Thursday, 16 April 2009
सड़क का सवाल
पहाड़ी राज्य उत्तराखंड में सड़क सुविधा का सवाल ऐसा मुद्दा बन गया है, जिसका जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है। चार मैदानी जिलों को छोड़ दें तो पहाड़ी जिलों में सड़क को लेकर जनता आंदोलन की राह पर है। अब जबकि चुनाव का मौका है तो जनता इस मुद्दे पर अधिक उद्वेलित है। कई गांवों के लोग चुनाव बहिष्कार जैसा कदम उठाने की घोषणा कर चुके हैैं। कुछ गांव के लोगों ने प्रत्याशियों को गांव में नहीं घुसने देने का नारा दिया है। आखिर हो भी क्यों नहीं। पिछले छह दशकों में पर्वतीय क्षेत्रों की उपेक्षा होती रही। पहले अविभाजित उत्तर प्रदेश में सड़क का पैसा गांव तक नहीं पहुंचा और अब उत्तराखंड के वजूद में आने के बाद भी सड़क निर्माण की योजनाएं गति नहीं पकड़ पा रही हैैं। राज्य के मुख्य मार्गों की हालत ही बदतर है और ऐसे में संपर्क मार्गों की स्थिति समझाी जा सकती है। पांच हजार गांव अभी तक सड़क सुविधा का इंतजार कर रहे हैैं। हजारों ऐसे गांव हैैं, जहां पहुंचने के लिए सफर जोखिम से भरा हुआ है। विकास की दौड़ में गांवों के पिछडऩे का एक बड़ा कारण सड़क रही है। गांवों से हो रहे पलायन के मूल में भी यह विषय रहा है। कुल मिलाकर पहाड़ की लाइफलाइन सड़क ही है। ऐसे में इस दिशा में अधिक गंभीरता से प्रयास करने होंगे। पिछले आठ वर्षों में गांवों को सड़कों से जोडऩे का काम अभियान के रूप में किया गया, लेकिन इसका धरातल पर अधिक असर नहीं रहा। अधिकतर योजनाएं फाइलों में ही बंद रही। लोक निर्माण विभाग के डिवीजन बढ़ाने के बाद भी हालात नहीं बदले हैैं। चुनाव में नेताओं के लिए सड़क वोट हासिल करने का मुद्दा बना है तो आम जनता के लिए परेशानी का सबब। जनता का सब्र टूटने लगा है। धैर्य जवाब दे रहा है। इस सबके बीच यह भी एक तथ्य है कि पचास वर्ष का लंबित कार्य पांच वर्ष में संभव नहीं है। इस बात को भी जनता को समझाना होगा। जरूरत है कि जनता ऐसा रास्ता अपनाए, जिससे चुनाव में भी उनकी भागीदारी रहे और झाूठे आश्वासन देने वालों को सबक भी मिल सके।
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