Wednesday, 13 May 2009
भारत में लुप्त होता .. लोक साहित्य
लेखक- पराशर गौड(कनाड़ा से)राष्ट्रीय कवि स्वर्गीय दिनकर जी ने ठीक ही कहा था ! सभ्यत्ता जब जब अत्यन्त सभ्य हुई तो वो नपुंसक हो जाती है और जब जब सभ्यत्ता नपुंसक या बीमार हुई तब तब साहित्य शैली जीने पर मजबूर हुई ! आज का बीमार साहित्य और नपुसक सभ्यत्ता दोनों एक ही शैली में जी रही है ! देखा जाया तो मनुष्या की मजबूरी है जीना इसीलिये आनेवाले समय में ना तो मनुष्या ही मरेगा और नही साहित्य ! सुनने में
आया ह कि हर शत्ताब्दी एक नई सभ्यत्ता जन्म लाती है या जन्म लेन का इंतज़ार करती है ! आलम ये है कि बिना सोचे समझे इस सभ्यत्ता कि दौड़ में हम दौडे जा रहे है और पीछे छोडे जा रहे है अपनी लोक संस्कृति , लोक साहित्य जो हमरी आने वाली पीड़ी उनके और हमारे सामाजिक समंधो के लिए बहुत आवश्यक है ! आज जब हम अपनी परम्परा अपनी संस्कृति , अपनी बोली , अपना लोक साहित्य को अनदेखा कर नई संस्कृति नई
परम्परो को अपनाकर इस से मुह मुड़कर आगे जाते है तो हम अपनी भाबी पीडी के साथ अन्या कर रहे है ! कल आने वाली पीड़ी हमें इसके लिए अवशय कोशेगी इ हमने अपने युग कि धरोहर को दूसरे युग के उत्तराधिकारी को देने अपने कर्तब्य का पालन नही किया !
किसी भी देश का मूल्यांकन करना हो, या उसके बारे में जानना हो तो उसके पीछे उसके लोक संस्कृति व लोक साहित्य को देखना होगा ! जितना समर्ध उसका साहित्य अवम लोक संस्कृति होगी वो उतना ही समर्ध होगा ! भारत जिसमे लोक साहित्य अवम लोक संस्कृति का अपार भण्डार है जिसके अंग अंग में लोक संस्कृति का वास है ! जिसमे बिभिन प्रकार कि बोली भाषाऐ बोली जाती है जो भारत की आन बाण व शान में अपना
सहयोग दे रही है भले ही यहा सहयोग मौखिक रहा हो , लिखित नही ! ब़स यही पर मार खा गए ! काश आज वो लिखित होता तो हमें ये सब लिखने और उसकी वकालत करने कि कोई ज़रूरत नही आन पड़ती !
स्वतंत्रता प्राप्ती की बाद लोक साहित्य व संस्कृति प्रति विद्वानों ,सामाजिक , कार्यकर्ताओं, राजनैतिक पार्टियो व राज नेताओं का ध्यान अवशय गया लेकिन हुआ क्या ? इसके नाम पर कमेटिया अवशय बनाई गयी जिसमे उसमे अपने चहेते व चाहनेवालों को इसका अध्यक्ष बनाकर उनको कार ,कोठी ,बँगला, नौकर चाकर देकर इसकी इती श्री कर दी गई, ! नतीजा ये हुआ जो काम हो भी रहा था वह रोक गया ! लुप्त होत
लोकसंस्कृति , साहित्य को अंधेरे के गुमनामो के ओर धकेल दिया गया !
आज आलम ये है सरकारे चाहे वो केंदर की हो या प्रान्तों की वो लोक गीतों व लोकसंस्कृति के नामों पर केवल सांस्कृतिक या मनोरंजन तमाशों का आयोजन करती आ रही है ! लोक गीत व लोक संस्कृति दूर दूर तक तो दिखाई नही देती हां अलबता मुम्ब्या फिल्मी डांस और आइटम डसो के सिवा कुछ भी नजार नही आता ! एक और बात जब सरकार ही जिसके आधीन रख रखावा के साधन है जैसे आकाशवाणी दूरदर्शन विश्व विद्यालय
तथा साहितिक संस्थाए होने के बाबजूद वो उसको रखने अथुवा सँभालने में असमर्थ है तो वहा चाँद एक व्यक्ति kese rakh payegaa !
लोक तंत्र में वर्गगत अहम का अंत नहीं जिसका परिणाम यह होवा की लोक संकृति उनकी नजरो में गंवारों की भाषा मणि जाने लगी और लोकगीत और लोकसाहित्य का मजाक उडाया जाने लगा ! समाज में समय समय पर बदलाव आया प्रगति और उन्नति नई दिशाए खुली ! समाज और व्यक्ति विकास की ओर अग्रसर हुआ ! नई और ऊँची संस्कृति ने जनाम लिया पर ध्यान रहे ऊँची संस्कृति भी नीची कहा जाने वाली संस्कृति से ही पैदा
होती है ! और जो अपने को उच्च वर्ग बतलाने की कोशिश करते वे यह क्यूँ भूल जाते है की वो भी इसी निम्न वर्ग की दें है ! सचाई तो ये है की सहर का सहरी और ग्राम का ग्रामीण संस्कृति की नजर में दोनों एक दुसरे के पूरक है ! कोइ छोटा बड़ा नहीं है !
हमारी संस्कृति व सभ्यता आज दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही है क्यो की समाज का पडा लिखा वर्ग वो अपनी लोक साहित्य , लोक संस्कृति से अपना पीछा छोड़ता जा रहा है ! अपनी आँखों में पासचता की संस्कृति का आएना लगाकर अपने अपनी संस्कृति को अनदेखा कर रहा है ! अखीर संस्किति क्या है वो किसी एक व्यक्ति की भी हो सकती और एक समाज की भी ! आवश्कता इस बात की है की सब मिलकर चले , अपने विचारो
का आदान प्रदान करे जिस से उनका ही नहीं बल्कि राष्ट्र का चौमुखी विकाश हो सके ! लेखक- पराशर गौड(कनाड़ा से)
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