Thursday, 2 April 2009

लोक संस्कृति का प्रतीक “उत्तराचल स्वर-संगम, लखनऊ”

लोकसंस्कृति का प्रतीक पर्वतीय समाज का सांस्कृतिक दल “उत्तराचल स्वर संगम” लखनऊ की स्थापना अगस्त 1999 में अपने तहजीब एवं सभ्यता के रूप में जाना जाने वाले नवाबों की ऐतिहासिक नगरी लखनऊ में हुई। लेकिन संस्था अपने अस्तित्व में पूर्णरूप से तब आयी जब संस्था का पहला सांस्कृतिक कार्यक्रम 10 नवम्बर, 1999 को लखनऊ में आयोजित किया गया। संस्था सोसायटी एक्ट 1860 के अन्तर्गत वर्ष 1999 में पंजीकृत है। लगभग दस वर्षो से संस्था द्वारा विभिन्न जगहों पर कुमाऊनी एवं गढ़वाली लोककलाओं पर आधारित रंगारंग लोकनृत्य, लोकगीत, नाटक एवं अन्य के माध्यम से बाल-विवाह, दहेज प्रथा, प्रौढ़ शिक्षा, परिवार कल्याण आदि पर विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम किये जा रहे हैं, तथा संस्था के कलाकारों द्वारा लखनऊ दूरदर्शन, आकाशवाणी,, उ0प्र0 संस्कृति विभाग, उत्तराखण्ड संस्कृति निदेशालय, लखनऊ महोत्सव, शरदोत्सव अल्मोड़ा, उत्तरायणी मेला बागेश्वर,उत्तराखण्ड एवं नेहरू युवा केन्द्रों के तत्वाधान में अनेकों कार्यक्रमों का सफलतापूर्वक प्रदर्शन किया गया है। प्रत्येक वर्ष संस्था अपने स्थापनावर्ष के रूप में, लखनऊ में भव्य कार्यक्रम का आयोजित करती आ रही है। जिसे देखने शहर का मानो जनसैलाब ही उमड़ पड़ता है। इन कार्यक्रमों में समय-समय पर मुख्यमंत्री उत्तराॅचल श्री एन0डी0 तिवारी, उ0प्र0 सरकार के विभिन्न केबीनेट मंत्री एवं साॅस्कृतिक मंत्री, शहर के गणमान्य व्यक्ति, पत्रकार तथा पर्वतीय समाज का विशाल जन-समूह उपस्थित रहता है। कार्यक्रम की शहर के विभिन्न समाचार पत्रों एवं टी0वी0 चैनलों द्वारा प्रशंसा एवं सराहना की गयी। वर्तमान में संस्था से लगभग 20-25 कलाकार जुड़े हुए हैं। जिनमें अध्ािकतर कलाकार दूरदर्शन व आकाशवाणी से पंजीकृत हैं। कुमांऊ की सारी धरती ही रसमय है! प्रकृति ने इसे लय और स्वर, दोनों से संवारा है! कलकल बहती नदियां, झरझर गिरते झरने, चीड़ वन से आती बयार, बाज-काफल के हरे-भरे जंगलों से कोयल की मीठी-मीठी कुहू-कुहू एवं घूघतियां की घुरू-घुरू यहां के वातावरण को लय प्रदान करती हैं तो शीतल बयार से वल्लरियों का झूमना, हर मोड़ पर सरिता जल का लचकना आदि ताल देती है! और इसी प्रकृति की लय ताल के बीच जन्म लिया यहां के लोक गीतों एवं लोक नृत्यों ने, जिनमें प्रकृति तो है ही, मानव मन की सूक्ष्म भावनाओं का भी चित्रण है! कुमांऊ के लोक गीतों और लोकनृत्यों की परम्परा पुरानी और सर्वव्याप्त है! विभिन्न अवसरों पर चाहे वह कोई उत्सव हो, तीज-त्योहार हो, कौतिक हो या फिर कोई विवाह समारोह हो, भिन्न-भिन्न प्रकार के नृत्य तो होते ही हैं! एक ही नृत्य में स्थान-स्थान के अनुसार कुछ विशिष्टता भी देखी जा सकती है! प्रस्तुतीकरण हेतु नृत्य इस प्रकार हैं। झोड़ा झोड़ा शब्द का मूल हिन्दी का ‘‘जोड़‘‘ शब्द है! कुमाऊनी में ‘‘ज‘‘ घ्वनि सुगमता से ‘‘झ‘‘ घ्वनि में परिवर्तित हो जाती है! पूर्वी कुमाऊनी की ‘‘ज‘‘ और ‘‘झ‘‘ घ्वनियां पश्चिमी कुमाऊनी में क्रमशः ‘‘झ‘‘ और ‘‘ज‘‘ रूप में उच्चरित होती है! झोड़ा के लिए नैपाली में ‘‘हथजोड़ा‘‘ शब्द का प्रयोग होता है! इस प्रकार झोड़ा का तात्पर्य हुआ- हाथों को जोड़कर या दो भागों में बंट कर अथवा जोड़े निर्मित कर संपादित होने वाला नृत्य! झोड़ा कुमाऊ में मेलों का प्रसिद्ध सामूहिक नृत्यगीत है! झोड़ा नृत्य गीत के रूप में चांचरी का परवर्ती रूप प्रतीत होता है! इन प्रबन्धात्मक झोड़ों को कहीं ‘‘फाग‘‘ भी कहा जाता है! वास्तव में झोड़ों का मूल और प्राचीन रूप प्रबन्धात्मक ही है!! झोड़ों का आयोजन मेलों, उत्सव और विभिन्न पर्वों के अवसर पर होता है! विषय वस्तु की दृष्टि से ये धार्मिक और श्रृंगारिक दोनों प्रकार के होते हैं! पुरूष तथा महिलाएं दोनों इसमें समान रूप से भाग लेते हैं! इसमें हाथों को जोड़ कर एक समान पदक्रम एवं अंग-संचालन का अनुसरण करते हुए नृत्य किया जाता है! झोड़े की नृत्य गति अध्ािकाशतः विलम्बित लय में चलती रहती है। इसमें भाग लेने के लिए युवक व युवतिया रंग-बिरंगे वस्त्रों व आभूषणों सज्जित रहती हैं। हुड़का इस नृत्य का मुख्य वाद्ययंत्र है। हुड़के की ताल एवं हुड़किये के अलाप के साथ ही नर्तक व नर्तकिया एक-दूसरे की बाह पकड़कर गोल घेरा बनाते हुए चारों ओर घूमते हैं। इस नृत्य में लय ताल के साथ-साथ पदचाप का भी बहुत महत्व है। इसमें ज्यों-ज्यों नृत्य की लय द्रुत होती जाती है। त्यों-त्यों नर्तक व नर्तकियों की तन्मयता के साथ ही उल्लास की अभिव्यक्ति फूट पड़ती है। झोड़ा (उदाहरणार्थ) बोल - भाड़जी मनुली सुख्यारी रैये तू, भाणजी मनुली अपणै सौरासा। तात्पर्य- मामा अपनी भानजी जिसका नाम मनुली है, को ससुराल को विदा करते समय आर्शीवाद देता है कि तुम अपने ससुराल में सुखी व स्वस्थ रहना। युगल नृत्य युगल नृत्य में एक या दो महिला व एक पुरूष भाग लेते हैं। दोनों अपने-अपने विचारों को नृत्य के माध्यम से एक-दूसरे को बताते है। कभी महिला, पुरूष को मनाती है तो कभी पुरूष महिला को। गीत के माध्यम से रूठने एवं मनाने का क्रम लगा रहता है। इस प्रकार के नृत्यों में युवक व युवती के रिश्तों की सजीवता साफ देखी जा सकती है। यह नृत्य पूर्ण रूप से श्रृंरगार एवं आनन्द से ओतप्रोत होता है। इस नृत्य को भी उत्तराॅचल में काफी सराहा जाता है। युगल नृत्य (उदाहरणार्थ) बोल - हिट कौतिका जानू म्यर जमुना साई छुम, म्हौणी के ल्याला म्यर गोरिखा भिना छुम। तात्पर्य- जीजा अपनी साली को मेला देखने के लिए मनाता है। जीजा के बार-बार मनाने के बावजूद साली नही मानती कहती है कि मेरे लिए मेले से क्या-क्या लाओगे............................ थड़िया नृत्य- थड़िया नृत्य गढ़वाल के मुख्य नृत्यों में से एक है। यह नृत्य श्रृंगार प्रधान होता है। इसमें पुरूष तथा महिलाएं दोनों समान रूप से भाग लेते हैं! इसमें अंग-संचालन का अनुसरण करते हुए नृत्य किया जाता है! इस नृत्य की गति प्रारम्भ में विलम्बित चलती रहती है। परन्तु बाद में वाद्ययन्त्रों एवं गाने के बोल के अनुसार इसमें तेजी आती है। इसमें भाग लेने के लिए युवक व युवतियां रंग-बिरंगे वस्त्रों व आभूषणो से सुसज्जित रहती हैं। थड़िया (उदाहरणार्थ) बोल - भाना ग्वीराला, फूल फूलिगे म्यारा भीना ग्वीराला, फूल फूलिगे म्यारा समूह नृत्य समूह नृत्य भी उत्तरांॅचल के लोकनृत्यों में से से एक है। यह नृत्य श्रृंगार प्रधाान होता है। इस नृत्य में अधिकतर, महिलाएं 4 या 6 के समूह में नृत्य करती है तथा नृत्य के माध्यम से एक दूसरे के सुख-दुख, कुमांॅऊ के सुन्दर प्राकृतिक सौन्दर्य तथा वहाॅ के रहन-सहन का चित्रण बखूबी किया जाता है। कभी-कभी इस नृत्य में महिलाओं के समूह के साथ एक पुरूष भी भाग लेता है। समूह नृत्य (उदाहरणार्थ) बोल - रंगीलो मुलक म्यरो पहाड़ा रे..... छुम छुम ...............छुम छुम. छुम छुम प्रमुख वाद्य यन्त्र- हारमोनियम ,ढोलक ,बाॅसुरी ,हुड़का लेखक- महेन्द्र सिंह गैलाकोटी, संगठन मंत्री, उत्तरांॅचल स्वर-संगम, 46-शिवानी विहार, कल्याणपुर, लखनऊ, उत्तर प्रदेश, भारत फोन-09235838619

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