Thursday, 28 May 2009

-...कख छन वो हमारा पठाला कूढा

आधुनिकता की दौड़ में पहाड़ की भवन निर्माण कला विलुप्ति की कगार पर पठाल के बजाय अब गांवों में भी बन रहे ईंट-सीमेंट के मकान आधुनिक परिवेश का रंग जैसे-जैसे पहाड़ों पर चढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे पहाड़ की पहाडिय़त भी खोती नजर आ रही है। समय के साथ पहाड़ बदल रहा है और साथ ही बदल रहे हैं पहाड़ के बाशिंदों के रहन-सहन के तौर तरीके भी। शहरी दिखने और बनने की चाह में पहाड़ अपनी जिन विशिष्टताओं को पीछे छोड़ता जा रहा है, उन्हीं में एक हैं 'पठाल' के मकान। कभी पहाड़ की पहचान पठालों से बने ढलवानुमा छत वाले मकान अब गुजरे जमाने की बात रह गए हैं। हालांकि, विभिन्न वैज्ञानिक शोधों में यह साबित हुआ है कि भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में यह मकान सुरक्षित रहते हैं। इसके बावजूद दूरस्थ गांवों तक में लोग पठाल के पुराने मकानों को तोड़कर ईंट-सीमेंट के पक्के मकान बनवाने लगे हैं। पठाल यानी एक खास किस्म का पत्थर, जिसे पहाड़ में मकानों के निर्माण में प्रयोग किया जाता था। एक समय था जब गांव में किसी व्यक्ति का मकान बनना हो, तो तमाम ग्रामीण एकजुट होकर पठाल तैयार करने में जुट जाते थे। भवन निर्माण कला के पारंगत शिल्पकार नदी के गोल पत्थरों को चौकोर काटकर उसमें उड़द की दाल अथवा चिकनी मिट्टी, चूना व पिरुल (चीड़ की पत्तियां) के मिश्रण से चिनाई करते थे। चिनाई में लकड़ी की खपच्चियां प्रयोग में लाई जाती थी। मकान बनने में भले ही लंबा समय लगता था, लेकिन इनकी मजबूती वर्तमान में बनने वाले ईंट-सीमेंट से बनने वाले मकानों से कहीं अधिक होती थी। खास बात यह कि इन मकानों पर भूकंप के दृष्टिकोण से भी अपेक्षाकृत सुरक्षित माना जाता है। नब्बे के दशक में उत्तरकाशी में भूकंप से हुई तबाही का जायजा लेने पहुंचे अमेरिकी वैज्ञानिक लारी बेकर ने भी अपनी रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की थी। इसके मुताबिक भूकंप ने ईंट, सीमेंट से बने मकानों को ध्वस्त कर दिया था, लेकिन पठालों के मकान सुरक्षित खड़े थे। अलबत्ता, उन मकानों में अधिक जनहानि हुई, जिनकी छतें तो पठालों की थी, लेकिन दीवारें गोल पत्थरों से बना दी गई थीं। दुर्भाग्य की बात यह है कि किसी जमाने में पहाड़ की पहचान रहे पठाल के मकान अब गुम होते जा हैं। आधुनिक दिखने की अंधाधुंध दौड़ में अब ग्रामीण भी पठाल के मकानों को दोयम दृष्टि से देखने लगे हैं। गांवों में अब मकान पठालों की बजाय शहरों से ईंट-सीमेंट ढोकर बनाए जा रहे हैं। वयोवृद्ध शिक्षाविद पीडी देवरानी व वरिष्ठ पत्रकार कमल जोशी बताते हैं कि पुराने समय में भवन गांव के आसपास मौजूद संसाधनों से ही तैयार होते थे। अब लोगों के पास समयाभाव भी हो गया है, इसके चलते पहाड़ की भवन निर्माण कला दम तोड़ती जा रही है। उनका कहना है कि सरकार को परंपरागत भवन निर्माण कला में पारंगत शिल्पकारों के संरक्षण-संवद्र्धन के लिए प्रयास करने चाहिए। ---

1 comment:

  1. गांवों में अब मकान पठालों की बजाय शहरों से ईंट-सीमेंट ढोकर बनाए जा रहे हैं kyun ki pahad key prakritik sansadhano per parwat wasiyon ka haq nahi hai. Chipko key baad hum ne prakirtik sansadhano per apna adhikar kho diya yeh usi ka parinam hai. Cement key sath cement key karigar bhe nechee maidaono se gaon tak pahunch gaye aur hamare karigar bekar ho gaye. pehle gaon ka paisa gaon main hi rehta tha ab aisa nahi hai ! Cement key utpadan se lekar uske dhulaan se hone wale paryawaran pradushan aur uska global climate change se sah-sambandh ki baat koi nahi karta, baandh nirman hetu chataano ko visphot se udane se hone wale nuksan ki kisi ko perwah nahi hai, lekan agar koi pahadi apna paramparik bhawan banana chahata hai tou uski rah main aanek kanoon hain.... yeh aadhunikta ki doud ka mamla kam aur kathit aadhunikata ki doud main haankey jane ka mamla jayeda hai...

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