Saturday, 25 July 2009
उल्लास ही नहीं, विरह की पीड़ा भी है सावन में
सौंणा का मैना ब्वै कनकै रैणा, कुयेड़ी लौंकलि, जिकुडि़ झूरलि, अंधेरी रात बरखा कु झमणाट, खुद तेरी लागालि (मां, सावन के महीने में कैसे रहूंगी।
बारिश की झड़ी के बीच चारों ओर कोहरे की चादर पसरी हुई है। ऐसे में दिल बेहद उदास है और रह-रह कर मायके याद सताएगी।) सावन का एक भाव यह भी है। एक ओर जहां सावन में चारों तरफ हरीतिमा बिखरने से उल्लास का भाव होता है, वहीं उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की विषम परिस्थितियां मन को उदास कर देती हैं। इसीलिए सावन को खुदेड़ महीना भी कहा गया है और पहाड़ के लोकगीतों में इसे बखूबी जगह मिली है। पहाड़ में चातुर्मास के शुभारंभ सावन में मानसूनी फुहारें पड़ने के बाद हर तरफ हरियाली ही हरियाली है। कोहरे की सफेद चादर से ढके पहाड़ व जंगल, नदी-नालों का शोर, चारों ओर नजर आते बरसाती झरने और जगह-जगह फूटे जलस्रोत। सावन में पहाड़ में प्रकृति की यह अनुपम छटा देखते ही बनती है। ऐसे में हर कोई प्रकृति के इस सृजनकाल से रूबरू होना चाहेगा, लेकिन इस परिदृश्य के बीच विषम परिस्थितियों वाले पहाड़ में सावन का दूसरा पहलू भी है। वह है खुद, बिछोह और अभाव। दरअसल, वन प्रांत के लोग ज्यादा उत्सवधर्मी होते हैं। ममता जब उत्कर्ष पर होती है, तब जीवन मेंथोड़ा-सा भी अभाव खुद (याद) के रूप में सामने आता है। पहाड़ भी इससे अछूता नहीं है। एक दौर में पहाड़ का जीवन घोर अभावग्रस्त था। आज के जैसे आवागमन के साधन व सुविधाएं भी नहीं थीं। वर्षाकाल में पैदल रास्ते बंद हो जाते थे। बिछोह भी कम नहीं था। बेटी को मायके संदेश भेजना हो तो रैबारी पर निर्भर रहना पड़ता था। ऐसे में सावन की घनघोर घटाएं अभाव से आशंकित मन को उदास कर देती थीं। सावन में पहाड़ के इस दर्द को लोकगीतों में खासा महत्व मिला। न सिर्फ सावन, बल्कि चातुर्मास का खाका रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में बखूबी खींचा है। इसकी बानगी देखिए-बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासी..(चातुर्मास की बारिश, वनों में कोहरा घिर रहा है तो मन में उदासी)। ऐसे दर्जनों लोकगीत हैं, जिनमें सावन के इस पक्ष का बखूबी चित्रण है। कवि गणेश खुगशाल गणी एवं साहित्यकार डा.कुटज भारती कहते हैं कि पर्वतीय समाज में बिछोह ज्यादा है। पहले अभाव भी काफी अधिक था। फिर पहाड़ के लोग एक-दूसरे के प्रति अगाध स्नेह रखते हैं। ऐसे में समय, स्थान और वातावरण के चलते खुद की व्युत्पति होती है। सावन में जब थोड़ा सा अभाव होता था तो एक-दूसरे के प्रति स्नेह खुद के रूप में सामने आ जाता। यही वजह है कि गीतों के रूप में आई इस खुद को लोकगीतों में जगह मिली है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
A great article.... but I can bet on it, it was more difficult and painful that it is seeming here. only one who spent time in Those Great Pahad ( Hills) he can imagining what he felt when he was on top of the hill and the fog and the Rain was everywhere around him………..it’s a Feeling a Great Feeling……!!!
ReplyDelete