Monday, 25 May 2009
फिर वही खेल
भाजपा को उत्तराखंड में सत्तासीन हुए दो वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन नेतृत्व को लेकर एक गुट ने जो खेल शुरू किया है, वह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। हर बार भाजपा के दिग्गज नये-नये सवालों के साथ दिल्ली दरबार में पहुंच जाते हैं और फिर दिल्ली-देहरादून के बीच दौड़ शुरू हो जाती है। अनुशासन को तार-तार करते हुए गुटीय नेता एक-दूसरे की शिकायत के साथ ही अपने पक्ष से हाईकमान को अवगत कराते हैं। जाने-अनजाने हाईकमान की प्रथम पंक्ति के नेता भी इस खेल का हिस्सा बनते हैैं। लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद भी वही परिदृश्य उभरा, जिसकी उम्मीद थी। हार के कारणों पर चिंतन-मनन के बजाए नेतृत्व को लेकर पार्टी के एक गुट ने मोर्चा खोल दिया। राष्ट्रीय नेतृत्व का ध्यान देश में मिली करारी हार से हटकर उत्तराखंड पर केंद्रित हो गया। दिल्ली के गलियारों में इस छोटे राज्य का भाजपा दिग्गजों ने खूब उपहास किया। साफ है कि पार्टी के चंद नेताओं की महत्वाकांक्षा अब उत्तराखंड पर भारी पडऩे लगी है। जनता ने सबक सिखाने की कोशिश की, लेकिन भाजपा नेता यह समझाने को तैयार नहीं हैं कि उनकी हार का कारण गुटबाजी रही। भाजपा हाईकमान को यह चिंता भी नहीं है कि उनके नेताओं की अकारण राजनीति के कारण राज्य की जनता को कितना नुकसान उठाना पड़ रहा है। भाजपा दिग्गजों के परिप्रेक्ष्य में किसी भी तरह के निर्णय का अधिकार राष्ट्रीय नेतृत्व को है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उत्तराखंड को भाजपा की गुटबाजी की प्रयोग भूमि बना दिया जाए। वरिष्ठ नेताओं को चाहिए कि गुटबाजी में लिप्त रहकर पार्टी को नुकसान पहुंचाने वाले नेताओं की पहचान करें। चुनाव में भितरघात करने वालों पर अनुशासन का शिकंजा कसे। दिल्ली जाकर कानाफूसी करने वाले नेताओं पर अंकुश लगाएं। यदि ऐसा नहीं किया जाता है तो भाजपा को राज्य में और नुकसान उठाने के लिए तैयार रहना चाहिए। नेतृत्व परिवर्तन के मसले पर सख्त स्टैंड नहीं लिया गया तो भविष्य में सभी नेता अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए यह रास्ता अख्तियार करते रहेंगे। संभले नहीं तो यह खेल भाजपा को काफी महंगा पड़ेगा।
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