Tuesday, 5 May 2009
आपदाओं का पहाड़ से चोली दामन का साथ
पहाड़ कभी अतिवृष्टि, भूस्खलन, भूकंप और सूखे की मार झोलते हैं तो अब दावानल के विकराल रूप से त्रस्त हैं। अभी इसी साल पहाड़ों ने जाड़ों में सूखे की मार झोली है। लगता है, जाड़ों से ही जंगलों की झााड़-झांकार दावानल के लिए ईंधन के रूप में तैयार हो रही थी। अब पारे के चढऩे के साथ ही इसे भड़कने का मौका मिल गया। पहाड़ के लोगों का आज भी जंगलों से किस कदर नजदीकी संबंध हैं, इसका उदाहरण है, जंगलों को बचाने के लिए अपनी जान की परवाह भी न करना। पौड़ी जिले के गगवाडा गांव के लोगों ने इसका उदाहरण प्रस्तुत किया। लेकिन वन महकमे की भूमिका सवालों के घेरे में है। दावाग्नि को लेकर महकमे के अधिकारी तथा कर्मचारी अब भी गंभीर नहीं दिखते। इस आपदा से उत्तराखंड को तकरीबन हर साल काफी नुकसान उठाना पड़ता है। आग से वनों को बचाने के लिए हर साल करोड़ों रुपये खर्च भी किए जाते हैं। यही नहीं, हेलीकाप्टरों से वनों की आग बुझााने की योजना भी सालों से बनाई जा रही है। इसके बावजूद अभी तक इस समस्या पर काबू नहीं पाया जा सका है। दावानल से आबादी को तो जानमाल का नुकसान हो ही रहा है, बल्कि बहुमूल्य वन संपदा और दुर्लभ वन्य जीवों से भी प्रदेश को हाथ धोना पड़ रहा है। हालत यह है कि कई प्राकृतिक जल स्रोत दावानल के प्रभाव से सूखने लगे हैं। अब सबकी निगाह इंद्र देव पर टिकी हैं। यदि शीघ्र बारिश नहीं होती तो प्रकृति के इस तांडव का जल्द रुकना मुमकिन नहीं होगा और राज्यवासी इस परेशानी को असहाय होकर सहते रहने पर मजबूर रहेंगे। सरकार को चाहिए की इस समस्या के समाधान को तत्काल ठोस कदम उठाए।
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