Monday 17 August 2009

टिहरी: आजादी को लडऩा पड़ा अपनों से

-अंग्रेजी हुकूमत तो थी ही, राजशाही के भी सहे जुल्म -अंग्रेजों व राजशाही के खिलाफ एक साथ लगते थे नारे -देश की आजादी के करीब पांच माह बाद आजाद हुआ था टिहरी , नई टिहरी: 15 अगस्त, भले ही देश भर में यह दिन आजादी के दिन के रूप में जाना जाता है, लेकिन गढ़वाल का टिहरी ऐसा इलाका है, जहां 15 अगस्त को आजादी का जश्न मनाने वाले लोगों को जेलों में ठूंसा जा रहा था। दरअसल, उस समय टिहरी रियासत हुआ करती थी। ऐसे में यहां अंग्रेजों के साथ राजसत्ता का भी प्रभाव था। इसके चलते यहां के बाशिंदों को आजादी के लिए दोहरी लड़ाई लडऩी पड़ी। यही वजह है कि बाकी देश के करीब छह माह बाद टिहरी में आजादी की किरन पहुंच सकी। सर्वविदित है कि स्वतंत्रता के पूर्व देश सैकड़ों छोटी-बड़ी रियासतों में बंटा हुआ था। इन्हीं में से एक थी टिहरी रियासत। यहां के बाशिंदे को एक ओर तो अंग्रेजी दासता की बेडिय़ों में जकड़े हुए थे, वहीं रियासत की ओर से लागू किए गए नियम, कायदे और प्रतिबंधों का पालन करने को भी वे मजबूर थे। यही वजह थी कि यहां के लोगों को आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के साथ राजसत्ता से भी संघर्ष करना पड़ा। टिहरी के 244 लोग स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे। 15 अगस्त 1947 को देश के आजाद होने के बाद टिहरी रिसासत के राजा ने अपना शासन जारी रखने की घोषणा की थी। इस दौरान जब स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने परिपूर्णानंद पैन्यूली के नेतृत्व में आजादी का जश्न मनाते हुए टिहरी बाजार में जुलूस निकाला, तो उन्हें गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था। दर्जनों सत्याग्रहियों को जेल में बंद करने से आम जनता का आक्रोश फूट पड़ा और राजशाही के खिलाफ आंदोलन ने जोर पकड़ लिया। राजशाही के खात्मे के लिए दादा दौलतराम, नागेंद्र सकलानी, वीरेंद्र दत्त सकलानी व परिपूर्णानंद पैन्यूली ने नेतृत्व संभाला। सिंतबर-अक्टूबर 1947 में आंदोलनकारियों ने सकलाना क्षेत्र को आजाद घोषित कर पंचायत शासन स्थापित कर दिया। इसी बीच कीर्तिनगर के कड़ाकोट क्षेत्र में आंदोलन के नेता नागेंद्र सकलानी व मोलू भरदारी 11 जनवरी 1948 को राजशाही पुलिस की ओर से हुई गोलीबारी में शहीद हो गए, जबकि एक सत्याग्रही तेगा सिंह घायल हुए। इस गोली कांड के विरोध में पूरी रियासत (टिहरी-उत्तरकाशी) में अभूतपूर्व विद्रोह शुरू हो गया। टिहरी में हजारों लोग उमड़ पड़े, जनता ने पुलिस अधिकारियों को जेल में डाल दिया और राजा को टिहरी से खदेड़ दिया गया। इसके बाद 14 जनवरी 1948 को टिहरी रियासत की आजादी की घोषणा की गई। इस प्रकार देश की आजादी के पूरे पांच माह बाद टिहरी के लोग आजाद हो पाए। उल्लेखनीय है कि टिहरी पर पंवार वंश के राजाओं का शासन सदियों से था। राजा के ऊपर पहले इस्ट इंडिया कंपनी और फिर सीधे तौर पर ब्रिटिश सरकार का हस्तक्षेप रहा। ब्रिटिश सरकार की इच्छा के बिना राजा कोई भी कदम नहीं उठाता था। यही वजह थी कि रियासत में अंग्रेजों के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को राजशाही दमनपूर्वक दबा देती थी। --------- एजेंसी चौक गवाह है अमानवीय प्रथा के अंत का -पौड़ी स्थित एजेंसी चौक में खत्म हुई थी कुली बेगार प्रथा -अंग्रेजी अधिकारी बरपाते थे भोली-भाली जनता पर कहर -बगैर मेहनताना जबर्दस्ती कराई जाती थी मजदूरी, विरोध पर मिलता था दंड पौड़ी: पौड़ी का एजेंसी चौक आज नगर के सुंदरतम चौराहों में गिना जाता है, लेकिन इसकी पहचान सिर्फ यही नहीं है। यह चौराहा खास ऐतिहासिक पहचान भी रखता है। वर्ष 1908 में यह चौराहा अंग्रेजी हुकूमत की एक अमानवीय प्रथा 'कुली-बेगार' के खात्मे का गवाह बना था। यहीं से जिले में आजादी की लड़ाई की शुरुआत भी हुई थी। मंडल मुख्यालय स्थित एजेंसी चौक पर वर्ष 1908 में अंग्रेजों के जुल्मों की कहानी का अंत हुआ था। गढ़वाल में कुली बेगार प्रथा यहीं पर समाप्त हुई थी। तब यह स्थल गढ़वाल के कामगारों की शरण स्थली था। इस कारण इसे कुली चौक भी कहा जाता था। अंग्रेजों के शासनकाल में कुली बेगार प्रथा उन दिनों प्रचलित थी। इसके तहत अंग्रेज अफसरों की सेवा में कुलियों, मजदूरों को नि:शुल्क उपयोग में लाया जाता था। अंग्रेज अफसर लाव-लश्कर के साथ जब यहां भ्रमण पर आते थे, तो आवागमन के साधन न होने के कारण उनके सामान को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ढोने का काम कूली करते थे। इसके लिए स्थानीय अधिकारी कुलियों की सूची बना लेते थे। खास बात यह कि इन कुलियों के ऊपर 'हुक्मरानों' की आवाभगत की जिम्मेदारी भी रहती थी, लेकिन कई दिन तक साथ रखने के बाद भी इन लोगों को कोई मेहनताना नहीं दिया जाता था। ऐसे में बेहद गरीब ये लोग दोहरे शोषण से दाने-दाने को मोहताज हो जाते थे। जब शोषण की इंतहा हो गई, तो जनता ने इस अमानवीय प्रथा का विरोध करना शुरू कर दिया। इसके चलते कई कुलियों को अंग्रेजों के अत्याचार भी सहने पड़े। वर्ष 1905 आते-आते इस प्रथा के विरोध में गढ़वाल में जगह-जगह छुटपुट आंदोलन होने लगे। इस समय तक देश के अन्य हिस्सों में भी अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। कुली बेगार प्रथा के खिलाफ लोगों के लामबंद होने और चिंगारी के भड़कने की आशंकाएं भांप वर्ष 1908 में पौड़ी के तत्कालीन तहसीलदार जोत सिंह नेगी ने अंग्रेजों को जनता के आक्रोश से वाकिफ कराया और इस प्रथा के खात्मे की पहल की। उन्होंने जनता के रुख को जिले के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर पीसी स्टोवल के सम्मुख रखा। इसके बाद 1908 में ही पौड़ी में कुली एजेंसी की स्थापना की गई। यहां जरूरतमंद लोग अपना पंजीकरण करवाते थे, बाद में अंग्रेज अफसर इन पंजीकृत लोगों की सेवाएं ही ले सकते थे। हालांकि, अंग्रेजों ने यहां भी दोहरी चाल चली और इस व्यवस्था को लागू करने के लिए आम लोगों पर अतिरिक्त टैक्स लगा दिया गया, लेकिन यह व्यवस्था भी अंग्रेजों के लिए मुसीबत का सबब बन गई। कुली ही आजादी में लड़ाई में कूद पड़े। धीरे-धीरे आग पूरे पहाड़ में फैल गई और अंग्रेजों को आखिरकार बेगार प्रथा को बंद करना पड़ा। ऐतिहासिक महत्व होने के बावजूद आज एजेंसी चौक शासन, प्रशासन और नगर पालिका परिषद की घोर उपेक्षा से वीरान पड़ा हुआ है। उप्र के प्रथम मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत की वर्षों पूर्व यहां स्थापित की गई आदमकद मूर्ति का आज तक अनावरण नहीं किया जा सका है। इसके अलावा यहां पार्क व लाइब्रेरी बनाने के प्रस्ताव भी कहीं फाइलों की धूल फांक रहे हैं।

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