Saturday, 18 April 2009

गौरवशाली इतिहास है समेटे है दून

दून स्वयं में एक समृद्ध और गौरवशाली इतिहास को समेटे हुए है. फिर चाहे वह ऐतिहासिक विजय गाथा को समर्पित खलंगा मोनमेंट हो या फिर गर्व से सीना ताने खड़ी इंडियन मिलिट्री एकेडमी. न जाने कितनी कहानियों की गवाह हैं ये इमारतें. यह सब कुछ सुनती आई हैं, सहती आई हैं, लेकिन कुछ कहती नहीं. बिना कुछ कहे ही यह काफी कुछ बयां कर देती हैं. दून स्वयं में एक समृद्ध और गौरवशाली इतिहास को समेटे हुए है. फिर चाहे वह ऐतिहासिक विजय गाथा को समर्पित खलंगा मोनमेंट हो या फिर गर्व से सीना ताने खड़ी इंडियन मिलिट्री एकेडमी. न जाने कितनी कहानियों की गवाह हैं ये इमारतें. यह सब कुछ सुनती आई हैं, सहती आई हैं, लेकिन कुछ कहती नहीं. बिना कुछ कहे ही यह काफी कुछ बयां कर देती हैं. चकराता है हेरिटेज हबभारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा दून डिस्ट्रीक्ट में अब तक लगभग पांच प्लेसेज को ऐतिहासिक धरोहर घोषित किया गया है. इनमें से तो तीन चकराता तहसील के अंतर्गत ही हैं. इस तहसील के अंतर्गत हनोल स्थित महासू देवता का मंदिर, कालसी स्थित अशोक का कालसी शिलालेख, अंतर्गत लाखामंडल स्थित मंदिरों के समूह और उसके इमेज, विकास नगर तहसील अंतर्गत जगतग्राम स्थित ऐतिहासिक जगतग्राम साइट, इसके अलावा देहरादून तहसील अंतर्गत करणपुर स्थित कलिंगा मोनमेंट प्रमुख हैं. इन सभी ऐतिहासिक स्थलों का संरक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कर रहा है. संभावना है कि जल्द ही इस कड़ी में दून के सेंट थॉमस चर्च का नाम भी शामिल हो जाएगा. इसके साथ ही दून में ऐसी तमाम ऐतिहासिक इमारतें मौजूद हैं जो आज भी दून की गौरव गाथा बयां करती प्रतीत होती हैं. अंग्रेजों ने दिया सम्मानखलंगा स्मारक शायद विश्व का एक मात्र ऐसा स्मारक है, जिसमें विजयी अंग्रेज सेना ने अपने शत्रु गोरखों की वीरता से प्रभावित होकर उनके सम्मान में इसे निर्मित किया है. सहस्त्रधारा मार्ग पर स्थित इस स्मारक में 1814 के गोरखा-अंग्रेज युद्ध के अंग्रेज सेनापति मेजर जनरल जिलेस्पी तथा उनके सैन्य अधिकारियों एवं गोरखा सेनापति बदभद्र व सहयोगियों के साहस और वीरता का उल्लेख किया गया है. इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने ऐतिहासिक धरोहरों में शामिल किया है. इतिहास के पन्ने पर बना चिह्नवन अनुसंधान संस्थान स्वयं में कई कहानियां कहता है. देहरादून में सन् 1878 में वानिकी में प्रशिक्षित करने हेतु रेंजर्स कॉलेज की स्थापना की गई. 1884 में केन्द्र सरकार ने इसे अपने हाथों में लेकर इसका नाम इम्पीरियल फॉरेस्ट स्कूल रख दिया. 1906 में जब इस विद्यालय में छह अनुसंधान विभाग जोड़े गए तब इसका नामकरण इम्पीरियल-फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट एंड कॉलेजेज पड़ा. सात एकड़ का प्लिंथ क्षेत्रफल और तीन सौ पचास गज लम्बाई वाले वर्तमान भव्य भवन का अभिकल्प जीसी ब्लोमफिल्ड ने तैयार किया तथा विशाल भवन का निर्माण सरदार रंजीत सिंह की देखरेख में किया गया. 1959 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने संस्थान को दक्षिण-पूर्व एशिया में वानिकी व तकनीकी प्रशिक्षण केंद्र के रूप में मान्यता प्रदान की. ग्रीक-रोमन और पूर्वी देशों की भवन निर्माण कला पर आधारित, यह भवन एशिया में निर्माण कला में अपनी विशेषता रखता है. इसका भव्य विशाल भवन विश्व की कुछ गिनी-चुनी इमारतों में है. अपने वैज्ञानिक उपयोग के साथ ही, पर्यटकों के लिए यह सुरुचि व ज्ञान का संगम स्थल है. इतिहास समेटे हुए है दरबार साहिबदरबार साहिब व झंडा मेले का इतिहास श्री गुरु रामराय के दून में आगमन के साथ प्रारंभ होता है. नवम् गुरु तेगबहादुर की शहादत के बाद गुरु रामराय 1676 में यहां पहुंचे. सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरा‌र्द्ध में गुरुद्वारा झंडा साहिब की स्थापना हो जाने पर भी श्री गुरु रामराय दरबार का विकास कार्य गुरुओं और महंतों ने कला, धर्म, संस्कृति आदि सभी धाराओं के अनुरूप किया. गुरु रामराय दरबार में भित्ति चित्र शैली को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है. धार्मिक महत्व के साथ ही झंडा दरबार का ऐतिहासिक महत्व भी है. वीरता की परंपराकर्मठ, साहसी और निर्भीक सैन्य अधिकारियों को प्रशिक्षित करने वाली इंडियन मिलिट्री एकेडमी किसी परिचय की मोहताज नहीं है. अकादमी का मुख्य भवन, रेलवे स्टाफ कालेज के रूप में सन् 1930 में 23,96,000 रुपयों की लागत से तैयार हुआ था. आर्थिक तंगी के कारण स्टाफ कालेज को फरवरी 1932 में बंद कर दिया गया तथा समस्त संपत्ति मार्च 1932 में सैन्य विभाग की अकादमी स्थापित करने के सुपुर्द कर दी गई. भारतीय सैन्य अकादमी देश की एकमात्र ऐसी संस्था है जो देश की रक्षा हेतु कैडेटों को कठिन प्रशिक्षण देकर सेना में कमीशन देती है. अकादमी की स्थापना सन् 1932 में हुई थी, इसके संस्थापक फील्ड मार्शल सर फिलिप चेटवुड थे. इसका विधिवत उद्घाटन उन्होंने 10 दिसंबर 1932 में किया था. उस समय इसके कैडेटों की संख्या मात्र चालीस थी. इन्हीं प्रथम बैच के कैडेटों में जो अग्रणीय कहलाए इनमें फील्ड मार्शल एसएचएफजे मानेकशॉ, जनरल मोहम्मद मूसा जो पाकिस्तानी सेना के सेनाध्यक्ष बने, लेफ्टिनेंट जनरल स्मिथ डन जो बाद में वर्मा की सेना के सेनाध्यक्ष बने. जहां नेहरू थे कैदभारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने देहरादून जेल में अपनी विश्वविख्यात बुक भारत की खोज के कुछ अंश लिखे थे. देहरादून जेल की बैरक जहां पंडित नेहरू ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान 1932 से 1941 के बीच कुल चार बार अपना बंदी जीवन व्यतीत किया था, जेल के मुख्य द्वार के निकट बने इस बंदीगृह को नेहरू वार्ड के नाम से जाना जाता है. इस बैरक में बीस फीट लंबा, बारह फुट चौड़ा व पंद्रह फीट ऊंचा एक शयनकक्ष, एक पाकशाला, स्टोर रूम तथा बैरक की दूसरी दीवार के सहारे बना शौचालय है. हालांकि आज की डेट में इस वार्ड की हालत दयनीय है. इसके संरक्षण की डिमांड कई बार विभिन्न मंचों से की जा चुकी है.

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