Wednesday 22 April 2009

म्यार पहाड़-

मेरा पहाड़ लेकिन ऐसा कहने से ये सिर्फ मेरा होकर नही रह जाता ये तो सबका है वैसे ही जैसे मेरा भारत हर भारतवासी का भारत। खैर पहाड़ को आज दो अलग-अलग दृष्टियों से देखने की कोशिश करते हैं एक कल्पना के लोक में और दूसरा सच्चाई के धरातल में। जिनकी नई-नई शादिया होती हैं हनीमून के लिए उनमें ज्यादातर की पहली पसंद या दूसरी पसंद होती है कोई हिल स्टेशन। बच्चों की गरमियों की छुट्टी होती है उनकी भी पहली या दूसरी पसंद होता है कोई हिल स्टेशन अब बूढे़ हो चले है धरम्-करम् करने मन हो चला है तो भी याद आता है म्यार पहाड़ चार धाम की यात्रा के लिए। पहाड़ की खूबसूरती होती ही ऐसी है जो किसी को भी बरबस अपनी तरफ आकर्षित कर ले। कलकल बहती नदियां झरझर गिरते झरने, चीड़ वन से आती बयार, बाज-काफल के हरे-भरे जंगलों से कोयल की मीठी-मीठी कुहू-कुहू एवं घूघतियां की घुरू-घुरू यहां के वातावरण को लय प्रदान करती हैं तो शीतल बयार से वल्लरियों का झूमना हर मोड़ पर सरिता जल का लचकना आदि ताल देती है! वे ऊची-ऊची पहाड़िया सर्दियों में बर्फ से ढकी वादिया पहाड़ों को चूमने को बेताब दखिते बादल मदमस्त किसी अल्हड़ सी भागती पहाड़ी नदिया साप की तरह भागती हुई दिखाई देती सड़कें, कहीं दिखाई देते वो सीढ़ीनुमा खेत तो कहीं दिल को दहला देने वाली घाटिया जाड़ों की गुनगुनी धूप और गर्मियों की शीतलता। शायद यही सब है जो लोगों को अपनी ओर खींचता है, बरबस उन्हें आकर्षित करता है अपने तरफ आने को। लेकिन पहाड़ में रहने वालों के लिए एक पहाड़ी के लिए ये शायद रोज की ही बात हो। मेरा पहाड़ से क्या रिश्ता है ये बताना मैं आवश्यक नही मानता पर पहाड़ मेरे लिए मा का आचल है मिट्टी की सौधी महक है, हिसालू मे टूटे मनके है काफल को नमक-तेल में मिला कर बना स्वादिष्ट पदार्थ है। किलमोड़ी और घिघारू के स्वादिष्ट जंगली फल है, भट की चुणकाणी है घौत की दाल है मूली-दही डाल के साना हुआ नीबू है बेड़ू पाको बारामासा है मडुवे की रोटी है, मादिरा का भात है घट का पिसा हुआ आटा है ढिटालू की बंदूक है पालक का कापा है दाणिम की चटनी है। मैं पहाड़ को किसी कवि की आखों से नयी-नवेली दुल्हन की तरह भी देखता हू जहा चीड़ और देवदार के वनों के बीच सर-सर सरकती हुई हवा कानों मं फुसफुसा कर ना जाने क्या कह जाती है और एक चिन्तित और संवेदनशील व्यक्ति की तरह भी जो जनजंगल जमीन की लड़ाई के लिए देह को ढाल बनाकर लड़ रहा हैलेकिन मैं नही देख पाता हू पहाड़ को तो...........डिजिटल कैमरा लटकाये पर्यटकों की भाति जो हर खूबसूरत दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर अपने दोस्तों के साथ बाटने पर अपने को तीस-मारखा समझने लगता है। पहाड़ शवि की जटा से निकली हुई गंगा हैकालिदास का अट्टाहास है पहाड़ सत्य का प्रतीक है, जीवन का साश्वत सत्य है। कठिन परिस्थितियों मं भी हॅस-हॅस कर जीने की कला सीखने वाली पाठशाला है गाड़ गध्यारों और नौले का शीतलनिर्मल जल है, तिमिल के पेड़ की छाह है बाज और बुरांस का जंगल है आदमखोर लकड़बघ्घों की कर्मभूमि है। मिट्टी में लिपटे सिगणे के लिपोड़े को कमीज की बांह से पोछते नौनिहालों की क्रीड़ा स्थली है। गोबर की डलिया सर में ले जाती महिला की दिनचर्या है। पिरूल सारती, ऊंचे-ऊंचे भ्योलों में घास काटती औरत का जीवन है। कैसे भूल सकता है कोई ऐसे पहाड़ को, पहाड़ तूने ही तो दी थी मुझे कठोर होकर जीवन की आपाधापियों से लड़ने की शिक्षा। कैसे भूल सकता हे मैं असोज के महीने में सिर पर घास के गट्ठर का ढोना असोज में बारिश की तनिक आशंका से सूखी घास को सार के फटाफट लूटे का बनाना फटी एड़ियों को किसी क्रीम से नही बल्कि तेल की बत्ती से डामना फिर वैसलीन नही बल्कि मोम-तेल से उन चीरों को भरना, लीसे के छिलुके से सुबह-सुबह चूल्हे का जलाना, जाड़े के दिनों में सगड़ में गुपटाले लगा के आग का तापना, “भड्डू” में पकी दाल के निराले स्वाद को पहचानना, तू शिकायत कर सकता है पहाड़............कि भाग गया मैं परवासी हो गया, भूल गया मैं .................लेकिन तुझे क्या मालूम अभी भी मुझे इच्छा होती है “गरमपानी” के आलू के गुटके और रायता खाने की अभी भी होली में सुनता हू तारी मास्साब की वो होली वाली कैसेट............अभी भी दशहरे में याद आते हैं सीता का स्वयंबर अंगद रावण संवाद”...................लक्ष्मण की शक्ति अभी भी ढूंढता हू एंपण से सजे दरवाजे और घर के मन्दिर अभी भी त्योहार में बनते हैं घर में पुए बड़े कहा भूल पाऊंगा मैं वो बाल मिठाई और सिगौड़ी मामू की दुकान के छोले और जग्गन की कैन्टीन के बिस्कुट। तेरे को लगता होगा ना कि मैं भी पारखाऊ के बड़बाज्यू की तरह गप मारने लगा लेकिन सच कहता हू यार अभी भी जन्यू-पुन्यू में जनेऊ बदलता हू चैत में भिटौली भेजता हू घुघतिया उत्रायणी में विशेष रूप से नहाता हे (हा काले कव्वा काले कव्वा कहने में शर्म आती है, झूठ क्यों बोलू) तेरी भौजी मुझे पिछौड़े और नथ में ही ज्यादा अच्छी लगती है। यहा प्रदेश में शकुनाखर तो नही होता पर जोशी ज्यू को बुला कर दक्षिणा दे ही देता हू तू तो मेरा दगड़िया रहा ठहरा, अब तेरे को ना बोलू तो किसे बोलू तू बुरा तो नही मानेगा ना। मैं आऊगा तेरे पास, गोलू जी के थान पूजा दूगा....नारियल घंटा चढ़ाऊगा.....बाहर से जरूर बदल गया हू पर अंदर से अभी भी वैसा ही हू रे....तू फिर्क मत करना हा.... ये भावनायें हर उस पहाड़ी की है जिसके रोम-रोम में पहाड़ रचा-बसा है और ये नराई अकेले की नराई नही है ये उन सब पहाड़ियों की नराई है जो पहाड़ से बहुत दूर चले आये हैं। अपने पहाड़ में एक कहावत है पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ में नही रूकती। ये सिर्फ एक कहावत नही पहाड़ का सच है, क्योंकि पानी नदियों के रास्ते नीचे मैदानों में चला जाता है और जवानी यानिकि नवयुवक और नवयुवतिया रोजगार की तलाश में पहाड़ से दूर चले जाते हैं। पहाड़ से दूर-दराज गावों में तो हालात और भी चिंताजनक है और यह तब है जब हमें आजादी मिले लगभग 60 साल तो हो ही गये हैं। इन गावों से ज्यादातर युवक भारतीय सेनाओं में भर्ती होकर चले जाते हैं रह जाती हैं महिलायें बच्चे और बूढे़। पहाड़ी शहरों में भी ऐसे कोई उद्योग-धन्धे नही जो युवाओं को रोक सके, जिन्दगी की सच्चाई के सामने पहाड़ का प्यार ज्यादा दिनों तक टिक नही पाता। लेकिन दूर जाने पर भी एक पहले प्यार की तरह यह प्यार आखिरी वक्त तक दिल में बसा रहता है। यहा प्यार उन लोगों से दूर जाने के बाद भी पहाड़ के लिए कुछ न कुछ करवाता रहता है और पहाड़ इस आस में खामोश खड़ा इंतजार करता रहता है अपने बच्चों का शायद एक दिन कही तो वापस लौटे और मुझे ना पा कही फिर से वापस ना चले जायें। पहाड़ों में शायद यही आवाज अब भी गूजती रहती है वादिया मेरा दामनरास्ते मेरी बाहें जाओ मेरे सिवा तुम कहा जाओगे। अगर आप अभी तक कभी म्यार पहाड़ में नही आये तो आओ और थोड़ा सा मेरे पहाड़ का ठंडा पानी तो कम से कम पी लो। खुद ही आपके मन से निकलने लगेगा............. धन मेरो पहाड़ा मैं तेरी बलाई लियोना जन्मा-जन्मा मैं तेरी सेवा में रूना।। महेन्द्र सिंह गैलाकोटी संगठन मंत्री उत्तराचल स्वर-संगम लखनऊ फोन- 09235838619

9 comments:

  1. एक पहाडी की नराई का दिग्दर्शन कराने वाले लेख के लिए साधुवाद - यद्यपि नराई कुछ सार्थक करती नहीं है.वैसे यह लेख या इसके कुछ अंश पूर्व में पढ़े से लग रहे हैं.

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  2. Thanks Pandey ji for your comments. I do not know you have read these article earlier.....

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  3. you have written very innocently and very prctical things .So Pandeyji think they read the article .We should give him some another sug gestions I like your a rtical platabist@yahoo.co.in

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  4. Bahut sundar.. Mujhe lagta hai ye lekh Kakesh ji ke ek purane lekh se prabhavit hai...

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  5. Ye to Kakesh Ji ki Copy hai, Gailakoti ji kuch naya karo chura kar mat likho plzzz.. dil se apna khud ka socho

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  6. GAILAKOTI JI MAAF KARNA SIR.. PAR KUCH NAYA LIKHO

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  7. Agar Itne log kahate hain to nakal hi hogi par subject purana nahi hai. Sayad isi tarah ham jo ab pahad me nahi hain , pahad ko yad rakh sakein. Apana desh ahahe jaisa bhi ho apna i hota hai. Registan me pala bada bhi registan ko nahi bhool pata . Par sachchai eh hai ki roti roji ke chakkar me bahar ate hain aur bahar ki hi hokar rah jate hain kyonki ' aur bhi gam hain jamane me mohbbat ke siva'
    Lakhera

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  8. Dear Mr. Gailakoti,

    I dont not know, if the above written comments true. Anyway it is a fantastic article in the real way, either is it written by you or partially affected from another's article as the above people said.

    I appreciate you for your good try.

    In case if the above written comments are true than you can write a note of "with thanks" in the article.

    Let me know, in case.

    Thank you

    "Swatantra"

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  9. अरे यह लेख तो मेरा है, इसे आपने अपने नाम से छाप दिया, बहुत खूब।

    आपकी जानकारी के लिये बता दूँ यह मैने अपने ब्लॉग काकेश डॉट कॉम पर दस अप्रेल 2007 को लगाया था। लिंक देखें http://kakesh.com/2007/naraaee_1/ इसी लेख को तरुण ने मेरी अनुमति से अपने ब्लॉग पर मेरे नाम व लिंक के साथ लगाया था http://www.readers-cafe.net/uttaranchal/2007/04/myar-pahar/। अब आपने बिना अनुमति के तरण के ब्लॉग से उठाकर इसे अपने ब्लॉग पर लगा लिया वह भी अपने नाम से।

    गैलाकोटी जी अच्छा होता कि आप अपना कुछ नया लिखते या फिर मुझे इस लेख के लेखक के रूप में बता देते। आपने ऐसा नहीं किया। खैर...ईश्वर आपको सन्मति दे।

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