Tuesday, 12 May 2009

कागजों में चलता है उत्तराखण्ड फिल्म बोर्ड

हल्द्वानी राज्य गठन के नौ वर्ष बाद भी उत्तराखण्ड का फिल्म व्यवसाय पनप नहीं पाया है। तत्कालीन सरकार ने जैसे-तैसे फिल्म बोर्ड बनाया भी तो वह आज तक कागजों में ही चल रहा है। इसी कारण सब्सिडी नहीं मिल पा रही है। इसका खामियाजा कुमाऊंनी फिल्म निर्माता-निर्देशकों को उठाना पड़ रहा है। यह लोग सब्सिडी न मिलने से फिल्म निर्माण जैसा बड़ा और रिस्क वाला कदम नहीं उठा पा रहे हैं। लेकिन शौक पूरा करने के साथ-साथ पेट तो भरना ही है, इसलिए फिल्मों के स्थान पर वीडियों एल्बम का निर्माण का ही सहारा ले रहे हैं। हर साल राज्य में सैकड़ों वीडियों एलबम रिलीज होती हैं, तो एक दर्जन फिल्मों का निमार्ण भी नहीं हो पाता है। आज जहां भोजपुरी, असमी, तमिल, पंजाबी भाषाओं में बनने वाली फिल्में देश भर में अपनी पहचान बनाती जा रही हैं। तो कुमांऊनी व गढ़वाली अपने राज्य में ही जूझ रहीं हैं। तेरी सौं व चेली के अलावा के अलावा कोई स्थानीय फिल्म सफलता को सोपान नहीं छू सकी है। लेकिन हैरत की बात यह है कि किसी राजनीतिक दल का ध्यान इनकी ओर नहीं है। इस बाबत कुमाऊंनी फिल्म निर्माता निर्देशक व वैष्णो माता प्रोडक्शन हाउस के प्रमुख विनोद जोशी कहते हैं छह वर्ष पूर्व कांग्रेस के कार्यकाल में फिल्म बोर्ड का गठन हुआ। एक कैबिनेट मंत्री बोर्ड का अध्यक्ष भी रहा। लेकिन सत्ता बदलते ही इसका वजूद भी खत्म हो गया। आज एक कुमाऊंनी फिल्म करीब बीस लाख की बनती है, अगर बोर्ड होता तो सब्सिडी मिलती। बोर्ड न होने से कोई निर्माता रिस्क नहीं लेना चा रहा है। वह राज्य में सेंसर बोर्ड की मांग करते है।

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