Saturday, 25 July 2009
उत्तराखंडी बाघों के पूर्वजों का चलेगा पता
विष्ठा पर पड़ी झिाल्ली के जरिए होगी जेनेटिक कोडिंग
-बाघ बचाने में भी मदद मिलेगी
-राज्य में रहने वाले बाघों के मूल का भी पता चलेगा
देहरादून: उत्तराखंड में अब उत्तराखंडी बाघों के पूर्वजों के बारे में पता लगाने की कवायद शुरू की गई है। बाघों के जेनेटिक कोडिंग के जरिए एक तो उनके मूल निवास का पता चलेगा, दूसरे अस्तित्व के लिए किए जा रहे उनके संघर्ष के बारे में भी सही जानकारी मिल सकेगी। इसी दृष्टिकोण से वन विभाग बाघों की जेनेटिक मैपिंग की योजना शुरू करने जा रहा है।
वन क्षेत्र और वन्य जीवन के हिसाब से उत्तराखंड एकदम अनूठा प्रदेश है। यहां साठ प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा वन क्षेत्र है। इसमें यूं तो कई वन्य जीव निवास करते हैैं, लेकिन उनमें भी बाघ यानी टाइगर की अपनी शान है। जिम कार्बेट नेशनल पार्क व उससे सटे हुए हिस्से तो खासतौर पर बाघ के लिए ही देश-विदेश में जाने जाते हैैं।
वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट के आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड में कुल 178 बाघ हैैं। इनमें से ज्यादातर जिम कार्बेट और उसके बफर जोन में निवास करते हैैं। हालांकि बाघों की आवाजाही के चिन्ह प्रदेश के अन्य वनों में भी मिलते रहे हैैं। राजाजी नेशनल पार्क में भी बाघों का मूवमेंट रहता है। यद्यपि स्थाई तौर पर निवास करने वाले बाघों की संख्या यहां पर कम ही है।
वन्य जीव अंगों के तस्करों के शिकार और प्राकृतिक वासों के नष्ट होने के चलते इनके उत्तराखंड में भी इनके अस्तित्व पर संकट छाया हुआ है। संकट से उबरने के लिए वन विभाग ने एक नई पहल शुरू की है। विभाग बाघों की जेनेटिक मैपिंग करने जा रहा है। इसके जरिए बाघों की शारीरिक संरचना के साथ ही उनके पूर्वजों के बारे में भी जानकारी मिलेगी।
अपर प्रमुख वन संरक्षक व मुख्य वन्य जीव प्रतिपालक श्रीकांत चंदोला के मुताबिक बाघों की जेनेटिक कोडिंग के लिए उनके शरीर के किसी हिस्से की जरूरत नहीं पड़ेगी, क्योंकि इसके लिए एक खास तकनीक का इस्तेमाल किया जाएगा। वन्य जीवों के मल के ऊपर सामान्य तौर पर एक झिाल्ली पाई जाती है। इसी झिाल्ली से उनके जीनों का पता लगाया जा सकता है। श्री चंदोला के मुताबिक हैदराबाद की एक संस्था के साथ बाघों की जेनेटिक कोडिंग की बात चल रही है। इसके प्राथमिक नतीजे छह माह के अंदर आ जाएंगे।
बाघों की जेनेटिक कोडिंग को उनके अस्तित्व बचाने के लिए किए जा रहे प्रयासों के लिए महत्वपूर्ण मानते हुए उनका कहना है कि कुछ दिनों पहले रणथंभौर के बाघों की जेनेटिक कोडिंग की गई तो पता चला कि उनमें कुछ जीन साइबेरियाई टाइगर्स के भी हैैं। यानी रणथंभौर के बाघ साइबेरिया से माइग्रेट हुए हो सकते हैैं। ऐसी स्थिति में किसी आपात स्थिति में वहां के बाघों के सर्द वातावरण में सर्वाइव करने की संभावना ज्यादा है।
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