेंगी। पहले चरण में 26 चयनित महिलाओं को प्रशिक्षण दिया जा रहा है। सिलाई प्रशिक्षण निधि संस्था के प्रशिक्षक दे रहे हैं।
इतिहास की दास्तान कहती 'वेपन गैलरी'
-गुरुकुल विवि के संग्रहालय में मौजूद हैं मुगल व ब्रिटिशकाल के हथियार
-तेज धार खंजरों से लेकर दूसरे विश्वयुद्ध तक की मशीनगन संग्रह में शामिल
गुरुकुल विवि के पुरातत्व संग्रहालय में मौजूद हथियार मुगल एवं ब्रिटिशकाल के दौरान हुए रक्तपात के मूक गवाह हैं। तेज धार वाले खंजरों से लेकर बारूद उगलने वाली तोपों से सजी संग्रहालय की यह गैलरी इतिहास में झाांकने का सबसे जीवंत झारोखा बन पड़ी है। यह वेपन गैलरी हिंसक इंसानी संघर्ष के साथ ही हथियारों के विकास की दास्तान भी बयां करती है।
संग्रहालय की वेपन गैलरी में सजे हथियारों में सबसे पहले प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इस्तेमाल की गई तोप अपनी ओर ध्यान खींचती है। इससे संबंधित जानकारी के मुताबिक 1940 में इस तोप ने मद्रास के तट की ओर जर्मन युद्धपोत एमडन से ब्रिटिश सेना पर आग बरसाई थी। इस तोप का पुराना संस्करण भी संग्रहालय में मौजूद है, जिसे1914 में जर्मन सेना ने प्रथम विश्वयुद्ध में इस्तेमाल किया था। वेपन गैलरी में सर्वाधिक संख्या बंदूकों की है, जिनका भारत में अंग्रेजों व पुर्तगालियों के साथ ही आगमन शुरू हो गया था। इनमें 18 वीं सदी में अस्तित्व में आई और पूरी तरह से लकड़ी की बनी बंदूकें भी हैं। काफी लंबे आकार की इस बंदूक के अंदर बारूद भरकर फायर किया जाता था। 19 वीं सदी तक इन बंदूकों में लोहे की नाल का प्रयोग किया जाने लगा जो पहले से कहीं अधिक सुरक्षित व मारक थी। बंदूक की ही प्रेरणा से 19 वीं सदी के अंत तक स्टेनगन और एयर राइफल का जन्म हुआ। इसके बाद 1940 यानी द्वितीय विश्वयुद्ध तक मशीनगन व लाइट मशीनगन भी आकार ले चुकी थी। संग्रहालय सहायक डा. दीपक घोष के मुताबिक 18 वीं और 19 वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार में इन हथियारों का सबसे बड़ा योगदान रहा। इससे उन्होंने अपने हर प्रतिकार का दमन किया। भारत में अंग्रेजों से लोहा लेने वाली विभिन्न रियासतों के विरोध को आग उगलने वाले इन्हीं हथियारों ने शांत किया था। मुगल काल की लड़ाईयों में इस्तेमाल किए जाने वाले खंजर, बघनखा, गुप्ती, बरछी व तलवारें भी वेपन गैलरी की शोभा बढ़ा रहे हैं। वहीं 1815 में उत्तराखंड में गोरखाओं व ब्रिटिश सेनाओं के संघर्ष में लड़ाकों के हाथों से छिटकी खुंखरियां भी संग्रहालय तक पहुंची हैं। संग्रहालय के निदेशक डा.प्रभात कुमार बताते हैं कि वेपन गैलरी को सरकारी एजेंसियों द्वारा ही रक्षा मंत्रालय की मदद से हथियार उपलब्ध कराए गये। इन 125 हथियारों में मुगल व ब्रिटिश काल के सर्वाधिक हथियार हैं। उन्होंने बताया कि इन हथियारों में उच्च गुणवत्ता का लोहा प्रयोग किया गया है।
जयदेव बिष्ट ने बढ़ाया उत्तराखंड का गौरव
पौड़ी जनपद के चौकड़ी गांव के हैं जयदेव
देहरादून: मुक्केबाजी का प्रशिक्षण देने के लिए गुरू द्रोणाचार्य पुरस्कार से नवाजे गए जनपद पौड़ी निवासी जयदेव बिष्ट ने राज्य का नाम रोशन किया है। उनको पुरस्कार मिलने की सूचना से जयदेव के गांव में भी खुशी की लहर दौड़ गई।
जानकारी के अनुसार पौड़ी जनपद की पट्टी इरियाकोट मल्ला के चौकड़ी गांव के रहने वाले जयदेव बिष्ट वर्तमान में नादर्न रेलवे में कार्यरत हैं। रेलवे की नौकरी के साथ उन्होंने देश के कई सफल मुक्केबाजों को प्रशिक्षण दिया। उनकी इस मेहनत के लिए इस साल के गुरू द्रोणाचार्य पुरस्कार के लिए चयनियत किया गया था। शनिवार को दिल्ली में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के के हाथों सम्मानित होने के बाद राज्य के नाम एक और गौरव जुड़ गया। उनकी इस सफलता पर जहां राज्य के कई लोगों और खेल प्रेमियों ने खुशी जाहिर की वहीं उनके पैतृक गांव में खुशी की लहर है। वर्तमान में जयदेव बिष्ट पटियाला में चल रहे राष्ट्रीय शिविर में मुक्केबाजों को प्रशिक्षण दे रहे हैं। जयदेव बिष्ट के माता-पिता उनके भाई के संग देहरादून में स्थित नया गांव में रहते हैं।
ऊर्जा बचाने को नारी की पहल
ग्रामीण महिलाएं बना रहीं ग्रीन लाइट्स
स्पैक्स और नाबार्ड की मदद से ग्रामीण महिलाएं बना रहीं इको-फ्रेंडली एलईडी बल्ब
एलईडी करता है पारंपरिक बल्ब से 95 फीसदी व सीएफएल से 45 प्रतिशत कम बिजली खर्च
देहरादून, दून की ग्रामीण महिलाओं ने एक गैर सरकारी संस्था और नाबार्ड की मदद से बिजली व पर्यावरण बचाने की अनूठी मुहिम शुरू की है। स्पैक्स (सोसायटी फॉर पॉल्यूशन ऐंड एन्वायरमेंटल कंजरवेशन साइंटिस्ट्स) ने नाबार्ड की मदद से दून के ग्रामीणों को बहुत कम बिजली खपत करने वाले एलईडी बल्ब बनाने का प्रशिक्षण देना शुरू किया है। एलईडी बल्ब की उम्र 50 हजार से एक लाख घंटे होती है और इससे सामान्य पारंपरिक बल्ब से 95 फीसदी और सीएफएल की तुलना में 45 प्रतिशत कम बिजली खर्च होती है। सबसे खास बात तो यह है कि एलईडी इको फ्रेंडली होते हैैंं।
स्पैक्स ने हाल में ही देहरादून के हरबंसवाला के ग्रामीणों को एलईडी बल्ब बनाने का प्रशिक्षण दिया। स्पैक्स के सचिव व वैज्ञानिक डॉ. बृजमोहन शर्मा का कहना है कि स्पैक्स व नाबार्ड देश की ऊर्जा जरूरतों को ध्यान में रखते हुए नए तरह के उद्योगों की नींव रखने का प्रयास कर रहे हैैं। उन्होंने बताया कि इकोफ्रेंडली होने के कारण एलईडी बल्बों को ग्रीन लाइट्स भी कहा जाता है। उनका कहना है कि सामान्य फिलामेंट वाले बल्ब जहां ज्यादा ऊर्जा की खपत करते हैैं वहीं सीएफएल में इस्तेमाल होने वाला पारा पानी में मिल कर मनुष्यों व जानवरों के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर डालता है। देश में सीएफएल का प्रयोग तो हो रहा है लेकिन उनके डिस्पोजल की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसे में एलईडी बल्ब सबसे बेहतर विकल्प हो सकता है। इससे एक ओर ऊर्जा की खपत बहुत कम हो जाती है वहीं पर्यावरण को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है। नाबार्ड के मैनेजर राकेश गुप्ता का कहना है कि ग्रामीण अगर समूह बना कर काम करेंगे तो वे खुद कुटीर उद्योग चला सकते हैैं। एलईडी भविष्य का बल्ब है। अंतत: यह बाजार से सीएफएल को बाहर कर देगा। हरबंसवाला की नेहा, रेखा, लक्ष्मी, रुचि, सोनी, मोनिका, उषा, पूनम, कमला और अनेक युवतियों ने एलईडी बनाने के लिए इलेक्ट्रानिक्स के कंपोनेंट्स की पहचान, उनकी क्षमता का मल्टीमीटर से आकलन, पीसीबी पर प्रतिरोधक, संधारित्र, लाइट इमिटिंग डायोड को सोल्डर से लगाने का प्रशिक्षण लिया है। उनका कहना है कि एलईडी निर्माण से एक ओर उन्हें स्वरोजगार का अवसर मिला है तो दूसरी ओर उनका काम देश में ऊर्जा खपत कम करने और पर्यावरण संरक्षण में मददगार हो रहा है।
Saturday, 29 August 2009
-उत्तराखंड में एक और फाइव स्टार की दस्तक
मैक्स और ओबेराय गु्रप दून में होटल खोलने के प्रयास में
देहरादून, उत्तराखंड में एक और ग्रुप ने फाइव स्टार होटल ने दस्तक दी है। हालांकि देहरादून में दो फाइव स्टार होटलों के प्रस्ताव पहले से ही लंबित चल रहे हैं।
मैक्स गु्रप अब होटल के क्षेत्र में भी आ रहा है। ओबेराय के साथ मिलकर मैक्स गु्रप देहरादून में फाइव स्टार होटल स्थापित करने के प्रयास में जुट गया है। हालांकि पर्यटन विभाग को इसकी जानकारी नहीं है। पर्यटन सचिव उत्पल कुमार सिंह कहते हैं कि विभाग के सामने ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं आया है। हो सकता है कि गु्रप अपने प्रयासों से ही इस काम में जुटा हो। वे स्वीकार करते हैं कि एमजीआर द्वारा टपकेश्वर में पीपीपी मोड में प्रस्तावित फाइव स्टार होटल का काम ढाई साल से लटका है। एमडीडीए से मिलकर इस मामले में आई दिक्कतों को दूर किया जा रहा है।
इधर, निशानेबाज अभिनव बिंद्रा का भी हरिद्वार रोड पर एक फाइव स्टार होटल के प्रस्ताव पर काम चल रहा है। उनके प्रमोटर्स ने पिछले दिनों एमडीडीए (मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण) से आवश्यक जानकारी ली है। इस लिहाज से उत्तराखंड की राजधानी में तीन फाइव स्टार होटल प्रस्तावित हैं। उत्तराखंड में पर्यटन व्यवसाय को बढ़ाने के लिए इसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
=गंगा मैनेजमेंट बोड पर होगी त्रिपक्षीय वार्ता
जल संसाधनों पर हिस्सेदारी उत्तराखंड के वजूद का सवाल
कोर्ट के निर्णय से पहले ही सहमति पर पहुंच जाना चाहता है यूपी
देहरादून
उत्तराखंड की परिसंपत्तियों का हस्तांतरण संबंधी मामला अभी कोर्ट में हैै। उत्तर प्रदेश की मंशा इससे पहले ही गंगा मैनेजमेंट बोर्ड के साथ किसी सहमति तक पहुंचने की है। उत्तर प्रदेश ने केंद्र सरकार पर दबाव बनाकर त्रिपक्षीय वार्ता को राजी कर लिया है। यह वार्ता आज दिल्ली में होनी है।
उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक 2000 की धारा 79 से 83 तक उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड के बीच गंगा मैनेजमेंट बोर्ड के गठन के प्रावधान हैं। बोर्ड के गठन को केंद्र सरकार ने राज्य गठन से ठीक दो दिन पहले एक नोटिफिकेशन जारी किया था। इसके तहत उत्तराखंड की सीमा के अंदर सिंचाई परिसंपत्तियों पर उत्तर प्रदेश को कब्जा दिया गया। साथ ही उत्तराखंड को गंगा मैनेजमेंट बोर्ड के गठन पर सहमत होने की अनिवार्यता जोड़ दी गई। अभी हाल में नैनीताल हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका पर निर्णय देते हुए इस नोटिफिकेशन को क्वैश कर दिया। अब मामला सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है।
अब यूपी की कोशिश है कि सिंचाई परिसंपत्तियों पर सुप्रीम कोर्ट से कोई निर्णय आने से पहले ही गंगा मैनेजमेंट बोर्ड पर उत्तराखंड के साथ किसी सहमति तक पहुंचा जाए। इसके लिए दिल्ली में कल बुधवार को त्रिपक्षीय वार्ता आयोजित की गई है।
उत्तराखंड में भी इस बैठक के लिए तैयारियों तेज की गईं। सचिवालय में आज इस बारे में एक बैठक बुलाई गई थी पर सीएम की व्यस्तताओं के कारण इस पर चर्चा नहीं हो सकी। खास बात यह है कि उत्तराखंड के लिए सबसे जल सबसे बड़ा प्राकृतिक संसाधन है। उत्तराखंड में मौजूद जल संसाधनों का अगर समुचित उपयोग हो तो राज्य इसी से आत्मनिर्भर बन सकता है। राज्य की सीमा में जल संसाधनों पर किसी और राज्य के साथ हिस्सा बांटना उत्तराखंड के हितों पर सबसे बड़ा कुठाराघात होगा। हालांकि दबाव की राजनीति में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार की सिफारिश पर एनडीए की सरकार ने गंगा मैनेजमेंट बोर्ड पर सहमति दे दी थी।
उत्तराखंड तो पहले से ही पावर जनरेशन को बोर्ड के दायरे से बाहर रखने का तर्क देता रहा है। अब इलेक्ट्रिसिटी एक्ट 2003 के वजूद में आने से उत्तराखंड का पक्ष और भी मजबूत हो गया है। देखना है कि उत्तर प्रदेश के दबाव का ऊंट किस करवट बैठता है।
-अनूठी है शादी की 'साटा-पल्टा' परंपरा
- वन गुर्जरों में अनिवार्य है दुल्हन के बदले दुल्हन का आदान-प्रदान
- पल्टा न होने पर लड़के को शादी से पहले बनना पड़ता है घर जमाई
- महिला के बदले पुरुष संगीत का होता है आयोजन, वाद्य यंत्र वर्जित
- मेहमान न्योते के रूप में साथ लाते हैं दूध और मक्खन
विकासनगर।
सूचना प्रौद्योगिकी के युग में एक ओर जहां नेट पर आसानी से आनलाइन मैरिज हो रही हैं, वहीं दूसरी ओर एक ऐसी बिरादरी भी है, जिसके रस्मोरिवाज खासतौर पर लड़के की शादी को जटिल बना देते हैं। उनमें दुल्हन लेने के बदले दुल्हन देने की प्रथा आज भी जीवित है। यदि देने के लिए दुल्हन न हो, तो दामाद को विवाह से पूर्व ही घर जमाई बना दिया जाता है, जिसे पांच से दस वर्ष तक लड़की के घर रहकर उनकी मवेशियों को चुगाने के साथ-साथ उनके लिए चारा-पत्ती का इंतजाम भी करना होता है। एक और रोचक तथ्य यह कि इस बिरादरी में विवाह समारोह के दौरान किसी भी वाद्य यंत्र का प्रयोग वर्जित है और महिला गीत के बजाए पुरुष गायन का आयोजन किया जाता है।
बात वन गुर्जरों की हो रही है। इस बिरादरी में शादी के रस्मोरिवाज काफी रोचक हैं। वन गुर्जरों में छोटी सी उम्र (5 से 10 वर्ष) में ही लड़के की शादी तय हो जाती है, लेकिन उसमें पारम्परिक नियमों का पालन किया जाना जरूरी है। लड़के की शादी में दुल्हन के बदले दुल्हन का आदान-प्रदान किया जाता है। अर्थात, वर पक्ष दुल्हन लेने के बदले कन्या पक्ष को भी दुल्हन देते हैं, जिसे 'साटा-पल्टा' कहा जाता है। यदि किसी के पास देने के दुल्हन न हो तो फिर दामाद को लड़की के घर शादी से पहले ही घर जमाई बनाकर रखा जाता है। दोनों पक्षों के बीच तय हुए निर्धारित समय (5 से 15 वर्ष) तक लड़के को लड़की के घर रहकर उनके मवेशियों की देखरेख और उनके लिए चारा पत्ती के इंतजाम की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। जिम्मेदारियों पर खरा उतरने पर ही बाद में उसे दुल्हन सौंपी जाती है। वन गुर्जर बिरादरी के शादी समारोह के रीतिरिवाज भी अनोखे हैं। शादी की तिथि निर्धारित होते ही बिरादरी का मुखिया पंचायत बुलाता है और सभी को शादी का न्योता देता है। गुर्जर अपनी भाषा में न्योता दिए जाने को 'गंढ' कहते हैं। शादी के दिन बारातियों को दूध और मक्खन साथ में लाना अनिवार्य है। न्योते के रूप में रुपये को अहमियत नहीं दी जाती है। समारोह में चावल, घी और बूरा की दावत चलती है। एक और खास बात यह है कि यहां शादी से एक दिन पहले दूल्हा और दुल्हन दोनों के घरों में मेहंदी की रस्म मनाई जाती है। रस्म में महिला नहीं बल्कि पुरुष गायन का आयोजन किया जाता है। पुरुष पूरी रात कान में अंगुली डालकर सूफियाना अंदाज में गाते हैं, जिसे 'बैंत' कहा जाता है। पूरे समारोह में किसी भी वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता है।
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'हमारी वन गुर्जर बिरादरी में शादी के रस्मोरिवाज कठिन जरूर हैं, लेकिन उनके पालन से आपसी भाईचारा बढ़ता है और लड़का अथवा लड़की की शादी बोझा महसूस नहीं होती। मुझो गर्व है कि हमारी बिरादरी के लोग आज भी अपनी परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं'।
- फिरोजद्दीन
मुखिया/प्रधान
पछवादून वन गुर्जर बिरादरी।
-अपने ही गांव में बेगानी हुई गौरा
-जोशीमठ के समीप स्थित है चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी का गांव रैणी
-वर्ष 1974 में यहीं से शुरू किया था वृक्षों के संरक्षण का अभियान
-गौरा के निधन के बाद सरकारी मशीनरी ने नहीं ली गांव की सुध
, गोपेश्वर(चमोली): रैणी गांव का नाम आते ही जेहन में उभर आती है उस महिला की तस्वीर,
जिसने गंवई होते हुए भी एक ऐसे आंदोलन का सूत्रपात किया, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी पहचान बन गया। बात हो रही है चिपको आंदोलन की नेत्री गौरा देवी की। प्रथम महिला वृक्षमित्र के पुरस्कार से नवाजी गई गौरा देवी ने न सिर्फ जंगलों को कटने से बचाया, बल्कि वन माफियाओं को भी वापस लौटने पर मजबूर कर दिया। जीवनपर्यंत गौरा लोगों में पेड़ों के संरक्षण की अलख जगाती रहीं, लेकिन उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनके निधन के बाद खुद उनके ही गांव में सरकारी मशीनरी व चंद निजी स्वार्थों के लोभी लोग उनके सपनों का गला घोंट देंगे। आलम यह है कि गांव के नजदीक ही जलविद्युत परियोजना के लिए सुरंगों का ताबड़तोड़ निर्माण किया जा रहा है। इससे गांव के लोग पलायन को मजबूर हो गए हैं।
जोशीमठ से करीब 27 किमी दूर स्थित है रैणी गांव। 26 मार्च 1974 का दिन इस गांव को इतिहास में अमर कर गया। सरकारी अधिकारियों की नजर लंबे समय से गांव के नजदीक स्थित जंगलों पर थी। यहां पेड़ों के कटान के लिए साइमन कंपनी को ठेका दिया गया था, जिसके तहत सैकड़ों मजदूर व ठेकेदार गांव पहुंच गए थे। गांव वालों के विरोध को देखते हुए अधिकारियों ने साजिश के तहत उन्हें चमोली तहसील में वार्ता के लिए बुलाया और पीछे से ठेकेदारों को पेड़ कटान के लिए गांव भेज दिया गया, लेकिन उनका यह कदम आत्मघाती साबित हुआ। गांव में मौजूद गौरा देवी को जैसे ही खबर मिली वह ठेकेदारों के सामने आ गई और पेड़ पर चिपक गई। देखादेखी अन्य महिलाओं ने भी ऐसा ही किया। ठेकेदारों, मजदूरों ने उन्हें हटाने की बहुत कोशिश की, लेकिन एक नहीं चली। इस तरह चिपको आंदोलन का सूत्रपात हुआ और गौरा ने 2451 पेड़ों को कटने से बचा दिया। चिपको जननी के नाम से विख्यात गौरा का कहना था कि 'जंगल हमारा मायका है हम इसे उजाडऩे नहीं देंगे।' जीवन भर वृक्षों के संरक्षण को संघर्ष करते हुए चार जुलाई 1991 को तपोवन में उनका निधन हो गया। इससे पूर्व भारत सरकार ने वर्ष 1986 में गौरा देवी को प्रथम महिला वृक्ष मित्र पुरस्कार से नवाजा था। मृत्यु से पूर्व गौरा ने कहा 'मैंने तो शुरुआत की है, नौजवान साथी इसे और आगे बढाएंगे', लेकिन वक्त बदलने के साथ लोग गौरा के सपनों से दूर होते गए।
सरकार ने गौरा के गांव में उनके नाम से एक 'स्मृति द्वार' बनाकर खानापूर्ति तो की, लेकिन पिछले 17 साल में शायद ही कभी कोई मौका आया हो, जब इस पर्यावरण हितैषी की याद में कभी सरकारी मशीनरी ने दो पौधे भी रोपे हों। हद तो तब हो गई, जब गौरा के गांव के जनप्रतिनिधियों ने ही उनके अभियान से मुंह मोड़ लिया। स्थिति यह है कि गांव में गौरा के नाम पर बनाए गए मिलन स्थल को गांव के नजदीक बनाए जा रहे बांध की कार्यदायी संस्था 'ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट' को किराए पर दे दिया गया है। इतना ही नहीं, गांव के नजदीक इन दिनों सुरंगों का निर्माण कार्य जोरों पर है, जिसके लिए पेड़ भी काटे जा रहे हैं। परियोजना निर्माण के लिए हो रहे धमाकों से कई घरों में दरारें पड़ गई हैं। ऐसे में लोग यहां से पलायन करने को मजबूर हो गए हैं।
पूर्व ग्राम प्रधान मोहन सिंह राणा व्यथित स्वर में कहते हैं कि सरकार ने गांव को हमेशा ही नजर अंदाज किया। उन्होंने यह भी कहा कि गौरा के सपनों को पूरा करने के लिए दोबारा चिपको जैसे आंदोलन शुरू करने की जरूरत है। गौरा देवी के पुत्र चंद्र सिंह व ग्रामीण गबर सिंह का कहना है कि सुरंग निर्माण को रोकने व गांव की अन्य समसयओं के बाबत कई बार शासन-प्रशासन से गुहार कर चुके हैं, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही।
-दून से गहरा रिश्ता रहा है मदर टेरेसा का
पहली बार 18 अगस्त 1986 को 'स्नेह सदन' के शुभारंभ पर दून पहुंची थी मदर
-मदर की प्रेरणा से दून में भी तमाम संस्थाएं जुटी हैं सेवा कार्य में
देहरादून-
'गरीबों की सेवा द्वारा हम ईश्वर के लिए कुछ अच्छा (सुंदर) करें'। दया, करुणा और ममता की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा के इस सूत्र वाक्य पर चलते हुए देहरादून में भी 'मिशनरीज आफ चैरिटी' के अलावा तमाम संस्थाएं सेवा कार्य में जुटी हैं। आखिर, मदर का दून से नाता जो रहा है। उन्होंने यहां अनाथों, असहायों व रोगियों की सेवा के लिए तेईस वर्ष पूर्व 'स्नेह सदन' का श्रीगणेश किया था।
मदर टेरेसा ने कोलकाता में गरीबों के अलावा बीमारों और कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए संकल्प का जो दीप जलाया था, वह आज भी रोशन है। 18 अगस्त 1986 को नेशविला रोड पर स्थापित 'स्नेह सदन' के उद््घाटन के लिए मदर पहली बार देहरादून आईं थीं।
मिशनरीज आफ चैरिटी की देहरादून शाखा की सिस्टर मारिट्टा बताती हैं कि स्नेह सदन का उद्घाटन करने के बाद मदर देहरादून में कई कुष्ठ रोगियों के अलावा झाुग्गी-झाोपडिय़ों में रहने वाले गरीबों से मिलीं। वर्ष 1996 में मदर के कदम दूसरी बार दून की धरती पर पड़े। तब वह सरधना-मेरठ में एक कार्यक्रम में भाग लेने आई थीं, लेकिन दून से लगाव के चलते वह यहां आने से स्वयं को नहीं रोक पाईं। वह बताती हैं कि दून की आबोहवा ने भी मदर को काफी प्रभावित किया। वह यहां के प्राकृतिक सौंदर्य, लोगों के बीच आपसी प्रेम, सेवाभाव से अभिभूत थीं।
याद रहेंगे मदर के साथ बिताए दिन
देहरादून: मदर अक्सर कहा करती थीं-'गरीबों की सेवा भगवान की सेवा है। हम गरीबों को देखते हैं तो भगवान को देखते हैं। गरीबी के दयनीय लिबास में छिपे ईश्वर के लिए हम उनकी सेवा करती हैंैं'। यह कहते-कहते सिस्टर मारिट््टा मदर के साथ बिताए दिनों की याद में खो जाती हैं।
मिशनरीज आफ चैरिटी से जुड़ी सिस्टर मारिट्टा अ_ारह साल की उम्र में मदर के संपर्क में आईं। मदर की प्रेरणा से उनके मन में भी सेवा का भाव जागा। वर्ष 1963 के आखिर में वह कोलकाता में मदर से मिलीं और अपनी इच्छा जताई। इस पर मदर ने उन्हें जनवरी 1964 में बुलाया। बकौल सिस्टर मारिट्टा-'मदर ने पूछा रोगियों की सेवा कर पाओगी, कठिन कार्य है। मैंने कहा- मदर जब आप कर सकती हैं तो मैं क्यों नहीं। बस फिर, मदर के साथ मैं भी सेवा कार्य में जुट गई'।
मौका मिलते ही खंडूड़ी ने हाईकमान से किया अपना दर्द बयां
=हमसे का भूल हुई, जो ये सजा.....
मौका मिलते ही खंडूड़ी ने हाईकमान से किया अपना दर्द बयां
पूछा सवाल: 24 विधायकों का समर्थन होने के बाद भी क्यों छीना ताज
पार्टी से नाराज नेताओं की कतार में जुड़ा निवर्तमान सीएम का नाम
देहरादून -अपनों के हमलों से भारतीय जनता पार्टी इस दिनों खासी आहत है। इसे अपनी बात कहने के लिए निवर्तमान मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने माकूल मौका समझाा। उन्होंनेएक पत्र लिखा और न केवल अपने दिल का दर्द बयां कर डाला, बल्कि हाईकमान को उसकी खामियां गिनाकर खुद को पार्टी से नाराज नेताओं की जमात में शामिल भी कर लिया। उन्होंने हाईकमान से यह भी पूछा लिया कि 'आखिर उनका ताज क्यों छीना गया'।
भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण शौरी ने पार्टी हाईकमान की खामियां गिनाईं तो उसमें उत्तराखंड में भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री पद से हटाने के फैसले को भी गलत करार दिया। इसके बाद तो जैसे श्री खंडूड़ी को मानो मौका मिल गया। करीब दो माह से मौन बैठे खंडूडी ने पार्टी हाईकमान को एक पत्र लिख डाला। सूत्रों ने बताया कि इसमें उन्होंने खुलासा किया है कि किस तरह से पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी को उनकी तमाम खामियों के बाद भी हाईकमान की ओर से बढ़ावा दिया जाता रहा। नतीजा यह रहा कि उन्हें सीएम के रूप में काम करने का माहौल ही नहीं मिल सका। खंडूड़ी ने पत्र में दावा किया है कि उन्हें 24 विधायकों का समर्थन हासिल भी था। इसके बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया। उन्होंने हाईकमान ने साफ लफ्जों में पूछा कि 'आखिर उनका कसूर क्या था'।
यह पत्र लिखने के साथ ही श्री खंडूड़ी भी भाजपा के उन नेताओं की कतार में शामिल हो गए हैैं, जो हाईकमान से किसी न किसी वजह से नाराज चल रहे हैैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि श्री खंडूड़ी भी सीएम पद से हटने के बाद अंदरखाने नाराज चल रहे हैैं। अब हाईकमान अपनों के ही हमलों से हलकान है तो उन्होंने इसे अपनी बात कहने का माकूल मौका समझा लिया।
आज पत्र का खुलासा होने के बाद मीडिया से बातचीत के दौरान उन्होंने इस प्रकरण को लेकर कुछ स्पष्ट करने से पहले तो इंकार कर दिया। फिर इशारों इशारों में पार्टी थिंक टैैंक को आगाह किया कि भाजपा के मौजूदा हालात पार्टी के भविष्य व देश हित में नही है। उन्होंने कहा कि फौज से रिटायर होने के बाद पार्टी की नीतियों से प्रभावित होकर ही वे भाजपा में आए थे। अगर देशभक्ति, सेवाभाव और अनुशासन में कमी आती है तो इससे उन जैसे कार्यकर्ताओं में मायूसी लाजिमी है।
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दिनभर चढ़ा रहा सूबे की सियासी पारा
उठा सवाल: आखिर क्या निकलेगा खंडूड़ी के पत्र का नतीजा
देहरादून, जागरण ब्यूरो
सूबे के निवर्तमान मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी के पत्र को लेकर सियासी पारा खूब चढ़ा। पत्र के मजमून को लेकर यह बात भी हवा में तैरती रहा कि आखिर इससे नतीजा क्या निकलने वाला। एक सवाल यह भी उठाया गया कि लोकसभा चुनाव में खुद ही हार की नैतिक जिम्मेदारी लेने वाले श्री खंडूड़ी ने आखिर यह पत्र लिखा क्यों।
लोकसभा चुनाव में सूबे की सभी पांच सीटों पर हार के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने इसकी नैतिक जिम्मेदारी ली थी। इसके बाद सियासी हालात ने इस कदर पलटा खाया कि श्री खंडूड़ी को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा तक देना पड़ा। बाद में डा. रमेश पोखरियाल निशंक की बतौर मुख्यमंत्री चयन कराने में भी श्री खंडूड़ी का अहम रोल रहा। उस समय भी यही माना गया कि एक तरफ श्री खंडूड़ी की हार हुई तो दूसरी तरफ सियासी जीत भी उन्हीं के हिस्से में आई।
अब दो माह बाद उनका हाईकमान से ताज छीनने के बारे में सवाल पूछना किसी की समझा में नहीं आ रहा है। राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा तेज है कि उन्हें इससे कोई 'राजनीतिक फायदा' तो होने वाला नहीं है। हां, इस पत्र के जरिए वे हाईकमान से नाराज नेताओं की जमात में शामिल जरूर हो गए हैैं। लोग यह भी नहीं समझा पा रहे हैं कि हार के बाद ही नैतिक आधार पर हाईकमान के 'पत्र' लिखने वाले श्री खंडूड़ी को अब निर्णय में खोट क्यों नजर आ रहा है।
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' मैैं इस पत्र के मामले में कोई कमेंट नहीं करना चाहता। जो कुछ कहना है, पार्टी की मर्यादा में रहकर ही कहूंगा। इस बारे में पार्टी ने भी कोई बात नहीं की है।'
भुवन चंद्र खंडूड़ी, निवर्तमान मुख्यमंत्री
'मुझो इस पत्र के बारे में मीडिया से ही जानकारी मिली है। वैसे भी विधायक, मंत्री और पूर्व मुख्यमंत्री सीधे तौर पर हाईकमान से जुड़े रहते हैैं। प्रदेश भाजपा इस बारे में कुछ नहीं कर सकती।'
बची सिंह रावत, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष
'पत्र तो सभी लिखते हैैं। इसमें गलत क्या है। यह भी ठीक है कि हार या जीत की जिम्मेदारी सामूहिक होती है। इस बारे में वक्त पर ही बात होनी चाहिए थी।'
भगत सिंह कोश्यारी, पूर्व मुख्यमंत्री व सांसद
उत्तराखंड में कई गांव अनाज पिसाई के लिए घराटों (पनचक्कियों) पर निर्भर
-सावन तय करता है रोटी खाएं या भात
इस बार अपेक्षित बारिश न होने से थमे हुए हैं कई घराटों के पट
देहरादून
आषाढ़ शुरू होते ही वे पपीहा की तरह आसमान की ओर ताकने लगते हैं बारिश के लिए। बारिश की चिंता खेती और पीने के पानी के लिए उतनी नहीं, जितनी घराटों के लिए। चिंता रहती है कि सावन तक ठीकठाक बारिश न हुई तो सालभर सुबह-शाम रोटी की जगह चावल खाने पड़ेंगे। यानी सावन का न बरसना उनके मेन्यू को प्रभावित करेगा। यहां बात हो रही है विषम भौगोलिक परिस्थितियों और सड़क से मीलों दूर जी रहे प्रदेश के ग्रामीणों की।
दरअसल, उत्तराखंड के अनेक गांव आज भी अनाज पिसवाने के लिए घराटों (पानी से चलने वाली परंपरागत चक्कियां) पर निर्भर हैं और कई गावों के घराट बरसाती पानी पर निर्भर हैं। आम तौर पर ये जुलाई में शुरू होते हैं और सितंबर की शुरुआत तक बंद हो जाते हैं। इसी करीब दो महीने की अवधि में एक साल का अनाज पीसना गांव वालों की मजबूरी है। इसके लिए फांट व्यवस्था (बारी-बारी) अपनाई जाती है। कुछ घराट पंचायती व्यवस्था के तहत चलते हैं, जबकि कुछ निजी व्यवस्था के तहत संचालित होते हैं। सावन में खूब बारिश न होना इन गांवों के लिए किसी संकट से कम नहीं होता। विडंबना यह है कि सड़कों से मीलों दूर और ऊंची चोटियों पर स्थित ऐसे गांवों में मंडुआ आदि तो पैदा हो जाता है, लेकिन गेहूं नाममात्र का ही होता है। इसकी पूर्ति को ग्रामीणों को दुकानों से गेहूं खरीदना पड़ता है। इसे वे पीठ पर लादकर या खच्चरों के माध्यम से गांवों तक पहुंचाते हंै। जून तक लोग इस गेहूं को छान और सुखाकर पिसवाने के लिए रख देते हैं, लेकिन घराट न चलें तो यह अनाज मवेशियों के ही काम आता है। चूंकि इन गांवों में चक्कियों की कोई व्यवस्था न होने के कारण इस अनाज को पिसवाने के लिए वहीं ले जाना पड़ेगा, जहां से खरीदकर लाया गया हो, ऐसी दोहरी मेहनत बहुत ही कम लोग करते हैं।
टिहरी गढ़वाल की डागर पट्टी के टोला और राडागाड गांवों का उदाहरण लेकर ऐसे ग्रामीणों की पीड़ा को समझाा जा सकता है। अभी तक स्थिर इन गांवों के आठों घराटों के पट मानों बारिश होने का इंतजार कर रहे हों। समुद्र तल से करीब छह हजार फुट की ऊंचाई और सड़क से करीब सात किमी दूर इन गांवों में चार घराट पंचायती व्यवस्था और चार निजी व्यवस्था पर संचालित होते हैं, लेकिन इस बार पर्याप्त बारिश न होने से इनके पट थमे हुए हैं। इन गांवों में कुछ लोगों ने हाथ की चक्कियां लगाई हुई हैं, लेकिन खेती व अन्य कार्यों में व्यस्तता होने के कारण इन चक्कियों को चलाने का समय नहीं मिल पाता।
इस सूखे ने सुखा दिया खून
इस बार के सूखे के इन सूखे ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का खून सुखा दिया है। अभी तक भारी बारिश के इंतजार में बैठे ग्रामीणों की उम्मीद अब धूमिल होने लगी है। वे चिंतित हैं कि अगर एक हफ्ते तक भी बारिश नहीं हुई तो वे इस साल के लिए खरीदे गए गेहूं की रोटियां नहीं खा पाएंगे। अभी तक किसी भी घराट के पट न घूम पाने के कारण कुछ संपन्न लोग आटे की व्यवस्था करने लगे हैं, लेकिन गरीब-गुरबा तो ऐसा नहीं कर सकता।
उरेडा के पास नहीं योजना
उत्तराखंड अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण (उरेडा)के पास भी इस समस्या का समाधान नहीं है। वह घराटों का सुधारीकरण या आधुनिकीकरण तो करता है, लेकिन उन्हीं का, जिनमें बारह महीने पानी रहता हो। बारहमास पानी वाले घराटों में उरेडा अनाज पिसाई के अतिरिक्त धान कुटाई, तेल पिराई की तकनीक मुहैया कराता है। साथ ही वहां टरबाइन लगाकर बिजली भी पैदा करता है। उरेडा के सांख्यिकी अधिकारी पीसी सनवाल का कहना है कि अल्प अवधि में पानी वाले घराटों के सुधारीकरण की उरेडा के पास कोई योजना नहीं है, क्योंकि इन्हें संचालित करने के लिए सौर ऊर्जा की लागत काफी अधिक आएगी।
Tuesday, 25 August 2009
तीस साल बाद जब मैं वापस आया... विद्यासागर नौटियाल
२९ सितंबर, १९३३ को टिहरी गढ़वाल रियासत के गांव माली देवल में जन्मे विद्यासागर नौटियाल हिंदी कहानी के समकालीन परिदृश्य में सबसे सामथ्र्यवान वरिष्ठ कथाकारों में से एक हैं। उनकी ज्यादातर कहानियों में पहाड़ी जीवन का मार्मिक चित्रण है। लेकिन इस बहाने वे अन्याय और शोषण के वैश्विक घालमेल को रेखांकित करते चलते हैं और उसकी पुरजोर मुखालफत करते हुए नजर आते हैं। 'टिहरी की कहानियां', 'सुच्ची डोर', 'फुलियारी', 'फट जा पंचधार' जैसे कहानी संग्रहों और 'भीम अकेला', 'सूरज सबका है', 'उ8ार बायां है', 'झांड से बिछुड़ा', 'यमुना के बागी बेटे' जैसे उपन्यासों से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने वाले नौटियाल की बहुत सी रचनाओं का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। 'देशभ1तों की कैद में' और 'मोहन गाता जाएगा' जैसी उनकी आत्मकथात्मक कृतियों का भी साहित्य जगत में खूब स्वागत हुआ है। पहल और अखिल भारतीय वीर सिंह देव जैसे पुरस्कारों से स6मानित नौटियाल जी की प्रसिद्ध कहानी 'सोना' पर चर्चित फिल्म भी बन चुकी है। नौटियाल जी की पहचान एक राजनीतिज्ञ की भी है। उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में टिहरी रियासत के खिलाफ सतत आंदोलन किया। चिपको आंदोलन के जन्मदाताओं में एक रहे। कई ट्रेड यूनियनों के अध्यक्ष भी बने। १९८० में वे टिहरी गढ़वाल के देवप्रयाग क्षेत्र से उप्र विधान सभा सदस्य भी निर्वाचित हुए। उनसे हुई मुलाकात का ब्योरा :
कथाकार और कामरेड विद्यासागर नौटियाल की लेखनी की गति उम्र के साथ-साथ ही तेज होती जा रही है। राजनीतिक जि6मेदारियों के चलते कुछ समय लेखन से दूर हो जाने की भरपाई वे जल्द से जल्द कर लेना चाहते
छिहत्तर साल की उम्र में भी आप साहित्य के क्षेत्र में निरंतर सक्रिय हैं। आपके भीतर वह कौन सी जीवनी श1ित है, जो लगातार आपसे काम करवा ले जाती है?------
राजनीति में सक्रिय होने और वकालत के पेशे से जुडऩे के बाद मुझो इतना अवकाश नहीं मिला कि साहित्य में काम करता रहूं। मेरी पहली कहानी 'भैंस का कट्या' है, जो १९५४ में तब की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका 'कल्पना' में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी ने मुझो साहित्य जगत में पहचान दे दी थी। १९६० तक मैं लिखता रहा। तब मैं बनारस में था। इसके बाद मैंने अपनी मातृभूमि वापस लौटने का फैसला कर लिया। सक्रिय राजनीति से जुडऩे के बाद मुझो इतना समय ही नहीं मिला कि साहित्य के लिए कलम उठा सकूं। तीस साल तक कुछ नहीं लिखा। लेकिन इस बीच आदमी नाम के जानवर का बारीकी से अध्ययन करता रहा। इधर मैं तेजी से काम कर रहा हूं ताकि इन तीस वर्षों की कसर थोड़ी बहुत तो पूरी कर सकूं।
हाल ही में लघु पत्रिका 'आर्यकल्प' ने कथाकार महेश दर्पण के अतिथि संपादन में आप पर एक विशेषांक निकाला है। इस अंक को पढऩे के बाद आपकी स्मृति में कुछ ऐसी बातें कौंधी होंगी, जिन्हें आप विस्मृत कर चुके होंगे। आपने १९६० तक के बनारस को कितनी शिद्दत से याद किया? ----------------
इस अंक में विजय मोहन सिंह का लेख मुझो अतीत में खींच ले गया। अंदाजा नहीं था कि वे मुझो इतने नजदीक से देखते रहे। सूर्यकुमार तिवारी का आलेख पढ़कर आश्चर्य में डूब गया। कुल-मिलाकर मैं रिफ्रेश हुआ हूं यह अंक पढ़कर। निश्चित रूप से मैं बनारस की यादों में डूबा और उतराया। बहुत सी बातें कौंधी।
ऐसा कम हुआ है कि कोई लेखक राजनीति से जुड़े और अपना लेखन स्थगित कर दे। आप पीछे पलटकर देखते हैं, तो ऐसा नहीं लगता कि लेखन को भी थोड़ा समय देना चाहिए था?------------
ऐसा संभव ही नहीं था। मैंने आज के राजनीतिज्ञों की तरह जनता से बर्ताव नहीं किया। मैंने लगातार दुर्गम यात्राएं कीं। जनता के संघर्ष में सक्रिय भागीदारी की। राजशाही के खिलाफ लड़ाई आसान नहीं थी। कई बार भूमिगत हो जाना पड़ता था। मैं १९६० से १९९० तक सुबह से शाम तक देहातों में पैदल यात्रा करता था। ऐसे में लिखने का समय किसी भी विधि नहीं मिल पाता था। लेकिन इस बीच मुझो बहुत सारे अनुभवों से गुजरने का मौका मिला। १९९० में 'फट जा पंचधार' से कथा जगत में मेरी वापसी हुई। यह कहानी हंस में छपी थी। इस कहानी को आम पाठकों और आलोचकों दोनों ने ही बहुत सराहा।
आप तीस साल साहित्य से दूर रहे। इस बीच की साहित्यिक गतिविधियों की जानकारी भी आपको नहीं मिली। कई महत्वपूर्ण कहानियों और उपन्यासों से आप अपरिचित रहे। 1या साहित्य में लौटने के बाद आपने इस कमी को पूरा करने की कोशिश की?-----
यह काम आसान नहीं था। तीस साल कम नहीं होते। साहित्य में लौटने के बाद मैंने अपना लेखन शुरू कर दिया था। मैं जीवन के उन अनुभवों से लबालब था, जो किसी और के पास नहीं थे। मैं अपनी रचनाओं में इन्हें पिरोने के लिए व्यग्र था। ऐसे में मेरे पास समय नहीं था कि मैं सैकड़ों किताबों के अध्ययन के लिए चाहते हुए भी व1त निकाल सकूं।
आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी आपको प्रेमचंद की परंपरा से जोड़कर देखते हैं...
प्रेमचंद ने अपने साहित्य में उसे हीरो बनाया, जो उपेक्षित या वंचित है। मैंने भी यही किया। बहुत सारे कथाकारों ने यह किया। प्रगतिशील लेखन की यही परंपरा है। इस परंपरा से जुड़कर ही मैं थोड़ा बहुत सार्थक लिख पाया हूं। लेकिन यह दौर बहुत खतरनाक है। आज प्रेमचंद होते, तो सिर पीट लेते। आम हिंदुस्तानी का आज जैसा मानसिक शोषण हो रहा है, वह भयभीत करने वाला है।
अमर कथाशिल्पी रेणु पर आपके विचार लोगों को चकित करते हैं। 1यों आपको रेणु की रचनाएं आकर्षित नहीं करतीं और 1यों आप उनकी रचनाओं को कमतर मानते हैं?--------
मुझो रेणु की रचनाएं इसलिए आकर्षित नहीं करतीं, 1यों कि उनकी सारी रचनाओं में कीमियागिरी बहुत ज्यादा है। शिल्प पर उनका बहुत ज्यादा ध्यान दिखाई देता है। उनकी रचनाएं र6य हैं, लेकिन जीवन की बारीकी उनमें काफी कम देखने में आती है। रेणु उल्लेखनीय कथाकार हैं, लेकिन उनके यहां जीवन समग्र रूप में नहीं है। रेणु पर फ्रायड का बहुत प्रभाव है और उनमें अमेरिकन कथाकारों की विचारधारा साफ दिखाई देती है। उनकी तुलना में शैलेश मटियानी अद्भुत रचनाकार हैं। उन्हें आलोचकों ने एक कोने में डाल दिया है। मेरी समझा में वे रेणु से बड़े कथाकार हैं। मैं अमरकांत और शेखर जोशी को भी बड़ा रचनाकार मानता हूं। शेखर जोशी का भी अभी सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। उनकी कहानी 'कोसी का घटवार' 'गुलेरी की कृति' 'उसने कहा था' के बाद दूसरी सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानी है।
Saturday, 22 August 2009
-फिल्म गीतकार प्रसून को 'शैलेंद्र सम्मान'
30 अगस्त को देहरादून में नवाजा जाएगा
देहरादून,- शानदार अर्थपूर्ण गीतों के लिए बॉलीवुड के मशहूर युवा फिल्म गीतकार प्रसून जोशी को 'शैलेंद्र सम्मान-09' से नवाजा जाएगा। मशहूर गीतकार स्व. शैलेंद्र की स्मृति में वर्ष, 2000 में शुरू किया गया यह सम्मान अब तक पांच फिल्म गीतकारों-गुलजार, कैफी आजमी, नीरज, योगेश और गुलशन बावरा को दिया जा चुका है।
शुक्रवार को ओएनजीसी (आयल एंड नेचुरल गैस कारपोरेशन) मुख्यालय स्थित गेस्ट हाउस में संवाददाताओं से बातचीत में ओएनजीसी के जीएम प्रशासन सुंदरलाल ने बताया कि शैलेंद्र मेमोरियल ट्रस्ट, रुड़की की ओर से यह सम्मान उस फिल्म गीतकार को दिया जाता है, जिसने कवि शैलेंद्र की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सामाजिक सरोकार वाले कर्ण प्रिय गीत लिखे हों और फिल्मों व साहित्य के बीच की खाई पाटने का प्रयास किया हो। उत्तराखंडी मूल के युवा फिल्म गीतकार प्रसून जोशी को 'रंग दे बसंती', 'हम तुम', 'ब्लैक', 'फना', 'तारे जमीं पर', 'गजनी' और 'दिल्ली-06' फिल्मों में शानदार अर्थपूर्ण गीत लिखने के लिए इस सम्मान के लिए चुना गया है।
शैलेंद्र मेमोरियल ट्रस्ट के कार्यकारी अध्यक्ष गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र व सचिव डॉ. इंद्रजीत सिंह ने बताया कि 30 अगस्त को ओएनजीसी के एएनएम घोष आडिटोरियम में आयोजित होने वाले सम्मान समारोह की अध्यक्षता गीत सम्राट पद्मश्री डॉ. गोपाल दास नीरज करेंगे। जन संस्कृति मंच से जुड़े वरिष्ठ हिंदी साहित्यकार एवं आलोचक मैनेजर पांडेय शैलेंद्र पर वक्तव्य देंगे। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि ओएनजीसी के मानव संसाधन निदेशक डॉ. अशोक कुमार बालियान होंगे।
शैलेंद्र की समग्र रचनाओं
का पुन: प्रकाशन होगा
शैलेंद्र मेमोरियल ट्रस्ट के सचिव डॉ. इंद्रजीत सिंह ने बताया कि ट्रस्ट शैलेंद्र की रचनाओं का पुस्तक के रूप में पुन:प्रकाशन करेगा। इसमें उनके गीत, लेख, साहित्यकारों को लिखे हस्तलिखित पत्र आदि इसमें प्रकाशित किए जाएंगे।
-उत्तराखंड बनाएगा किसाऊ परियोजना
डा. निशंक और धूमल के बीच हुई बातचीत में बनी सहमति
दिल्ली को मिलेगा पीने का पानी, पांच राज्यों में हो सकेगी सिंचाई
छह माह में बन सकेगी परियोजना की डीपीआर
देहरादून,
छह सौ मेगावाट क्षमता वाली किसाऊ बांध परियोजना के लिए उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के बीच सहमति बन गई है। शिमला में दोनों प्रदेश के मुख्यमंत्रियों के बीच हुई उच्च स्तरीय बैठक में तय किया गया कि इस परियोजना का निर्माण उत्तराखंड जल विद्युत निगम करेगा। इस परियोजना से पांच राज्यों को सिंचाई के लिए और दिल्ली को पीने का पानी मिलेगा।
शिमला में भाजपा की चिंतन बैठक के बाद उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्रियों डा.रमेश पोखरियाल निशंक और प्रेम कुमार धूमल के बीच 600 मेगावाट की किसाऊ परियोजना पर गंभीर मंथन किया गया। बैठक में उत्तराखंड सरकार के ऊर्जा सलाहकार योगेंद्र प्रसाद और सतलुज जल विद्युत निगम सीएमडी एचके शर्मा भी थे। श्री प्रसाद के अनुसार दोनों राज्यों के बीच सहमति बनी है कि परियोजना का निर्माण उत्तराखंड जल विद्युत निगम करेगा। मुख्य सवाल दोनों राज्यों के बीच बिजली बंटवारे का रहा। अनुमान है कि इस परियोजना की लागत दस हजार करोड़ रुपये के करीब होगी।
इसमें से पांच हजार करोड़ रुपये जल का उपयोग करने वाले राज्यों के हिस्से में आएगा। दिल्ली को पीने के लिए 616 मिलियन क्यूसेक्स पानी की आपूर्ति होगी। इसके अतिरिक्त उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब तथा राजस्थान को सिंचाई के लिए पानी मिलेगा। बिजली कंपोनेंट के लिए पांच हजार करोड़ रुपये में उत्तराखंड तथा हिमाचल को जुटाने होंगे। यदि इक्युटी के रूप में करीब 1600 करोड़ की व्यवस्था हो जाए तो बाकी राशि बैंक से मिल सकती है। दोनों प्रदेशों को आधी-आधी इक्विटी राशि देनी होगी।
ऊर्जा सलाहकार श्री प्रसाद ने बताया कि इस परियोजना की परिकल्पना 1940 में की गई थी। कालसी से 40 किमी दूर संाबरखेड़ा में 236 मीटर ऊंचा कंक्रीट ग्रेविटी बांध बनेगा। इससे प्रति वर्ष 1216 मिलियन यूनिट बिजली उत्पादन होगा। यह परियोजना बनने से डाउन स्ट्रीम में बनी छिबरो, खोदरी, ढालीपुर, ढकरानी और कुल्हाल परियोजनाओं में 410 एमयू और उत्तर प्रदेश की खारा परियोजना में 62 एमयू उत्पादन बढ़ेगा। इससे 97076 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई हो सकेगी।
-यही हाल रहा तो बिखर जाएंगे मंदिर
-उत्तरकाशी में स्थित हैं सदियों पुराने कई मंदिर
-सरकारी संरक्षण व देखरेख के अभाव में टूट रहे हैं पुराने मंदिर
उत्तरकाशी: गंगा के पवित्र तट पर बसी शिवनगरी उत्तरकाशी में कभी चारों पहर भगवान के भजनों के साथ शंखनाद और मंदिरों की घंटियों की टंकार गूंजा करती थी। वक्त के साथ मंदिर ध्वस्त होते गए और आज यहां कुछ ही मंदिर शेष रह गए हैं। इनमें से अधिकांश मंदिर सदियों पुराने हैं, लेकिन सरकारी संरक्षण व देखरेख के अभाव में ये भी बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं। आलम यह है कि कई मंदिर तो मरम्मत न होने के कारण ध्वस्त होने की कगार तक जा पहुंचे हैं। ऐसे में धर्मप्रेमियों को यह चिंता सताने लगी है कि अगर यही हाल रहा, तो आने वाले दिनों में ये पौराणिक मंदिर भी कहीं इतिहास बनकर न रह जाएं।
तपस्वी और साधुओं की पवित्र उत्तरकाशी नगरी को पुराणों में सौम्यकाशी का नाम दिया गया है। केदारखंड के अनुसार यह शिव की प्रिय नगरी है। यहां 12 ज्योतिर्लिंगों के अलावा मां दुर्गा व उसके अन्य रूपों के कई मंदिर स्थापित है। बाबा विश्वनाथ मंदिर में गणेश की 12वीं-13वीं सदी की प्रतिमाएं व शक्ति माता के विशाल त्रिशूल का शीर्ष नजर आते हैं। कहते हैं कि दक्ष प्रजापति के यज्ञ विध्वंस के बाद क्रोधित भैरव को शिव ने सौम्यकाशी में स्थापित होने का आदेश दिया और यहां भैरव आनंद रूप में निवास करते हैं। भैरव चौक पर परशुराम की दुलर्भ मूर्ति के दर्शन ही परम सौभाग्य देने वाले हैं। कंडार भैरव, दक्षिणेश्वर काली, नर्मदेश्वर, केदारनाथ, गोपेश्वर समेत अन्य शिवलिंगों के दर्शन भी मात्र उत्तरकाशी में ही हो सकते हैं।
पौराणिक उल्लेख के मुताबिक यहां कभी आठ सौ से अधिक मंदिर अस्तित्व में थे, लेकिन बाढ़, भूकंप और भूस्खलन जैसी आपदाओं में कई मंदिरों का अस्तित्व ही मिट गया। रैथल सूर्य मंदिर समूह की दुर्लभ मूतियां अब गायब हो चुकी हैं, जबकि गत चार वर्ष पहले एक टूटे हुए मंदिर ये प्रतिमाएं बिखरी हुई थी। इसी तरह भैरव चौक पर दत्तात्रेय मंदिर में कभी विशाल विष्णु मूर्ति और आंगन में चार कुत्तों और एक गाय की प्रतिमा कुछ वर्ष पहले चोरी कर ली गई। अब मंदिर जीर्णशीर्ण स्थिति में है। पुलिस ने चोरों की तलाश में नाकाम रहने के बाद अब फाइल ही बंद कर दी है। जड़भरत घाट पर कभी जड़भरत का विशाल मंदिर बहने के साथ ही इस मंदिर की मूर्तियां भी गायब हैं। इसी तरह जोशियाड़ा गंगा तट पर मां काली और भैरव की मूर्तियां स्थापित हैं किन्तु यहां मंदिर के ऊपर छत ही न होने से मूर्तियां धीरे-धीरे समाप्त हो रही हैं।
इस बाबत, गंगोत्री के विधायक गोपाल रावत कहते हैं कि जीर्णशीर्ण मंदिरों के सरंक्षण को लेकर पर्यटन विभाग से मिलकर योजना तैयार की जाएगी और इससे पहले शहर के तमाम मंदिरों के पुजारियों के साथ वार्ता की जाएगी। उन्होंने कहा कि मंदिरों की सुरक्षा आम आदमी की भी जिम्मेदारी है और इसे लेकर नागरिकों को सामूहिक प्रयास करने चाहिए।
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संरक्षण के किए जा रहे प्रयास
उत्तरकाशी: मंदिर जीर्णोद्धार समिति ने कंडार देवता के मंदिर में सहयोग देकर एक उपलब्धि दर्ज की है और अब समिति अन्य मंदिरों के जीर्णोद्वार को लेकर भी प्रयासरत हैं, लेकिन आर्थिक स्थिति लचर होने के कारण समिति के हाथ भी बंधे हैं। समिति के अध्यक्ष अजय प्रकाश बडोला कहना है कि मंदिरों के जीर्णोद्वार के लिए हर नागरिक से एक रुपए की मांग की जाती है और धनराशि जमा होते ही समिति शहर के एक मंदिर का जीर्णोद्वार ही कर सकती है। वहीं, साधु सूर्यदेव, सर्वेश्वरा नंद महाराज, स्वामी प्रमोद चैतन्य महाराज, आनंद प्रकाश आदि का कहना है कि प्रशासन को इसके लिए कदम उठाने चाहिए।
-राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम' को नए रंग में पिरोया कोटद्वार के सुधीर ने
-शास्त्रीय व पाश्चात्य 22 परंपरागत वाद्य यंत्रों का फ्यूजन किया तैयार
कोटद्वार
यह जरूरी नहीं कि हुनर विरासत में मिले, लेकिन सीखने की ललक, जिज्ञासा व कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो हुनर खुद ब खुद आ जाता है। साधक की साधना तब ही सफल होती है, जब उसमें लगन, धैर्य व कड़े परिश्रम जैसे गुणों का समावेश हो। इन दिनों 22 वाद्य यंत्र लयबद्ध तरीके से एक साथ बजा कर ऐसे ही हुनर का प्रदर्शन कर रहे हैं युवा लोक कलाकार सुधीर बहुगुणा।
संस्कार कला केंद्र के माध्यम से लोक कला व वाद्य यंत्रों की बारीकियां सिखाने वाले सुधीर ने तबला को छोड़ किसी वाद्य यंत्र को बजाने का प्रशिक्षण नहीं लिया। वाद्य यंत्रों के प्रति जिज्ञासा ने उन्हें लोक कला के क्षेत्र में उतरने को प्रेरित किया। तबला वादन का प्रशिक्षण लिया, लेकिन अन्य वाद्य यंत्रों पर उनके हाथ खुद ब खुद हरकत करने लगे। विलुप्ति की कगार पर खड़े कई वाद्य यंत्रों का उन्होंने संकलन किया और लगन व कड़ी मेहनत से उनमें उन्हें बजाने का हुनर भी आ गया।
वह इस क्षेत्र में नए-नए प्रयोग भी करते रहते हैं। हाल ही में उन्होंने भारतीय शास्त्रीय व पाश्चात्य 22 परंपरागत (एकोस्ट्रिक) वाद्य यंत्रों का एक फ्यूजन तैयार किया है। इसमें सिर्फ आर्गन ही ऐसा वाद्य यंत्र है, जो इलेक्ट्रॉनिक है। चार मिनट बत्तीस सेकेंड के अभिनव प्रयोग में सुधीर ने राष्ट्रगीत 'वंदे मातरम्...' का संगीत लयबद्ध किया है। इसके अंत में उन्होंने बहुत ही खूबसूरती के साथ राष्ट्रगान के चंद शब्दों '...जय जय जय जय हे' को भी शामिल कर लिया। विलंबित कहरवा ताल (आठ मात्रा) की इस प्रस्तुति में खास बात यह कि वह अकेले ही 22 वाद्ययंत्रों को बिना रुके एक के बाद एक लयबद्ध तरीके से बजाते हैं। इन वाद्य यंत्रों में आर्गन, ड्रम सेट, तबला, डुग्गियां, कांगो, कटोरियां, नाद, घंटे समेत कई साइड इंस्ट्रूमेंट शामिल हैं।
अभी उन्होंने इस अभिनव प्रयोग का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया है। उनका कहना है कि गढ़वाल के प्रवेश द्वार कोटद्वार के सभी विद्यालयों व सार्वजनिक स्थानों के बाद वह अपनी कला का प्रदर्शन सचिवालय व विधानसभा परिसर में भी करेंगे।
=रावत के बयान से कुंभनगरी में 'भूचाल'
-दोगुनी संख्या में रोजा इफ्तार पार्टियों का आयोजन करें कांग्रेसी: हरीश रावत
-रमजान के महीने में नमाज के लिए पर्याप्त जगह न होने पर भी जताई चिंता
-भाजपा ने कहा, उपवास धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ, रावत का पुतला भी जलाया
-अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद व गंगा सभा भी हुई विरोध में मुखर
-कांग्रेस में भी उठे विरोध के स्वर, ब्रह्मचारी ने बताया इसे सिर्फ ड्रामेबाजी
हरिद्वार,= केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्री हरीश रावत के एक बयान से कुंभनगरी हरिद्वार में सियासी भूचाल के हालात बन गए हंै। कलक्ट्रेट परिसर में उपवास के दौरान रावत ने आज कांग्रेसियों से इस बार दोगुनी संख्या में रोजा इफ्तार पार्टियां करने का आह्वान करते हुए इस बात पर चिंता जताई कि रमजान के महीने में मुसलिम समुदाय के लोगों को नमाज के लिए स्थान उपलब्ध नहीं है। रावत के इस बयान पर जहां भाजपा ने तीखी प्रतिक्रिया जताते हुए उनका पुतला फूंका, वहीं उनकी ही पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष ने रावत के उपवास को ड्रामेबाजी करार दिया। उधर, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने फ्रंट पर आकर इसका विरोध किया है तो गंगा सभा ने कहा मंत्री सांप्रदायिक माहौल खराब करने की कोशिश कर रहे हैं।
शुक्रवार को रोशनाबाद कलक्ट्रेट पर अपने उपवास के दौरान केंद्रीय राज्य मंत्री हरीश रावत ने कहा कि प्रदेश सरकार प्रदेश की कौमी एकता को खतरे में डाल रही है। उन्होंने कहा कि रमजान के महीने में मुसलिम समुदाय के लोगों को नमाज के लिए स्थान उपलब्ध कराने के संबंध में उन्होंने शासन और प्रशासन के प्रतिनिधियों से कई बार वार्ता की, लेकिन अब तक कोई इंतजाम नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस इसका विरोध करती है। साथ ही उन्होंने कांग्रेसियों का आह्वान किया कि वे इस बार दोगुनी संख्या में रोजा इफ्तार पार्टियों का आयोजन करें। संबोधन के बाद केंद्रीय मंत्री ने अपर जिलाधिकारी सुरेंद्र नारायण पांडेय को राज्यपाल के नाम संबोधित ज्ञापन भी सौंपा।
रावत के बयान पर सूबे में सत्तासीन भाजपा ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। धार्मिक मुद्दे पर किए उपवास को भाजपाइयों ने धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ बताते हुए उनका पुतला दहन कर विरोध जताया। एक बैठक में भाजपा मंडल अध्यक्ष मनोज गर्ग, भाजयुमो जिलाध्यक्ष राजीव शर्मा, जिला उपाध्यक्ष हरजीत सिंह आदि ने हरीश रावत द्वारा उठाई गई मांगों का विरोध करते हुए कहा कि वह वोटों की राजनीति करने से बाज आएं। भाजपा नेताओं ने केंद्रीय राज्यमंत्री के उपवास कार्यक्रम को कांग्रेसी नाटक करार देते हुए उन पर माहौल खराब करने का आरोप लगाया।
उधर, पार्टी में रावत विरोधी गुट ने भी इस मौके को हाथों हाथ लपक लिया। गत लोकसभा चुनाव में हरिद्वार संसदीय सीट से कांग्रेस टिकट के प्रबल दावेदार रहे कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मचारी ने शुक्रवार को श्रम एवं रोजगार राज्यमंत्री के उपवास कार्यक्रम को नाटकबाजी करार दिया। ब्रह्मचारी ने रावत को इस तरह राजनीतिक नाटकबाजी से दूर रहने की सलाह दी है। श्री ब्रह्मचारी ने कुरुक्षेत्र से मोबाइल पर हुई वार्ता के दौरान हरीश रावत की इस गतिविधि का जमकर विरोध किया। उन्होंने कहा कि हरीश रावत केंद्र सरकार के मंत्री हैं और इस समय देश में स्वाइन फ्लू, सूखा और महंगाई जैसे तमाम मसले हैं, जिन पर जनता को राहत दिलाये जाने की जरूरत है।
दूसरी तरफ, अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री हरी गिरी महाराज ने कहा कि सांसद हरीश रावत को जिताने में संतों की अहम भूमिका रही है। श्री गिरी का कहना था कि कांग्रेस की हालत यह हो गई है कि वह कई जगहों पर सांप्रदायिक राजनीति करने लगी है। ऐसे मसले उठाना जो शांत हैं, यह केन्द्रीय मंत्री को कतई शोभा नहीं देता। उन्होंने बताया कि साधु संत हरीश रावत को बेहद सुलझाा हुआ मानते थे, लेकिन इस कदम के बाद अब इस पर विचार करना होगा।
गंगा सभा के अध्यक्ष राम कुमार मिश्रा ने कहा कि देश स्वाइन फ्लू, सूखा से पीडि़त है। इन मुद्दों को लेकर उपवास तो समझा में आता है, लेकिन किसी धार्मिक मामले को हवा देने के उद्देश्य से किया गया उपवास केन्द्रीय मंत्री की सोच को दर्शाता है। षडदर्शन साधु समाज के महामंत्री और आद्य जगद्गुरु शंकराचार्य स्मारक समिति के महामंत्री स्वामी देवानंद सरस्वती का कहना था कि केन्द्रीय मंत्री का यह कदम अनुचित है। वह माहौल बिगाडऩे का प्रयास कर रहे है। हर चीज के लिए स्थान नियत है। अलग से नमाज अदा करने की जगह की मांग करना जायज नहीं है।
पिथौरागढ़ में 4.70 करोड़ से बनेंगे पांच हेलीपैड
-धनराशि मंजूर, कार्य शीघ्र शुरू करने के निर्देश
पिथौरागढ़: जिले में पांच हेलीपैड निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो गया है। प्रदेश के उड्डयन विभाग ने इसके लिए 469.35 लाख रुपये की धनराशि भी स्वीकृति कर दी है। हेलीपेड जिले की पांच तहसीलों में बनाये जायेंगे। जिलाधिकारी ने संबंधित तहसीलों के उपजिलाधिकारियों को निर्माण कार्य शीघ्र शुरू कराने के निर्देश दिये हैं।
प्रस्तावित हेलीपैड धारचूला तहसील के राजकीय इण्टर कालेज, मुनस्यारी के राजकीय इण्टर कालेज, गंगोलीहाट के पूर्व माध्यमिक विद्यालय दशाईथल तथा डीडीहाट व बेरीनाग में बनाये जाने हैं। हेलीपैडों के निर्माण के लिए शुक्रवार को मुख्यालय पर हुई बैठक में डीएम एनएस नेगी ने बताया कि गंगोलीहाट, धारचूला और मुनस्यारी तहसीलों में हेलीपैडों का निर्माण शीघ्र प्रारम्भ करा दिया जायेगा। बेरीनाग में प्रस्तावित भूमि के विवादित होने और डीडीहाट में चयनित भूमि के वन भूमि होने के कारण इन स्थानों पर हेलीपैड निर्माण में बिलम्ब हो सकती है। धारचूला, मुनस्यारी और गंगोलीहाट में प्रस्तावित हेलीपैड विद्यालयों के खेल मैदान में बनाये जाने हैं। उन्होंने जिला शिक्षाधिकारी को शीघ्र अनापत्ति प्रमाण पत्र उपलब्ध कराने के निर्देश दिये। बैठक में संबंधित तहसीलों के उपजिलाधिकारियों के साथ कार्यदायी संस्था उत्तराखण्ड पेयजल संसाधन विकास एवं निर्माण निगम के परियोजना प्रबंधक भी मौजूद थे।
पिथौरागढ़ को फिर मिला वायुसेना भर्ती का मौका
पिथौरागढ़: सीमांत जिले पिथौरागढ़ में इस वर्ष भी वायुसेना की भर्ती होगी। जिले को दूसरी बार वायुसेना की भर्ती का मौका मिला है। शुक्रवार को बैठक में भर्ती की तैयारियों को अंतिम रूप दिया गया। यह भर्ती अक्तूबर में होगी।
बैठक में दिल्ली से आये वायुसेना के कमान अधिकारी विनय प्रताप सिंह ने बताया कि कुमाऊं के युवाओं के लिए 29 अक्टूबर से 1 नवंबर तक स्थानीय स्पोट्र्स स्टेडियम में भर्ती की जायेगी। भर्ती दो वर्गों में होगी। गु्रप एक्स में तकनीकी ट्रेडों के लिए विज्ञान विषयों के साथ इण्टरमीडिएट उत्तीर्ण और पालिटेक्निक डिप्लोमाधारी भाग ले सकेंगे। ग्रुप वाई में नान टेक्रिकल ट्रेड की भर्ती की जायेगी। जिसमें विज्ञान, कामर्स और कला विषयों के साथ इण्टरमीडिएट उत्तीर्ण युवा भाग ले सकेंगे। दोनों ग्रुपों की भर्ती के लिए 50 प्रतिशत अंकों के साथ उम्र 17 से 22 वर्ष निर्धारित है।
बैठक में जिलाधिकारी ने बताया कि भर्ती प्रक्रिया सम्पन्न कराने के लिए जिला क्रीड़ाधिकारी को नोडल अधिकारी नियुक्त किया गया है। भर्ती के लिए तहसीलदार पिथौरागढ़ को मजिस्ट्रेट बनाया गया है।
Friday, 21 August 2009
Thursday, 20 August 2009
-टिहरी के गांवों में अज्ञात बुखार ने पैर पसारे
दो सौ से अधिक लोग बीमारी की चपेट में
ऋषिकेश-टिहरी जिले की दोगी पट्टी के कई गांव इन दिनों एक अज्ञात बुखार की चपेट में हैं। बीते कुछ सप्ताह में विभिन्न ग्राम सभाओं के करीब 200 लोग इसकी गिरफ्त में आ चुके हैं, जिसमें से कई की हालत गंभीर बताई जा रही है। इन गांवों तक जाने वाला मुख्य मार्ग एक माह से बंद होने के कारण बीमार लोगों तक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं पहुंच पा रही हैं।
नरेंद्रनगर विकासखंड की दोगी पट्टी के कई गांव अज्ञात बुखार की चपेट में हैं। मिंडाथ, पूर्वाला, संस्मण, नाई, मुंडाला, लोडली समेत कई गांवों के करीब 200 लोग इसकी गिरफ्त में आ चुके हैं। यह बुखार तेजी से आसपास के गांवों को भी अपनी चपेट में ले रहा है, जिस कारण लोगों मे भय व्याप्त है। कई हफ्ते बीत जाने के बाद भी इन गांवों तक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं पहुंच पाई हंै। इसका कारण इन गांवों को जाने वाला मुख्य मार्ग एक माह से कई जगहों पर मलबा आने के कारण अवरुद्ध पड़ा है। बीमारों को अस्पताल पहुंचाने में भी भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। मिंडाथ के ग्राम प्रधान गोविंद सिंह दवाण ने बताया कि यह बुखार धीरे-धीरे आसपास के गांवों को भी अपनी चपेट में ले रहा है, जिनमें से कई लोगों की हालत अब गंभीर होती जा रही है। टिहरी के प्रभारी मुख्य चिकित्साधिकारी डा. बीएम जोशी ने बताया कि दोगी पट्टी के गांवों में अज्ञात बुखार की जानकारी उनके संज्ञान में नहीं है।
-फर्जी डिग्र्री से प्रमोशन की कोशिश
सिंचाई विभाग के ग्यारह जूनियर इंजीनियर आए गिरफ्त में
विभागाध्यक्ष और जांच अधिकारी का जवाब तलब
जालसाजी की रिपोर्ट दर्ज कराने का आदेश
देहरादून-
फर्जी डिग्र्री के सहारे पदोन्नति पाने की कोशिश करने वाले सिंचाई विभाग के ग्यारह जूनियर इंजीनियर आखिरकार गिरफ्त में आ ही गए। शासन ने मामले में हीलाहवाली करने वाले विभागाध्यक्ष और जांच करने वाले एसई का जवाब तलब करने के साथ ही इंजीनियरों के खिलाफ जालसाजी की रिपोर्ट दर्ज कराने के निर्देश दिए हैैं।
शासन स्थित सूत्रों ने बताया कि सिंचाई विभाग के ग्यारह जूनियर इंजीनियरों किशोरी लाल भट्ट, मंजीत नेगी, हरीश चंद्र नौटियाल, हरीराम भट्ट, जयेंद्र सिंह, विनोद प्रसाद डंगवाल, सुधीर कुमार ममगांई, राजेश कुमार, शिवराज जगूड़ी, राजेश नौटियाल व परशुराम ने बी.टेक की डिग्र्री पेश करते हुए सलेक्शन ग्र्रेड और सहायक अभियंता के पद पर प्रमोशन की मांग की थी। डिप्लोमा के आधार पर नौकरी में आने वाले इन इंजानियरों का कहना था कि यह डिग्र्री डिस्टेंस एजुकेशन के जरिए हासिल की गई है।
सूत्रों ने बताया कि राजस्थान के सरदार नगर स्थित डीम्ड विवि आईएएसई की ओर से जारी इन डिग्र्रियों पर संदेह हुआ तो जांच अधीक्षण अभियंता डीके पचौरी को सौंपी गई। लंबे समय तक न तो जांच पूरी की गई और न ही कोई रिपोर्ट शासन को दी गई। बाद में शासन ने अपने स्तर से जांच करवाई तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, इंदिरा गांधी मुक्त विवि और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद की ओर से बताया गया कि उक्त डीम्ड विवि बी.टेक डिग्र्री के लिए अनुमन्य नहीं है।
सूत्रों ने बताया कि इसके बाद शासन ने मामले को गंभीरता से लिया है। जांच में हीलाहवाली करने पर अधीक्षण अभियंता श्री पचौरी को कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है। इसके साथ ही विभागाध्यक्ष सागर चंद को भी लापरवाही का दोषी मानते हुए स्पष्टीकरण मांगा गया है। सूत्रों ने बताया कि विभागाध्यक्ष सागर चंद को निर्देश दिए गए हैैं कि सभी ग्यारह जूनियर इंजीनियरों के खिलाफ जालसाजी करने के आरोप में भारतीय दंड संहिता की दफा 420 के तहत पुलिस में प्राथमिकी दर्ज कराई जाए।
उत्तराखंड: अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में बढ़ते कदम
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अक्षय ऊर्जा दिवस 20 अगस्त पर विशेष
-40 लघु प्रोजेक्टों से पैदा हो रही 3.59 मेवा बिजली, 286 गांव रोशन
-2020 तक लघु हाइड्रो-प्रोजेक्ट्स से 600 मेगावाट उत्पादन का लक्ष्य
देहरादून- राज्य सरकार की ऊर्जा नीति में असीम प्राकृतिक संसाधनों वाले उत्तराखंड में अक्षय ऊर्जा (रिन्युएबल एनर्जी) के स्रोतों के दोहन को खास तवज्जो दी गई है। इस क्रम में वर्ष 2020 तक सूबे की छोटी-बड़ी नदियों में लघु जलविद्युत परियोजनाओं से 600 मेगावाट, बायोमास व एग्रोवेस्ट से 300 मेगावाट और औद्योगिक इकाईयों में को-जेनेरेशन के जरिए 220 मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही, सौर ऊर्जा के अधिकाधिक उपयोग के अलावा विंड-एनर्जी (पवन ऊर्जा) प्रोजेक्ट व जियोथर्मल (भू-तापीय) एनर्जी की संभावनाएं भी तलाशी जा रही हैं।
पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बगैर अक्षय ऊर्जा स्रोतों के दोहन में अब तक सबसे ज्यादा सफलता लघु जलविद्युत परियोजनाओं के जरिए मिली है। उत्तराखंड अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण (उरेडा) के सहयोग से वर्ष 2007-08 में बागेश्वर जनपद में 4 और चमोली जिले में 2 लघु जलविद्युत परियोजनाओं का निर्माण किया जा चुका है। ग्रामीण सहभागिता के आधार पर बनी कुल 400 किलोवाट क्षमता की इन 6 परियोजनाओं के जरिए दूरस्थ पर्वतीय क्षेत्र के 33 गांवों को रोशनी की सौगात मिली है।
उरेडा द्वारा अब तक कुल 3.59 मेेगावाट की 40 लघु जलविद्युत परियोजनाओं के जरिए 286 गांवों को विद्युत सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। खास बात यह है कि इन तमाम परियोजनाओं का संचालन पूरी तरह से ग्राम समितियों के जरिए हो रहा है। इसके अलावा 12 प्रोजेक्ट्््स का निर्माण अंतिम चरण में है, जबकि 4 नए प्रोजेक्ट्््स का निर्माण कार्य प्रारंभ किया जा चुका है। सूबे में निर्माणाधीन 1835 किलोवाट क्षमता की इन 16 परियोजनाओं के जरिए अब तक उजाले से महरूम 42 गांवों व 36 तोकों तक बल्ब की रोशनी पहुंच सकेगी।
नवीन एवं नवीनीकरण ऊर्जा मंत्रालय की वित्तीय सहायता से पहाड़ी सूबे के 181 पारंपरिक घराटों (पनचक्की) को उच्चीकृत कर उनमें बिजली भी पैदा की जा रही है। सूबे के 484 गांवों व 121 तोकों में सौर ऊर्जा के जरिए बिजली पहुंचाई गई है।
आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में प्रतिवर्ष 20 मिलियन मीट्रिक टन एग्रो-इंडस्ट्रियल प्रोसेसिंग वेस्ट निकलता है, जिससे वर्ष 2020 तक 300 मेगावाट बिजली पैदा करने का लक्ष्य है। पवन ऊर्जा की संभावनाएं तलाशने के लिए 24 स्थानों विंडमास्ट संयत्र स्थापित किए गए हैं। साथ ही, हिमालयी राज्य में मौजूद गर्म पानी के भूमिगत जलस्रोतों से भू-तापीय (जियोथर्मल) बिजली पैदा करने पर भी विचार चल रहा है। उरेडा के मुख्य परियोजना अधिकारी एके त्यागी का कहना है कि वर्ष 2020 के लिए निर्धारित लक्ष्यों पर अपेक्षित सफलता मिली तो यह पहाड़ी राज्य समूचे देश के सामने अक्षय ऊर्जा के विकास में एक आदर्श स्थापित कर सकेगा।
-मेडिकल में सीट नहीं, इंजीनियरिंग को छात्र नहीं
-उत्तराखंड के मेडिकल संस्थानों में सिर्फ एक हजार सीटें, इंजीनियरिंग में करीब 15 हजार
-तकनीकी विवि से संबद्ध कालेजों में दो बार काउंसिलिंग के बावजूद रिक्त हैैं 1500 सीटें
देहरादून- मेडिकल शिक्षा के लिए उत्तराखंड के कालेजों में सीटें नहीं हैैं और इंजीनियरिंग कालेजों को सीटें भरने के लिए छात्र नहीं मिल रहे। मेडिकल शिक्षा के विभिन्न संस्थानों में लगभग एक हजार सीटें हैैं, जबकि इंजीनियरिंग कालेजों में इनकी तादाद करीब 15 हजार है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसकी बड़ी वजह मेडिकल व इंजीनियरिंग कालेज शुरू करने के मानकों में अंतर का होना है।
उत्तराखंड तकनीकी विवि से संबद्ध 27 कालेजों, ग्र्राफिक एरा विवि, इक्फाई विवि, यूनिवर्सिटी आफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज समेत विभिन्न संस्थान राज्य में तकनीकी शिक्षा प्रदान कर रहे हैैं। बीटेक, एमटेक, बीआर्क समेत विभिन्न पाठ्यक्रमों में करीब 15 हजार सीटें उपलब्ध हैैं। अकेले तकनीकी विवि से संबद्ध कालेजों में ही 7061 सीटें है, जिन्हें दो बार काउंसिलिंग कराने के बावजूद भरा नहीं जा सका है। आलम यह है कि अभी भी स्टेट कोटे की 1500 से ज्यादा सीटें रिक्त पड़ी हैैं। प्रबंधन कोटे की रिक्त सीटों का आंकड़ा तो इससे कहीं अधिक है। यही हाल निजी एवं डीम्ड विवि की सीटों का भी है। तकनीकी विवि के कुलसचिव डा. मृत्युंजय कुमार मिश्रा का कहना है कि प्रदेश में इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वाले छात्रों की संख्या उतनी नहीं है, जितने संस्थान खुल गए हैैं। फिर भी बीते सत्र के मुकाबले इस वर्ष करीब एक हजार ज्यादा छात्रों ने प्रवेश लिया। इस सत्र में दस नए कालेज खुले हैैं, जिससे लगभग 2500 सीटें बढ़ी हैैं। उन्होंने कहा कि एआईसीटीई से मान्यता मिलने के बाद विवि मात्र संबद्धता देने वाली एजेंसी रह गया हैै।
अब आते हैं मेडिकल शिक्षा पर। प्रदेश में एमबीबीएस, बीडीएस, बीएएमएस व बीएचएमएस की उपाधियों के लिए सरकारी, सहायता प्राप्त व स्ववित्त पोषित संस्थानों की संख्या ग्यारह है। इस सत्र के लिए इनमें से दो को डेंटल काउंसिल आफ इंडिया से अनुमति नहीं मिल पाई। शेष बचे नौ कालेजों में से तीन सरकारी, एक सहायता प्राप्त और पांच स्ववित्त पोषित हैैं। इन कालेजों की कुल 760 सीटों में से 505 सरकारी कोटे की हैैं। एमबीबीएस के लिए एक सरकारी, एक सहायता प्राप्त व एक निजी कालेज है। इन कालेजों में कुल तीन सौ सीटें हैैं। बीएएमएस के लिए हरिद्वार में दो सरकारी कालेज और देहरादून में दो निजी कालेज हैैं। इनमें 260 छात्रों को प्रवेश मिलेगा। बीएचएमएस के लिए सूबे में केवल एकमात्र संस्थान है, जिसमें 50 सीटें हैैं। इसके अलावा जौलीग्र्रांट स्थित हिमालयन डीम्ड विवि में विभिन्न पाठ्यक्रमों की लगभग तीन सौ सीटें हैैं।
मेडिकल कालेज खोलना टेढ़ी खीर
मेडिकल कालेज खोलने के मानक इतने सख्त हैं कि शिक्षण संस्थाएं इसमें कदम रखने से बचती हैं, जबकि तकनीकी कालेज खोलना आसान है। यही वजह है कि प्रदेश में इंजीनियरिंग कालेज तो धड़ल्ले से खुल रहे हैैं, लेकिन मेडिकल कालेज नहीं। इस संबंध में दून विवि के कुलपति प्रो.गिरिजेश पंत का कहना है कि कालेज के साथ ही अस्पताल खोलने की बाध्यता और शिक्षकों की कमी के कारण विभिन्न संस्थाओं का मेडिकल शिक्षा की ओर रुझाान कम ही रहता है। वहीं, तकनीकी शिक्षा के लिए कालेज खोलने के मानक बेहद सरल हैैं। साथ ही शिक्षकों की कमी भी नहीं है।
=कुंभ में लगेंगे हाई रिजोल्यूशन वीडियो सर्विलांस
-हजारों की भीड़ में भी किसी चेहरे को किया जा सकेगा जूम
-चप्पे-चप्पे पर इनके जरिए की जाएगी निगरानी
-आतंकी खतरों के मद्देनजर पुलिस कर रही है विशेष सुरक्षा तैयारी
देहरादून, महाकुंभ की भीड़ में पुलिस की नजरों से अब कोई भी चेहरा छिपा नहीं रह सकेगा। हाई रिजोल्यूशन वीडियो सर्विलांस के जरिए हर चेहरे पर नजर रखी जा सकेगी। कुंभ क्षेत्र में लगाए जाने वाले इन वीडियो सर्विलांस की खासियत यह होगी कि भीड़ के बीच भी किसी चेहरे को जूम किया जा सकेगा। इनके जरिए किसी आतंकी वारदात को रोकने में मदद तो मिलेगी ही, साथ ही वारदात को अंजाम देने वाले चेहरों को पहचानना भी आसान होगा।
उत्तराखंड में अगले साल महाकुंभ का आयोजन होना है। इस महापर्व में देश के तो करोड़ों लोग शामिल होंगे ही, विदेशों से भी लाखों की संख्या में श्रद्धालुओं के आने की संभावना है। इस कारण सुरक्षा चिंताएं भी ज्यादा हैं। उत्तराखंड पुलिस महाकुंभ की सुरक्षा के लिए लगातार आधुनिक उपकरणों के इस्तेमाल के बारे में सोच रही है। इसी क्रम में महाकुंभ में हाई रिजोल्यूशन वीडियो सर्विलांस लगाने की तैयारी की गई है।
फिलहाल हरिद्वार के हर की पैड़ी में वीडियो सर्विलांस लगाए गए हैैं। इनके अलावा कुंभ क्षेत्र के सभी एंट्री प्वाइंट्स व महत्वपूर्ण स्थानों पर इन उपकरणों को लगाने की तैयारी की जा रही है। पुलिस सूत्रों की मानें तो इनकी संख्या पचास से ज्यादा है। हाई रिजोल्यूशन वीडियो सर्विलांस की खासियत यह है कि इनके जरिए हजारों लोगों की भीड़ के बीच भी किसी एक चेहरे को इस हद तक जूम किया जा सकता है कि उसे पहचाना जा सके। इससे भीड़ में भी किसी की कोई खतरनाक हरकत छिपी नहीं रहेगी। आमतौर पर वीडियो सर्विलांस या सीसी टीवी कैमरा घटना के बाद छानबीन (पोस्ट इंसीडेंट डिटेक्शन) के काम में आते हैैं। चौबीसों घंटे सक्रिय रहने वाले इन वीडियो सर्विलांस द्वारा रिकार्ड किए गए सारे वीडियो एक खास सर्वर पर रिकार्ड रहेंगे। किसी भी घटना के बाद इन वीडियो को ध्यान से देखकर आतंकी का चेहरा तक पहचाना जा सकता है। वहीं, वीडियो सर्विलांस के जरिए पुलिस कंट्रोल रूम और पुलिस अधिकारी पूरे कुंभ क्षेत्र पर निगाह रखेंगे। ऐसे में किसी खतरनाक गतिविधि को पहले से नोट कर उसे नाकाम किया जा सकता है। डीआईजी आधुनिकीकरण कुमार विश्वजीत के मुताबिक हाई रिजोल्यूशन वीडियो सर्विलांस के जरिए किसी भी चेहरे को फोकस किया जा सकता है। इसी खासियत के जरिए इन दिनों इसका प्रयोग संवेदनशील जगहों पर किया जा रहा है।
-विलुप्त हो जाएंगे शंख बनाने वाले 'कीड़े'
-आधा दर्जन कीड़े शेड्यूल वन में हैं शामिल
-देश के धार्मिक स्थलों तक हो रही है तस्करी
-शंख को उबलते पानी में डालकर कीड़े को मार देते हैं तस्कर
हरिद्वार: समुद्र से शंख निकालने वाले तस्करों की वजह से दुर्लभ प्रजाति के करीब आधा दर्जन कीड़े विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गये हैं। हर मुमकिन कोशिश की जा रही है कि शंख निर्माण करने वाले कीड़ों को बचाया जा सके, लेकिन जिस तरह से समुद्रों पर तस्करों ने कब्जा जमा लिया है, ऐसे में वह दिन दूर नहीं जब शंख का निर्माण करने वाले कीड़े ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे।
समुद्र में शंख का निर्माण करने वाले कीड़े मिलते हैं। इन शंखों के लिए ही चेन्नई, गोवा और केरल से लगते समुद्री क्षेत्रों पर तस्करों की नजर रहती है। ये कीड़े दरअसल समुद्र में धीरे-धीरे अपने शरीर पर मोटी परत चढ़ाते हुए शंख का निर्माण करते हैं। इन शंखों को तस्कर स्थानीय प्रशासन से सांठगांठ कर समुद्र के हिस्से में जाल फेंककर हजारों की तादाद में निकाल लेते हैं। इन्हें उबलते पानी से भरे कंटेनर में डाला जाता है, जिससे ये दुर्लभ कीड़े दम तोड़ देते हैं। इतने बड़े परिमाण में समुद्र से शंख निकाले जा रहे हैं कि इन कीड़ों के विलुप्त होने का खतरा पैदा हो गया है। मुख्यत: हार्न हेलमेट, ट्रेपेजियम कौच, आरथ्रेटिक स्पाइडर कौच, आरेंज स्पाइडर कौच और गोल्ड वैण्डेड कीड़े शंख निर्माण करते हैं। इनकी दुर्लभ प्रजाति के कारण ही इन्हें वन्य जीव अधिनियम के तहत शेड्यूल वन में शामिल किया गया है। शंख निर्माण करने वाले अन्य कीड़ों जिनमें पिजेन कौच, टाप शैल, स्पिरल ट्यूडिक, ट्रम्पट ट्राइट्रोन और वुल माउंड हेलमेट आदि शामिल हैं, को वन्य जीव अधिनियम के तहत शेड्यूल चार में शामिल किया गया है।
तस्कर शंखों को खौलते पानी में डालने के कुछ देर बाद निकाल लेते हैैं और इन्हें उत्तराखंड, यूपी, महाराष्ट्र सहित अन्य जगहों पर भेजते हैं। उत्तराखंड में हरिद्वार और ऋषिकेश, यूपी में वाराणसी, इलाहाबाद, वृंदावन, मथुरा तक ये दुर्लभ शंख बदस्तूर पहुंच रहे हैं। महाराष्ट्र की बात करें तो नासिक इन दुर्लभ शंखों की बिक्री का बड़ा गढ़ बना हुआ है। पिछले कुछ समय से दुर्लभ शंखों की तस्करी की तादाद इस कदर बढ़ी है कि समुद्र में मिलने वाले वे कीड़े जो शंख का निर्माण करते हैं, तेजी से विलुप्त हो रहे हैं।
धार्मिक स्थलों की लेते हैं आड़
हरिद्वार: पीपुल्स फार एनीमल (पीएफए) के वाइल्ड लाइफ अफसर सौरभ गुप्ता ने दिल्ली से जागरण को बताया कि उत्तराखंड, यूपी सरीखे देश के धार्मिक स्थलों पर साधु-संत और व्यापारी संगठनों की आड़ लेकर इन दुर्लभ शंखों को आसानी से बेचा जाता है। उन्होंने बताया कि दुर्लभ कीड़े समुद्र में अब विलुप्त होने की स्थिति में है। इन्हीं वजहों से शेड्यूल में इनको शामिल कर शंखों की तस्करी रोकने का प्रयास किया जा रहा है।
-यूपी में ब्लैक लिस्टेड, उत्तराखंड में मौज
-यूपी में ब्लैक लिस्टेड कंपनी को दिया 4 करोड़ 91 लाख रुपये का ठेका
-उत्तराखंड जलविद्युत निगम की कार्यप्रणाली पर उठे सवाल
देहरादून, पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में तीन वर्ष के लिए ब्लैक लिस्टेड की गई एक कंपनी मैसर्स नार्दन पावर इरेक्टर्स लिमिटेड उत्तराखंड में मौज कर रही है। उत्तराखंड जलविद्युत निगम द्वारा हाल ही में उक्त कंपनी को गलोगी पावर हाउस के मेंटनेंस का काम सौंपा गया है। ऐसा नहीं कि निगम को कंपनी के ब्लैक लिस्टेड होने की खबर नहीं थी, बावजूद इसके 29 जून 2009 की बोर्ड बैठक में कंपनी को करीब 4 करोड़ 91 लाख रुपये का काम सौंपने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई।
दरअसल, नई दिल्ली की नार्दन पावर इरेक्टर्स लि. नामक कंपनी को यूपी जलविद्युत निगम द्वारा 23 अप्रैल 2007 को तीन वर्ष के लिए ब्लैक लिस्टेड किया गया था। यही कारण था कि उत्तराखंड जलविद्युत निगम ने अप्रैल 2008 में मनेरी भाली फेज-दो के एनुअल मेंटनेंस कांट्रेक्ट के लिए इस कंपनी की निविदा तक स्वीकार नहीं की। तब निगम के तत्कालीन निदेशक प्रोजेक्ट की सिफारिश पर प्रबंध निदेशक ने यह निर्णय किया था।
हैरत की बात यह है कि एक वर्ष बाद अचानक एक दूसरे पावर हाउस के मेंटनेंस का काम उसी कंपनी को सौंप दिया गया है, जिससे जलविद्युत निगम की कार्यप्रणाली पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। जून 09 में हुई बोर्ड बैठक में बाकायदा 49113778 रुपये का काम उक्त कंपनी को सौंपने का प्रस्ताव पारित किया गया, जबकि बीती 31 जुलाई को कंपनी के साथ काम का अनुबंध भी किया जा चुका है। सूत्रों के मुताबिक निगम के एक वरिष्ठ अधिकारी ने ही उक्त कंपनी को काम दिए जाने की सिफारिश की है।
जांच के बाद ही दिया काम: एमडी
देहरादून: जलविद्युत निगम के प्रबंध निदेशक आरपी थपलियाल ने स्वीकारा कि गत वर्ष कंपनी के ब्लैक लिस्टेड होने की सूचना पर ही उसे एमबी-दो का काम नहीं दिया गया लेकिन जब निगम ने उसके ट्रेक रिकार्ड की पड़ताल की, तो पाया कि यूपी जलविद्युत निगम के साथ उसका भुगतान को लेकर कुछ विवाद है। उन्होंने बताया कि यूपी के निगम के एक अधिकारी ने भी लिखित रूप से कंपनी के कामकाज पर संतोष जताते हुए यह बात स्वीकार की है। इसके बाद ही इस कंपनी को गलोगी पावर हाउस का काम सौंपा गया है।
-यूपी में ब्लैक लिस्टेड, उत्तराखंड में मौज
-यूपी में ब्लैक लिस्टेड कंपनी को दिया 4 करोड़ 91 लाख रुपये का ठेका
-उत्तराखंड जलविद्युत निगम की कार्यप्रणाली पर उठे सवाल
देहरादून, पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में तीन वर्ष के लिए ब्लैक लिस्टेड की गई एक कंपनी मैसर्स नार्दन पावर इरेक्टर्स लिमिटेड उत्तराखंड में मौज कर रही है। उत्तराखंड जलविद्युत निगम द्वारा हाल ही में उक्त कंपनी को गलोगी पावर हाउस के मेंटनेंस का काम सौंपा गया है। ऐसा नहीं कि निगम को कंपनी के ब्लैक लिस्टेड होने की खबर नहीं थी, बावजूद इसके 29 जून 2009 की बोर्ड बैठक में कंपनी को करीब 4 करोड़ 91 लाख रुपये का काम सौंपने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी गई।
दरअसल, नई दिल्ली की नार्दन पावर इरेक्टर्स लि. नामक कंपनी को यूपी जलविद्युत निगम द्वारा 23 अप्रैल 2007 को तीन वर्ष के लिए ब्लैक लिस्टेड किया गया था। यही कारण था कि उत्तराखंड जलविद्युत निगम ने अप्रैल 2008 में मनेरी भाली फेज-दो के एनुअल मेंटनेंस कांट्रेक्ट के लिए इस कंपनी की निविदा तक स्वीकार नहीं की। तब निगम के तत्कालीन निदेशक प्रोजेक्ट की सिफारिश पर प्रबंध निदेशक ने यह निर्णय किया था।
हैरत की बात यह है कि एक वर्ष बाद अचानक एक दूसरे पावर हाउस के मेंटनेंस का काम उसी कंपनी को सौंप दिया गया है, जिससे जलविद्युत निगम की कार्यप्रणाली पर कई सवाल उठ खड़े हुए हैं। जून 09 में हुई बोर्ड बैठक में बाकायदा 49113778 रुपये का काम उक्त कंपनी को सौंपने का प्रस्ताव पारित किया गया, जबकि बीती 31 जुलाई को कंपनी के साथ काम का अनुबंध भी किया जा चुका है। सूत्रों के मुताबिक निगम के एक वरिष्ठ अधिकारी ने ही उक्त कंपनी को काम दिए जाने की सिफारिश की है।
जांच के बाद ही दिया काम: एमडी
देहरादून: जलविद्युत निगम के प्रबंध निदेशक आरपी थपलियाल ने स्वीकारा कि गत वर्ष कंपनी के ब्लैक लिस्टेड होने की सूचना पर ही उसे एमबी-दो का काम नहीं दिया गया लेकिन जब निगम ने उसके ट्रेक रिकार्ड की पड़ताल की, तो पाया कि यूपी जलविद्युत निगम के साथ उसका भुगतान को लेकर कुछ विवाद है। उन्होंने बताया कि यूपी के निगम के एक अधिकारी ने भी लिखित रूप से कंपनी के कामकाज पर संतोष जताते हुए यह बात स्वीकार की है। इसके बाद ही इस कंपनी को गलोगी पावर हाउस का काम सौंपा गया है।
सूबा बदला, सियासत बदली पर नहीं बदली सियासदां की सोच
-आज भी कालापानी मानकर जिले में भेजे जा रहे हैं दागी पुलिस कर्मी
-दागी पुलिस कर्मियों की तैनाती बनी महकमे के लिए मुसीबत
पिथौरागढ़: उत्तर प्रदेश में थे तो सीमांत जिला पिथौरागढ़ सरकारी कर्मचारियों के लिए कालापानी समझाा जाता था, खासकर पुलिस महकमे के दागी कर्मचारियों के लिए। अलग राज्य बना तो जिले के लोगों को लगा अब कालापानी का ठप्पा खत्म होगा, अच्छे कर्मचारी आयेेंगे, लेकिन अलग राज्य में भी सियासत करने वालों की सोच नहीं बदली, जिला आज भी कालापानी की श्रेणी में ही शामिल है।
उत्तर प्रदेश में रहते हुए पिथौरागढ़ प्रदेश का सबसे सीमांत जिला था। सुविधाओं की कमी और उपरी कमाई की शून्य संभावनाओं को देखते हुए सियासदां की नजर में यह जिला कालापानी से कम नहीं था। मैदानी क्षेत्रों में गड़बड़ी करने वाले कर्मचारियों को तब इस जिले में पोस्टिंग देकर सजा देने की सोच हावी थी। नौकरशाह और राजनीतिज्ञ ट्रांसर्फर, पोस्टिंग में इसका खूब इस्तेमाल भी करते थे। सबसे अधिक दागी पुलिस कर्मी कहीं थे तो वह पिथौरागढ़ जिला ही था। शराबी दरोगा के डीएम कार्यालय में पहुंचकर गाली गलौच के आंकड़े दागी पुलिस कर्मियों की कहानी बयां करते हैं।
अपना राज्य बना तो सीमांत जिले के लोगों को लगा अब जिले से कालापानी का ठप्पा हट जायेगा। अच्छे कर्मी यहां आयेंगे और दागी पुलिस कर्मियों द्वारा आम जनता के लिए पैदा की जाने वाली दिक्कतें नहीं रहेंगी,लेकिन राज्य गठन के बाद भी यह सोच नहीं बदली। सियासदां की नजर में जिला आज भी कालापानी ही है। इसलिए पुलिस महकमे में प्रदेश भर से छांट-छांट कर दागी पुलिस कर्मी पिथौरागढ़ भेजे जा रहे हैं। पुलिस सूत्रों के मुताबिक हाल ही में जिले में 50 ऐसे कर्मचारी भेजे गये हैं, जिनका रिकार्ड कहीं न कहीं गड़बड़ है। इन कर्मचारियों द्वारा जिले में मचाये जा रहे उपद्रव किसी से छुपे नहीं हैं। जिले के पुलिस महकमे के लिए इन कर्मचारियों को खपाना बड़ी चुनौती साबित हो रहा है। महकमा भी इन्हें नगरों और मुख्य कस्बों में तैनाती देने के पक्ष में नहीं है। इनके लिए सुदूरवर्ती थाने और चौकियां तलाशी जा रही है। सुदूदवर्ती थानों और चौकियों में ये पुलिस कर्मी गड़बड़ी नहीं करेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं है। अलग राज्य बनने के बाद भी जिले के लोगों की सुरक्षा का जिम्मा दागी पुलिस कर्मियों को ही सौंपा जाना है तो फिर अलग राज्य का औचित्य क्या है। यह सवाल जिले के लोग उठा रहे हैं। जिले में सजा के तौर पर भेजे जा रहे जनप्रतिनिधि भी खामोश हैं।
डेढ़ वर्ष में 27 पुलिस कर्मी निलम्बित
पिथौरागढ़: सीमांत जिले पिथौरागढ़ में डेढ़ वर्ष के दौरान 27 पुलिस कर्मी निलम्बित हो चुके हैं। इनमें अधिकांश पुलिस कर्मियों पर शराब पीकर उधम काटने, अनुशासनहीनता बरतने और उच्चाधिकारियों से अभद्रता के आरोप हैं। पुलिस अधीक्षक कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार वर्ष 2008 में जिले में 16 पुलिस कर्मी निलम्बित हुए। इनमें 12 कांस्टेबल और 4 हेड कांस्टेबल हैं। वर्ष 2009 के पहले 6 माह में 11 पुलिस कर्मी निलम्बित हो चुके हैं, इनमें दो हेड कांस्टेबल और नौ कांस्टेबल हैं। पुलिस अधीक्षक पूरन सिंह रावत का कहना है अनुशासनहीनता बरतने वाले पुलिस कर्मियों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई अमल में लाई जा रही है।
महिला अस्पताल : परायी जमीन पर खड़ा होगा तिमंजिला भवन
राजकाज का सच
-उच्चीकरण में स्वास्थ्य विभाग का अजीबोगरीब कारनामा
-जुलाई में मुख्यमंत्री भी कर चुके हैैं
शिलान्यास
-शासन से हो चुकी है टोकन
मनी आवंटित
-तहसील के अभिलेखों में
टीकाराम के नाम है भूमि
, हल्द्वानी
स्वास्थ्य विभाग का काम भी अजीबोगरीब हैैं। जिस भूमि का मालिकाना हक नहीं है,उसी पर नया भवन बनाने का निर्णय कर डाला। इतना ही नहीं भवन के लिए शासन ने टोकन मनी भी आवंटित कर दी और मुख्यमंत्री के हाथों श्रीगणेश भी करा लिया गया। इसके अलावा निर्माण के लिए कार्यदायी संस्था भी तय हो गयी। लेकिन भूमि को विभाग के नाम कराने में अफसरों के अब पसीने छूट गये हैैं।
शायद आपको विश्वास नहीं हो रहा होगा, लेकिन है एकदम सच। शहर के महिला अस्पताल के उच्चीकरण के मामले में ऐसा ही हुआ है। शहर की आबादी बढऩे के साथ ही महिला अस्पताल के उच्चीकरण की मांग भी जोर पकडऩे लगी। चार दशक पहले स्थापित 30 बेड के अस्पताल में मरीजों की भारी भीड़ रहती है। लिहाजा विभाग ने अस्पताल से सटी 4.714 हेक्टेयर भूमि में 100 बेड का अस्पताल बनाने को लेकर प्रस्ताव शासन स्तर पर भेजा था। करीब एक साल पहले इसे स्वीकृति भी मिल गयी। इसकी अनुमानित लागत 355 लाख रुपये है। शासन में उपसचिव सुनील पांथारी द्वारा जारी आदेश के तहत 20 मार्च 2009 को डेढ़ लाख रुपये टोकन मनी भी स्वीकृत कर दी गयी। तीन महीने बाद मुख्य चिकित्सा अधिकारी कार्यालय से यह धन अस्पताल निर्माण के लिए स्थानांतरित कर दिया गया। निर्माण का जिम्मा पेयजल निगम की निर्माण इकाई रामनगर को सौंपा गया है। निगम अपने स्तर से ध्वस्तीकरण व निर्माण की भी तैयारी में जुटा है। पंतनगर के वैज्ञानिकों ने मिट्टी परीक्षण भी किया है। अस्पताल के इस जीर्ण-शीर्ण भवन को ध्वस्त करने के लिए शासन को 64860 रुपये का प्रस्ताव भेजा गया था।
मजेदार बात यह है कि जिस भूमि पर अस्पताल के नये भवन बनाने की स्वीकृति दी गयी है, वह भूमि ही विभाग के नाम नहीं हैै। वर्तमान में तहसील के अभिलेखों के मुताबिक यह भूमि टीकाराम भगत पुत्र कृष्णा भगत लोहरियासाल मल्ला के नाम से नजर आ रही है। ऐसे में विभाग के नाम भूमि होना बेहद मुश्किल हो गया है। हालांकि विभागीय अफसर ऑफ दि रिकार्ड बता रहे हैैं कि भूमि को 1937 में राम प्यारी पत्नी भोलानाथ ने अस्पताल को दान दिया था, लेकिन इसका कोई रिकार्ड नहीं बताया जाता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जिस भूमि का मालिकाना हक विभाग के पास नहीं है, उस पर अस्पताल उच्चीकरण की इबारत कैसे लिख दी गयी। शासन स्तर से भी स्वीकृति कैसे मिल गयी। इतना ही नहीं 26 जुलाई 09 को मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने उच्चीकरण की नींव (शिलान्यास) भी रख दी। कानूनविदों के मुताबिक किसी वाजिब दस्तावेज के आधार पर ही भूमि विभाग के नाम हो सकती है, लेकिन दस्तावेज नहीं होने से उच्चीकरण लटक सकता है।
भूमि विभाग के नाम कराने के प्रयास
मुख्य चिकित्साधिकारी डा. डीएस गब्र्याल का कहना है कि भूमि को विभाग के नाम कराने के प्रयास चल रहे हैैं। कहां और कैसे चल रहे हैैं इस बारे में उनके पास जवाब नहीं है। उन्होंने बताया कि अस्पताल भवन को डिसमेंटल करने को लेकर प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। इसकी अनुमति आने के बाद कार्य आरंभ होगा। स्वास्थ्य महानिदेशक डा. प्रेमलता जोशी का कहना है कि महिला अस्पताल के उच्चीकरण की प्रगति के बारे में देखा जाएगा, अलबत्ता मालिकाना हक नहीं होने के बारे में उन्होंने अनभिज्ञता व्यक्त की।
:::क्या-क्या बनना है:::
उच्चीकरण के प्रस्ताव के मुताबिक 100 बेड के इस अस्पताल को तीन मंजिला बनाया जाना है। पहली मंजिल में चार चिकित्साधिकारी, चार बेड, आकस्मिक कक्ष, स्टोर व अल्ट्रासाउंड कक्ष बनाया जाना है। दूसरी मंजिल में सेप्टिक ओटी, सामान्य ओटी, एमटीपी कक्ष, सेंट्रल स्टरलाइजेशन सप्लाई तथा तीसरी मंजिल में एक डिलीवरी कक्ष मय ओटी, रिकवरी वार्ड के अलावा 41 बेड के दो वार्ड तीन प्राइवेट वार्ड, रैंप व लिफ्ट भी बनायी जानी है।
Tuesday, 18 August 2009
राष्ट्रपति पुलिस पदक के लिए सीओ जुयाल चयनित
नैनीताल: सराहनीय सेवाओं के लिए पुलिस क्षेत्राधिकारी डीपी जुयाल को राष्ट्रपति पुलिस पदक के लिए चयनित किया गया है।
श्री जुयाल वर्तमान में भवाली क्षेत्र के पुलिस क्षेत्राधिकारी के तौर पर तैनात हैं। श्री जुयाल को 1994 में कठघर, मुरादाबाद में प्रभारी निरीक्षक के पद पर तैनाती के दौरान उल्लेखनीय सेवाओं के लिए राष्ट्रपति द्वारा पुलिस पदक से सम्मानित किया जा चुका है।
श्री जुयाल 1970-71 में पुलिस उपनिरीक्षक पद के लिए चयनित हुए थे। मुरादाबाद में ट्रेनिंग के पश्चात करीब चार वर्ष की सेवा अवधि के बाद इन्हें टनकपुर का थानाध्यक्ष बनाया गया। वह नैनीताल, खटीमा, मुनस्यारी, डीडीहाट के अलावा बदायूं के थाना रजपुरा, मूसाझााग, वजीरगंज, रामपुर व मुरादाबाद आदि स्थानों पर तैनात रहे। वर्ष 1994 में उन्हें भ्रष्टाचार निवारण संगठन में निरीक्षक बनाया गया। वर्ष 2004 में पुलिस उपाधीक्षक के पद पर पदोन्नति के बाद उन्हें पुलिस मुख्यालय में तैनाती मिली। वर्तमान में वह सीओ भवाली के पद पर तैनात हैं।
उन्हें पीटीसी में आईटी का प्रथम पुरस्कार मिल चुका है। वर्ष 1972-73 व 74 में उत्तर प्रदेश पुलिस की एथलेटिक्स टीम का उन्होंने प्रतिनिधित्व किया और सिल्वर मेडल प्राप्त किया।
बदायंूं में तैनाती के दौरान दुर्दांत दस्यु छविराम व पोथी गैंग के खात्मे में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पुलिस विभाग में 39 वर्ष की सेवा के दौरान कई बार श्री जुयाल को कर्तव्य निष्ठा एवं साहसपूर्ण कार्य के लिए उच्चाधिकारियों द्वारा नगद पुरस्कार दिए गए। आईजी अशोक कुमार व एसएसपी एमएस बंग्याल ने उत्तराखण्ड पुलिस का गौरव बढ़ाने के लिए श्री जुयाल को बधाई दी है।
Monday, 17 August 2009
दूसरे विश्व युद्ध के जाबांज फौजी को नहीं मिला सम्मान
अपना वायदा भी नहीं निभा सकी सरकार
-वीर चक्र विजेता चन्द्री चंद को नहीं मिल सकी 20 बीघा जमीन
चित्र परिचय: 14 टीकेपी 23-वीर चक्र विजेता स्व. चन्द्री चंद
, टनकपुर: आजाद भारत की उम्र शनिवार को 63 साल हो जाएगी। इसकी आजादी में योगदान करने वालों का नाम बेशक इतिहास के सुनहरे पन्नों पर दर्ज है। मगर इन सबके बीच कुछ ऐसे भी हंै, जिन्हे जंग-ए-आजादी में शिरकत करने के बावजूद भी तवज्जो नहीं दी गई। आजादी दिलाने वाले सेनानियों व उनके परिजनों के उत्थान के लिए सरकार के दावे तो बढ़ चढ़कर होते रहे हैं, लेकिन यहां कुछ जगह जमीनी हकीकत एकदम अलग है। यहां हम एक ऐसे ही सच को उजागर कर रहे हैं।
वीर चक्र विजेता फौजी चन्द्री चन्द। दूसरे विश्व युद्ध में शिरकत करने से लेकर उन्होंने आजादी के बाद पाक द्वारा 1948 में किए गए पहले कबीलाई हमले तक में असाधारण शौर्य दिखाया। उनकी दिलेरी को भारत सरकार ने वीरचक्र से सम्मानित कर मान्यता भी दी। मगर काफी कुछ ऐसा भी है, जो उन्हें देने का वायदा किया गया पर दिया नहीं गया।
सरकार ने दिवंगत चन्द को 1978 में चकरपुर में 20 बीघा जमीन दान देने का ऐलान किया था। इसके एवज में उन्हें बाकायदा जमीन का पट्टा भी दिया गया, पर इस जमीन पर दबंगों द्वारा किए गए कब्जे को सरकार नहीं हटा सकी। वर्ष 2007 में दिवंगत होने से पूर्व तक श्री चन्द ने ईनाम में मिली जमीन को हासिल करने के लिए पटवारी से लेकर राष्ट्रपति तक फरियाद की। हर बार आश्वासन भी मिला, लेकिन जमीन पर हक उन्हें कभी नहीं मिल सका।
मूल रूप से पिथौरागढ़ जिले के उखड़ी सेरी गांव में 13 अक्टूबर 1920 को जन्मे वीर चक्र विजेता चन्द्री चंद का परिवार नगर से सटे गांव आमबाग में जैसे-तैसे गुजर बसर कर रहा है। मात्र 18 वर्ष की उम्र में चन्द्री चंद 13 अक्टूबर 1938 को पहली कुमांऊ राइफल्स (इन्फैन्ट्री यूनिट) में भर्ती हुए। महज तीन वर्ष बाद ही उन्हें दूसरे विश्व युद्ध में भाग लेने का मौका मिला। 25 जुलाई 1941 को ईरान स्थित विश्व के सबसे बड़े तेल भंडार अबादान शहर पर कब्जा करने में उनकी अहम भूमिका रही। 14 मार्च 1948 को सूबेदार चंद के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी सेना को पीछे खदेड़ते हुए झाांगर भूमि पर तिरंगा फहराया।
दुश्मनों की ओर से हुई जवाबी बमबारी में एक बम श्री चंद के बंकर के पास गिरा। जिससे वे मलबे में दब गये। मगर इस पर भी उन्होंने मोर्चा नहीं छोड़ा और आखिर तक डटे रहे। जान की बाजी लगाकर दुश्मनों से लोहा लेने के लिए उन्हें पहले गणतंत्र दिवस पर तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने वीर चक्र उपाधि से नवाजा।
भारत सरकार ने उनकी बहादुरी के लिए सत्तर के दशक में उन्हें ऊधम सिंह नगर जिले के तहसील खटीमा के गांव बिलहरी चकरपुर में 20 बीघा जमीन इनाम में देने की घोषणा की, लेकिन ये घोषणा आज तक पूरी नहीं हो पाई है।
उच्च शिक्षा: विजिटिंग व संविदा प्रवक्ताओं को हरी झांडी
- निदेशालय ने दी अध्यापन की अनुमति
- राजकीय महाविद्यालयों में शैक्षणिक व्यवस्था को दुरुस्त करने का प्रयास
हल्द्वानी
राजकीय महाविद्यालयों में शैक्षणिक व्यवस्था को दुरुस्त करने
के लिए प्रतिवर्ष की तरह इस वर्ष भी वैकल्पिक व्यवस्था के तहत विजिटिंग व संविदा प्रवक्ताओं की नियुक्ति को हरी झांडी दे दी गई है। इस संदर्भ में उच्च शिक्षा निदेशालय की ओर से कालेजों को निर्देश दे दिये गए हैं।
राज्य के करीब 65 राजकीय महाविद्यालयों में नियमित शिक्षकों के 1247 पद सृजित हैं। इसके सापेक्ष इन कालेजों में 582 शिक्षक ही कार्यरत हैं। कई वर्षों से खाली पदों पर नियुक्ति नहीं हो रही है। कालेजों में अध्यापन के लिए 2002 में 202 विजिटिंग प्रवक्ताओं की नियुक्ति की गयी थी। अब इनकी संख्या केवल 115 रह गयी है। 2008-09 में नियुक्त संविदा प्रवक्ताओं की संख्या 159 है। इसके अलावा नौ जिलों के लिए जनपद स्तर पर नियुक्त 117 संविदा प्रवक्ता हैं, जिनके कार्यभार ग्रहण का आदेश उच्च शिक्षा निदेशालय ने दिये हैं।
उच्च शिक्षा निदेशालय के संयुक्त निदेशक डा. एससी साह ने बताया कि कालेजों में अध्यापन प्रक्रिया सुचारु रूप से संचालित हो सके, इसके लिए विजिटिंग व संविदा प्रवक्ताओं को अध्यापन की अनुमति प्रदान कर दी गई है। गौरतलब है कि प्रतिवर्ष विजिटिंग व संविदा प्रवक्ताओं को निदेशालय से अनुमति मिलने के बाद ही अध्यापन के लिए जाना होता है।
टिहरी: आजादी को लडऩा पड़ा अपनों से
-अंग्रेजी हुकूमत तो थी ही, राजशाही के भी सहे जुल्म
-अंग्रेजों व राजशाही के खिलाफ एक साथ लगते थे नारे
-देश की आजादी के करीब पांच माह बाद आजाद हुआ था टिहरी
, नई टिहरी:
15 अगस्त, भले ही देश भर में यह दिन आजादी के दिन के रूप में जाना जाता है, लेकिन गढ़वाल का टिहरी ऐसा इलाका है, जहां 15 अगस्त को आजादी का जश्न मनाने वाले लोगों को जेलों में ठूंसा जा रहा था।
दरअसल, उस समय टिहरी रियासत हुआ करती थी। ऐसे में यहां अंग्रेजों के साथ राजसत्ता का भी प्रभाव था। इसके चलते यहां के बाशिंदों को आजादी के लिए दोहरी लड़ाई लडऩी पड़ी। यही वजह है कि बाकी देश के करीब छह माह बाद टिहरी में आजादी की किरन पहुंच सकी।
सर्वविदित है कि स्वतंत्रता के पूर्व देश सैकड़ों छोटी-बड़ी रियासतों में बंटा हुआ था। इन्हीं में से एक थी टिहरी रियासत। यहां के बाशिंदे को एक ओर तो अंग्रेजी दासता की बेडिय़ों में जकड़े हुए थे, वहीं रियासत की ओर से लागू किए गए नियम, कायदे और प्रतिबंधों का पालन करने को भी वे मजबूर थे। यही वजह थी कि यहां के लोगों को आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के साथ राजसत्ता से भी संघर्ष करना पड़ा। टिहरी के 244 लोग स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। 15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होने के बाद टिहरी रिसासत के राजा ने अपना शासन जारी रखने की घोषणा की थी। इस दौरान जब स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने परिपूर्णानंद पैन्यूली के नेतृत्व में आजादी का जश्न मनाते हुए टिहरी बाजार में जुलूस निकाला, तो उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। दर्जनों सत्याग्रहियों को जेल में बंद करने से आम जनता का आक्रोश फूट पड़ा और राजशाही के खिलाफ आंदोलन ने जोर पकड़ लिया।
राजशाही के खात्मे के लिए दादा दौलतराम, नागेंद्र सकलानी, वीरेंद्र दत्त सकलानी व परिपूर्णानंद पैन्यूली ने नेतृत्व संभाला। सिंतबर-अक्टूबर 1947 में आंदोलनकारियों ने सकलाना क्षेत्र को आजाद घोषित कर पंचायत शासन स्थापित कर दिया। इसी बीच कीर्तिनगर के कड़ाकोट क्षेत्र में आंदोलन के नेता नागेंद्र सकलानी व मोलू भरदारी 11 जनवरी 1948 को राजशाही पुलिस की ओर से हुई गोलीबारी में शहीद हो गए, जबकि एक सत्याग्रही तेगा सिंह घायल हुए। इस गोली कांड के विरोध में पूरी रियासत (टिहरी-उत्तरकाशी) में अभूतपूर्व विद्रोह शुरू हो गया।
टिहरी में हजारों लोग उमड़ पड़े, जनता ने पुलिस अधिकारियों को जेल में डाल दिया और राजा को टिहरी से खदेड़ दिया गया। इसके बाद 14 जनवरी 1948 को टिहरी रियासत की आजादी की घोषणा की गई। इस प्रकार देश की आजादी के पूरे पांच माह बाद टिहरी के लोग आजाद हो पाए।
उल्लेखनीय है कि टिहरी पर पंवार वंश के राजाओं का शासन सदियों से था। राजा के ऊपर पहले इस्ट इंडिया कंपनी और फिर सीधे तौर पर ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप रहा। ब्रिटिश सरकार की इच्छा के बिना राजा कोई भी कदम नहीं उठाता था। यही वजह थी कि रियासत में अंग्रेजों के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को राजशाही दमनपूर्वक दबा देती थी।
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एजेंसी चौक गवाह है अमानवीय प्रथा के अंत का
-पौड़ी स्थित एजेंसी चौक में खत्म हुई थी कुली बेगार प्रथा
-अंग्रेजी अधिकारी बरपाते थे भोली-भाली जनता पर कहर
-बगैर मेहनताना जबर्दस्ती कराई जाती थी मजदूरी, विरोध पर मिलता था दंड
पौड़ी:
पौड़ी का एजेंसी चौक आज नगर के सुंदरतम चौराहों में गिना जाता है, लेकिन इसकी पहचान सिर्फ यही नहीं है। यह चौराहा खास ऐतिहासिक पहचान भी रखता है। वर्ष 1908 में यह चौराहा अंग्रेजी हुकूमत की एक अमानवीय प्रथा 'कुली-बेगार' के खात्मे का गवाह बना था। यहीं से जिले में आजादी की लड़ाई की शुरुआत भी हुई थी।
मंडल मुख्यालय स्थित एजेंसी चौक पर वर्ष 1908 में अंग्रेजों के जुल्मों की कहानी का अंत हुआ था। गढ़वाल में कुली बेगार प्रथा यहीं पर समाप्त हुई थी। तब यह स्थल गढ़वाल के कामगारों की शरण स्थली था। इस कारण इसे कुली चौक भी कहा जाता था। अंग्रेजों के शासनकाल में कुली बेगार प्रथा उन दिनों प्रचलित थी। इसके तहत अंग्रेज अफसरों की सेवा में कुलियों, मजदूरों को नि:शुल्क उपयोग में लाया जाता था। अंग्रेज अफसर लाव-लश्कर के साथ जब यहां भ्रमण पर आते थे, तो आवागमन के साधन न होने के कारण उनके सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ढोने का काम कूली करते थे। इसके लिए स्थानीय अधिकारी कुलियों की सूची बना लेते थे। खास बात यह कि इन कुलियों के ऊपर 'हुक्मरानों' की आवाभगत की जिम्मेदारी भी रहती थी, लेकिन कई दिन तक साथ रखने के बाद भी इन लोगों को कोई मेहनताना नहीं दिया जाता था। ऐसे में बेहद गरीब ये लोग दोहरे शोषण से दाने-दाने को मोहताज हो जाते थे। जब शोषण की इंतहा हो गई, तो जनता ने इस अमानवीय प्रथा का विरोध करना शुरू कर दिया। इसके चलते कई कुलियों को अंग्रेजों के अत्याचार भी सहने पड़े। वर्ष 1905 आते-आते इस प्रथा के विरोध में गढ़वाल में जगह-जगह छुटपुट आंदोलन होने लगे। इस समय तक देश के अन्य हिस्सों में भी अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। कुली बेगार प्रथा के खिलाफ लोगों के लामबंद होने और चिंगारी के भड़कने की आशंकाएं भांप वर्ष 1908 में पौड़ी के तत्कालीन तहसीलदार जोत सिंह नेगी ने अंग्रेजों को जनता के आक्रोश से वाकिफ कराया और इस प्रथा के खात्मे की पहल की। उन्होंने जनता के रुख को जिले के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर पीसी स्टोवल के सम्मुख रखा। इसके बाद 1908 में ही पौड़ी में कुली एजेंसी की स्थापना की गई। यहां जरूरतमंद लोग अपना पंजीकरण करवाते थे, बाद में अंग्रेज अफसर इन पंजीकृत लोगों की सेवाएं ही ले सकते थे। हालांकि, अंग्रेजों ने यहां भी दोहरी चाल चली और इस व्यवस्था को लागू करने के लिए आम लोगों पर अतिरिक्त टैक्स लगा दिया गया, लेकिन यह व्यवस्था भी अंग्रेजों के लिए मुसीबत का सबब बन गई। कुली ही आजादी में लड़ाई में कूद पड़े। धीरे-धीरे आग पूरे पहाड़ में फैल गई और अंग्रेजों को आखिरकार बेगार प्रथा को बंद करना पड़ा।
ऐतिहासिक महत्व होने के बावजूद आज एजेंसी चौक शासन, प्रशासन और नगर पालिका परिषद की घोर उपेक्षा से वीरान पड़ा हुआ है। उप्र के प्रथम मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत की वर्षों पूर्व यहां स्थापित की गई आदमकद मूर्ति का आज तक अनावरण नहीं किया जा सका है। इसके अलावा यहां पार्क व लाइब्रेरी बनाने के प्रस्ताव भी कहीं फाइलों की धूल फांक रहे हैं।
Thursday, 13 August 2009
-हिमालय में बहाई कथक की गंगा
-उत्तराखंड की परमिता डोभाल हैं कथक की जानी मानी नृत्यांगना
-देश ही नहीं विदेशों में भी दे चुकी हैं कई बार प्रस्तुतियां
-पौड़ी में रहकर दे रही हैं नृत्य की दीक्षा, बेटी काकुल भी है पारंगत
, पौड़ी:
उत्तराखंड अपनी विशिष्ट परंपराओं व लोकसंस्कृति के चलते विशेष पहचान रखता है। यहां के तांदी, रासों, चौंफला, पांडव आदि लोकनृत्य खास जगह रखते हैं, लेकिन यहां शास्त्रीय गीत-संगीत या नृत्यों का अधिक प्रचलन नहीं है। यही वजह है कि कथक, ओडिसी, भरतनाट्यम जैसे विश्वप्रसिद्ध नृत्यों से जनता ज्यादा वाकिफ नहीं है और इन विधाओं में पारंगत उत्तराखंडी मूल के लोग भी अंगुलियों पर गिनने लायक ही हैं। ऐसी ही एक नर्तकरी हैं, पौड़ी की परमिता डोभाल। नृत्य पृष्ठभूमि न होने के बावजूद डोभाल ने अपने समर्पण और कड़ी मेहनत के बल पर कथक में खास मुकाम हासिल किया है और अब वह हिमालय में शास्त्रीय नृत्य की गंगा बहा रही हैं।
भगवान श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला पर आधारित कथक नृत्य सामान्यतया जयपुर, बनारस और लखनऊ घरानों में खास तौर पर प्रचलित है। वर्तमान में दिल्ली इस नृत्य का बड़ा केंद्र माना जाता है, क्योंकि यहां कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय समारोहों के दौरान कलाकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिल जाता है। उत्तराखंड की बात करें, तो यहां शास्त्रीय नृत्य तो नहीं, लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों के विशेष लोकनृत्यों का खास महत्व है। ऐसे में अगर उत्तराखंड की मिट्टी से भारत ही नहीं विदेशों में भी शास्त्रीय नृत्य की महक बिखेरने वाली कलाकार उपजे, तो यह सुखद आश्चर्य से कम नहीं है। जनपद पौड़ी की असवालस्यूं पट्टी के तंगोली गांव निवासी परमिता ऐसी ही कलाकार हैं। दिल्ली में पली-बढ़ी परमिता का रुझाान बाल्यकाल से ही शास्त्रीय नृत्यों की ओर था। इसके लिए उन्होंने पूर्ण समर्पण भी दिखाया, तो परिजनों का भी पूरा सहयोग मिला। परमिता ने राष्ट्रीय बाल भवन दिल्ली से 'फैकल्टी आफ परफार्मिंग आर्ट' की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद अखिल भारतीय गंधर्व महाविद्यालय मुंबई से संगीत का विधिवत प्रशिक्षण लिया साथ ही पश्चिम कला केंद्र, चंडीगढ़ से विशारद की उपाधि भी हासिल की।
उनके जीवन को सही दिशा तब मिली, जब उन्होंने दिल्ली स्थित 'नेशनल इंस्टीट्यूट आफ कथक डांस' में प्रवेश लिया। यहां तीन साल तक गुरू गीतांजलि से कथक के विधिवत प्रशिक्षण ने उनके जीवन को इस नृत्य के प्रति पूरी तरह समर्पित कर दिया। यहीं से प्रतिभा को विभिन्न अवसरों पर अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका भी मिला। उन्होंने 1988 में मास्को में आयोजित भारत महोत्सव में कथक प्रस्तुत किया। इसके बाद श्रीलंका व जर्मनी में भी कथक की प्रस्तुतियां दीं। इनके अलावा परमिता ने दिल्ली, कानपुर व लखनऊ नृत्य महोत्सवों में कथक नृत्य प्रस्तुत करने के साथ ही स्वर्गीय महाराज कृष्ण कुमार के निर्देशन में भी नृत्य किया। वर्ष 2000 में जयपुर कथक केंद्र की ओर से आयोजित नृत्य प्रतिभा कार्यक्रम, 2001 में दिल्ली संगीत नाटक अकादमी के स्वर्णोत्सव, पहली गढ़वाली फिल्म जग्वाल, 1999 में सुनामी पीडि़त चैरिटी शो, 2000 में पौड़ी शरदोत्सव, 2004 में संगीत नाटक अकादमी की ओर से स्वर्ण प्रतिभा और 2007 में विश्व पर्यावरण दिवस पर श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित कार्यक्रमों में नृत्य प्रस्तुतियां डोभाल के सफर को दर्शाती हैं।
परमिता वर्ष 2005 में 'गढ़वाल के लोक नृत्यों का कथक नृत्य पर प्रभाव' विषय पर पर्यटन व संस्कृति मंत्रालय से फेलोशिप भी ले चुकी हैं। परमिता बताती हैं कि गढ़वाली लोकनृत्यों व कथक के बीच करीबी संबंध है। गढ़वाली लोकनृत्यों व कथक में प्रयुक्त वाद्ययंत्र एक जैसे हैं, जबकि ताल भी समान होती हैं। इतना ही नहीं, परमिता का दावा है कि गढ़वाली संस्कृति का अभिन्न अंग 'ढोल-दमाऊ' का परिष्कृत रूप ही तबला बना है।
वर्ष 1991 में पौड़ी निवासी चंद्रमोहन डोभाल के साथ विवाह के बाद परमिता पौड़ी आ गईं। वह उत्तराखंड में भी इस शास्त्रीय नृत्य को प्रचारित करना चाहती हैं। इसके लिए करीब पांच वर्ष पूर्व उन्होंने पौड़ी स्थित अपने आवास पर ही शास्त्रीय नृत्य केंद्र शुरू किया है। अपनी विरासत को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी पुत्री काकुल को भी प्रशिक्षण दिया है। इसके अलावा अन्य कई बच्चे उनसे प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। 38 वर्षीय परमिता कहती हैं कि कथक ही उनकी जिंदगी है, इसके लिए वह हमेशा समर्पण, निष्ठा भाव से जुटी रहेंगी।
-कुमाऊं विवि: प्रो वीपीएस अरोड़ा नए वीसी
-क्षेत्रीय प्रतिभाओं को तराशने व अकेडमिक एक्सीलेंस को प्राथमिकता
-पंतनगर विवि में रजिस्ट्रार समेत कई पदों की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं
देहरादून, कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर प्रो वीपीएस अरोड़ा की ताजपोशी की गई है। गवर्नर व कुलाधिपति श्रीमती मारग्रेट अल्वा ने यह नियुक्ति की। प्रो. अरोड़ा ने कहा कि विवि में क्षेत्रीय प्रतिभाओं को उभारने व अकेडमिक एक्सीलेंस का माहौल तैयार किया जाएगा।
राज्यपाल के सचिव एस रामास्वामी ने बताया कि डा. अरोड़ा की कुलपति पद पर नियुक्ति तीन वर्ष के लिए की गई है। सर्च कमेटी ने कुछ दिन पहले ही कुलपति पद पर तीन नाम का पैनल गवर्नर को सौंपा था। नवनियुक्त कुलपति प्रो अरोड़ा वर्तमान में गोविंदबल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार के रूप में कार्यरत हैं। बीएससी से पीएचडी तक पढ़ाई व शोध कार्य उन्होंने पंतनगर विश्वविद्यालय से किया। विवि में कालेज आफ एग्री बिजनेस मैनेजमेंट की स्थापना व प्रतिष्ठा बनाने में उन्हें श्रेय दिया जाता है। वह एग्रीकल्चर इकानोमी के विभागाध्यक्ष और कालेज आफ एग्री बिजनेस मैनेजमेंट के डीन पद पर 12 वर्ष तक रहे। वह विवि में एडमिनिस्ट्रेशन एंड मानीटरिंग के डाइरेक्टर का पदभार तीन साल तक संभाल चुके हैं। देश-विदेशों में उनके 80 शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं। वह कई किताबें भी लिख चुके हैं।
'जागरण' से दूरभाष पर बातचीत में प्रो. अरोड़ा ने कहा कि विवि को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने की दिशा में वह काम करेंगे। इसके लिए प्रतिष्ठित संस्थाओं के साथ विवि सहमति पत्र पर हस्ताक्षर करेगा। विवि की प्रतिष्ठा बढ़ाने के साथ ही छात्र-छात्राओं व शिक्षकों को बेहतर अवसर मुहैया कराने को भी प्राथमिकता दी जाएगी। उन्होंने स्वीकार किया कि वित्तीय संसाधनों की कमी के चलते विवि आटोनामी बचा नहीं पा रहे हैं। संसाधन बढेंगे तो राजनीतिक हस्तक्षेप भी कम होगा। रिसर्च को बढ़ावा देकर वित्तीय साधन मुहैया कराने पर उनका जोर रहेगा।
-जन्माष्टमी: 'धियांणियों' के हाथों कराई जाती है पूजा
-गढ़वाल में नवविवाहिता पुत्री को पुकारा जाता है धियांणी
-जन्माष्टमी के मौके पर 'धियांणी' को मायके बुलाने की है परंपरा
-विभिन्न पूजा आयोजनों में भाग ले धियांणी करती है मायके व ससुराल की उन्नति की कामना
नई टिहरी, : पहाड़ में कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर धियांण (नवविवाहित बेटी) को मायके बुलाने की परम्परा काफी पुरानी है। नवविवाहिताएं मायके आकर भादो के महीने मायके व ससुराल की मंगलकामना के लिए गीत गाती हैं।
भादो माह में धियांणी को मायके बुलाने की परंपरा पहाड़ की अधिष्ठात्री देवी भगवती नंदा के समय से मानी जाती है। लोकश्रुतियों में नंदा को प्रतिवर्ष मायके बुलाने की परंपरा रही है। नंदा को धियांण के रूप में आज भी पूजा जाता है। इस परंपरा के पीछे कृषि प्रधान समाज की झालक भी दिखाई देती है। दरअसल, भादो के महीने खेती के काम पूरे हो चुके होते हैं। ऐसे में महीने भर के लिए बेटी को मायके बुलाया जाता है। इस अवसर पर पहाड़ के खेतों में फसलें लहलहा रही होती है। इन्हीं फसलों के पौध को घर में लाकर पूजा की जाती है। पूजा में पूरी और पकौड़ी जिसे स्थानीय भाषा में 'स्वांला-पकौड़ी' कहा जाता है का भोग लगाया जाता है।
भादो में गांवों में दूध घी की प्रचुरता रहती है। ऐसे में धियाणों के लिए विशेष रूप से दूध, दही व स्थानीय फलों से खातिरदारी की जाती है। परिवार की अहम हिस्सा रही बेटी को एक महीने तक घरों में लगी ककड़ी, मक्का और च्यूरा दिया जाता है। इस दौरान सहेलियों के साथ इकट्ठा होकर धियांण चाचरी, झाुमैलो, बाजूबंद जैसे क्षेत्रीय लोक गीत गाती हैं। इन गीत नृत्यों में फसलों की पैदावार बढ़ाने, पशुधन के उन्नति और देवताओं की स्तुति होती है।
आंदोलनकारियों को पेंशन का तोहफा
देहरादून।
सरकार ने राज्य आंदोलनकारियों को स्वतंत्रता दिवस के मौके पर शानदार तोहफा देते हुए उन्हें हर माह तीन हजार रुपये पेंशन
देने का आदेश बुधवार को जारी कर दिया।प्रमुख सचिव (गृह) सुभाष कुमार की तरफ से इस बाबत शासनादेश जारी कर दिया गया। यह सुविधा उन सभी आंदोलनकारियों को दी जाएगी जो ११ अगस्त, २००४ तक राज्य सेवाओं में सीधी भरती के लिए अर्ह थे, लेकिन किसी कारण से सेवा में नहीं आए। यह पेंशन जीवनभर मिलती रहेगी।
सरकार ने ऐसे आंदोलनकारियों को भी तोहफा दिया है, जो ५० वर्ष की आयु पूरी कर चुके हैं। वे अपने कार्य को प्रमाणित करते हैं और मु2य चिकित्साधिकारी की संस्तुति हो तो उन्हें, उनकी पत्नी या आंदोलनकारी की विधवा को दांत लगवाने, नजर का चश्मा बनवाने या फिर श्रवण यंत्र लगवाने के लिए अधिकतम १० हजार रुपये का अनुदान मिलेगा। यह अनुदान जीवन में एक बार मिलेगा। शासनादेश के मुताबिक यह सभी खर्च इसी कार्य के लिए गठित निधि से उठाया जाएगा।
Tuesday, 11 August 2009
-राज्य में 21 निजी बीएड कालेजों की मान्यता रद्द
नेशनल काउंसिल फॉर टीचर एजुकेशन ने लिया फैसला
इन कालेजों में प्रवेश ले चुके करीब 2500 छात्रों का भविष्य अधर में
केंद्रीय कमेटी में अपील करेंगे प्रभावित कालेज
देहरादून, नेशनल काउंसिल फॉर टीचर एजुकेशन(एनसीटीई) ने मानकों में कमी के चलते राज्य के निजी 21 बीएड कालेजों की मान्यता रद्द कर दी है। ऐसे में इन कालेजों में प्रवेश ले चुके करीब ढाई हजार छात्र-छात्राओं का भविष्य अधर में लटक गया है। गढ़वाल विवि के प्रेस ऐंड पब्लिक रिलेशन सेल के अध्यक्ष प्रो. एआर डंगवाल ने मान्यता रद्द किए जाने की पुष्टि की है। वहीं, एसोसिएशन आफ सेल्फ फाइनेंस इंस्टीट्यूट का कहना है कि प्रभावित कालेज इस मामले में केंद्रीय समिति में अपील करेंगे।
एनसीटीई उत्तरी क्षेत्र की पांच से सात अगस्त तक जयपुर में आयोजित बैठक में उत्तर भारत के बीएड कालेजों के मुद्दों पर चर्चा हुई। बैठक में उत्तराखंड के 21 संस्थानों के विरुद्ध मानकों में कमी के चलते मान्यता रद्द करने का निर्णय लिया गया। इनमें देहरादून के 11, मसूरी व रुड़की के दो-दो, हरिद्वार के तीन और श्रीनगर, विकासनगर व कोटद्वार के एक-एक कालेज शामिल हैं। एनसीटीई नार्थ रिजन की वेबसाइट पर जारी सूची में बताया गया कि काउंसिल के मानकों में कमी, संबद्धता देने वाले विश्वविद्यालय के मानकों में कमी, नोटिस के जवाब अधूरे देने आदि के चलते एनसीटीई अधिनियम-1993 की धारा-17 के तहत इन कालेजों की मान्यता रद्द की गई है। वहीं, इन संस्थानों में सत्र-08 के लगभग 2500 छात्र-छात्राएं प्रवेश ले चुके हैैं। काउंसिल द्वारा इन संस्थानों की मान्यता रद्द किए जाने के बाद विवि इन कालेजों के लिए परीक्षा आयोजित नहीं की जाएगी।
गौरतलब है कि कट ऑफ मेरिट से कम अकंों पर प्रवेश देने के दोषी 18 निजी बीएड कालेजों व अनुसूचित जाति, जनजाति के छात्रों लिए आरक्षित सीटों पर सामान्य श्रेणी के छात्रों को प्रवेश देने के दोषी पाए गए चार कालेजों की मान्यता समाप्त करने के लिए विवि प्रशासन ने 31 जनवरी को एनसीटीई को पत्र लिखा था। 25 मार्च को स्मरण पत्र लिखकर विवि प्रशासन ने दोषी कालेजों की मान्यता समाप्त करने की सिफारिश की थी। इस एनसीटीई ने यह कार्रवाई की।
उधर, एसोसिएशन आफ सेल्फ फाइनेंस इंस्टीट्यूट्स के सचिव सुनील अग्र्रवाल ने कहा कि एनसीटीई ने वेबसाइट पर इन 21 संस्थानों की सूची जारी की है। हालांकि अभी तक काउंसिल की ओर से इन संस्थानों को पत्र प्राप्त नहीं हुए हैैं। पत्र प्राप्त होने के बाद कालेज काउंसिल की केंद्रीय समिति में अपील करेंगे। इन संस्थानों में प्रवेश ले चुके छात्रों के भविष्य को लेकर उन्होंने कहा कि इन कालेजों ने अदालत के अंतरिम आदेश पर प्रवेश कराए थे। एनसीटीई के निर्णय के बाद अदालत क्या फैसला लेती है, इस पर इन छात्रों का भविष्य तय होगा।
वेबसाइट पर जारी संस्थानों की सूची
डीडी इंस्टूट्यूट आफ एडवांस स्टडीज(देहरादून), पेस्टल वीड कालेज आफ इंफार्मेशन टेक्नॉलोजी(देहरादून), सुसना मैथोडिस्ट गल्र्स बीएड कालेज(रुड़की), तनिष्क कालेज आफ एजुकेशन(देहरादून), नालंदा कालेज आफ एजुकेशन(देहरादून), मसूरी इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशन(मसूरी), बीहाइव कालेज आफ एडवांस स्टडीज(देहरादून), कुकरेजा इंस्टीट्यूट आफ टीचर्स एजुकेशन(देहरादून), इंडियन इंस्टीट्यूट आफ प्रोग्र्रेसिव स्टडीज(रुड़की), गुरुकुल महाविद्यालय(ज्वालापुर), द्रोणाज कालेज आफ मैनेजमेंट ऐंड टेक्नॉलोजी(देहरादून), द्रोणाचार्य इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशन(विकास नगर), मसूरी मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट(मसूरी), दून घाटी कालेज आफ प्रोफेशनल एजुकेशन(देहरादून), एसपी मेमोरियल बीएड कालेज(श्रीनगर), मालिनी वैली कालेज आफ एजुकेशन(कोटद्वार), दून पीजी कालेज आफ एग्र्रीकल्चर साइंस, टेक्नॉलोजी ऐंड एजुकेशन(देहरादून), श्री गुरु राम राय पीजी कालेज(देहरादून), देवभूमि इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन(देहरादून), मदरहुड इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट ऐंड टेक्नॉलोजी(हरिद्वार) और सीता देवी मेमोरियल इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशन(हरिद्वार)
=वित्त आयोग से मांगा 'बाजार मूल्य'
उत्तराखंड से पूरे देश को मिल रही इको सिस्टम सर्विसेज
-क्या हैं तर्क-
राज्य के कुल क्षेत्रफल के 64.79 फीसदी में हैैं जंगल
देशहित में व्यवसायिक हितों को किया दरकिनार
चीड़ के पौधरोपण पर लगाया गया है प्रतिबंध
, देहरादून:
पूरे देश को इको सिस्टम सर्विसेज देने वाला उत्तराखंड अब इन सेवाओं की वास्तविक कीमत वसूलने की तैयारी कर में है। बारहवें वित्त आयोग ने इस सेवा के ऐवज में कीमत देने की शुरुआत की है पर यह बाजार मूल्य से कहीं कम है। अब उत्तराखंड की ओर से तेरहवें वित्त आयोग से बाजार मूल्य के आधार पर कीमत वसूलने की तैयारी है। सूबे के वन तथा नियोजन विभाग इसकी तैयारी में जुटे हैं।
बारहवें वित्त आयोग ने 2005-2010 तक के लिए इको सिस्टम सर्विसेज देने वालों राज्यों को एक हजार करोड़ देने की व्यवस्था की थी। उत्तराखंड के हिस्से 35 करोड़ आए थे। अब इस मामले में अगला कदम मजबूती से उठाने की तैयारी है। राज्य के वनाच्छादित क्षेत्र को इको सिस्टम सर्विसेज से जोड़कर उसकी कुल वैल्यू निकाली जा रही है। इसी के आधार पर 13वें वित्त आयोग से धन की मांग की जाएगी।
उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53483 वर्ग किमी है। इसमें से 34650 वर्ग किमी. में जंगल है। यह इलाका कुल क्षेत्रफल का 64.79 प्रतिशत है। राज्य की आठ प्रतिशत भूमि ग्लेशियरों और बर्फ से ढकी हुई है। प्रस्ताव में इन तथ्यों के साथ ही यह भी बताया जा रहा है कि उत्तराखंड ने अपने प्रयासों से इको सिस्टम सर्विसेज को और संपन्न बनाने में क्या प्रयास किए हैं। कार्बेट और राजाजी नेशनल पार्क पहाड़ों की तलहटी में अत्यधिक उत्पादक तराई-भाबर क्षेत्र में स्थित हैं। इन दोनों पार्कों में सात हजार वर्ग किमी ऐसे क्षेत्र में वनों को बनाए रखा गया है, यदि इस भूमि का उपयोग कृषि या अन्य व्यावसायिक कार्यों के लिए किया गया होता तो राज्य को इसका अत्यधिक आर्थिक लाभ मिलता। राज्य के दूसरे क्षेत्रों में भी हजारों वर्ग किमी क्षेत्र मानव उपयोग से अलग रख सिर्फ वनों का संरक्षण किया गया है।
उत्तराखंड ने बायो डायवर्सिटी के मामले में संपन्न बांज के जंगलों में चीड़ के रोपण पर प्रतिबंध है, जबकि चीड़ व्यावसायिक रूप से लाभ देने वाली प्रजाति है। अंग्रेजों के समय में कई बांज के जंगलों में चीड़ का रोपण किया गया था। बंाज के जंगल चीड़ के मुकाबले इको सिस्टम सर्विसेज के लिए अधिक अनुकूल होते हैं। इससे भी राज्य को व्यावसायिक हानि उठानी पड़ रही है। राज्य में बांज के पेड़ों से चारकोल बनाने पर भी प्रतिबंध है, जबकि पहाड़ों में ईंधन की अत्यधिक समस्या है।
प्रस्ताव में तर्क दिया जा रहा है कि सूबे ने अपने व्यावसायिक लाभों को दरकिनार कर बायोडायवर्सिटी संपन्न करने में अहम भूमिका निभाई है। लाभ राज्य को बाजार दरों पर इसका लाभ दिया जाए। यह बात तेरहवें वित्त आयोग के समक्ष उठाई जा रही है। साथ ही यह तर्क भी दिया जा रहा है कि पहाड़ों का विकास में पिछड़ जाना राज्य के इन्हीं प्रयासों का प्रतिफल है। ऐसे में पहाड़ों के विकास की जिम्मेदारी भी देश की है। अब देखना होगा कि सूबे की यह कवायद कितना रंग दिखाती है।
उत्तराखंड के कार्मिक सचिव हाईकोर्ट में तलब
नैनीताल: हाईकोर्ट ने समय पर प्रति शपथपत्र दाखिल न करने के कारण उत्तराखण्ड शासन के कार्मिक सचिव को
17 अगस्त को कोर्ट के समक्ष व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने के निर्देश दिए हैं। मामले के अनुसार कीर्ति मेहता निवासी देहरादून द्वारा एक याचिका हाईकोर्ट में दायर की गई थी, जिसमें याचिकाकर्ता का कहना था कि उत्तराखण्ड प्री-मेडिकल टेस्ट में भूतपूर्व सैनिकों को 5 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना चाहिए। जैसा कि अन्य सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में दिया जाता है। पिछली तिथि में सुनवाई के दौरान इस मामले में हाईकोर्ट द्वारा सरकार को 10 अगस्त तक प्रति शपथ पत्र दाखिल करने के निर्देश दिए गए थे, लेकिन कोर्ट के आदेश के अनुरूप प्रति शपथपत्र दाखिल नहीं किया गया। मामले पर सोमवार को सुनवाई के बाद कोर्ट ने आदेशों की अवहेलना करने के कारण सरकार के कार्मिक सचिव को 17 अगस्त को व्यक्तिगत रूप से कोर्ट में उपस्थित होने के निर्देश दिए हैं। मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति वीके बिष्ट की एकलपीठ में हुई।
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