Wednesday, 29 April 2009
अभागे 111 गांव, 20 साल में भी नहीं बदली तकदीर
-राजकीय पशु संरक्षण की कीमत चुका रहे हैं ग्रामीण
-गड्ढा खोदने को भी लेनी पड़ती है वन मंत्रालय की इजाजत
-तहसील मुख्यालय पहुंचने में ही लग जाते हैं तीन दिन
पिथौरागढ़: राज्य के सीमावर्ती जिले में 111 गांवों का दुर्भाग्य ने दो दशक बाद भी पीछा नहीं छोड़ा है। गांवों की न तस्वीर बदल रही है और न ही यहां के वाशिंदों की तकदीर। ये गांव राज्य के अस्कोट कस्तूरा मृग विहार सीमा के अंतर्गत आते हैं। इसकी सीमा में इन्हें गड्ढा भी खोदना होता है तो पहले केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति लेनी पड़ती है। इन गांवों से सड़क भी विकास की तरह कोसों दूर है। वर्षों से गांवों के लोग अस्कोट मृग विहार की सीमा घटाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन वे सीमा के फंदे से निकल नहीं पा रह हैं।
दुर्लभ प्रजाति का कस्तूरा मृग उत्तराखण्ड में दस हजार फिट से ऊपर स्नो लाइन (बर्फ की सीमा रेखा) के आस-पास मिलता है। सीमांत जिला पिथौरागढ़ के अंतर्गत आने वाले उच्च हिमालयी क्षेत्र में कस्तूरा मृग की अच्छी तादात है। इस दुर्लभ प्रजाति के मृग क ो संरक्षित करने के उद्ेश्य से सरकार ने वर्ष 1985 में धारचूला और डीडीहाट तहसील के 600 वर्ग मील क्षेत्रफल कोमिलाकर अस्कोट कस्तूरा मृग विहार अभयारण्य बनाया। अभयारण्य के नोटिफिकेशन में तीन हजार फिट से लेकर 17 हजार फिट तक की ऊंचाई वाले क्षेत्र क ो शामिल कर लिया गया। नोटिफिकेशन में इस बात को ध्यान में नहीं रखा गया कि कस्तूरा मृग दस हजार फिट की ऊंचाई वाले क्षेत्र में ही मिलता है। इस सीमा के अंतर्गत आने वाले 111 गांवों क ो भी अभयारण्य में शामिल कर लिया गया। बस यहीं से इन गांवों के लोगों का दुर्भाग्य ने ऐसा पीछा पकड़ा जो अब तक नहीं छोड़ रहा है। अभयारण्य में गैर वानिकी कार्य पूरी तरह प्रतिबंधित हैं। बहुत जरूरी होने पर गैर वानिकी कार्यों के लिए केन्द्रीय पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति जरूरी है। मंत्रालय से अनुमति मिलने में भी वर्षों का समय लगना सामान्य बात है। इस उलझान भरी प्रक्रिया के चलते अस्कोट अभयारण्य के अंतर्गत आने वाले 111 गांवों का विकास ठप पड़ा हुआ है। इन गांवों को बिजली, पानी, संचार जैसी सुविधायें भी नहीं मिल पा रही हैं। अभयारण्य के अस्तित्व में आने से पूर्व बनी सड़कों पर ही लोग निर्भर हैं। लोगों को सड़कों तक पहुंचने के लिए कई किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। अभयारण्य की सीमा में आने वाले गुंजी, बूंदी, नाभी सहित दर्जनों गांवों के लोगों को तहसील मुख्यालय तक पहुंचने के लिए तीन दिन का समय लगता है।
111 गांवों के लोग पिछले दो दशकों से गांवों को अभयारण्य की सीमा से बाहर करने की मांग कर रहे हैं। वन विभाग भी मानता है अभयारण्य के चलते इन गांवों का विकास प्रभावित हो रहा है। विभाग ने इन गांवों को अभयारण्य की सीमा से बाहर करने के लिए प्रस्ताव तैयार कर केन्द्र सरकार को भेजा है, जिस पर अब तक अंतिम निर्णय नहीं हुआ है। राजनैतिक दल भी इस मुद्दे पर खामोश हैं। बीस साल में केन्द्र और राज्य में कई सरकारें आयी-गईं, लेकिन इन अभागे ग्रामीणों की सुधि किसी ने नहीं ली। इसी वजह से चुनाव के दौर में भी कोई प्रमुख दल इस मुद्दे को उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है।
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