Thursday, 24 September 2009
वदेशों में बिखेरी लोक-माटी की खुशबू
-साहित्य के लिए समर्पित हैं मधुसूदन थपलियाल
-अब तक नवाजे गए हैं कई सम्मानों से
-विदेशों में कई मंचों पर कर चुके गढ़वाली साहित्य का पाठ
पौड़ी गढ़वाल:
गढ़वाली लोक-साहित्य यूं तो किसी पहचान का मोहताज नहीं है,
लेकिन अब कुछ साहित्यकर्मी गढ़वाली लोक साहित्य की खुशबू देश की सीमाओं से पार विदेशों में भी बिखेर रहे हैं। पेशे से शिक्षक मधुसूदन थपलियाल इसी श्रेणी के साहित्यकार हैं।
बैग्वाड़ी गांव निवासी मधुसूदन थपलियाल पाबौ ब्लाक के अंतर्गत राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय तिमली में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। थपलियाल ने हाईस्कूल की शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही साहित्य सृजन शुरू कर दिया था। उन्होंने गढ़वाली साहित्य के अलावा हिंदी साहित्य में भी लेखन किया है। एकलव्य होने का कारण द्रोणाचार्य नहीं होता, फिर भी कटे अंगूठे बिंधे हैं क्यों तीर कमानों पर... जैसी हिंदी कविता के माध्यम से थपलियाल ने साहित्य की धार को तेज किया। वर्ष 2002 में गढ़वाली गजल संग्रह.. हर्बि-हर्बि.. के लिए उन्हें जयश्री सम्मान से नवाजा गया। वर्ष 2004 में पर्वतीय सांस्कृतिक मंच उत्तराखंड की ओर से पर्वतीय गौरव सम्मान और वर्ष 2006 में रायपुर में उन्हें साहित्य के लिए सृजन सम्मान से सम्मानित किया गया। थपलियाल आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपनी रचनाएं प्रस्तुत करते रहे हैं। वर्ष 2003 में पहला मौका था जब उन्होंने मारीशस में गढ़वाली लोक साहित्य की खुशबू बिखेरी। वर्ष 2005 में साहित्य सम्मेलन में श्रीलंका, वर्ष 2006 में ब्रिटेन और इस वर्ष भूटान में आयोजित साहित्य सम्मेलन में प्रतिभाग कर चुके हैं।
मधुसूदन थपलियाल ने बताया कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज की कुरीतियां एवं बुराइयों को मिटाने में साहित्य सबसे बड़ा हथियार होता है। उनका अभी तक गढ़वाली गजल संग्रह ..हर्बि-हर्बि.. और ..बिजी ग्याई कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है। 6 गढ़वाली लोक-साहित्य की पुस्तकें अभी प्रकाशनार्थ हैं।
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