Wednesday, 22 July 2009

आयुर्वेद के प्रति बढऩे लगा है लोगों का क्रेज

ऐलोपैथी छोड़ जड़ी-बूटियों की शरण में आ रहे लोग उत्तराखंड में हैं औषधीय और सगंध पादपों की अपार संभावनाएं गोपेश्वर भारतीय परंपराओं में जड़ी-बूटियों का प्राचीन काल से ही विशेष महत्व रहा है। आयुर्वेद में जटिल से जटिल रोगों का भी इलाज बताया जाता है। दुनिया भर के लिए भारतीय वेद साहित्य व अन्य ग्रंथों में वर्णित औषधीय गुणों वाले पादप शोध का विषय रहे हैं। विडंबना ही रही कि औषधीय जानकारी का भंडार होने के बावजूद हमने इस ओर कभी ध्यान तक नहीं दिया, जबकि विदेशों में हमारी हल्दी तक का पेटेंट करा लिया गया। अब देर से ही सही, लेकिन लोग आयुर्वेद की ओर लौटने लगे हैं। जहां तक उत्तराखंड का सवाल है, तो यहां कई तरह के औषधीय पादप मौजूद हैं, लेकिन दोहन पर नियंत्रण न होने के कारण कई प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर पहुंचने लगी हैं। अगर समय रहते इस ओर ध्यान न दिया गया, तो हम कुदरत व आयुर्वेद की कई नेमतों से हाथ धो बैठेंगे। शहरीकरण व पाश्चात्य पद्धतियों के अंधानुकरण में हमने पारंपरिक औषधीय ज्ञान को गंवा दिया। छोटी-छोटी बीमारी पर भी ऐलोपैथिक दवाओं पर निर्भर रहने से घरेलू नुस्खों का प्रयोग नहीं किया गया। अंग्रेजी दवाओं ने रोगों से स्थायी छुटकारा तो दिलाया नहीं, जेब पर बोझा बढ़ा दिया और साथ ही शरीर पर समांतर दुष्प्रभाव भी छोड़ दिए। यही वजह है कि अब लोग चिर स्वस्थ रहने को फिर से आयुर्वेद की छांव में लौटने लगे हैं। जनसाधारण का ध्यान प्राकृतिक चिकित्सा पद्वति की ओर आकर्षित हो रहा है और जड़ी बूटियां पुनप्र्रतिष्ठित हो रही हैं। राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी हर्बल उत्पादों पर जोर दिया जा रहा है। उत्तराखंड की बात करें, तो पौराणिक आख्यानों के मुताबिक यहां प्राचीनकाल में औषधि निर्माण किया जाता था। यहां की वानस्पतिक प्रजातियों के औषधीय गुणों से प्रभावित होकर ही महर्षि चरक ने लिखा था कि 'हिमनौषधि: भूमीनाय श्रेष्ठय' यानी हिमालय की औषधियां इस भूमि पर सबसे श्रेष्ठकर हैं। यह तो अच्छी बात है कि आयुर्वेद दोबारा प्रचलित हो रहा है, लेकिन यहां ध्यान देना जरूरी है कि औषधीय पादपों के दोहन पर नियंत्रण रखा जाए। दरअसल, पिछले कुछ समय से अनियंत्रित दोहन के कारण सूबे में मिलने वाली बहुमूल्य वनौषधीय प्रजातियां ब्रह्मकमल, वनककड़ी, अतीश, कुटकी, चिरायता, सत्तावर, वज्रदंती, कूट, विषकंडारू आदि विलुप्ति की कगार पर जा पहुंची हैं। इस बाबत, पारंपरिक ग्रामीण चिकित्सा सभा के संरक्षक डा.एसएन थपलियाल व शोध प्रवक्ता प्रकाश चन्द्र फोंदणी ने बताया कि कुछ समय पूर्व गोविंद वल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान की ओर से आयोजित सम्मेलन में गढ़वाल के 150 वैद्यों के अलावा देश के विभिन्न भागों से आए वैज्ञानिकों ने भाग लिया था। उन्होंने बताया कि इस दौरान पारंपरिक चिकित्सा पद्धति/वैद्य चिकित्सा पद्धति व बहुमूल्य जड़ी बूटियों के विकास का संकल्प लिया गया। उन्होंने बताया कि संस्थान ग्रामीण पारंपरिक चिकित्सा सभा के जरिए वैद्यकी को कारगर बनाने में जुट गया है। आने वाले दिनों में इसका लाभ मिलने लगेगा। उन्होंने कहा कि औषधियों के नियमित दोहन पर सरकार को विशेष नजर रखनी चाहिए।

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