Tuesday, 5 May 2009
आज भी पहाड़ की महिलाएं जागरूक है।
पहाड़ की महिलाओं पर कम नहीं बलाएंM
दशकों पहले काका कालेकर ने टिहरी भ्रमण के दौरान पहाड़ की महिलाओं के गीतों को सुनकर कहा था कि यहां की महिलाओं के गीत वेदकाल के है और उनका दर्द आज भी उसी काल के जैसा है जो उनके करुण गीतों से बयां हो रहा है।
दशकों बीते न जाने कितनी सरकारे आई और गई लेकिन आज भी न तो महिलाओं के करुण गीतों का सिलसिला रुका है और न ही उनका कष्ट। पलायन आरंभ से ही पहाड़ की समस्या रहा है। पुरुषों के पलायन से यहां की महिलाओं के कष्ट बढ़े। एक तरफ अपनों के विरह की पीड़ा है तो दूसरी तरफ पहाड़ में पहाड़ जैसी जटिल व कष्ट भरी जिंदगी जो आजादी से लेकर आज तक की तमाम सरकारों की नजरों में आई ही नही। महिलाओं को पहाड़ की रीढ़ कहा जाता है आज भी पहाड़ी महिला की दिनचर्या सुबह पांच बजे से शुरू होकर रात के दस बजे खत्म होती है। घर का चूल्हा-चौका करने के बाद उन्हे पानी व चारा-पत्ती के लिए ही मीलों दूर चलना पड़ता है। इस बात में शायद ही कोई संशय हो कि पहाड़ में पुरुष केवल हल लगाने या मनीआर्डर भेजने तक सीमित है। शायद ही किसी ने किसी पुरुष के कंधे पर पानी का बंठा या पीठ पर घास को बोझ देखा हो। अपने कष्टों और परेशानियों के बावजूद वोट देने के लिए आज भी महिलाएं जागरूक है। वोट देने के दिन भी न तो महिलाओं का काम कम होता है और न ही उनकी वेदना। लेकिन इन महिलाओं के दर्द वेदना को किसी ने नहीं समझा है। चुनावों के आते ही भले ही आबादी विहीन हो रहे गांवों में चंद दिनों के लिए रौनक आ जाती हो लेकिन आज आबादी विहीन होते जा रहे गांवों में भी महिला वोटरों की संख्या पुरुषों से अधिक है। वेदकाल से लेकर आज तक पहाड़ की महिलाओं ने अपने कष्टों को विरह गीत के रूप में सामने रखा। लेकिन कब तक सरकारें और राजनेता इनके कष्टों की परीक्षा लेते रहेगे। शिक्षा, चिकित्सा और स्वास्थ्य पहाड़ में महिलाओं की यही आधारभूत जरूरत है। ठेठ पहाड़ में दस प्रतिशत से भी कम महिलाएं होंगी जिन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मुहैया हो। खासकर कई गांवों में महिलाओं को प्रसव वेदना से जूझता देखा जा सकता है।
कष्टों का पहाड़ कंधों में लिए महिलाओं की जन प्रतिनिधियों से मांग है कि रोजगार के लिए खाली होते पहाड़ के लिए ऐसी नीति बने जो पलायन को रोक सके। ग्रामस्तर पर बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया हो।
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