Thursday, 30 April 2009
टिहरी का दर्द अभी खत्म नहीं हुआ।
ग्र्रेवांस सेल में पड़े 1940 मामलों का निपटारा अभी होना है लेकिन इतने पर भी इसकी इतिश्री नहीं हुई। अफसरशाही की लापरवाही के चलते 45 और गांवों पर विस्थापन की तलवार लटक गयी है। गलती किसी की और खामियाजा भुगतना पड़ेगा किसी को। जब भी कोई परियोजना बनती है, विस्थापन व अधिग्र्रहण आदि का सर्वे पहले ही हो जाता है लेकिन इस परियोजना के मामले में अधिकारियों की लापरवाही के चलते ये गांव जो डूब क्षेत्र में शामिल थे, सर्वे में छोड़ दिये गये। अब परियोजना तो पूरी की ही जानी है। लिहाजा इन गांवों के करीब 118 परिवारों को गांवों से रुखसत होना पड़ेगा। विचारणीय प्रश्न यह है कि कैसे यह लापरवाही हुई। टिहरी बांध कोई छोटी-मोटी परियोजना नहीं है। बहुत बड़ी मशीनरी ने इसे तैयार किया है। डूब क्षेत्र का पूरा सर्वे किया गया। नई टिहरी शहर बसाया गया। मूल टिहरी शहर हमेशा के लिए गंगा के आगोश में समा गया। फिर कैसे डूब क्षेत्र के इन गांवों को सर्वे में रेखांकित नहीं किया गया। अधिकारियों का वह वर्ग जिसने इस परियोजना की आधारशिला रखी, उसने कैसे इतनी बड़ी भूल कर दी। इन 45 गांवों को विस्थापित तो होगा ही क्योंकि ये परियोजना का हिस्सा हैैं, लेकिन क्या इतनी बड़ी चूक करने वाले अधिकारियों के वर्ग से कुछ नहीं कहा जाना चाहिए। उन्हें इसलिए बख्श दिया जाना चाहिए क्योंकि वे अधिकारी हैैं। यह इतना अहम प्रश्न है कि इसे यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता। विस्थापित होने जा रहे 118 और परिवार अगर उसी समय विस्थापित हुए होते तो शायद ये अब तक स्थापित हो चुके होते। जब किसी को राष्ट्र या सूबे के हित में अपने गांव, अपनी जमीन से बेदखल किया जाता है तो उसके भविष्य की जिम्मेदारी सूबे या राष्ट्र की बन जाती है लेकिन सरकार या प्रशासन को संभवत: विस्थापन के दंश का दर्द महसूस नहीं होता। तभी तो अभी तक पुराने मामलों का ही निस्तारण नहीं हुआ। अब यह नहीं स्थिति उपजी है। 118 परिवार अपने गांव से देर-सबेर बेदखल होने जा रहे हैं। इन्हें किस तरह स्थापित किया जाएगा, फिलहाल इसका जवाब किसी के पास नहीं है। सरकार को सिर्फ अपनी परियोजना ही नहीं, विस्थापितों के भविष्य की योजना पर भी ध्यान देना चाहिए। इस बात को नहीं भूला जाना चाहिए कि इस परियोजना में विस्थापितों का सबसे अहम योगदान है।
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