Friday 10 April 2009

गंगा सिर्फ एक नदी का नाम नहीं /आइए जानते हैं गंगोत्री धाम को।

उत्तरकाशी। गंगा सिर्फ एक नदी का नाम नहीं है बल्कि यह भारतीय संस्कृति की विविधता और समन्वय की परिचायक भी है। गंगा के पानी से अभिसिंचित भारतभूमि सदियों से दुनियाभर के देशों के लिए तीर्थ के तौर पर जानी जाती रही है। हजारों मील दूर से लोग सिर्फ इसलिए भारत आते हैं कि पतितपावनी मां गंगा के निर्मल जल से अपने अंत:करण की कलुषता को दूर कर सकें। देवभूमि उत्तराखंड के लिए यह गौरव की बात है कि गंगोत्री धाम को गंगा के मायके के तौर पर जाना जाता है। यहां गंगोत्री धाम का ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है। लोकपरंपराओं में भी मंदिर और इससे जुड़ी मान्यताओं का रंग गहरा बसा हुआ है। आइए जानते हैं गंगोत्री धाम को।

स्थिति: 3,140 मीटर की ऊंचाई पर राष्ट्रीय राजमार्ग ऋषिकेश-गंगोत्री पर स्थित धाम उत्तरकाशी से 97 किमी. की दूर पर स्थित है। सड़क मार्ग बनने से यहां की यात्रा आज भले ही आसान हो गई हो, लेकिन पहले पैदल मार्ग बहुत जोखिम भरा था। सन् 1808 में गोख्र्याली में कैप्टन रिपर का दल उत्तरकाशी से गंगोत्री तक 8 दिन में पहुंचा था। गंगोत्री मंदिर: वर्तमान मंदिर बीसवीं सदी के आरंभ में जयपुर नरेश माधोसिंह ने बनवाया था। यह जयपुरी शैली में एकादश रुद्र मंदिर है। बीस फीट ऊंचा मंदिर सफेद रंग के चित्तीदार ग्रेनाइट को तराशकर उत्तराखंड की पगोडा शैली में बनाया गया है। इसके गवाक्ष व बरामदे के स्तम्भ राजस्थानी व पहाड़ी शैली के मिश्रण से बने हैं। गर्भगृह में गंगा-यमुना की स्वर्ण व चांदी के आभूषण युक्त मूर्तियां हैं। शंकराचार्य, महालक्ष्मी, अन्नपूर्णा, सरस्वती, जान्हवी, शंकर और गणेश की मूर्तियां और समीप ही भैरव व शिव की मूर्तियां हैं। धार्मिक महत्व: कपिल मुनि के शाप से भस्म हुए राजा सगर के 60 हजार पुत्रों की मुक्ति के लिए भागीरथ की तपस्या के बाद गंगा गंगोत्री में ही धरती पर अवतरित हुई। महाभारत में गरुड़ ने गालव ऋषि को बताया कि 'यहीं आकाश से गिरती गंगा को शिव ने अपनी जटा पर धारण किया'। शास्त्रों में गंगोत्री को मोक्षदायिनी बताया गया है। गंगोत्री में स्नान से मनुष्य जन्म-मृत्यु के फेर से पृथक हो जाता है। धार्मिक मान्यता के आधार पर ही लाखों श्रद्धालु हर वर्ष गंगोत्री पहुंचकर अपने को धन्य समझते हैं। गंगोत्री के प्रमुख स्थान : भगीरथ शिला: मंदिर की सीढि़यां उतरते ही नदी के दायें तट पर भगीरथ शिला स्थित है। शास्त्रों में उल्लेख है कि यहां भागीरथ ने तप किया था। श्रद्धालु इस शिला पर अपने पितरों का तर्पण देते हैं। गौरीकुंड: मंदिर से कुछ दूरी पर ताम्र आभा लिए चट्टान को काटती हुई गंगा झरना बनाते हुए गिरती है। इससे यहां करीब 20 फुट गहरी झील बन गई है। झील में शिवलिंग आकृति का पत्थर आस्था का केंद्र है। कहते हैं यहां गंगा शिव को पहला जलाभिषेक करती है। पटांगण: गौरीकुंड से एक किमी. की दूरी पर स्थित पटांगण चौरस शिलाओं से पटा हुआ मैदान है। यहां पांडवों ने 12 वर्ष तक तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया, महाभारत में परिजनों व ब्राह्मण हत्या के पाप से मुक्ति के लिए तर्पण किए और फिर स्वर्ग की ओर बढ़ गए। यहीं पर रुद्रगैरा चोटी से निकलने वाली रुद्र गंगा गंगा में मिलती है। अतिक्रमण का बढ़ता खतरा: गंगोत्री में अतिक्रमण के साथ ही प्रदूषण भी दिन ब दिन बढ़ता जा रहा है। कभी देवदार, कैल, पदमास, राइमुरंड के वृक्षों से घिरी गंगोत्री अब इंसानी हस्तक्षेप से वृक्ष हीन हो गई है। जंगल की जगह आश्रम, धर्मशालाएं और व्यावसायिक प्रतिष्ठान उग आए हैं। इन सभी के सीवर सीधे गंगा में खुले हैं। यात्रा काल में हजारों की संख्या में पहुंचने वाले वाहन यहां के वातावरण में खतरनाक गैसों का जहर घोल रहे हैं, इसका दुष्प्रभाव हिमशिखरों पर पड़ रहा है। डीएम डा। बीवीआरसी पुरुषोत्तम का कहना है कि अतिक्रमण चिह्नित कर हटाने की प्रक्रिया चल रही है।

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