Wednesday, 30 September 2009
पारदर्शी होगी आईटीबीपी की भर्ती
भर्ती के लिए उत्तराखंड के निवासी 27 अक्टूबर तक आईटीबीपी के देहरादून स्थित डीआईजी कार्यालय में अपने आवेदन भेज सकते हैं।
-केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बदली भर्ती प्रक्रिया, इंटरव्यू व्यवस्था खत्म
-उत्तर पुस्तिका की कार्बन कापी घर ले जा सकेंगे अभ्यर्थी
, पिथौरागढ़: भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल में होने वाली जवानों की भर्ती पर अब अंगुली नहीं उठ सकेगी। गृह मंत्रालय ने भर्ती प्रक्रिया में परिवर्तन कर दिया है। प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने के लिए इंटरव्यू व्यवस्था खत्म कर दी गयी है।
भारत तिब्बत सीमा पुलिस बल में अभी तक पुराने तौर तरीकों से ही भर्ती होती रही है। भर्ती के बाद कई बार विवाद भी होते रहे हैं। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने भर्ती के बाद उठने वाली शिकायतों को देखते हुए प्रकिया पूरी तरह बदल दी है। अभी तक आईटीबीपी की भर्ती प्रक्रिया में फिजिकल टेस्ट व लिखित परीक्षा के अंकों को मिलाकर मैरिट बनाई जाती थी। गृह मंत्रालय के नये निर्देशों के मुताबिक अब मैरिट लिखित परीक्षा के आधार पर ही बनाई जायेगी। फिजिकल के अंक इसमें नहीं जुड़ेंगे। फिजिकल टेस्ट केवल क्वालीफाइंग के लिए होगा। भर्ती परीक्षा में शामिल होने वाले अभ्यर्थी अब अपनी उत्तर पुस्तिका की कार्बन कापी घर ले जा सकेंगे। परीक्षा सम्पन्न होने के बाद आईटीबीपी की वेबसाइट व संबंधित भर्ती कार्यालयों के नोटिस बोर्ड पर उत्तर पत्रिका जारी की जायेगी, इससे अभ्यर्थी अपने उत्तर मिलान कर सकेंगे। सबसे महत्वपूर्ण फैसला इंटरव्यू व्यवस्था को लेकर हुआ है। अभी तक अभ्यर्थियों को लिखित परीक्षा में पास होने के बाद इंटरव्यू भी देना होता था, इस व्यवस्था को अब खत्म कर दिया गया है। इससे इंटरव्यू में होने वाली संभावित गड़बडिय़ों की आशंका खत्म हो गयी है। केंद्रीय गृह मंत्रालय के नये फैसले के बाद आईटीबीपी की भर्ती पूरी तरह पारदर्शी हो जायेगी। आईटीबीपी की 7वीं वाहिनी के कमांडेंट एपीएस निम्बाडिया ने बताया कि केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा भर्ती प्रक्रिया के लिए बनाये गये नये नियम वाहिनी को प्राप्त हो गये हैं।
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देश भर में होगी 2450 जवानों की भर्ती
पिथौरागढ़: भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल में दिसम्बर माह से जवानों की भर्ती की जायेगी। पूरे देश से 2450 जवान भर्ती किये जायेंगे। आईटीबीपी की सातवीं वाहिनी के कमाडेंट एपीएस निम्बाडिया ने बताया कि उत्तराखण्ड को 296 रिक्तियां मिली हैं, इसमें पिथौरागढ़ जिले के अंतर्गत 116 जवानों की भर्ती होगी। उन्होंने बताया कि भर्ती के लिए उत्तराखंड के निवासी 27 अक्टूबर तक आईटीबीपी के देहरादून स्थित डीआईजी कार्यालय में अपने आवेदन भेज सकते हैं।
-विश्व रिकार्ड बनाने वाले विंग कमांडर त्रिपाठी सम्मानित
22 सिंतबर को एवरेस्ट पर 22 हजार फुट की ऊंचाई से लगाई विंग कमांडर रमेश चंद्र त्रिपाठी ने छलांग
देहरादून, जागरण संवाददाता: एवरेस्ट बेस कैंप पर 22 हजार फुट की ऊंचाई से छलांग लगाने वाले देहरादून निवासी विंग कमांडर रमेश चंद्र त्रिपाठी को विंटर गेम्स फेडरेशन की ओर से सम्मानित किया गया। फेडरेशन ने उम्मीद जताई कि विंग कमांडर त्रिपाठी के इस रिकार्ड तोड़ प्रदर्शन से युवा साहसिक खेलों की ओर आकर्षित होंगे।
भारतीय वायु सेना में विंग कमांडर रमेश चंद्र त्रिपाठी ने 22 सितंबर को अंग्रेज हवाई कलाबाज लिवो डिक्सन और राल्फ मिचले के साथ फ्रेंच हेलीकाप्टर से छलांग लगाकर 17 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित एवरेस्ट के बेस कैंप पर पैराशूट से उतरने का नया विश्व कीर्तिमान स्थापित किया। टीम ने छह सेकेंड के फ्री फाल के साथ चार मिनट में यह छलांग पूरी की।
पौड़ी जनपद के थैलीसैंण तहसील के डुंगरी गांव में पले-बढ़े श्री त्रिपाठी वायु सेना में पैरा जंप प्रशिक्षक के रूप में तैनात हैं। उनको वर्ष 2006 में वीरता व साहस के लिए राष्ट्रपति वायु सेनामेडल और राष्ट्रीय साहसिक पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। वे विंटर गेम्स फेडरेशन आफ इंडिया के संयुक्त सचिव भी हैं।
रविवार का फेडरेशन की ओर से उन्हें गढ़ी कैंट, देहरादून में रविवार को आयोजित एक कार्यक्रम में सम्मानित किया गया। इस मौके पर फेडरेशन के अध्यक्ष एसएस पांगती, उत्तराखंड विंटर गेम्स फेडरेशन के अध्यक्ष ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) एसएस पटवाल, फेडरेशन की सदस्य भारती शर्मा व प्रवक्ता पीसी थपलियाल आदि उपस्थित थे।
इंनसेट
देहरादून: मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने माउंट एवरेस्ट के बेस कैंप पर पैराजंप करने वाले भारतीय वायु सेना के विंग कमांडर रमेश चंद्र त्रिपाठी को इस उपलब्धि पर बधाई दी है। उन्होंने इसे प्रदेश और देश का सम्मान बताते हुए कहा कि हमें अपने इस वीर सपूत पर गर्व है। उन्होंने आफिसर्स ट्रेनिंग एकेडमी में स्वार्ड आफ आनर प्राप्त करने वाले पिथौरागढ़ निवासी प्रकाश सिंह बिष्ट को भी बधाई दी है।
-बल्ती जाति: कब मिलेगा जौनसारी मिट्टी का लाभ
-ढाई सौ वर्ष के सफर में भी नहीं मिला जनजाति का दर्जा
-मुल्क में खुद को बेगाना महसूस कर रहे हैं ये लोग
-देश विभाजन के वक्तगुजर चुके हैं देशभक्तिके इम्तिहान से
विकासनगर(देहरादून):ढाई सौ साल पहले की बात है, कारगिल से शुरू हुआ दो दर्जन परिवारों का व्यावसायिक सफर उत्तराखंड के जौनसार-बावर क्षेत्र में आकर रुका। क्षेत्र की संस्कृति और सभ्यता का प्रभाव ही था कि अस्थायी प्रवास के लिए ठहरे ये परिवार यहीं के होकर रह गए। यहां अब तक इन लोगों की तीन-चार पीढिय़ां गुजर चुकी हैं, लेकिन जौनसारी मिट्टी का लाभ उन्हें नहीं मिल रहा। अपने इस मुल्क में ये लोग खुद को बेगाना महसूस करने लगे हैं। और तो और, एक ऐसा भी समय आया, जब वर्ष 1947 में देश विभाजन के वक्त इन लोगों को देशभक्ति के इम्तिहान से भी गुजरना पड़ा।
बात देहरादून जिले के जौनसार-बावर क्षेत्र में निवास कर रहे मुस्लिम (शिया) समुदाय की बल्ती जाति के परिवारों की हो रही है। इन परिवारों के यहां आने की कहानी भी बड़ी रोचक है। ढाई सौ वर्ष पूर्व कश्मीर से उत्तराखंड होते हुए कुछ कश्मीरी लोग लद्दाख तक व्यवसाय किया करते थे। उनमें बल्ती जाति के लोग भी शामिल थे। हुआ यूं कि उस समय लगभग दो दर्जन बल्ती परिवार व्यावसायिक सफर के दौरान कुछ समय के लिए चकराता के डाकरा गांव में ठहर गए। यहां की मिट्टी की खुशबू उन्हें इतनी भायी कि वे यहीं के होकर रह गए। वक्त के साथ-साथ इन लोगों का कुनबा बढ़ता गया। वर्तमान में इस क्षेत्र में बल्ती जाति के लोगों की कुल जनसंख्या लगभग तीन हजार के आसपास है। डाकरा के अलावा अब ये लोग जौनसार-बावर के हरिपुर, कालसी, लालकुर्ती व चूना भटटा गांव में भी रहने लगे हैं। अब कुछ ऐसी परिस्थितियां हैं, जो बल्ती समुदाय के लोगों का मन कचोट रही हैं। जौनसार की वादियों में 250 वर्ष का लंबा सफर तय करने के बाद भी उन्हें उनका हक नहीं मिल पा रहा है। इन लोगों का कहना है कि सन 1967 में भारत सरकार ने जौनसार-बावर को जनजाति क्षेत्र घोषित किया था, लेकिन कई पीढिय़ां गुजारने के बाद भी बल्ती समुदाय के लोगों को आज भी जौनसारी अनुसूचित जाति का प्रमाणपत्र नहीं दिया जा रहा है। और तो और सरकार की विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का लाभ भी उन तक नहीं पहुंच पा रहा है। जबकि, ये लोग लंबे अरसे से लोकतांत्रिक प्रक्रिया (हर स्तर का चुनाव) में भाग लेते चले आ रहे हैं। इस कदर की जा रही सरकारी उपेक्षाओं से डाकरा निवासी मोहम्मद अली (83 वर्ष) काफी व्यथित हैं। उनका मन दुखी है, लेकिन आज भी गर्व के साथ वो एक पुराना किस्सा सुनाना नहीं भूलते। कहते हैं कि वर्ष 1947 में पार्टीशन के वक्त जौनसार-बावर में रह रहे बल्ती समुदाय के सभी लोगों को चकराता में रह रही आर्मी के ब्रिगेडियर ने तलब किया और 19 नंबर कोठी में उन्हें नजरबंद कर दिया। कुछ दिनों बाद कमिश्नर की मौजूदगी में उनसे सवाल पूछा गया कि वे हिन्दुस्तान में रहना चाहते हैं या पाकिस्तान में। अली गर्व से बताते हैं कि जौनसार बावर में रहे रहे बल्ती समुदाय के लोगों में से सिर्फ एक व्यक्ति मोहम्मद हुसैन ने पाकिस्तान की राह चुनी। उन्हें फख्र है कि बल्ती समुदाय अपने वतन हिन्दुस्तान को दिलोजान से चाहता है।
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Tuesday, 29 September 2009
अब हिमालय की सुध लेने में जुटी सरकार
जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन दौर की माथापच्ची से पहले भारत को हिमालय
की सेहत की भी फिक्र सताने लगी है। विश्व बिरादरी के आगे अपने तर्को को धार देने की कवायद में सरकार हिमालय क्षेत्र में आने वाले इलाकों में विकास के तौर-तरीकों को नए दिशानिर्देशों में बांधने की तैयारी कर रही है। हिमालय क्षेत्र के पारिस्थितिकीय तंत्र के नाजुक ताने-बाने को सहेजने के लिए केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय एक नई राष्ट्रीय कार्ययोजना को अंतिम रूप दे रहा है। इसके तहत जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय की सेहत में हुए बदलावों की वैज्ञानिक पड़ताल के साथ-साथ इसे बचाने के उपायों की भी फेहरिस्त तैयार की जा रही है। भारतीय हिमालय क्षेत्र की सेहत पर तैयार पर्यावरण मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट कहती है कि इस इलाके के नाजुक पारिस्थितिकीय तंत्र को सहेजना अब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में जीवन के लिए जरूरी हो गया है। मंगलवार को जारी होने वाली गवर्नेस फार सस्टेनिंग हिमालयन ईकोसिस्टम : गाइडलाइंस एंड बेस्ट प्रैक्टिसेज नामक इस रिपोर्ट में सरकार ने माना है कि हिमालय क्षेत्र इस समय बड़े दबावों और कड़ी चुनौतियों से जूझ रहा है। लिहाजा भारत के 16 फीसदी से ज्यादा इलाके में फैले हिमालय क्षेत्र में शहरीकरण, पर्यटन, जल सुरक्षा, ऊर्जा, वन प्रबंधन और बुनियादी ढांचे के विकास के मौजूदा तौर-तरीकों में बदलाव की जरूरत है। पर्यावरण मंत्रालय ने रिपोर्ट में माना है कि हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध बढ़ते भूमि के व्यावसायिक उपयोग और टूरिस्ट रिसार्ट के निर्माण ने हिमालय के पारिस्थितिकीय तंत्र को काफी नुकसान पहुंचाया है। इसलिए पूरे हिमालय क्षेत्र के राज्यों में भूमि कानूनों में फौरन माकूल बदलाव किए जाने चाहिए। इसके अलावा मंत्रालय के ताजा आकलन में 10 राज्यों और असम व प. बंगाल के पहाड़ी इलाकों तक फैले हिमालय क्षेत्र में पर्यटन को भी नियंत्रित करने की जरूरत बताई गई है। गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ, वैष्णो देवी, अमरनाथ, हेमकुंड साहिब सहित अनेक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थानों का घर कहलाने वाले हिमालय क्षेत्र में पर्यटन के पर्यावरण-मित्र तरीके अपनाने की जरूरत है। इस बीच सरकार बड़े पैमाने पर हिमालय की सेहत का ताजा सूरते हाल जानने के उपाय भी शुरू कर रही है। इसके तहत अल्मोड़ा स्थित जीबी पंत इंस्टीट्यूट आफ हिमालयन एन्वायरनमेंट एंड डेवलपमेंट और बेंगलूर स्थित सेंटर फार मैथमेटिकल माडलिंग एंड कंप्यूटर सिम्यूलेशन मिलकर हिमालय क्षेत्र में मौसम के मिजाज का पता लगाने के लिए 32 मीटर ऊंचे टावरों की श्रृंखला खड़ी कर रहे हैं। इसके अलावा जीबीपीआईएचईडी पूरे हिमालय क्षेत्र में स्थाई जीपीएस सेंटर भी बना रहा है। जलवायु परिवर्तन पर बने अंतर सरकारी मंच आईपीसीसी ने 2007 में अपनी चौथी आकलन रिपोर्ट के दौरान पूरे हिमालय क्षेत्र को डाटा डेफिशिएंट यानी एक ऐसा इलाका घोषित किया था जिसके बारे में पुख्ता आंकड़े ही मौजूद नहीं हैं।
=केदारनाथ व बदरीनाथ धाम के कपाट बंद होने की तिथि घोषित
-19 अक्टूबर को केदारनाथ व 17 नवंबर को बदरीनाथ के कपाट होंगे बंद
-20 नवंबर को मद्महेश्वर व 26 को तुंगनाथ के कपाट भी होंगे बंद
बदरीनाथ: बदरीनाथ धाम के कपाट शीतकाल के लिए 17 नवंबर को अपराक्ष तीन बजकर 45 मिनट पर बंद किए जाएंगे। उधर ग्यारहवें ज्योर्तिलिंग भगवान केदारनाथ के कपाट आगामी 19 अक्टूबर को बंद किए जाएंगे।
सोमवार को श्री बदरीनाथ मंदिर परिक्रमा परिसर में रावल केशव प्रसाद नंबूदरी की अध्यक्षता में धर्माधिकारी जेपी सती, वेदपाठी भुवन चन्द्र उनियाल, कुशलानंद बहुगुणा ने गृह नक्षत्रों का अध्ययन करने के बाद कपाट बंद होने के शुभ मुहूर्त, दिन व समय शास्त्रों के अनुसार अध्ययन व गणनाएं की। सभी ग्रह नक्षत्रों को देखने बाद 17 नवंबर को अपराह्न 3.45 बजे मेष लग्न में कपाट बंद होने की तिथि निश्चित की गई। इस पर रावल श्री नंबूदरी ने सहमति देकर शीतकाल के लिए कपाट बंद होने की तिथि की घोषणा की।
रुद्रप्रयाग: सोमवार को पंचकेदार गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ में आचार्यों ने केदारनाथ व मद्महेश्वर के कपाट बंद करने की तिथि तय कर दी। इसके अनुसार आगामी 19 अक्टूबर को भगवान केदारनाथ के कपाट बंद होंगे। इसी दिन शाम को डोली गौरीकुण्ड रात्रि विश्राम के पहुंचेगी, 20 को रामपुर, 21 को गुप्तकाशी व 22 अक्टूबर को भगवान केदारनाथ की डोली ओंकारेश्वर मंदिर में विराजमान होगी। वहीं द्वितीय केदार भगवान मद्महेश्वर के कपाट 20 नवंबर को बंद किए जाएंगे 23 नवबंर को शीतकालीन गद्दी स्थल ओंकारेश्वर मंदिर में विराजमान होगी।
तृृतीय केदार भगवान तुुंगनाथ के कपाट 26 नवंबर को बंद किए जाएंगे।
-तिमला: बिना फूल का फल
-पशुओं के लिए माना जाता है उत्तम चारा
-अन्य फलों की अपेक्षा चार गुना अधिक विटामिन व कैल्शियम से युक्त
प्रकृति में विविध प्रकार के पेड़, पौधे, फल, फूल और वनस्पतियां हैं। सभी का अपना महत्व है। इनमें से ऐसा ही एक पेड़ है तिमला यानि जंगली अंजीर। इसके फल को लेकर तमाम चर्चाएं हैं। लोगों में आमधारणा है कि तिमला का फूल नहीं होता, फल ही होता है। सवाल उठता है कि बिना फूल के फल कैसे हो सकता है। आप सही समझो। दरअसल फल की तरह गुच्छों में लगने वाले फूल को ही आम लोग फल समझाते हैं। वैज्ञानिक भी संशय में हैं कि तिमला को इसे फल कहें या फूल।
तिमला यानी जंगली अंजीऱ इसे भिन्न-भिन्न जगहों पर तिमला, तिमली और तिमल आदि नामों से जाना जाता है। इसका वानस्पतिक नाम फाइकस केरिया है। इसका लेट्रिन नाम औरक्यूलाटा है। इसके पत्तों को चारे के लिए प्रयोग किया जाता है। यह 600 से 1600 मीटर ऊंचाई वाली जगहों पर उगता है। तिमला जंगली अंजीर की सबसे पुरानी प्रजाति है। तिमला की कुछ प्रजातियां ऐसी हैं, जिनके फल पकते नहीं हैं। तिमला के पत्तों को दुधारू पशुओं के लिए उत्तम चारा बताया गया है। इसके पत्ते 15 इंच तक लम्बे तथा चार से बारह इंच तक चौड़े होते हैं।
जीबी पंत कृषि एवं वानिकी विश्वविद्यालय़ रानीचौरी के वनस्पति वैज्ञानिक डा. वीके शाह का कहना है कि तिमला के पेड़ पर जिसे लोग फल कहते हैं, दरअसल वही फूल होता है। इसके बंद होने की वजह से लोग इसे फल समझाते हैं, जबकि इसके अंदर बीज व केसर होता है। कुछ बारीक कीड़े इसके अंदर घुसकर परागण फैलाने तथा बीजों को पकाने में मदद करते हैं। बीज जब कच्ची अवस्था में होते हैं, उस समय यह हरा होता है और पकने पर लाल भूरा हो जाता है। बीज पकने पर अंदर गाड़ा मीठा पदार्थ निकलता है। लोग इसे फल के रूप में खाते हैं। डा. शाह ने बताया कि इस पर अधिक वैज्ञानिक शोध नहीं हुआ है। इसकी पांच प्रजातियां पता चली हैं। इसके फल में 84 प्रतिशत गूदा व 16 प्रतिशत छिल्का होता है। इसके फलों का मुरब्बा, जैम, जैली भी बनाई जा सकती है। अन्य फलों की अपेक्षा इसमें चार गुना अधिक कैल्शियम विटामिन ए व सी पाया जाता है। वनस्पति वैज्ञानिक डा. केपी सिंह ने बताया कि इसका औषधीय महत्व बहुत अधिक है, लेकिन लोगों को इसकी जानकारी नहीं है। तिमले का ताजा फल खाने से पेट की गर्मी खत्म हो जाती है। इसके पत्तों को पशुओं में दूध बढ़ाने वाला व सर्वोत्तम हरा चारा बताया गया है।
-देश का प्रतिनिधित्व करेंगे उत्तराखंड के नौनिहाल
-जिनेवा में बाल अधिकारों की 20 वीं वर्षगांठ पर आयोजित सम्मेलन में शामिल होंगे दो बाल पत्रकार
-बैंकाक में अंतर्राष्ट्रीय बाल एवं युवा मीडिया उत्सव में भाग लेंगे एक युवा पत्रकार व दो बाल पत्रकार
-श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम से जुड़े हैं पांचों प्रतिभागी
देहरादून, :उत्तराखंड के ठेठ ग्र्रामीण अंचल से निकलकर राज्य के चार बच्चे व एक युवा पत्रकार अक्तूबर में आयोजित होने वाले अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में देश का प्रतिनिधित्व करेंगे। थाइलैंड की राजधानी बैंकाक में दो से चार अक्टूबर तक होने वाले यंग हार्ट युवा मीडिया उत्सव में राज्य के दो बाल व एक युवा पत्रकार अन्य देशों से आए बच्चों को पत्रकारिता के गुर सिखाएंगे। इसके अलावा जिनेवा में छह से नौ अक्तूबर के बीच होने वाली संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार कमेटी की बैठक में प्रदेश के दो होनहार राज्य में तैयार की गई वैकल्पिक रिपोर्ट पर चर्चा करेंगे।
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेने जा रहे पांचों प्रतिभागी राज्य की संस्था श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम से जुड़े हुए हैैं। संस्था ने चार साल पहले प्लान इंटरनेशनल के साथ मिलकर बाल पत्रकारिता कार्यक्रम 'उमंग(यूनिक मीडिया एप्रोच फार न्यू जेनरेशन)' की शुरुआत की थी। दोनों संस्थाएं एक दशक से बाल विकास पर कार्य कर रही हैैं। संस्था के सचिव ज्ञान सिंह रावत ने बताया कि यंग हार्ट युवा मीडिया उत्सव वर्ष 2007 में भारत, बांग्ला देश, थाइलैैंड, इंडोनेशिया व फिलीपींस ने शुरू किया था। इस कार्यक्रम का उद्देश्य बच्चों में सुरक्षा, शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाना है। श्री रावत ने बताया कि तीन दिवसीय सम्मेलन में युवा पत्रकार दीपा झिांक्वाण, बाल पत्रकार पंकज व डिंपल बजेठा अन्य देशों से आने वाले बच्चों को सामाजिक फिल्म, रेडियो कार्यक्रम व प्रिंट मीडिया के गुर सिखाएंगे। इसके अलावा उत्तराखंड के बाल पत्रकारों द्वारा बाल अधिकारों पर तैयार की गई एनिमेशन व वीडियो फिल्म का प्रदर्शन भी किया जाएगा।
उन्होंने बताया कि इसके अलावा जिनेवा में छह से नौ अक्तूबर तक आयोजित होने वाली संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार कमेटी की बैठक में राज्य की बाल पत्रकार रेणुका सकलानी व अंजना जुयाल देश का प्रतिनिधित्व करेंगी। बैठक में ये बाल पत्रकार 'उमंग' कार्यक्रम के तहत तैयार की गई वैकल्पिक रिपोर्ट पर चर्चा करेंगे। यह विश्व की पहली ऐसी रिपोर्ट है, जिसे बच्चों के द्वारा तैयार किया गया है। इस रिपोर्ट को 18 दिसंबर 2008 को बाल अधिकार कमेटी की अध्यक्ष सुश्री यांगली को सौंपा गया था। इसके बाद इन बाल पत्रकारों को संयुक्त राष्ट्र की ओर से सम्मेलन में भाग लेने का निमंत्रण मिला।
उमंग के तहत श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम उत्तराखंड के सभी तेरह जिलों में कार्य कर रहा है। प्रदेश के 130 गांवों में 3250 बच्चों को कार्यक्रम के माध्यम से समाचार, कहानी लेखन, कामिक्स, रेडियो कार्यक्रम, फोटोग्र्राफी, वीडियोग्र्राफी, एनिमेशन व इंटरनेट पर सूचना का आदान प्रदान सिखाया जा चुका है। ये सभी बच्चे समाचार संकलन कर मासिक पत्रिका प्रकाशित करते हैैं व आकाशवाणी के माध्यम से कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैैं।
Monday, 28 September 2009
=सैलानियों के रुझाान में कमी से चिंता
-उत्तराखंड की वादियों में ट्रेकिंग के प्रति कम हो रहा पर्यटकों का रुझाान
-4 साल में 32.65 लाख से 2.34 लाख तक लुढ़का जीएमवीएन का व्यवसाय
-निजी पर्यटन व्यवसायी वन विभाग द्वारा थोपे जा रहे शुल्क को मान रहे कारण
देहरादून
पहाड़ी राज्य की हसीन वादियां हमेशा से ही पर्यटकों को आकर्षित करती आई है। हिमालयी ग्लेशियरों से निकलने वाली गंगा, यमुना, अलकनंदा, भिलंगना, पिंडर जैसी सदानीरा नदियां, ऊंचे पर्वत शिखर और जैव-विविधता से भरपूर वनक्षेत्रों ने सूबे में 'ट्रेकिंग' को पर्यटन व्यवसाय के एक अहम अंग के रूप में स्थापित किया है। जाहिर है, ट्रेकिंग का यह व्यवसाय प्रदेश के कई सुदूरवर्ती गांवों की अर्थव्यवस्था की रीढ़ भी बना हुआ है। लेकिन पिछले कुछेक वर्षों से ट्रेकिंग के घटते रुझाान ने पर्यटन विशेषज्ञों को चिंता में डाल दिया है।
कहा जाता है कि अगर हिमालय को करीब से जानना और महसूस करना हो, तो ट्रेकिंग से बेहतर कोई तरीका नहीं हो सकता। यही कारण है कि उत्तराखंड में देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों का कच्चे व सर्पीले पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलकर हिमालय के नैसर्गिक सौंदर्य को निहारना कोई नई बात नहीं है। लेकिन चिंता की बात यह है कि कुछेक वर्षों से ट्रेकिंग के प्रति पर्यटकों का रुझाान कम होता दिख रहा है।
पर्यटन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि यहां देशी-विदेशी पर्यटकों की आमद हर साल बढ़ रही है। वर्ष 2004 में कुल 1 करोड़ 39 लाख पर्यटक उत्तराखंड की सैर करने पहुंचे, जबकि 2008 में यह संख्या 2 करोड़ 31 लाख से भी ऊपर जा पहुंची। लेकिन यदि सूबे के आरक्षित वनक्षेत्रों में पर्यटकों की आमद पर नजर डालें, तो यह रुझाान कम हो रहा है। वर्ष 2007-08 में कुल 3 लाख 55 हजार पर्यटकों ने आरक्षित वनक्षेत्रों की सैर की, लेकिन अगले ही वर्ष (2008-09 में) यह संख्या घटकर 2 लाख 97 हजार पर ही सिमट गई।
हालांकि वन विभाग को पर्यटकों से अधिक राजस्व जरूर मिला। यानी, 2007-08 में 34128173 रुपये और 2008-09 में 38140127 रुपये प्राप्त हुआ। जाहिर है यह बढ़ा हुआ राजस्व प्रति पर्यटक वसूले जाने वाले शुल्क की दर में वृद्धि का नतीजा है। राज्य सरकार का उपक्रम गढ़वाल मंडल विकास निगम भी सूबे में पर्यटन व्यवसाय से जुड़ा हुआ है। निगम के माउंटेन डिवीजन को पर्वतारोहण व ट्रेकिंग से होने वाली आय पर नजर डालें, तो यहां भी चिंताजनक संकेत नजर आते हैं।
वर्ष 2005-06 में निगम के माउंटेन डिवीजन ने जहां 32.65 लाख रुपये का कारोबार किया, वहीं ठीक अगले ही वर्ष यह 30.95 लाख रुपये पर सिमट गया। वर्ष 2007-08 में यह कारोबार 7.72 लाख रुपये और वर्ष 2008-09 में मात्र 2.34 लाख रुपये तक सिमट गया। सरकारी स्तर पर ट्रेकिंग रूटस की मरम्मत व अवस्थापना सुविधाओं के विकास की कवायद भी जारी है, बावजूद इसके ट्रेकिंग व्यवसाय का यह गिरता ग्राफ निश्चित तौर पर चिंता का विषय है।
पर्यटन से जुड़े निजी व्यवसायी धर्मेंद्र सिंह नेगी व राजीव तिवारी भी मानते हैं कि पर्वतारोहण व ट्रेकिंग व्यवसाय तेजी से गिर रहा है, जिसका प्रमुख कारण है वन विभाग द्वारा पर्यटकों से वसूले जाने वाले शुल्क में निरंतर वृद्धि होना। हर साल नए प्रकार के शुल्क व रास्ते में पेश आने वाली दिक्कतों के चलते ट्रेकिंग के इच्छुक पर्यटक पड़ोसी राज्य हिमाचल की ओर शिफ्ट होते जा रहे हैं। हालांकि वन विभाग के अधिकारियों का मानना है कि पर्यटकों से प्राप्त होने वाले राजस्व को ट्रेकिंग रूट्््स पर बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने पर ही खर्च किया जाता है।
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प्रदेश के प्रमुख ट्रेकिंग रूट््््््स....
-केदारनाथ-वासुकीताल ट्रेक।
-पंचकेदार ट्रेक।
-कालिंदीखाल ट्रेक।
-गंगोत्री नंदनवन-तपोवन ट्रेक।
-डोडीताल-यमुनोत्री ट्रेक।
-फूलों की घाटी ट्रेक।
-खतलिंग सहस्त्रताल ट्रेक।
-हरकीदून ट्रेक।
-रूपकुंड ट्रेक।
-बूढाकेदार-पंवाली कांठा-केदारनाथ ट्रेक।
-कालसी-लाखामंडल ट्रेक।
-क्वारी पास ट्रेक।
-बिन्सर ट्रेक।
-चंद्रशिला विंटर सम्मिट ट्रेक।
-भदराज-ज्वाल्पा देवी-कैंप्टी फॉल ट्रेक।
-औली-क्वारी पास-तपोवन ट्रेक।
-नंदादेवी नेशनल पार्क ट्रेक।
-आदि कैलाश ट्रेक।
-मिलन ग्लेशियर ट्रेक।
-पिंडारी ग्लेशियर ट्रेक।
-कफनी ग्लेशियर ट्रेक।
-पंचाचूली ग्लेशियर ट्रेक।
पहाड़ की वादियों ने जीता तो 'मिल' ने तोड़ा दिल
-सिने तारिका लालकुआं पेपर मिल की दुर्गंध से आहत
-बोलीं-केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को लिखेंगी शिकायती पत्र
-महानगरों की चकाचौंध पहाड़ के आगे फीकी
रुद्रपुर: शूटिंग की व्यस्तता व महानगरीय चकाचौंध से दूर कुमाऊं की खूबसूरत वादियों से निकलने के बाद सिने तारिका जूही चावला लालकुआं सेंचुरी पेपर मिल की दुर्गंध से खासी आहत हुईं। उन्होंने अपनी पीड़ा को यहां पहुंचकर बयां भी किया और कहा कि वह केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को शिकायती पत्र भी लिखेंगी।
पंतनगर एयरपोर्ट से मौसम में खराबी की वजह से चार्टर प्लेन को उड़ान की अनुमति नहीं मिलने पर विवशता में फिल्म अभिनेत्री बीती रात काशीपुर बाईपास स्थित एक होटल में रुकीं। उनके साथ पति जय मेहता, सास सुनैना, ससुर महेंद्र मेहता, निर्मला खटाव व रणवीर खटाव आदि अन्य रिश्तेदार भी थे। शनिवार को यहां से रवाना होने से पूर्व जूही कुछ पल के लिए पत्रकारों से रूबरू हुईं।
उन्होंने कहा, महानगरों की रफ्तार व तनाव भरी जीवनशैली से पहाड़ की वादियों में कहीं ज्यादा सुकून है। आबोहवा भी हर तरह से माकूल है। मगर पहाड़ से उतर कर पंतनगर एयरपोर्ट पहुंचने के लिए जब सिने तारिका लालकुआं से होकर गुजरीं तो सेंचुरी पेपर मिल से उठने वाली दुर्गंध से उनका भी सामना हुआ। बकौल जूही, इस पर जब उन्होंने मालुमात की तो दुर्गंध की वजह पता चली। उन्होंने इसे पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए घातक बताते हुए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में शिकायत करने की बात भी कही। इसके बाद सिने तारिका वाहनों के काफिले के साथ पंतनगर एयरपोर्ट पहुंची जहां चार्टर प्लेन के जरिये मुंबई रवाना हो गईं।
इंसेट-
अदाकारा कम पर्यावरण प्रेमी नजर आईं जूही
रुद्रपुर: बॉलीवुड के ग्लैमरस जिंदगी से इतर जूही चावला पूरी सादगी में नजर आई। परिजनों के साथ कुमाऊं भ्रमण पर निकली सिने तारिका ने इस दौरान प्रेस वालों से फिल्म व शूटिंग की नहीं बल्कि पर्यावरण से जुड़े पहलुओं पर ही बात की। उन्होंने यह भी कहा कि वह निजी दौरे पर हैं। इस अवधि में उत्तराखंड की आबोहवा ने उनके मन में पर्यावरण के प्रति गजब की अनुभूति दी। साथ ही यहां के पर्यावरण को साफ सुथरा रखने के लिए उन्होंने तत्पर रहने की भी जरूरत बताई। यह भी कहा कि यदि उद्योगों के प्रदूषण पर रोक नहीं लगी तो देवभूमि को प्रदूषित होते देर न लगेगी।
अब बुखार भी भगाएगी बिच्छू घास
इस घास में बुखार भगाने के गुणों की वैज्ञानिक पुष्टि
चूहों पर हुए परीक्षण में पैरासिटामोल से बेहतर साबित हुई
पर्वतीय क्षेत्र में उगती है यह घास
देहरादून
पर्वतीय क्षेत्रों में पाई जाने वाली कंडाली यानी बिच्छू घास को अब तक आमतौर पर तंत्र-मंत्र या भूत (ऊपरी साया) आदि भगाने के काम में लाया जाता है, लेकिन अगर इस पर जारी परीक्षण सफल रहे तो उससे जल्द ही बुखार भी भगाया जा सकेगा। वैज्ञानिक इससे बुखार भगाने की दवा तैयार में जुटे हैं। प्राथमिक प्रयोगों ने बिच्छू घास के बुखार भगाने के गुण की वैज्ञानिक पुष्टि कर दी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इससे तैयार दवा परीक्षण में पैरासिटामोल से भी बेहतर साबित हुई है।
बुखार भगाने की दवा तैयार करने के लिए किए गए परीक्षण में बिच्छू घास के पत्तों का सत्व निकालकर पेट्रोलियम, क्लोरोफार्म, ईथर, एसीटोन, मेथेनॉल और पानी में मिलाया गया, जिनका परीक्षण चूहों के सात समूहों पर किया गया। इन चूहों में पहले कृत्रिम तरीके से बुखार पैदा किया गया। इसके बाद चूहों के एक समूह को पैरासिटामोल के इंजेक्शन दिए गए जबकि अन्य को बिच्छू घास के तत्व वाले घोलों के इंजेक्शन लगाए गए। परीक्षण में सामने आया कि बिच्छू घास पैरासिटामोल से ज्यादा बेहतर काम कर रही है। पैरासिटामोल के इंजेक्शन दिए हुए चूहों की अपेक्षा बिच्छू घास के सत्व के इंजेक्शन लगाए गए चूहों का बुखार जल्दी उतर गया।
बिच्छू घास का बुखार खत्म करने वाला गुण एक शोध में सामने आया है। देहरादून स्थित सरदार भगवान सिंह पीजी इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल साइंसेज ऐंड रिसर्च के फार्मास्युटिकल केमिस्ट्री विभाग की दो शोध छात्राएं बिच्छू घास से बुखार भगाने की दवा तैयार करने के लिए परीक्षण में जुटी हैं। 'प्रिलिमनरी फायटोकेमिकल इन्वेस्टिगेशन ऐंड इवैल्यूशन ऑफ ऐंटी पायरेटिक ऐक्टिविटी ऑन अर्टिका पर्वीफ्लोरा' शीर्षक के तहत शोध कर रही प्रियंका पोखरियाल व अनुपमा सजवाण का कहना है कि चूहों पर परीक्षण के बाद अब महज यह देखना है कि किस रसायन के घोल ने चूहों के बुखार को जल्दी व बेहतर तरीके से खत्म किया। उनका कहना है कि स्थानीय चिकित्सा पद्धति में बिच्छू बूटी के अन्य इलाजों की वैज्ञानिक पुष्टि के लिए वे अपने प्रयोग जारी रखेंंगी।
क्या है बिच्छू घास
आम तौर पर दो वर्ष की उम्र वाली बिच्छू घास को गढ़वाल में 'कंडाली' व कुमाऊं में 'सिसूण' के नाम से जाना जाता है। अर्टिकाकेई वनस्पति परिवार के इस पौधे का वानस्पतिक नाम अर्टिका पर्वीफ्लोरा है। बिच्छू घास की पत्तियों पर छोटे-छोटे बालों जैसे कांटे होते हैैं। पत्तियों के हाथ या शरीर के किसी अन्य अंग में लगते ही उसमें झानझानाहट शुरू हो जाती है, जो कंबल से रगडऩे या तेल मालिश से ही जाती है। अगर उस हिस्से में पानी लग गया तो जलन और बढ़ जाती है। पर्वतीय क्षेत्रों में बिच्छू घास का प्रयोग तंत्र-मंत्र से बीमारी भगाने, पित्त दोष, गठिया, शरीर के किसी हिस्से में मोच, जकडऩ और मलेरिया के इलाज में तो होता ही है, इसके बीजों को पेट साफ करने वाली दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। पर्वतीय क्षेत्रों में इसका साग भी बनाया जाता है। माना जाता है कि बिच्छू घास में काफी आयरन होता है। रूस में तो बिच्छू घास के बड़े फार्म हैैं। वहां इसे दूध की मात्रा बढ़ाने को गायों के लिए पौष्टिक चारे की तरह उपयोग में लाया जाता है। आयुर्वेद में इसकी तासीर गर्म मानी जाती है।
Saturday, 26 September 2009
=दिल्ली की सेहत सुधारेगा देवभूमि का दूध
पहल: पहले चरण में दस हजार लीटर दूध आपूर्ति की योजना
दिल्ली के पाश इलाकों में है जैविक दूध की जबरदस्त मांग
-शुरुआत में 35 से 40 रुपये लीटर की दर से होगी बिक्री
देहरादून:
देवभूमि का जैविक दूध दिल्लीवालों की सेहत सुधारेगा। उत्तराखंड सहकारी डेयरी फेडरेशन इस योजना पर काम शुरू करने की तैयारी में है। फेडरेशन को इंतजार है तो बस उत्तरांचल बीज एवं प्रमाणीकरण संस्था की हरी झांडी का। पहले चरण में रोजाना करीब दस हजार लीटर दूध की आपूर्ति की जाएगी।
फेडरेशन के अध्यक्ष डा.मोहन सिंह बिष्ट के मुताबिक दुग्ध उत्पादकों को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से बनाई गई इस योजना पर काम की शुरुआत हो रही है। पहले चरण में टिहरी और चंपावत जिलों में इस पायलट प्रोजेक्ट के रूप में चलाया जाएगा। धीरे-धीरे 11 अन्य जिलों में भी इसका विस्तार करने की योजना है। पर्वतीय क्षेत्र को ही प्राथमिकता के बारे में फेडरेशन का कहना है चूंकि पर्वतीय क्षेत्र के पशु जैविक चारा ही खाते हैं। ऐसे में शुद्ध जैविक दूध भी इन्हीं इलाकों में पलने वाले दुधारू पशुओं से ही मिल सकता है।
योजना के अनुसार फिलहाल तो दोनों जिलों से जैविक दूध को फेडरेशन की छोटी दुग्ध इकाइयों के जरिए मुख्य कलेक्शन सेंटर पर स्टोर करने के बाद टैंकर के जरिए दिल्ली भेजा जाएगा। दूध की पैंकिंग यहीं पर करने के लिए गुजरात की एक कंपनी से बात चल रही है। एक विकल्प दिल्ली के पास ही अपना पैंकिंग प्लांट लगाने का भी विचाराधीन है।
बकौल श्री बिष्ट दिल्ली के पाश इलाकों में जैविक दूध की जबरदस्त मांग है। फेडरेशन की ओर से कराए गए एक सर्वे यह भी पता चला कि जैविक दूध के लिए पाश इलाकों के लोग अच्छी कीमत देने को तैयार है। ऐसे में यह तय किया गया कि इस नए ब्रांड की आपूर्ति पहले इन्हीं इलाकों से शुरू की जाए। हालांकि अभी दूध का रेट तय नहीं किया गया है पर अनुमान है कि शुरुआती रेट 35 से 40 लीटर प्रति लीटर होगा।
उन्होंने बताया कि मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने इस योजना में खासी रुचि दिखाते हुए फेडरेशन को पूरा सहयोग करने का आश्वासन दिया है। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि उत्तरांचल बीज एवं प्रमाणीकरण संस्था से फेडरेशन को इसकी जल्द अनुमति मिल जाएगी।
-सूती धागे से बीमारी बोले छूमंतर
-साइनस, अर्श व भगंदर जैसे रोगों का हो रहा इलाज
-ऋषिकुल आयुर्वेदिक कालेज में क्षारसूत्र पद्धति से किया जा रहा उपचार
-कुछ रोगों में एलोपैथिक से ज्यादा कारगर साबित हो रही यह चिकित्सा पद्धति
हरिद्वार
साइनस, अर्श व भगंदर जैसे रोगों को आमतौर पर लाइलाज माना जाता है। इन बीमारियों में एलोपैथिक दवा से रोगियों को कुछ समय के लिए राहत तो मिल जाती है, लेकिन आयुर्वेद में सूती धागे पर आधारित क्षारसूत्र चिकित्सा पद्धति के जरिये इन रोगों से पूरी तरह निजात मिल रही है। ऋषिकुल आयुर्वेदिक कालेज में इस पद्धति से रोगियों का सफल उपचार हो रहा है।
क्षारसूत्र पद्धति का पहला सफल प्रयोग 1975 में बनारस हिंदू विवि में प्रो.पीजे देशपांडे ने किया था। बीते कुछ वर्षों से हरिद्वार के ऋषिकुल आयुर्वेदिक मेडिकल कालेज में इस पद्धति को विकसित करने का काम चल रहा है। इस पद्धति में सूत के धागे का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें विभिन्न आयुर्वेदिक दवाओं के चूर्ण, क्षार व दूध आदि की 21 कोटिंग की जाती हैं। साथ ही हल्दी, अपामार्ग व थूहर का भी प्रयोग किया जाता है। सूखने के बाद इस धागे की ड्राइ पैकिंग की जाती है। एक क्षारसूत्र तैयार करने में करीब एक सप्ताह का समय लग जाता है। इस तरह हर रोग के लिये अलग-अलग क्षार सूत्र तैयार किये जाते हैं। इलाज के लिए प्रभावित अंगों पर बांधकर या छू कर रोगी का उपचार किया जाता है। एलोपैथिक चिकित्सा में जहां आपरेशन के बावजूद इन रोगों के दोबारा होने की आशंका बनी रहती है, वहीं क्षारसूत्र से एक ही बार में रोग पूरी तरह खत्म हो जाता है। इस पद्धति की विशेषता यह है कि उपचार के दौरान रोगी को अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत नहीं होती और वह अपने रोजमर्रा के काम भी आसानी से कर सकता है। क्षारसूत्र चिकित्सा की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीते कुछ वर्षों से ऋषिकुल आयुर्वेदिक कालेज अस्पताल में इसके जरिये सैकड़ों रोगी उपचार करा चुके हैं। इनमें उत्तराखंड यूपी, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान आदि प्रदेशों के रोगी शामिल हैं। ऋषिकुल आयुर्वेदिक कालेज के प्राचार्य डा.प्रदीप भारद्वाज के मुताबिक क्षारसूत्र चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद के महत्व को साबित करती है। कालेज में इस पद्धति पर लगातार शोध चल रहा है और कुछ अन्य रोगों के निदान लिए भी इसे कारगर बनाने की दिशा में काम हो रहा है। उन्होंने दावा किया कि जल्द ही यह चिकित्सा पद्धति और प्रभावी रूप में सामने आएगी।
-'होम स्टे' से संवरेगी पहाड़ों की आर्थिकी
-पीपीपी मोड में निजी संस्था का हाथ थामने की तैयारी
-ट्रेकिंग रूट्स व पर्यटक स्थलों के नजदीकी गांव योजना से जुड़ेंगे
-देवभूमि की संस्कृति से सीधे जुड़ सकेंगे देशी-विदेशी पर्यटक
देहरादून,
सरकार की कोशिश रंग लाई तो पर्यटन महकमे की महत्वाकांक्षी 'होम स्टे' योजना ग्रामीणों की आर्थिक सेहत दुरुस्त करेगी। साथ ही देवभूमि की संस्कृति से देशी-विदेशी पर्यटक रू-ब-रू होंगे। इस योजना को पीपीपी मोड में चलाने को प्रतिष्ठित संस्था कोटक महेंद्रा का दामन थामने की तैयारी है।
उत्तराखंड में इको टूरिज्म को बढ़ावा देने और इससे स्थानीय लोगों के आमदनी के साधन मजबूत करने के लिए होम स्टे योजना पर जल्द अमल होने के आसार हैं। सरकार के निर्देश पर उत्तराखंड पर्यटन विकास परिषद (यूटीडीपी) ने इस संबंध में प्रस्ताव शासन को सौंपा है। पर्वतीय क्षेत्रों में 123 ट्रेकिंग रूट्स व खूबसूरत पर्यटक स्थलों के नजदीकी गांवों को इस योजना के दायरे में लाया जाएगा। छह सौ से एक हजार गांवों को इसका फायदा मिल सकता है।
पर्यटन मास्टर प्लान में ढांचागत सुविधाओं की पैरवी तो है, लेकिन अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में विकास के नाम पर प्रकृति से छेड़छाड़ की अनुमति नहीं दी जाएगी। लिहाजा, यह सोचा गया कि देवभूमि के गांवों में सादगी से रहन-सहन, उनकी संस्कृति को समझाने-बूझाने के लिए देश और विदेश के पर्यटक खुद गांवों तक पहुंचें। पर्यटकों को गांवों में प्रवास के दौरान आवास के साथ भोजन की सुविधा मिलेगी। आवासीय सुविधा गांवों में पारंपरिक भवनों में ही की जाएगी।
इस योजना के लिए मोटे तौर पर जो खाका तैयार किया गया है, उसके मुताबिक प्रदेश के 123 ट्रैकिंग रूट्स, जंगलों व उच्च हिमालयी क्षेत्रों के गांव होम स्टे योजना से जुड़ेंगे। ग्रामीणों को अपने घरों को दुरुस्त करने के लिए तकरीबन तीन लाख रुपये तक लोन की व्यवस्था की जाएगी। इसके लिए स्थानीय लोगों और बैंक के बीच अनुबंध होगा। इसे वीर चंद्र सिंह गढ़वाली पर्यटन स्वरोजगार योजना से जोडऩे पर भी मंथन किया जा रहा है, ताकि लोन देने में दिक्कतें पेश नहीं आएं। योजना के जरिए लोगों को आवासों की मरम्मत और उन्हें दुरुस्त रखने के लिए कम ब्याज दर पर आसान लोन मुहैया कराया जाएगा। इसमें एससी व एसटी को भी आरक्षण लाभ मिलेगा। सरकार से इस प्रस्ताव को हरी झांडी मिलने के बाद पर्यटन महकमा इस योजना में गांवों के चिन्हीकरण के साथ पंजीकरण के मानक तय करेगा।
योजना को पीपीपी मोड में चलाने को इस क्षेत्र की दिग्गज कंपनी कोटक महेंद्रा से संपर्क साधा गया है। यह कंपनी अन्य प्रदेशों में भी होम स्टे योजना संचालित कर रही है। पर्यटन मंत्री मदन कौशिक के मुताबिक होम स्टे योजना से ग्रामीण क्षेत्रों में आय के साधन बढेंगे और इको टूरिज्म को प्रमोट करने में सुविधा रहेगी। हिमाचल इस पैटर्न पर कदम आगे बढ़ा चुका है। उत्तराखंड भी इस दिशा में बढ़ेगा।
-अफगानिस्तान में कार्य कर रहे हैं सैकड़ों दूनवासी
- जल्द और ज्यादा पैसा कमाने के फेर में जान जोखिम में डाल जाते हैं अफगानिस्तान
- भारत में नार्थ इंडिया और साउथ के हैं ज्यादा लोग
- महीनों कैंप में रहते हैं बेरोजगार
- दलाल बना देते हैं नकली वीजा
- मामले में सैकड़ों वीजा नकली पाए गए
देहरादून : अफगानिस्तान के बदतर हालात में बेहतर भविष्य का सपना लेकर भारत से वहां गए लोगों में दून से भी खासी संख्या है। दलालों के फेर में फंसे इनमें से कई ने तो फर्जी पासपोर्ट पर अफगानिस्तान में प्रवेश किया है। कई लोग महीनों से वहां खाली बैठे हुए हैं। एजेंटों के चुंगल में पडऩे के चलते ये लोग वहां से वापस आने की स्थिति में भी नहीं हैं।
शांति बहाली को लेकर संयुक्त राष्ट्र की ओर से चलाए जा रहे अभियान में दर्जनों विदेशी कंपनियां अफगानिस्तान में डेरा जमाए हुए हैं। इन कंपनियों को बड़ी संख्या में मैन पावर की जरूरत होती है। उनकी यह जरूरत वर्तमान में भारत व नेपाल से पूरी हो रही है। ये कंपनियां अपने यहां कार्य करने वाले कर्मचारियों को उनके कार्य के हिसाब से पांच सौ डालर से लेकर तीन हजार डालर तक वेतन के रूप में प्रतिमाह देती हैं। भारतीय मुद्रा में यह राशि 25 हजार रुपए से लेकर डेढ़ लाख रुपए तक है। इसके अलावा रहना व खाना कंपनी की ओर से ही दिया जाता है। शुरुआत में इन कंपनियों में काम करने वाले लोगों ने अपने यार दोस्तों को भी यहां काम दिलाया। मगर धीरे-धीरे इसने धंधे का रुप अख्तियार कर लिया। चूंकि कंपनियों में हर प्रकार की मैन पावर चाहिए होती है इसलिए एजेंटों के पास हर प्रकार के लोग आते हैं। ये एजेंट दो प्रकार से कार्य करते हैं। एक तो विदेश भेजने का कार्य करते हैं और दूसरे विदेश भेजने से नौकरी लगाने तक की जिम्मेदारी लेते हैं। इसकी एवज में एक लाख से लेकर डेढ़ लाख रुपए की वसूली की जाती है। एजेंट अपनी सेटिंग से इन लोगों को वीजा और पासपोर्ट दिलाने में मदद करते हैं। अफगानिस्तान में एजेंटों के ही संपर्क सूत्र इन लोगों को रिसीव कर कैंप में ठहराते हैं। कैंप में रहने और खाने पीने का पैसा अलग से लगता है। स्थिति यह है कि कई लोगों को तो महीनों रोजगार नहीं मिलता। इसके चलते ये कैंप में रहने पर मजबूर हो जाते हैं। जहां इनका पासपोर्ट आदि छीन लिया जाता है। इतना ही नहीं खतरा हमेशा बना रहता है। कंपनियों की चहारदीवारी के बाहर आतंकी घात लगाए बैठे रहते हैं।
सूत्रों की मानें तो अब इस खेल में रिस्क बढ़ गया है। कारण यह कि अफगानिस्तान में एजेंटों ने बड़ी संख्या में नकली वीजा बना डाले। दरअसल अफगानिस्तान में छह माह का वर्किंग वीजा मिलता है, लेकिन ये लोग एक-एक साल का वीजा बना रहे हैं। मामले की जांच हुई तो खुफिया एजेंसी कंपनियों तक पहुंचीं । इसके चलते कंपनियों ने नई भर्ती पर रोक लगा दी। भर्ती पर रोक लगने के बाद सैकड़ों लोग अफगानिस्तान के कैंपों में ही पड़े हुए हैं। अफगानिस्तान से लौटे लोगों की मानें तो इस समय देहरादून के सैकड़ों लोग अफगानिस्तान में है। इनमें से सबसे अधिक संख्या क्लेमनटाउन, रायवाला, डोईवाला, अनारवाला, गढ़ी कैंट, कौलागढ़ व प्रेमनगर आदि क्षेत्रों की है। जो कुछ पैसों के फेर में अपनी जिंदगी का दांव लगाए बैठे हैं।
कबूतरबाजी में पुलिस को मिले अहम सुराग
देहरादून: काबुल में नौकरी दिलाने के नाम पर दून के युवकों से कबूतरबाजी की घटना में पुलिस को महत्वपूर्ण सुराग हाथ लगे हैं। इस बारे में एसएसपी अभिनव कुमार ने बताया कि दिल्ली भेजी गई टीम ने एक ट्रैवलिंग एजेंसी के बारे में गहन पूछताछ की है। श्री कुमार ने कहा कि काबुल स्थित आरोपी कंसलटेंसी एजेंसी व उसकी सिक्किम निवासी मैनेजर जैनी की जांच की जा रही है। चूंकि मामला दूसरे देश से जुड़ा है, ऐसे में हर पहलू को ध्यान में रखा जा रहा है। हिरासत में लिए गए युवक राकेश थापा से भी गहनता से पूछताछ की जा रही है।
-जल स्रोत घटने से प्यासे जंगल-जमीन
-हिमालय व तराई की वन भूमि में तेजी से सूख रहे हैं स्रोत
-पेयजल महकमे ने 221 के बाद 500 स्थानों की सूची थमाई
-वेजीटेटिव चैकडेम व भू-कटाव रोकने को कैचमेंट एरिया बने मददगार
हिमालयी और तराई क्षेत्रों की वन भूमि में जल स्रोत तेजी से घटने से आबादी के साथ जंगल ही नहीं जमीन भी प्यासी हो गई है। प्यास को बुझााने अब हरी-भरी घास के साथ ही झााडिय़ों से बने चैकडेम व भू-कटाव रोकने को कैचमेंट एरिया मदद ली जा रही है।
मौसम चक्र गड़बड़ाने और जलवायु बदलने से हिमालय और उसके तराई के क्षेत्रों में जल स्रोत तेजी से सूख रहे हैं। इससे सैकड़ों गांवों के हजारों लोगों के हलक सूखने को मजबूर कर दिया है। वन भूमि के अपेक्षाकृत सुरक्षित क्षेत्रों में जल स्रोत घट रहे हैं या उनसे पानी रूठ गया है। बढ़ते खतरे का अंदाजा इससे लग सकता है कि वन भूमि के भीतर गाड-गदेरों, चाल-खालों व कुओं के रूप में 221 जल स्रोत सूख चुके हैं। इन स्रोतों को रिचार्ज करने की प्रक्रिया अभी जारी है पर पेयजल महकमे ने 500 ऐसे ही स्थानों की सूची वन महकमे को थमा दी है।
पहली सूची में शामिल 221 सूखे जल स्रोतों में दो टिहरी बांध डूब क्षेत्र में आ चुके हैं। शेष 219 में 138 स्रोतों का ट्रीटमेंट हो चुका है। अभी 81 स्रोतों का ट्रीटमेंट बाकी है। टिहरी जिले में 49 में 34, पौड़ी में 34 में 29, अल्मोड़ा में 81 में 40 स्रोतों का ट्रीटमेंट किया जा चुका है। इन स्थानों पर वेजीटेटिव चैकडेम के जरिए पानी को रोका गया है ताकि भूजल स्तर में भी इजाफा हो। स्रोतों के कैचमेंट एरिया में घास व झााडिय़ों की प्रजातियां रोककर जल ठहराव के बंदोबस्त किए गए हैं। वन महकमे ने भू-कटाव रोकने को कई स्थानों पर ट्रीटमेंट तो किया, लेकिन स्रोतों को रिचार्ज करने में अब भी दिक्कतें आ रही हैं। इनमें कुछ दिक्कतें की वजह भूगर्भीय स्थिति में बदलाव को भी माना जा रहा है।
यही नहीं, पेयजल महकमे ने वन महकमे को 500 ऐसे नए स्थानों की सूची पकड़ा दी है, जहां जल स्रोतों को रिचार्ज करना है। हालांकि वन महकमे ने सूख गए जल स्रोतों की सेटेलाइट लोकेशन मांगी है। गढ़वाल क्षेत्र के मुख्य वन संरक्षक डीवीएस खाती ने स्वीकार किया कि जल स्रोतों की सही लोकेशन के बाद ही ट्रीटमेंट शुरू किया जाएगा। महकमा नरेगा के माध्यम से इस काम में ग्रामीणों की सहायता लेने पर विचार कर रहा है। हालांकि, नरेगा में ग्रामीण रुचि लेने से कन्नी काट रहे हैं।
Thursday, 24 September 2009
-यहां भी जिंदा हैं टिहरी की यादें
-टिहरी बांध विस्थापितों ने सहेज कर रखी हैं कई परंपराएं
-हर महीने ढोल पर बजती है बधाई की ताल
-आराध्य देवों से जुड़े प्रतीक भी रखे हैं घरों व मंदिरों में
मंदिर में पूजा के बाद प्रधान जी के आंगन में ढोल पर खुशहाली के लिए बजते संग्रांद (संक्रांति) के बोल हरिद्वार के कुछ गांवों में आज भी सुनाई पड़ते हैं। यहां भी बसंत शुरू होने पर फूलदेई की परंपरा के चलते नन्हें बच्चे घरों की देहरी पर फूल रख आते हैं तो अपने आराध्य देवी देवताओं के आह्वान के लिए जागर गीत भी गाये जाते हैं। पर्वतीय समाज की ये परंपराएं टिहरी बांध प्रभावित आज भी विस्थापन की त्रासदी झोलने के बावजूद जिंदा रखे हुए हैं।
पुरानी टिहरी का डोभ गांव भले ही अब बांध की झाील में समा गया हो, लेकिन इस गांव के आराध्य देवता कैलापीर का पवित्र कलश पथरी के शिवमंदिर में स्थापित है। बांध विस्थापितों की बस्ती में स्थापित इस मंदिर में लोग परंपरानुसार अपने आराध्य को पूजते हैं। गांव के विक्रम दास हर महीने मंदिर परिसर के साथ पूरे गांव में ढोल पर संग्रांद की बढ़ै (बधाई) बजाते हुए देखे जा सकते हैं। वहीं शादी ब्याह में मांगल गीत भी सुनने को मिल जाते हैं। बसंत में फूलदेई का रिवाज भी महीने भर न सही, कुछ दिन जरूर नजर आता है। छोटे बच्चे तड़के उठकर जंगल की ओर फूल चुनने चल देते हैं। गांव भर के जगने से पहले ही घरों की देहरी पर फूल बिखेरने का रिवाज है। हरिद्वार के पथरी सहित रोशनाबाद, रानीपुर व शिवालिक नगर तक के क्षेत्र में पनबिजली के लिए टिहरी झाील में जलसमाधि ले चुके करीब 39 गांवों के लोग बसे हैं। करीब बीस वर्ष से यहां रह रहे इन लोगों के खेती बाड़ी से लेकर जीने के तौर तरीकों में काफी बदलाव आया है। उनके दु:ख दर्द व समस्याएं भी मैदानी क्षेत्र के लोगों जैसी ही हो चुकी हैं। रोजगार, बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी समस्याएं यहां भी मुंह बाये खड़ी हैं। समस्याओं के बावजूद अपनी विशिष्ट परंपराओं को विस्थापितों ने अब भी जिंदा रखा है। विस्थापितों की सभी बस्तियों में इन परंपराओं का पूरी शिद्दत के साथ निर्वाह किया जाता है। भैरव, नागराजा, नरसिंह आदि आराध्य देवी देवताओं के कलश, मूर्तियों, छत्र व ध्वज के साथ ही देवडोलियां भी यहां मंदिरों व घरों में रखी गई हैं। देवभूमि में जहां देवी देवता जाएंगे, वहां ढोल, दमाऊं, रणसिंगा का पहुंचना भी जरूरी है। लिहाजा ढोलियों के दर्जनों परिवार भी यहां पहुंचे हैं, जो इन खास परंपराओं का पोषण करने में जुटे हैं। वहीं विस्थापितों के स्थानीय परिवेश में घुल मिल जाने से इस क्षेत्र का ग्रामीण परिवेश सांस्कृतिक रूप से और समृद्ध होता नजर आता है। पथरी की ग्राम प्रधान बिंदू देवी के मुताबिक विस्थापन के समय उन लोगों को अनेक कठिनाइयां झोलनी पड़ीं। अपना पैतृक घर गांव छोड़कर आना इतना आसान नहीं था। यहां पहुंचने के बाद सब कुछ नए सिरे से शुरू करना था। इसके बावजूद हम लोगों ने अपनी विशिष्ट परंपराओं को जिंदा रखा है।
वदेशों में बिखेरी लोक-माटी की खुशबू
-साहित्य के लिए समर्पित हैं मधुसूदन थपलियाल
-अब तक नवाजे गए हैं कई सम्मानों से
-विदेशों में कई मंचों पर कर चुके गढ़वाली साहित्य का पाठ
पौड़ी गढ़वाल:
गढ़वाली लोक-साहित्य यूं तो किसी पहचान का मोहताज नहीं है,
लेकिन अब कुछ साहित्यकर्मी गढ़वाली लोक साहित्य की खुशबू देश की सीमाओं से पार विदेशों में भी बिखेर रहे हैं। पेशे से शिक्षक मधुसूदन थपलियाल इसी श्रेणी के साहित्यकार हैं।
बैग्वाड़ी गांव निवासी मधुसूदन थपलियाल पाबौ ब्लाक के अंतर्गत राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय तिमली में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। थपलियाल ने हाईस्कूल की शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही साहित्य सृजन शुरू कर दिया था। उन्होंने गढ़वाली साहित्य के अलावा हिंदी साहित्य में भी लेखन किया है। एकलव्य होने का कारण द्रोणाचार्य नहीं होता, फिर भी कटे अंगूठे बिंधे हैं क्यों तीर कमानों पर... जैसी हिंदी कविता के माध्यम से थपलियाल ने साहित्य की धार को तेज किया। वर्ष 2002 में गढ़वाली गजल संग्रह.. हर्बि-हर्बि.. के लिए उन्हें जयश्री सम्मान से नवाजा गया। वर्ष 2004 में पर्वतीय सांस्कृतिक मंच उत्तराखंड की ओर से पर्वतीय गौरव सम्मान और वर्ष 2006 में रायपुर में उन्हें साहित्य के लिए सृजन सम्मान से सम्मानित किया गया। थपलियाल आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपनी रचनाएं प्रस्तुत करते रहे हैं। वर्ष 2003 में पहला मौका था जब उन्होंने मारीशस में गढ़वाली लोक साहित्य की खुशबू बिखेरी। वर्ष 2005 में साहित्य सम्मेलन में श्रीलंका, वर्ष 2006 में ब्रिटेन और इस वर्ष भूटान में आयोजित साहित्य सम्मेलन में प्रतिभाग कर चुके हैं।
मधुसूदन थपलियाल ने बताया कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज की कुरीतियां एवं बुराइयों को मिटाने में साहित्य सबसे बड़ा हथियार होता है। उनका अभी तक गढ़वाली गजल संग्रह ..हर्बि-हर्बि.. और ..बिजी ग्याई कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है। 6 गढ़वाली लोक-साहित्य की पुस्तकें अभी प्रकाशनार्थ हैं।
-आयुर्वेद व योग का हब बनेगा उत्तराखंड
-मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने योग गुरु स्वामी रामदेव व परमार्थ निकेतन परमाध्यक्ष स्वामी चिदानंद से किया विचार-विमर्श
मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा कि वर्ष 2020 तक उत्तराखंड आयुर्वेद व योग का विश्व प्रसिद्ध हब बनेगा। प्रदेश में जड़ी-बूटी के वृहद उत्पादन की कार्ययोजना तैयार की जाएगी।
मुख्यमंत्री ने अपने आवास पर योग गुरु स्वामी रामदेव व परमार्थ निकेतन के परमाध्यक्ष स्वामी चिदानंद मुनि जी महाराज से भेंट के दौरान आयुर्वेद व योग पर चर्चा की। उन्होंने कहा कि आने वाले समय में आयुर्वेद की बढ़ती लोकप्रियता से जड़ी-बूटियों की आपूर्ति मांग से कम हो जाएगी। सरकार पतंजलि योगपीठ से समन्वय कर आयुर्वेद को बढ़ावा देगी। उत्तराखंड के गांवों को आयुष ग्राम बनाया जाएगा। मुख्यमंत्री ने पतंजलि योगपीठ की भांति आयुर्वेद एवं योग के केंद्र गढ़वाल व कुमाऊं के सुदूर पर्वतीय स्थानों पर खोलने पर जोर दिया। इसके लिए सरकार हर संभव सहयोग करेगी। उन्होंने आयुर्वेद विश्वविद्यालय को सरकार का बड़ा कदम बताया। उन्होंने कहा कि चार धाम यात्रा और अधिक व्यवस्थित करने व गंगा की पवित्रता बनाए रखने में संत जनों का सहयोग लिया जाएगा।
योग गुरु स्वामी रामदेव ने कहा कि उत्तराखंड अनादिकाल से अध्यात्म का सर्वोच्च केंद्र है। यहां मानव के लिए जीवनदायिनी दुर्लभ जड़ी-बूटियां हैं। उन्होंने कहा कि संपूर्ण आयुर्वेद की परंपराओं को लेकर आंदोलन चलाना होगा। उत्तराखंड इसका नेतृत्व करेगा। उन्होंने स्कूलों में योग शिक्षा के लिए प्रभावी पहल की अपेक्षा सरकार से की। परमार्थ निकेतन परमाध्यक्ष स्वामी चिदानंद मुनि महाराज ने कहा कि राज्य में अध्यात्म पर्यटन, योगध्यान पर्यटन व चिकित्सा पर्यटन की प्रचुर संभावना है। इन क्षेत्रों को बढ़ावा देकर राज्य के आर्थिक संसाधनों को मजबूत किया जा सकता है। देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों व श्रद्धालुओं को राज्य में ज्यादा सुविधाएं देने पर उन्होंने जोर दिया।
-माउंटेन क्वील: नैनीताल में होगी खोज
-1876 में मसूरी और नैनीताल से हो चुकी है विलुप्त
-पक्षी दिखने की बात पर सोसाइटी ने शुरू की थी खोज
उत्तराखंड की वादियों से वर्ष 1876 में विलुप्त हो चुकी 'माउंटेन क्वील' की मसूरी की पहाडिय़ों में मिलने की आस जगी थी।
दो वर्ष तक खोज के प्रयास भी हुए, लेकिन निराशा मिली। बावजूद इसके पक्षी विशेषज्ञों ने वर्ष के अंत में नैनीताल में माउंटेन क्वील की खोज को कमर कसी है।
'माउंटेन क्वील' अंतिम बार मसूरी की 6000 फीट व नैनीताल की 7000 फीट की ऊंची पहाडिय़ों पर 1876 में देखी गई थीं। कुछ समय बाद दोनों जगहों से उसके नहीं मिलने की बात सामने आने लगी। पक्षीविदों के लिए यह बुरी खबर थी। पर्यावरण व पक्षीविद् भी खोज में लगे, पर कुछ खास नहीं कर पाए। इसी बीच यह खबर आई कि मसूरी व नैनीताल की वादियों में 'माउंटेन क्वील' जैसी पक्षी को कुछ लोगों ने देखा है। करीब 15 वर्ष पहले डीएफओ रहे इंद्र सिंह नेगी ने बताया कि पक्षियों के उड़ान भरने वाले झाुंड में उन्हें मसूरी में 'माउंटेन क्वील' दिखाई दी थी। लिहाजा वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट आफ इंडिया के वैज्ञानिकों के दल ने अध्ययन भी किया, लेकिन कुछ पता नहीं चला। चूंकि यह दुनिया के खूबसूरत पक्षियों में एक है इसलिए वाइल्ड लाइफ प्रीजरवेशन सोसाइटी आफ इंडिया ने वल्र्ड वाइल्ड लाइफ फंड फार इंडिया को पक्षी की खोज करने का प्रोजेक्ट सौंपा, जिसे मंजूरी मिली। वाइल्ड लाइफ फंड फार इंडिया के बजट से दो वर्ष पहले जाड़े के मौसम में प्रीजरवेशन सोसाइटी ने काम शुरू किया। सर्द ऋतु में झााडिय़ां कम होने से पक्षियों सहित अन्य की साइटिंग अच्छी होती है। इसलिए ऐसे मौसम में इसकी शुरुआत की गई। मसूरी की वादियों में पक्षी विशेषज्ञों व शोध करने वालों को लगाया गया। लगभग दो वर्ष तक 'माउंटेन क्वील' की खोज हुई। वादियों से मिले करीब 80 पंखों को बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) भेजा गया। यहां से पंखों की जांच करने वाली विश्व की सबसे बड़ी संस्था, जो लंदन में है, उसे पंख भेजे गए, लेकिन पंखों में 'माउंटेन क्वील' की पुष्टि नहीं हुई। नैनीताल में भी यह पक्षी देखे जाते थे, लिहाजा यहां पर खोज करने के बाबत एक संभावना बनी। वाइल्ड लाइफ प्रीजरवेशन सोसाइटी आफ इंडिया ने इसके लिए पहल की है। सोसाइटी के सदस्य राजीव मेहता बताते हैं कि पहले से ही अनुकूल वातावरण को देखते हुए ये पक्षी गिनती के मसूरी व नैनीताल में मिलते थे। सोसाइटी के कार्यकारी वाइस प्रसीडेंट व प्रदेश के पहले मुख्य वन्य जीव प्रतिपालक रहे एएस नेगी ने बताया कि 'माउंटेन क्वील' का शिकार किया जाता था। इस पर कोई प्रतिबंध नहीं था। मसूरी व नैनीताल में म्युनिस्पिलटी के लोग पहाड़ पर उगनी वाली घास घोड़ों के लिए नीलाम करते थे, जिससे धीरे-धीरे 'माउंटेन क्वील' का नेचुरल हैबिटेट नष्ट होने लगा। उन्होंने बताया कि देश में मसूरी व नैनीताल के अलावा कहीं भी रिकार्ड में पक्षी के मिलने की बात सामने नहीं आई है। इस वर्ष के अंत में मसूरी की टूटी आस को जिंदा करने को नैनीताल में माउंटेन क्वील की तलाश शुरू की जाएगी।
बूढ़ाकेदार: यहां आए बिना चारधाम यात्रा अधूरी
-टिहरी जनपद में स्थित इस मंदिर को पांचवां धाम घोषित करने की हो रही है मांग
-मान्यता के मुताबिक यहीं पांडवों को गोत्र हत्या से मुक्ति मिली थी
नई टिहरी
उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। बदरी, केदार, गंगोत्री और यमुनोत्री चार धामों के यहां स्थित होने से यह देश भर के करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र भी है, लेकिन राज्य में ऐतिहासिक, पौराणिक मंदिरों की परंपरा इन्हीं चार धामों पर खत्म नहीं होती, बल्कि यहां कई ऐसे मंदिर स्थित हैं, जिनका धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है। इन्हीं में से एक है टिहरी जनपद स्थित बूढ़ाकेदार। मान्यता के मुताबिक यही वह स्थान है, जहां कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद पांडवों को गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति मिली थी। हर वर्ष यहां हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं, लेकिन अधिक प्रसिद्ध न मिलने से यह उपेक्षित सा है। अब स्थानीय लोगों ने बूढ़ाकेदार को पांचवां धाम घोषित करने की मांग शुरू कर दी है।
केदारखंड में वर्णित मान्यता के आधार पर गोत्र हत्या के पाप से मुक्ति लिए पांडव शिव दर्शन के लिए उत्तराखंड आए थे। इस स्थान पर शिव ने उन्हें बूढ़े व्यक्ति के रूप में दर्शन दिए और उन्हें गोत्र हत्या से मुक्ति दी। तभी से यह स्थान नाम बूढ़ाकेदार नाम से प्रसिद्ध हुआ। भारी संख्या में यात्रियों के आवागमन से चार धाम यात्रा वाले जनपदों के विकास पर सरकार की खास नजर रहती है। इसी के चलते टिहरी जनपद में भी विभिन्न क्षेत्रों की जनता अपने देवी-देवता और नदियों के संगम, उद्गम स्थल को पांचवें धाम की मान्यता दिलवाने क लिए वक्त-वक्त पर आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन उनकी यह मांग पूरी होती नजर नहीं आ रही है।
जनपद में कई पौराणिक तीर्थ स्थल हैं इनकी महत्ता वेदों व पुराणा में भी वर्णित है। जनपद के पौराणिक धाम बूढ़ाकेदार की बात करें, तो पूर्व में यह चार धाम यात्रा का प्रमुख पड़ाव था। उस समय देश व विदेश के श्रद्धालु व पर्यटक यहीं से होकर चार धाम यात्रा पूरी करते थे। मान्यता है कि चारों धाम के साथ यदि बूढ़ाकेदार के दर्शन नहीं किए, तो यात्रा अधूरी मानी जाती है, लेकिन चारों धाम के लिए सड़क सुविधा उपलब्ध होने के बाद यह स्थान यात्रा मार्ग से अलग-थलग पड़ गया। अब चार धाम यात्रा पर आने वाले श्रद्धालु भी कम संख्या में इस ओर रुख करते हैं। इसके चलते मंदिर क्षेत्र का पर्याप्त विकास भी नहीं हो सका है। यही वजह है कि लोग इसे पांचवें धाम की मान्यता दिलाने के लिए आवाज उठाते आ रहे हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि मंदिर के समीप ही गंगा की सहायक भिलंगना नदी का उद्गम खतलिंग ग्लेशियर है, जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए जाना जाता है। मखमली बुग्यालों में पसरी प्रकृति की सुंदरता पर्यटकों का मन मोह लेती है। यह साहसिक पर्यटक के लिहाज से भी बहु़त उपयोगी स्थान है। बूढ़ा केदार को पांचवें धाम के रूप में मान्यता दिलाने के लिए उत्तराखंड के गांधी कहे जाने वाले स्व. इंद्रमणी बडोनी ने वर्ष 1985 सितंबर माह में खतलिंग महायात्रा का शुभारंभ किया था, जो तब से अनवरत चली आ रही है।
इस बाबत जिला पर्यटन अधिकारी किशन सिंह रावत का कहना है कि जनता पांचवें धाम की मांग तो कर ही है, लेकिन इसके लिए अभी तक कहीं से भी औपचारिक प्रस्ताव नहीं आया है। यदि प्रस्ताव आता है, तो उसे शासन को भेजा जाएगा।
Tuesday, 22 September 2009
आयुर्वेद विद्यापीठ का सपना अधूरा
-गुप्तकाशी में वर्ष 1947 में अस्तित्व में आया था यह केन्द्र
-बीएएमएस आयुर्वेदाचार्य कोर्स शुरुआत के दो साल बाद ही हो गया बंद
-वर्तमान में केवल फार्मेसिस्ट कोर्स का हो रहा संचालन
रुद्रप्रयाग
पहाड़ में जड़ी बूटी के पर्याप्त भंडार के मद्देनजर आयुर्वेद चिकित्सा को बढावा देने के उद्देश्य से केदारघाटी के केन्द्रबिन्दु गुप्तकाशी में वर्ष 1947 में स्थापित आयुर्वेदिक विद्यालय विद्यापीठ साठ वर्ष बीतने पर भी उद्देश्यों पर खरा नहीं उतर पाया है। विद्यापीठ में स्थापना के वक्त शुरू किया गया बीएएमएस कोर्स आर्थिक मंदी के चलते दो वर्ष बाद ही बंद हो गया और आज तक दोबारा शुरू नहीं किया जा सका है। वर्तमान समय में यहां दो वर्षीय फार्मेसिस्ट कोर्स संचालित हो रहा है, लेकिन इसकी हालत भी बदतर है।
आजादी के वक्त अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय क्षेत्र में जड़ी-बूटी के पर्याप्त भंडार को देखते हुए आयुर्वेद चिकित्सा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से गुप्तकाशी में आयुर्वेदिक विद्यालय स्थापित किया गया था, लेकिन शुरुआती दौर से ही सरकारी उपेक्षा के चलते स्थापना से लेकर अब तक विद्यालय अपनी पहचान नहीं बना सका है। स्थापना के समय यहां पर आयुर्वेदाचार्य (बीएएमएस) पाठ्यक्रम व फार्मेसिस्ट कोर्स शुरू किया गया था, लेकिन आर्थिक मंदी के चलते दो वर्ष के भीतर ही आयुर्वेदाचार्य पाठ्यक्रम बंद कर दिया गया। उस समय यहां अध्ययनरत छात्रों को ऋषिकुल हरिद्वार में शिफ्ट किया गया।
वर्ष 1990 में यहां संचालित फार्मेसिस्ट कोर्स बंद हो गया था, जो वर्ष 2005 में फिर से खुला और अब निर्बाध संचालित हो रहा है। वर्तमान में यहां संचालित हो रहे भैषज्यकल्पक (फार्मेसी) की प्रतिवर्ष पचास सीट निर्धारित हैं। पूर्व में यहां पर प्रति वर्ष चालीस सीट निर्धारित थी, राज्य बनने से पहले 2080 व राज्य बनने के बाद दौ सौ छात्र-छात्रा यहां से फार्मेसिस्ट की डिप्लोमा ग्रहण कर चुके हैं। पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूडी ने यहां इस शिक्षा सत्र से बीएएमएस पाठयक्रम पुन: शुरू करने की घोषणा की थी, लेकिन अब तक इस घोषणा पर भी अमल नहीं हो सका है। हालांकि, भवन निर्माण के लिए भैसारी व चुन्नी गांवों में भूमि चयनित कर ली गई है।
इस बाबत, विद्यालय के प्राचार्य डा. हर्षवर्धन बेंजवाल का कहना है कि बीएएमएस कक्षाओं के संचालन के लिए मुख्यमंत्री की घोषणा के मुताबिक कार्रवाई चल रही है।
-'नैनीताल स्टाइल' में चैनलाइज होगा पहाड़ का पानी
-रेलवे ट्रैक पर मलबा आने से परेशान इंजीनियर ब्रिटिश तकनीक की शरण में
-पचास करोड़ से छोटी-छोटी नालियां व नालों के चैनलाइजेशन का सुझााव
-सभी नालों को ट्रेंड कर गंगा नदी में प्रवाहित किये जाने का सुझााव
-सुझााव मंजूर हुआ तो आईआईटी रुड़की तैयार करेगा स्कीम का डिजाइन
हरिद्वार
अंग्रेज चले गये मगर उनकी तकनीक भारतीय इंजीनियरों को आज भी रास्ता दिखा रही है। सो मंशादेवी पर्वत से आ रहा बरसाती पानी व मलबा रोकने में नाकाम इंजीनियर उसी ब्रिटिश तकनीक की शरण में पहुंचे हैं, जो नैनीताल की पहाडिय़ों पर इस्तेमाल की गई है। शासन से मंजूरी मिल गई तो जल्द ही मंशादेवी पर्वत पर वाटर ड्रेन के जरिए नालों में पानी लाया जाएगा। फिर नालों को ट्रेंड करके गंगा नदी में पहाड़ी पानी को समाहित किया जाएगा।
मंशादेवी पर्वत का बरसाती पानी बीते साल तक अनियंत्रित होकर बहता था। ऐसे में भीमगोड़ा नई बस्ती में हर साल लोगों को बेहद मुसीबत का सामना करना पड़ता था। यह देखते हुए लोक निर्माण विभाग ने हिल बाईपास के निर्माण के साथ एक नाले का निर्माण कर भीमगोड़ा नई बस्ती में आने वाले पानी को नियंत्रित कर दिया। इससे बरसात का पानी इस क्षेत्र में तो आना बंद हो गया, लेकिन पूरा पानी अनियंत्रित होकर प्राचीन काली मंदिर के समीप रेलवे ट्रैक पर जाने लगा। इसके चलते इस बरसात में दो बार रेलवे ट्रैक मलबा आ जाने की वजह से बुरी तरह बाधित हो गया। अभी करीब एक सप्ताह पूर्व तेज बरसात हुई तो रेलवे ट्रैक पर दो फुट तक मलबा चढ़ गया। इसके अलावा सड़क पर भी एक फुट मलबा आ गया। इसके मद्देनजर नगर विकास मंत्री मदन कौशिक ने अगुवाई करते हुए लोनिवि, वन विभाग, रेल विभाग आदि की सम्मिलित बैठक की और इस समस्या का स्थायी हल निकालने के निर्देश दिये।
मंत्री के आदेश के मुताबिक लोनिवि अधिकारियों ने इस पर्वतीय क्षेत्र का गहन निरीक्षण कर यह नतीजा निकाला कि यदि यहां नैनीताल की पहाडिय़ों पर अपनाई गई तकनीक इस्तेमाल की जाय तो पानी चैनलाइज हो सकता है। इस संबंध में लोनिवि ने सुझााव से जिलाधिकारी को भी एक बैठक में अवगत करा दिया। बैठक में निर्णय लिया गया कि इस कार्य को वन विभाग द्वारा अंजाम दिया जाय और तकनीकी मदद लोनिवि द्वारा उपलब्ध कराई जाए। इस संबंध में लोनिवि हरिद्वार खंड के सहायक अभियंता पीएस रावत ने बताया कि उनकी ओर से जो सुझााव दिया गया है, उसके मुताबिक पर्वत के पानी को पहले क्रैच वाटर ड्रेन के जरिये चार पांच बड़े नालों में लाया जाएगा। इसके बाद इन नालों का रुख बदला जाएगा ताकि मलबे की समस्या का स्थायी निदान हो सके। इसके बाद इस पानी को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया जाएगा। उन्होंने बताया कि इस योजना पर करीब पचास करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है। उन्होंने बताया कि इस पूरी योजना के लिए आईआईटी रुड़की से डिजाइन तैयार कराने का भी सुझााव दिया गया है। यदि शासन से इसे मंजूरी मिल जाती है तो जल्द ही काम शुरू कराया जा सकता है।
पौड़ी की रामलीला धूम यूनेस्को तक
-ऐतिहासिक रामलीला को 110 वर्ष पूरे, इस वर्ष मंचन 19 से
-अंतर्राष्ट्रीय धरोहर के लिए चुनी गई है यह रामलीला
पौड़ी गढ़वाल, बुराई पर सच्चाई की जीत का प्रतीक पवित्र त्योहार दशहरा नजदीक है। दशहरे के मद्देनजर देशभर में तैयारियां शुरू हो जाती हैं और इसके तहत गली-कूचों तक में भगवान राम की जीवनी का मंचन रामलीला के रूप में किया जाता है। यह भारत की परंपरा है
और इसे हर साल धूमधाम से निभाया जाता है। रामलीलाओं में से एक उत्तराखंड की रामलीला ऐसी भी है, जिसकी धूम देश की सरहदों से हजारों मील दूर यूनेस्को तक है।
यहां बात हो रही है पौड़ी मंडल मुख्यालय में आयोजित होने वाली रामलीला की। इस वर्ष 19 सितंबर से शुरू होने जा रही पौड़ी की रामलीला 110 साल पूरे कर चुकी है। इतना ही नहीं यूनेस्को ने इसे अंतर्राष्ट्रीय धरोहर के लिए भी चुना है। मनोरंजन के तमाम संसाधन भले ही आज गांव-गांव तक पहुंच गए हों, लेकिन आज भी गढ़वाल में रामलीला मंचन को उत्साह कतई नहीं घटा है। हां, पहले और आज के रामलीला मंचन में फर्क जरूर है, लेकिन मंचन में प्रयुक्त हो रहे आधुनिक संसाधनों ने इसका क्रेज और बढ़ा दिया है।
पौड़ी मंडल मुख्यालय में रामलीला मंचन को इस साल 110 साल पूरे हो जाएंगे। पौड़ी की ऐतिहासिक रामलीला कई मायनों में अपनी अलग ही पहचान रखती है। यहां रामलीला की शुरुआत वर्ष 1897 में कांडई गांव से हुई थी। तब गांव में ही रामलीला मंचन किया जाता था। वर्ष 1908 में भोला दत्त काला, तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पीसी त्रिपाठी, क्षेत्रीय 'वीर' समाचार पत्र के संपादक कोतवाल सिंह नेगी व साहित्यकार तारादत्त गैरोला के प्रयासों से पौड़ी शहर में रामलीला का मंचन शुरू किया गया। उस समय छीला (भीमल के पेड़ की लकडिय़ां) को जलाकर रात भर रामलीला मंचन किया जाता था। 1930 में लालटेन की रोशनी में और 1960 के बाद से विद्युत बल्बों की मदद से मंचन किया गया। इस तरह पौड़ी की रामलीला में कई प्रकार के उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन यह अनवरत जारी। नब्बे के दशक में उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौर में दो साल मंचन नहीं किया जा सका, वजह कि अधिकांश रंगकर्मी खुद आंदोलन से जुड़े हुए थे। उसके बाद से यहां लगातार दस दिनी रामलीला का मंचन होता है।
पौड़ी की रामलीला की खासियत यह है कि यहां मंचन पूरी तरह पारसी थियेटर एवं शास्त्रीय संगीत पर आधारित है। रामलीला मंचन शुरू होने से पहले कमेटी और अन्य नागरिकों की ओर से कंडोलिया देवता की विधि विधान से पूजा अर्चना की जाती है। पहले रामलीला के पात्रों की भूमिका पुरुष पात्र ही निभाते थे, लेकिन वर्ष 2004 से रामलीला मंचन में महिला पात्रों की भूमिका महिला कलाकार करने लगी हैं।
महत्वपूर्ण बात यह कि पौड़ी की यह ऐतिहासिक रामलीला अंतर्राष्ट्रीय पटल पर परखी गई है। दरअसल, कुछ समय पूर्व यूनेस्को की ओर से भगवान राम से जुड़ी तमाम विधाओं के संरक्षण की योजना बनाई गई। इसके तहत इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली ने देश भर में रामलीलाओं पर शोध किया। फरवरी 2008 में पौड़ी रामलीला के डाक्यूमेंटेशन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र दिल्ली ने रिकार्ड कर दिए और यह साबित हुआ कि पौड़ी की रामलीला ऐतिहासिक धरोहर है। खुद यूनेस्को ने इसे यह मान्यता प्रदान की है। इस वर्ष यह 111वें साल में प्रवेश कर जाएगी। वरिष्ठ रंगकर्मी एवं रामलीला मंचन से जुड़े गौरी शंकर थपलियाल बताते हैं कि पौड़ी की रामलीला तुलसी रामचरितमानस पर आधारित होती है। उन्होंने बताया कि इस बार रामलीला को और आधुनिक पुट दिया जा रहा है।
Thursday, 17 September 2009
-चांदपुरगढ़ी: खुदाई में मिला विशालकाय कुआं
-पुरातत्व विभाग छह वर्ष से कर रहा है खुदाई का कार्य
-गढ़ी के प्रवेश द्वार पर मिला 19 फीट व्यास व 8 फीट गहरा कुआं
गोपेश्वर(चमोली), सीमांत जनपद चमोली के आदिबदरी के पास ऐतिहासिक चांदपुर गढ़ी में खुदाई के दौरान पुरातत्व विभाग को एक प्राचीन विशालकाय कुआं मिला।
पिछले छह वर्ष से पुरातत्व विभाग द्वारा की जा रही खुदाई के दौरान यहां अभी तक मकानों के अवशेष सहित आंगन, खंडहर, मिट्टी के बर्तन व एक कंकाल भी मिल चुका है। खुदाई के कार्य में इस बार चांदपुर गढ़ी के प्रवेश द्वार पर 19 फीट व्यास और आठ फीट से अधिक की गहराई का कुआं मिला है। इससे लोगों को तत्कालीन इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियों सहित उस समय जल प्रबंधन की शैली व मिट्टी के पाइपों का निर्माण व उनको जोडऩे वाले नक्काशीदार यंत्रों के प्रयोग की जानकारी देखने को मिलेगी।
पुरातत्वविद् नरेन्द्र चाकर ने बताया कि यहां अभी तक कुएं में हड्डी, चूडिय़ों के टुकड़े के अवशेष भी मिले हैं, जबकि उड़द की दाल के लेप व चूने के मिश्रण से निर्मित यह कुआं उस वक्त की बेजोड़ कलाकृति को दर्शाता है।
पत्थर व मिट्टी के बेजोड़ कलाकृति का नमूना
गोपेश्वर: बीते वर्षों में पुरातत्व विभाग के खुदाई के दौरान अब तक अनुमान लगाया जा रहा है कि 1512 ई में गढ़ी के प्रथम राजा कनकपाल व अंतिम राजा अजयपाल की यह नगरी नियोजित ढंग से इस क्षेत्र से अन्यत्र चली गयी। इसके चिह्न अब खुदाई में यहां सिलसिलेवार मिल रहे हैं। जल प्रबंधन की कुशल शैली के नमूने व प्रस्तरों पर चूने व उड़द का लेप आज तक सुरक्षित रहना शानदार कला को दर्शाता है। खुदाई के दौरान अब तक यहां पर पूर्व में दो दर्जन कमरे, चार बरामदे, तीन ओखली, चार सीढ़ी व अन्य कई प्रकार की सामग्री मिल चुकी है।
-खतरा:सीमा से 'घुसपैठ' की कोशिश में चीन!
उत्तराखंड शासन ने केंद्र को भेजी रिपोर्ट में किया बार्डर के हालात का खुलासा
देहरादून:
उत्तराखंड की सीमा पर कई रोज से चल रही हलचल और फिर चीनी वायुयानों के भारतीय सीमा में आने की खबरों से अब आशंका जताई जा रही है कि चीन इस ओर से भारत में घुसपैठ की कोशिश में हैैं। इस बारे में मिली तमाम अहम सूचनाओं के बाद सीमा पर चौकसी बढ़ा दी गई है। उत्तराखंड शासन की ओर से केंद्र सरकार की इस बारे में एक रिपोर्ट भेजकर चीन सीमा पर हो रही गतिविधियों की जानकारी दी गई है।
शासन स्थित उच्च पदस्थ सूत्रों ने बताया कि चीन की ओर से भारतीय सीमा पर कई रोज से गतिविधियां बढ़ा दी गई हैैं। पहले तो याक के साथ चरवाहे देखे जाते रहे हैैं पर अब 'अन्य लोगों' की आवाजाही भी बढ़ रही है। इसके अलावा बीते कई रोज से मीडिया में इस आशय की खबरें भी चल रही हैैं कि चीनी वायुयानों ने भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया है। सूत्रों ने बताया कि उत्तराखंड से सटे चीनी क्षेत्र में चल रही गतिविधियों से ही यही आभास हो रहा है कि चीन की ओर से भारतीय सीमा में घुसपैठ की कोशिश की जा सकती है। सूत्रों ने बताया कि खुफिया माध्यमों के साथ ही अन्य तरीकों से भी तमाम अहम सूचनाएं शासन तक आ रही है। चीन सीमा अंतरराष्ट्रीय होने के कारण मामला सीधे तौर पर केंद्र सरकार के जुड़ा है। राज्य के स्तर पर इस बारे में कोई खास निर्णय नहीं लिया जा सकता। सूत्रों ने बताया कि शासन ने अपने खुफिया व सुरक्षा तंत्र को और भी एलर्ट कर दिया है। इसके साथ ही शासन की ओर से चीन सीमा पर चल रही तमाम गतिविधियों के बारे में केंद्र सरकार को एक विस्तृत रिपोर्ट भेजी गई है। इससे पहले शासन के आला अफसरों और गृह विभाग के बीच इस गंभीर मसले पर गहन मंथन भी किया गया।
यहां बता दें कि उत्तराखंड में चीन सीमा तकरीबन 250 किलोमीटर लंबी है। इस सीमा पर चौकसी के लिए भारतीय-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) तैनात है। इस आटीबीपी का काम चीन सीमा पर चौकसी के साथ ही 'नो मैन्स लैैंड' के बाद भारत की और 15 किमी. तक सुरक्षा का जिम्मा है। इसके बाद उत्तराखंड पुलिस की चौकियां हैैं। सूत्रों ने बताया कि सालों से चली आ रही व्यवस्था के तहत भारतीय अधिपत्व वाले क्षेत्र में प्रशासन के अधिकारी व अन्य लोग साल में दो बार जाते हैैं। इसी तरह चीन के अधिकारी भी अपनी सीमा तक आते रहते हैैं। इस व्यवस्था का मकसद सिर्फ इतना संदेश देना भर रहता है कि दोनों देशों को अपने क्षेत्र की 'याद' है। यहां होने वाली किसी भी गतिविधि पर नजर रखी जा रही है।
-पहाड़ी गांवों को संवारेगा योगपीठ
-जड़ी-बूटी उत्पादन के लिए चुनिंदा गांवों को गोद लेने की तैयारी
पंतजलि योगपीठ ने पहाड़ी गांवों को संवारने की दिशा में पहल कर दी है। योगपीठ के आचार्य बालकृष्ण बुधवार को पौड़ी के कुछ गांवों का भ्रमण करेंगे। यदि सब ठीक रहा तो भविष्य में इन गांवों की विशिष्टता के आधार पर ग्रामीणों को जड़ी-बूटी उत्पादन से जोड़ा जा सकता है। कृषि मंत्रालय की इस मसले पर योगपीठ से वार्ता हो चुकी है।
कृषि मंत्रालय ने कृषक महोत्सव के जरिए किसानों को नवीनतम जानकारी से लैस करने की मुहिम छेड़ी है। इसके तहत बुधवार को पौड़ी जिले के पोखड़ा में कृषक महोत्सव का उद्घाटन होगा। राज्य स्तर पर संचालित इस महोत्सव के उद्घाटन में बतौर मुख्य अतिथि पंतजलि योगपीठ के आचार्य बालकृष्ण महाराज पहुंच रहे हैैं। कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत भी इस मौके पर मौजूद रहेंगे। कार्यक्रम में किसानों को फसल, बीज, नवीन उपकरण आदि के संबंध में जानकारी दी जाएगी। इसके साथ ही क्षेत्र में संभावित कृषि गतिविधियों पर भी विचार किया जाएगा।
सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार पंतजलि योगपीठ ने पर्वतीय क्षेत्रों में जड़ी-बूटी उत्पादन में सहयोग करने की मंशा जताई है। इसके तहत योगपीठ कुछ गांवों को गोद लेकर वहां जड़ी-बूटी उत्पादन में ग्रामीणों की भागीदारी सुनिश्चित करने की योजना पर काम करना चाहता है। योगपीठ की इस पहल को कृषि मंत्रालय भी काफी रुचि ले रहा है। मंत्रालय का मानना है कि पर्वतीय क्षेत्र के ग्रामीणों को यदि आर्थिकी का कोई बेहतर रास्ता मिल जाता है तो इससे पलायन की समस्या पर भी अंकुश लग सकेगा। ऐसे में जरूरी है कि ग्रामीणों को जड़ी-बूटी उत्पादन के लिए तैयार किया जा सके।
माध्यमिक शिक्षा में फिसड्डी उत्तराखंड
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इस राज्य में कुल नामांकन अनुपात है महज 55.55 फीसदी
-पर्सपेक्टिव प्लान में अगली पांत में शामिल करने को बनेगी रूपरेखा
-सौ फीसदी नामांकन के लक्ष्य को पाने में लग जाएगा एक दशक
प्रदेश को माध्यमिक शिक्षा में सौ फीसदी नामांकन हासिल करने के लिए लंबी दौड़ लगानी पड़ेगी। इस मामले में पड़ोसी हिमाचल की बात छोडि़ए, बिहार, झाारखंड, उड़ीसा, गोवा, सिक्किम व तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश से भी उत्तराखंड फिसड्डी है। अब सूबे की जरूरत के मुताबिक पर्सपेक्टिव प्लान की कवायद चल रही है।
राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (आरएमएसए) में सौ फीसदी नामांकन का लक्ष्य पाने के लिए केंद्र सरकार ने डेडलाइन वर्ष 2016-2017 रखी है। इस लक्ष्य को पाने की होड़ में उत्तराखंड कई राज्यों से पिछड़ा है। तकरीबन एक जैसी विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले हिमाचल राज्य से इस मामले में उत्तराखंड काफी पीछे है। माध्यमिक स्कूलों में छात्रों के कुल नामांकन अनुपात (जीईआर) के आंकड़े यही गवाही दे रहे हैं। हिमाचल, केरल व पांडीचेरी राज्य सौ फीसदी जीईआर लक्ष्य पा चुके हैं। वर्ष 2011-12 तक असम, दमन व लक्षद्वीप भी इस लक्ष्य को हासिल कर लेंगे। आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, झाारखंड, सिक्किम व गोवा जैसे राज्य वर्ष 2016-17 तक यह मुकाम पाने में कामयाब रहेंगे।
यह माना जा रहा है कि उत्तराखंड सौ फीसदी जीईआर वर्ष 2019-20 तक हासिल कर पाएया। प्रदेश के इस दौड़ में पीछे छूटने की वजह मौजूदा 55.55 फीसदी जीईआर है। तकरीबन 45 फीसदी छात्र-छात्राएं ड्राप आउट हैं या आठवीं कक्षा के बाद माध्यमिक स्कूलों तक पहुंच नहीं पा रहे हैं। 15-16 आयु वर्ग के किशोर व किशोरियों की हर साल माध्यमिक कक्षाओं में पहुंचने की रफ्तार दो फीसदी है। इसे हर वर्ष न्यूनतम पांच फीसदी की दर से बढ़ाया जाएगा। इन हालात में 2010 में 60, 2011 में 65 और 2012 में 70 फीसदी जीईआर होगी। स्कूलों में हर साल जीईआर की ग्रोथ पांच फीसदी रखने को पर्सपेक्टिव प्लान तैयार किया जा रहा है। नवंबर माह के अंत तक इसे अंतिम रूप देने की तैयारी है।
जीईआर दो से पांच फीसदी करने के लिए स्कूलों में संसाधनों की बढ़ोत्तरी व शिक्षा की गुणवत्ता पर जोर रहेगा। मुख्य सचिव इंदु कुमार पांडे व शिक्षा सचिव डा. राकेश कुमार के निर्देशों के बाद महकमा इस प्लान को बेहतर ढंग से तैयार करने में जुटा है। माध्यमिक शिक्षा की सूरत निखारने को पहले चरण में जिले अपनी दिक्कतें चिन्हित करेंगे। इनके निराकरण और गुणवत्तापरक शिक्षा को फोकस कर वर्ष 2016 तक नया प्लान बनेगा। प्लान फुलप्रूफ रहे, इसके लिए जिलों में महकमे के लोगों को बाकायदा प्रशिक्षण दिया जाएगा। प्लान में नए स्कूलों को खोलने पर भले ही जोर नहीं दिया जाए, लेकिन पुराने स्कूलों में प्रयोगशालाओंव उनके उपकरण, पुस्तकालयों, कंप्यूटर रूम, टायलेट््स व भवन निर्माण के साथ ही शिक्षकों के प्रशिक्षण जैसे जरूरत को तवज्जो मिलेगी। शिक्षा सचिव के मुताबिक राज्य की ओर से भेजे जाने वाले प्रस्ताव को अंतिम रूप भारत सरकार की संस्था एडसिल देगी।
Wednesday, 16 September 2009
भाजपा ने मुन्ना से छीनी सीट
, विकासनगर विधानसभा सीट पर आखिरकार कमल खिल ही गया। यहां उप चुनाव में भाजपा प्रत्याशी कुलदीप कुमार ने
अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस प्रत्याशी नवप्रभात को 593 वोटों से हराकर सीट अपने नाम की। मुन्ना सिंह चौहान को 14793 मत पाकर तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा। बाकी दस प्रत्याशी अपनी जमानत भी नहीं बचा सके। विकासनगर सीट के लिए मतदान 10 सितंबर को हुआ था। 67156 मतदाताओं ने यहां अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। सोमवार को आशाराम वैदिक इंटर कालेज में 12 चक्रों में मतगणना संपन्न हुई। सुबह 8 बजे शुरू हुई मतगणना में चार राउंड तक तो निर्दलीय प्रत्याशी मुन्ना सिंह चौहान ने अच्छी बढ़त बनाए रखी, लेकिन पांचवें राउंड में मुख्य मुकाबला भाजपा व कांगे्रस में दिखाई देने लगा। जैसे-जैसे राउंड बढ़ते गए भाजपा और कांग्रेस लगभग बराबर पर ही रहीं और सातवें राउंड में भाजपा ने बढ़त बनानी शुरू की, जो बारह राउंड तक जारी रही। 12 राउंड की समाप्ति के बाद भाजपा प्रत्याशी कुलदीप कुमार को 24931, कांग्रेस प्रत्याशी नवप्रभात को 24338, निर्दलीय प्रत्याशी मुन्ना सिंह चौहान को 14793, सपा प्रत्याशी गुलफाम अली को 591, निर्दलीय लियाकत अली को 350, निर्दलीय श्याम लाल को 207, निर्दलीय टीकाराम शाह को 202, निर्दलीय दयाराम को 247, निर्दलीय मंगत सिंह रमोला को 100,
पहाड़ की महिलाओँ की पीड़ा है -लछमा-
अनपढ़, पहाड़ों सा कठोर जीवन जीने के लिए अभिशप्त, फिर भी पहाड़ों-सी सरल और स्नेह की प्रतिमूर्ति है लछमा। वह सिर्फ एक ही बात जानती है कि जीवन में कितना ही बड़ा दु:ख क्यों न आ जाए,
लेकिन हंसने से हमें कोई नहीं रोक सकता। यह बानगी है संभव मंच परिवार की ओर से रविवार को नगर निगम के प्रेक्षागृह में मंचित महादेवी वर्मा के चर्चित नाटक लछमा की। लछमा एक ऐसी लड़की की कहानी है, जिसे किसी से कोई शिकायत नहीं। ईजा-बौज्यू उसका ब्याह एक पगलाए युवक से कर देते हैं। जेठानियां उसे बात-बात पर प्रताडि़त करती हैं और कभी-कभी तो जेठजी जी उस पर हाथ उठा देते हैं, लेकिन मजाल क्या लछमा के चेहरे पर शिकन भी उभर आए। वह तो सिर्फ हंसना जानती है। नाटक एक बड़ा सवाल छोड़ता है कि लछमा के मिलने से महादेवी जी को तो एक अच्छी-खासी कहानी मिल गई, पर महादेवी के सानिध्य में आने से लछमा को क्या मिला? फिर नाटक स्वयं ही उत्तर देता है, अनपढ़ लछमा को मिली पढ़ने की प्रेरणा। उसने जाना कि पढ़ना-लिखना इंसान के लिए क्यों जरूरी है। अभिषेक मैंदोला द्वारा रूपांतरित व निर्देशित इस नाटक में लछमा की भूमिका को कुसुम पंत ने बखूबी जिया। कुमाऊंनी पुट लिए संवाद और आंचलिक गीत-संगीत का प्रयोग नाटक को जीवंतता प्रदान करते हैं। ज्योति पुंडीर, नंदिनी पुजारी, प्रदीप रतूड़ी, रुचि पांडे, मनीष बलूनी, संजय गैरोला, गोविंद जुयाल, हेमा पंत, सावित्री, मंजू, नूपुर, संदीप, रेखा, वैभव, प्रमोद राणा, जयवीर त्यागी, राहुल, शांति, सौम्या जोशी व गौरव जोशी ने अपनी-अपनी भूमिकाओं से पूरा न्याय किया।
Tuesday, 15 September 2009
उत्तराखंडी भाषा प्राण विहीन लिपि देवनागरी
विश्व में लगभग छः हजार से अधिक बोलियाँ हैं ! इन बोलियों में से कई बोलियाँ भाषा के रूप में परिणत हो गई हैं ! भाषा के रूप में परिणत होने वाली बोलियों में कुछ भारत में बोली जाने वाली बोलियाँ भी हैं, जिन्हें भारत गणराज्य के संबिधान की अष्टम सूची में स्थान दे दिया गया है ! किसी बोली को भाषा के रूप में स्वीकारा जाना उस बोली को बोलने वालों की अपनी बोली के प्रति निष्ठा और उसे सम्मान
जनक स्थान दिलाना उस समाज की सफलता है जिसने अपनी बोली को भाषा के रूप में स्थान दिलाने में अपने व अपने समाज के सम्मान के लिए इस उद्देश्य को प्राथमिकता से उजागर किया और बोली को भाषा के रूप में स्वीकारने व स्थान दिलाने में एकता दिखाई !
भाषा के इस उद्देश्य में हम कहाँ हैं! उत्तराखंड एक छोटा सा प्रदेश जिसका भूभाग उत्तर्पूर्ब के छोटे पहाडी प्रदेशों के सामान है तथा इनकी परिस्तिथियाँ भी सामान हैं जिसप्रकार उन प्रदेशों की सीमायें दूसरे देशों से मिली हैं उसी प्रकार उत्तराखंड प्रदेश की सीमा भी चीन और नेपाल क्रमशः दो देशों से जुडी है ! उत्तर्पूर्ब के समान उत्तराखंड प्रदेश समान परिस्तिथियों वाला प्रदेश हैं
! इस मायने में केंद्र सरकार ने जिन नीतियों और मानदंडों को लेकर उत्तर्पूर्ब के प्रदेशों के साथ ब्यवहार किया है उसी प्रकार के ब्यवहार की अपेक्षा उत्तराखंड प्रदेश के साथ भी की जानी चाहिए ! यहाँ हम केवल भाषा की बात करते हैं ! उत्तर्पूर्ब के कुल सात प्रदेशों की अपनी सात भाषाएँ तथा उनकी प्रथक लिपि भी हैं ! जिनकी भाषा लिपि नहीं है उन्हों ने बंगला लिपि को माध्यम मानकर उसमे अपनी
स्थानीय भाषा के प्राण अक्षरों को जोड़ा है ! जिसके उपरांत वह उस लिपि में अपनी बोली को स्वछन्द रूप से प्रयोग करने लगे, फल्श्वरूप आज उनकी बोली भाषा का रूप लेकर भारतीय संबिधान की अष्टम सूची में बिराजमान हो गई है ! यहाँ प्रश्न उठता है की उत्तर्पूर्ब के इन सात प्रदेशों को अलग-अलग लिपि या दूसरी लिपि में अपनी भाषा के स्थानीय अक्षरों को जोड़ने की क्यों आवश्यकता पड़ी ! इन सात छोटे
पहाड़ी प्रदेशो की केवल एक लिपि हो सकती थी परन्तु नहीं हो सकी ! इनकी एक लिपि न होने का मुख्य कारन है उनकी अपनी भाषाई अस्मिता ! वह अपनी भाषाई पहचान को बरकरार रखना चाहते थे सो उन्हों ने किया अपनी भाषा को प्रतिष्ठित कर दिया ! यहाँ हम तुलना नहीं कर रहे हैं ! उत्तराखंड प्रदेश कई मायनों में उन प्रदेशों से आगे हैं परन्तु भाषाई अस्मिता को सम्मान जनक स्तिथि तक पहुचने में इन प्रदेशो से
कई दसक पीछे है !
उत्तराखंड प्रदेश के भाषा विशेषज्ञों का मानना है की उत्तराखंड की भाषा (गढ़वाली-कुमाउनी) की लिपि देवनागरी ही है ! उत्तराखंड में यहाँ की भाषा की लिपि के सम्बन्ध में जो साक्ष्य मिले उनमे अधिकांश शब्द ब्राह्मी लिपि के हैं ! अधिकांश ताम्रपत्रों में स्थानीय बोली में राजे महाराजाओं के फरमान हैं ! जिनकी लिपि ब्राह्मी है ! इन ताम्र पत्रों के लेखों में संस्कृत भाषा का अधिक प्रभाव
है ! यहाँ के किसी भी राजा ने अपनी भाषा को अधिक महत्व नहीं दिया है ! ना ही अपने राज्य में प्रयुक्त लोक भाषा को पठान पाठन का माध्यम बनाया ! यह स्तिथि गढ़वाल-कुमाऊं में समान रूप से रही ! इतिहास गवाह है की जिस बोली को राजकीय या शासकीय संरक्षण नहीं मिला वह कभी भाषा के रूप में परिणत नहीं हो पाई, यही दशा आज गढ़वाली कुमाउनी की है ! गढ़वाल और कुमाऊ के राजवंशों ने अपनी राजभाषा संस्कृत
मानकर उसमे कम किया है ! संस्कृत भाषा जिसपर ब्राह्मणों का अधिपत्य मन जाता था उसके अध्ययन के लिए भी स्कूल कॉलेज का उल्लेख बहुत कम मिलता है ! कुछ गुरुकुलों का अवश्य उल्लेख मिलता है परन्तु गुरुकुलों में कुछ खास घरानों के बच्चो को ही पढाया जाता था ! आम आदमी तथा आम आदमी की भाषा से राजपरिवार का कुछ लेना देना नहीं था ! एक मायने में कहा जाय की आम आदमी को शिक्षा से दूर रखा गया ! राज्य
में जब शिक्षा संस्कृत भाषा के आधार पर कामचलाऊ बनी हुई थी तो आम आदमी की बोली के विकास के विषय में सोचना कितना कठिन था ! उस समय के राजे ब्राह्मणों द्वारा संस्कृत के आधार पर दी गयी शिक्षा पद्धति पर खुश थे ! संस्कृत भाषा में पौराणिकता का गुण था जो आज भी बरकरार है ! राजाओं का संस्कृत मोह ने ही उत्तराखंड की स्थानीय गढ़वाली और कुमाउनी भाषा को कभी तबज्जो नहीं दिया ! जबकि लोक मानस में
यहाँ की स्थानीय बोली निरंतर बोली जाती रही हैं !
उत्तरखंड में सोलह सो सदी के बाद देवनागरी लिपि का शुद्ध रूप मिलता है ! सोलह सो सदी के बाद सामाजिक चेतना उभरने लगी थी ! कंपनी सरकार का देश में कई रियासतों को हड़पने की नीति चल रही थी ! मुग़ल रियाशत के पतन का जिम्मेदार बादशाह औरंगजेब के अत्याचार से पीड़ित होकर उसके छोटे भाई दाराशिकोह ने गढ़वाल के राजा की शरण ली ! उस दोरान का पत्र ब्यवहार भी देवनागरी व फारशी लिपि में देखने को
मिलता है ! सोलह सो सदी में चित्रकार मोलाराम ने अपने चित्रों में देवनागरी लिपि में नामंकन किया है ! उसके उपरांत देवनागरी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा ! इस बीच कंपनी सरकार ने शिक्षा का प्रचार प्रशार कर दिया ! जगह जगह डी ए बी स्कूल खुलवाए गए, छात्रावास बनाए गए ! इन स्कूलों में स्थानीय धनाड्य परिवारों के बच्चों ने शिक्षा प्राप्त की ! इन विद्यालयों से क्षेत्रीय बोलियों के कुछ
विद्यार्थियों ने अपनी स्थानीय बोली को हिंदी भाषा की लिपि देवनागरी के माध्यम से लिखना आरम्भ किया ! स्थानीय बोली में एक के बाद एक कबी, साहित्यकार उत्पन्न हुए तथा उन्हों ने उत्तराखंड को उत्त्तराखंड की बोली में साहित्य का असीमित भंडार बनाकर दिया ! प्रत्येक कबी व साहित्यकार ने अपनी कृति में स्थनीय बोली को लिखने के लिए देवनागरी कमी पाई ! फल्श्वरूप उन्होंने अपने मन की शांति
में लिए कहीं बिंदी, कहीं संस्कृत का शब्द तो कहीं उर्दू का जेर जबर लगाकर तसल्ली कर ली, परन्तु जब वह पुस्तक पाठक के पास पहुंची तो पाठक भ्रमित हो गया ! उसे अपनी ही बोली पढने में अटपटी लगने लगी ! नतीजा यह हुआ की उत्तराखंड की इन दोनों बोलियों का लिखित भाषा के रूप में प्रचार प्रशार ही नहीं हुआ ! इसलिए यह दोनों बोलियाँ आज भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हैं !
डॉ बिहारीलाल जलंधरी
Monday, 14 September 2009
गिनीज बुक की दौड़ में उतरी उत्तराखंड की - 108
उत्तराखण्ड का नाम गिनीज बुक आफ वल्र्ड रिकार्ड में भेजेंगे निशंक
देहरादून, अपनी प्राकृतिक खूबसूरती और विकटतम भौगोलिक परिस्थिति के लिए प्रसिद्ध उत्तराखण्ड राज्य में चलते वाहन में सबसे अधिक सफल प्रसव का रिकार्ड बनाने के लिए राज्य का नाम "गिनीज विश्व रिकार्ड पुस्तक में दर्ज कराने के लिए भेजा जाएगा।
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्रालय का भी कार्यभार संभाल रहे रमेश पोखरियाल निशंक ने भाषा से विशेष बातचीत के दौरान बताया कि राज्य में पिछले डेढ वर्ष के भीतर चलती एम्बुलेंस में प्रसव के 784 मामलों को सफलतापूर्वक निपटाया गया, जो पूरी दुनिया में एक रिकार्ड है। उन्होंने कहा कि मैदानी इलाकों की तुलना में पहाड़ी इलाकों में परिस्थिति बहुत अधिक विकट होती है और प्रसव के समय महिलाओं को समुचित सुविधा नहीं मिल पाती, जिससे उन्हें बेहद परेशानी का सामना करना पड़ता है। निशंक ने बताया कि स्वास्थ्य मंत्री के तौर पर उनके द्वारा शुरू की गई 108 आपात चिकित्सा वाहन सुविधा ने सफलता के कई झाण्डे गाड़े हैं।मुख्यमंत्री निशंक ने कहा कि इस वाहन सुविधा ने खासतौर पर खतरनाक तथा दुर्लम पहाड़ी मार्गों से गांवों में पहुंच कर गत वर्ष 15 मई से लेकर इस वर्ष छह सितंबर के बीच 784 नौनिहालों को सुरक्षित जीवन प्रदान कर पूरी दुनिया में रिकार्ड कायम किया "या है। ऐसा उदाहरण कहीं नहीं मिलता है और इस उपलब्धि को गिनीज विश्व रिकार्ड पुस्तक में दर्ज कराने का प्रयास किया जाएगा। निशंक ने कहा कि इसके अतिरिक्त इसी वाहन सुविधा के माध्यम से 28 हजार 905 महिलाओं को अस्पताल में भर्ती कराने के बाद सुरक्षित प्रसव कराया गया।
मुख्यमंत्री ने बताया कि इसके अतिरिक्त और भी कई रिकार्ड कायम किए गए हैं, जिनका ब्यौरा भी भेजा जाएगा। इस अवधि में 108 आपात वाहन द्वारा 25 लाख 42 हजार 135 टेलीफोन काल प्राप्त किए गए जिसमें से 13 लाख नौ हजार 902 काल आपातकालीन थे। इसमें 90 हजार 890 व्यक्तियों को आपात सुविधा मुहैया कराई गई। उन्होंने बताया कि 2206 लोंगों को वाहन में ही आपात सुविधा मुहैया कराई गई जबकि 82 हजार 614 लोगों को अस्पताल में भर्ती कराया गया।
निशंक ने बताया कि 15 हजार 494 मामले पुलिस को संदर्भित किए गए।
निशंक ने कहा कि आंकडे यह साबित करते हैं कि आपात चिकित्सा सुविधा के माध्यम से उत्तराखण्ड का नाम "गिनीज पुस्तक में दर्ज कराने का दावा कितना जायज है।
राज्य में इस अवधि में 13 हजार 242 सड़क दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें सभी लोगों को इस सुविधा के माध्यम से चिकित्सालय भेजा गया।
उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड के 13 जिलों के मैदानी इलाकों को छोड़ दिया जाए तो 65 प्रतिशत से भी अधिक वन क्षेत्र हैं और इन्हीं क्षेत्रों में गांव बसे हुए हैं। इन गांव वालों को बेहतर चिकित्सा सुविधा मुहैया कराना उनकी सरकार की प्राथमिकता है।
निशंक ने कहा कि दूर दराज के लोगों को आपात चिकित्सा सुविधा मुहैया कराना पर्वतीय इलाकों में नाकों चने चबाने जैसा है लेकिन उनकी सरकार इसे बखूबी कर रही है।
दिल का दौरा पडऩे से प्रभावित 2322 लोगों को इस सुविधा के माध्यम से चिकित्सा मुहैया कराई गई और उनका जीवन बचाया गया। इसी तरह दमा के 3327 मरीजों को भी समय रहते दवा दी गई। यह अपने आप में एक रिकार्ड है।
उन्होंने कहा कि यह भी गौरतलब है कि सूचना प्राप्ति के बाद एम्बुलेंस को पीडि़त तक पहुंचने में औसतन आठ से दस मिनट का समय लगता है और ग्रामीण क्षेत्र वाले मरीज को करीब 47 मिनट के भीतर
तथा शहरी क्षेत्र के मरीज को लगभग29 मिनट के भीतर अस्पताल पहुंचा दिया जाता है।
मुख्यमंत्री ने बताया कि इस सुविधा को शीघ्र ही प्रखण्ड स्तर पर शुरू किया जाएगा।
Saturday, 12 September 2009
-हिमाचल से हर क्षेत्र में पिछड़ा उत्तराखंड
देहरादून
समान भौगोलिक परिस्थितियों वाले दो पड़ोसी राज्यों में हिमाचल प्रदेश विकास के हर सोपान में आगे निकल गया है। दोनों राज्यों के विकास संबंधी आंकड़े इसकी पुष्टि कर रहे हैं।
उत्तराखंड के नियोजन विभाग ने योजना आयोग के पास जाने से पहले पर्वतीय पड़ोसी राज्य हिमाचल के आंकड़े एकत्र कर इस उत्तराखंड से तुलनात्मक चार्ट बनाए थे। केंद्र के सामने इन्हीं आंकड़ों को रखकर उत्तराखंड के विकास में सहयोग मांगा।
इन आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में प्रति हेक्टेयर उत्पादन 17.80 कुंतल है तो हिमाचल में 19.50 कुंतल है। उत्तराखंड में वनों के तहत रिपोर्टेट एरिया 61.10 तो हिमाचल में यह 24.10 प्रतिशत है। उत्तराखंड में प्रति हजार वर्ग किमी. पर 428.9 किमी. सड़कें हैं। हिमाचल में यह 429.58 किमी है।
उत्तराखंड में एक लाख आबादी पर 4185 फोन हैं तो हिमाचल में 7610। यहां आने वाले कुल पर्यटकों में से विदेशियों की संख्या 0.5 प्रतिशत है, तो हिमाचल में आंकड़ा 2.95 फीसदी है। उत्तराखंड में एक लाख आबादी पर दस कामर्शियल बैंक शाखाएं हैं तो हिमाचल में 13। यहां साक्षरता दर 71.6 तो हिमाचल में 77.13 फीसदी। प्राइमरी स्तर पर उत्तराखंड में 48.2 बच्चों पर एक शिक्षक है, हिमाचल प्रदेश में 21.78 बच्चों पर एक शिक्षक है। हायर सेकेंड्री स्कूलों की बात करें तो इस प्रदेश में में 28 बच्चों पर एक शिक्षक है तो पड़ोसी राज्य में 14.98 बच्चों पर। यहां एक लाख आबादी पर जूनियर बेसिक स्कूलों की संख्या 168 है तो हिमाचल में 174 है। एक लाख आबादी पर उत्तराखंड में 19 हायर सेकेंड्री स्कूल हैं तो हिमाचल 35। एक लाख आबादी पर उत्तराखंड में 0.94 डिग्री कालेज हैं, जबकि हिमाचल में 1.13।
एक लाख आबादी पर यहां 226 हेल्थ सेंटर हैं तो पड़ोसी राज्य में 438 हैं। उत्तराखंड में प्रति हजार आबादी पर जन्म दर 20.4 व हिमाचल में 17.4 फीसदी है। उत्तराखंड में 88 व हिमाचल में 99.4 फीसदी गांव विद्युतीकृत हैं। जाहिर है कि हिमाचल इस राज्य से हर क्षेत्र में आगे है।
निर्भीकता की प्रतिमूर्ति थे पं. गोविंद बल्लभ पंत
- जन्म दिवस 10 सितंबर पर विशेष
पं.गोविंद बल्लभ पंत।
बाजपुर: अंग्रेजी शासन काल में एक भारतीय वकील काशीपुर न्यायालय में खद्दर की टोपी पहनकर वकालत के लिये जाया करता था। एक बार अंग्रेज न्यायाधीश ने इस पर आपत्ति की और टोपी उतारकर प्रवेश करने को कहा तो उस युवा वकील ने निर्भीकता से कहा.... मैं न्यायालय से बाहर जा सकता हूं लेकिन टोपी नहीं उतार सकता। यह वकील कोई और नहीं बल्कि भारत रत्न पं. गोविंद बल्लभ पंत थे।
गोविंद बचपन से प्रतिभाशाली तो थे ही साहस, दृढ़ता व हाजिर जवाबी के गुण भी उनके व्यक्तित्व को विशालता प्रदान करते हैं। साइमन कमीशन का विरोध करने पर लखनऊ में उन्होंने पं. जवाहर लाल नेहरू के साथ पुलिस की लाठियों के आघात सहे व जेल गये, लेकिन जीवन में कभी भी हार नहीं मानी। यद्यपि जीवन पर्यंत वे शारीरिक व मानसिक पीड़ाओं से जूझाते रहे। अल्मोड़ा जनपद के खूंट गांव में 10 सितंबर 1887 को पंडित मनोरथ के घर बालक गोविंद ने जन्म लिया। गोविंद का बचपन अधिकतर ननिहाल में बीता। नाना बद्रीदत्त जोशी उस समय सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे घर परिवार में सभी सुख सुविधा के साधन उपलब्ध थे फिर भी बालक गोविंद कई बार सड़क के किनारे मूर्तिवत होकर बैठ जाता था। इसी वजह से उनके नाना प्यार से इन्हें थपुआ कहते थे कुमांऊनी में थपुआ का अर्थ भित्तिचित्त से होता है। पं. पंत बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे जब वे कक्षा 6 में पढ़ रहे थे तब अंकगणित से संबंधित एक प्रश्न कक्षा में पूछा गया कि तीस गज लंबे कपड़े के थान को एक गज प्रतिदिन के हिसाब से फाड़ा जाये तो वह थान कितने दिनों में फट जायेगा? अधिकांश विद्यार्थियों ने उत्तर दिया तीस दिन, जबकि बालक गोविंद का उत्तर था 29 दिन। अपने सहपाठियों को समझााने के लिये गोविंद ने एक कागज को 29 टुकड़ों में फाड़ा तीसवां टुकड़ा अपने आप फट गया सभी सहपाठी गोविंद के सामान्य ज्ञान से आश्चर्यचकित हो गये। वर्ष 1903 में पंत जी ने हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा प्रांत में तीसरा स्थान प्राप्त किया 17 वर्ष की आयु में उन्हें दिल का दौरा पड़ा तथा गंभीर हालत में मुरादाबाद के चिकित्सालय में भर्ती कराया गया। अस्वस्थता के चलते इन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की इसके पश्चात इलाहाबाद के म्यूर सेंट्रल कालेज से बीए तथा लॉ कालेज से कानून की उपाधि प्राप्त की। पंत जी का वैवाहिक जीवन काफी संघर्षमय तथा मानसिक कष्टप्रद रहा। मात्र 12 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह पंडित बाला दत्त जोशी की बेटी गंगा देवी से हुआ, जिससे एक पुत्र हुआ किंतु वर्ष 1909 में काल ने इनसे पुत्र तथा पत्नी दोनों को छीन लिया मित्रों एवं संबंधियों ने इन्हें पुन: विवाह के लिये राजी किया तथा वर्ष 1912 में इनका दूसरा विवाह किया गया किंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था उसी दु:खद घटना की पुनरावृत्ति हुई वर्ष 1914 में पत्नी पुत्र इन्हें अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार गये। चोट पर चोट खाते हुए पंत जी अब उदासीन से हो गये वर्ष 1916 में पंत जी के मित्र राजकुमार चौबे ने इन्हें समझाा बुझााकर इनका विवाह काशीपुर के तारादत्त पांडे की सुपुत्री कला देवी से करा दिया इन्होंने कृष्ण चंद्र पंत को जन्म दिया। महात्मा गांधी के आह्वान पर इन्होंने अपना फलता फूलता कानून का व्यवसाय छोड़ दिया। कुमाऊं में राजनैतिक जागृति लाने के उद्देश्य से 1916 में इन्होंने कुमाऊं परिषद की स्थापना की। परिषद ने कुमाऊं में प्रचलित कुली बेगार प्रथा के खिलाफ सफल अभियान छेड़ा। 1923 में पंत जी उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य बने तथा सन् 1937 से 1939 तक संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री और 1946 से 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। सन् 1955 से 61 तक पंत जी ने भारत सरकार के गृह मंत्री पद का संचालन कुशलतापूर्वक किया। समाज एवं राष्ट्र के लिये पंत जी की महान सेवाओं को देखते हुए 26 जनवरी 1957 को इन्हें भारत रत्न की सर्वोच्च उपाधि से अलंकृत किया गया।
पं.पन्त जब 20 फरवरी 1961 को राज्य सभा में अपने सचिव जानकी प्रसाद पन्त से नोट लिखवा रहे थे उन्हें पक्षाघात का दौरा पड़ा और वह बेहोश हो गये। मौत से जूझाते हुए 07.03.1961 को प्रात: काल में 8:50 मिनट पर स्वाधीनता का यह महान सिपाही चिर निद्रा में सो गया।
गरीबी व लाचारी से हारा कोली
-निठारी कांड में सुरेन्द्र को सजा पचा नहीं पा रहे हैं मंगरोखालवासी
मौलेखाल(अल्मोड़ा):बहुचर्चित निठारी कांड के अभियुक्त मोहिन्दर सिंह पंधेर को बरी किये जाने व सुरेन्द्र कोली की सजा बरकरार रखने के इलाहाबाद न्यायालय के आदेश को मंगरोखालवासी पचा नही पा रहे हैं। ग्रामीणों ने कहना है कि सुरेन्द्र की लाचारी व उसकी गरीबी आज उसकी दुश्मन बन गयी है। न्यायालय के आदेश के बाद आज मंगरोखाल में सन्नाटा पसरा हुआ है। मोहिन्दर पंधेर की रिहाई की खबर किसी के गले नही उत्तर रही है।
शुक्रवार को इलाहाबाद न्यायालय द्वारा निठारी कांड के आरोपी मोहिन्दर पंधेर को रिहा करने व सुरेन्द्र कोली को सजा देने की खबर सुरेन्द्र के गांव मंगरोखाल में भी हवा की तरह फैली। न्यायालय के इस आदेश के बाद हर कोई स्तब्ध था कि आखिर मोहिन्दर सिंह को बरी क्यों कर दिया गया जबकि सुरेन्द्र की सजा बरकरार रखी गयी है। मंगरोखाल निवासी 26 वर्षीय प्रकाश का कहना है कि सुरेन्द्र को जानबूझाकर जाल में फंसाया गया है। आज वह अपनी लड़ाई भी नही लड़ पा रहा है। क्षेत्र पंचायत सदस्य जोगा सिंह भी सुरेन्द्र की गरीबी से आहत दिखायी दिये। उनका कहना है कि सुरेन्द्र एक मिलनसार स्वभाव का मेहनती युवक था। लेकिन निठारी कांड में उसका नाम आने के तीन साल बाद भी आज इस बात पर कोई यकीन करने को तैयार नही है। सुरेन्द्र की पत्नी शान्ति का भी बुरा हाल है। घर में दो छोटे छोटे बच्चों का जैसे तैसे गुजारा कर रही शान्ति का कहना है कि सुरेन्द्र की गरीबी का फायदा उठाकर मोहिन्दर सिंह ने उसे फंसा लिया है। आज उसके पास अपनी लड़ाई लडऩे के लिये एक अदद वकील रखने के भी पैसे नही हैं। शान्ति का कहना है कि अगर सुरेन्द्र दोषी है तो उसे इस राह पर लाने वाले सभी लोंगों की बराबर की सजा मिलनी चाहिये। फिर अकेले सुरेन्द्र को ही क्यों फंसाया जा रहा है।
लाचार व गरीब शान्ति देवी के घर में आज भी खाने पीने के सामान का टोटा है। पिछले तीन सालों से शान्ति कानून पर विश्वास लगा न्याय की उम्मीद कर रही है। लेकिन आज उसका विश्वास कानून से उठ चुका है। शान्ति ने साफ शब्दों में कहा कि अगर उसका पति दोषी है तो उसे सजा मिलनी चाहिये। लेकिन उसने यह आरोप भी लगाया कि सुरेन्द्र कोली के जांच में बस खानापूर्ति कर सम्पन्न लोंगों को बचाने की कोशिश की जा रही है।
उत्तराखंड में बसा है 'मिनी जापान'
-टिहरी जिले के घनसाली ब्लाक में कई गांवों के लोग हैं जापान में
-इन गांवों के प्रत्येक घर से एक सदस्य कर रहा जापान में नौकरी
-जापानी मुद्रा 'येन' की बदौलत इलाके में सबसे समृद्ध हैं ये गांव
घनसाली (टिहरी):
शीर्षक पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि आखिर भारत के पर्वतीय राज्य उत्तराखंड के सुदूरवर्ती अंचलों में मिनी जापान कैसे बस
सकता है। यह सोचना बिलकुल सही है, लेकिन यह बात भी सच है कि इन गांवों में एक भी जापानी नहीं रहता है। इसके बावजूद इलाके में ये गांव 'मिनी जापान' के नाम से ही जाने जाते है। अब आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्यों, चलिए हम ही बता देते हैं। बात दरअसल यह है कि इन गांवों के कमोवेश हर घर से कम से कम एक सदस्य जापान में नौकरी कर रहा है। ऐसे में जापानी मुद्रा 'येन' की बदौलत दूरस्थ होने के बावजूद आज इस गांव में कई आलीशान दोमंजिला पक्के मकान हैं। गांव में बिजली नहीं है, लेकिन हर घर में सौर ऊर्जा उपकरण लगे हैं। इससे ग्रामीणों की रातें रोशन होती हैं। खास बात यह है कि इस गांव के अधिकांश युवाओं का सपना भी पढ़-लिखकर जापान जाने का ही रहता है।
टिहरी जनपद के भिलंगना विकासखंड का हिंदाव क्षेत्र शिक्षा, बिजली और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से पूरी तरह वंचित है। इसके बावजूद यहां के गांवों में मौजूद सुख-सुविधाएं ऐसी हैं कि बड़े-बड़े शहरों को भी मात दे दें। सड़क मार्गों से काफी दूर खड़ी चढ़ाई पार करने के बाद इन गांवों को देखकर यकीन ही नहीं होता कि ये दूरस्थ क्षेत्रों के गांव हैं। यह गांव इतने समृद्ध कैसे हुए। इसकी कहानी शुरू हुई करीब दो दशक पूर्व जब रोजगार की तलाश में यहां के कुछ युवा शहरों की ओर गए। खास बात यह रही कि उन्होंने नौकरी के लिए सीधा जापान का रुख किया और बस गांव की तस्वीर बदलनी शुरू हो गई। आज पट्टी हिंदाव क्षेत्र के ग्राम सरपोली, पंगरियाणा, भौंणा, लैणी, अंथवालगांव आदि गांवों में लगभग हर घर से कम से कम एक सदस्य जापान में है। इनमें से अधिकांश वहां होटल व्यवसाय से जुड़े हुए हैं।
गांव के अधिकतर लोगों का जापान में होने का असर यहां की आर्थिकी पर भी पड़ा। आज पट्टी के सभी गांवों में सीमेंट के पक्के आलीशान भवन बने हुए हैं। इनमें न केवल आधुनिक सुख-सुविधाएं हैं, बल्कि मनोरंजन के सारे साधन मौजूद हैं। खास बात यह है कि जब क्षेत्र के अधिकांश गांवों में बिजली पहुंची ही नहीं थी, तब इन गांवों के लोगों ने अपने खर्चे पर सौर ऊर्जा उपकरण लगवा लिए थे। जापानी मुद्रा यानि येन की बदौलत यह गांव अन्य गांवों के मुकाबले सुविधा संपन्न हो गए। सरपोली के ग्राम प्रधान कुंदन सिंह कैंतुरा कहते हैं कि विदेश में बसे लोगों ने गांवों की तस्वीर बदल दी, लेकिन सड़क व शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाएं जुटाने को प्रयास किए जाने की जरूरत है।
500 विदेशी खाते हैं घनसाली बैंक में
घनसाली: जनपद टिहरी की भारतीय स्टेट बैंक की घनसाली शाखा में 500 बैंक खाते ऐसे हैं, जो विदेश से संचालित होते हैं। यही वजह है कि एसबीआई घनसाली का सालाना टर्नओवर बैंक की अन्य शाखाओं से अधिक है। बैंक के शाखा प्रबंधक एमआर सिंह गिल बताते हैं कि सबसे अधिक खाते सरपोली गांव के लोगों के हैं। जापानी मुद्रा आने के कारण यहां गांवों की तकदीर बदली है।
सड़क के अभाव में खड़ी हुई कुंवारों की फौज
-अधूरी रह गई पुनौली के युवकों की हसरत
-घोड़ी पर चढऩे की चाहत लिए प्रधान भी होने को हैं चालीस के पार
चम्पावत: पुनौली गांव में कुंवारों की फौज खड़ी हो गई है। सड़क न होने से कोई भी युवती इस गांव के युवकों से विवाह के
बंधन में बंधना ही नहीं चाहती। चालीस के करीब पहुंचे स्वयं ग्राम प्रधान भी घोड़ी पर चढ़कर दुल्हन लाने का ख्वाब तो पाले हैं, लेकिन उनका यह सपना पूरा होता नहीं नजर आता। चम्पावत जनपद से 78 किमी दूर पाटी विकास खंड के पुनौली गांव में घोषणाओं के बावजूद आज तक सड़क सुविधा मुहैया नहीं हो पाई है।
किसी भी क्षेत्र के विकास में सड़कों की अहम भूमिका रही है, लेकिन पुनौली के ग्रामीणों की वर्षों पुरानी यह मांग आज भी अधूरी है। यह गांव एक दशक पूर्व मूलाकोट कस्बे तक बनी सड़क से दस किमी दूर है। 750 की आबादी वाले इस गांव में 307 वोटर हैं। मूलाकोट तक सड़क बनने के बाद वर्ष-2003 में सूबे के तत्कालीन कैबिनेट मंत्री व क्षेत्रीय विधायक महेन्द्र सिंह माहरा ने 6 माह के भीतर मटियाल बैण्ड से पुनौली तक सड़क निर्माण की घोषणा की थी। लेकिन इसे आज भी अमल रूप नहीं मिला है। दो साल पूर्व चम्पावत के तत्कालीन जिलाधिकारी डा.पीएस गुसाईं ने सड़क मार्ग के लिए सर्वे कराया था, लेकिन वह रिपोर्ट भी फाइलों में ही कैद है। ग्रामीणों के पास पलायन के सिवाय कोई और रास्ता नहीं बचा है। पिछले एक दशक के दौरान आधे से अधिक परिवार यहां से पलायन कर चुके हैं। शिक्षक चतुर सिंह ने बताया कि 1984 में स्थापित जूनियर हाईस्कूल का उच्चीकरण न होने से आठवीं पास विद्यार्थियों को पांच किमी की खड़ी चढ़ाई और जंगल के रास्ते से अध्ययन को जाना पड़ता है।
क्षेत्र में स्वास्थ्य केंद्र न होने से कई मरीजों को अस्पतालों तक ले जाने पर वह आधे रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं। केंद्र की स्थापना के लिए पूर्व मुख्यमंत्री ने भूमि दान का नक्शा भी मंगाया था, लेकिन उस पर आज तक कोई प्रक्रिया शुरू नहीं हुई है। सामाजिक रूप से शोचनीय विषय यह है कि सुविधाओं से विहीन इस गांव में कोई भी व्यक्ति अपनी लड़की को ब्याहने को तैयार नहीं है। हर कोई भी मां-बाप अपनी बेटी को सुविधायुक्त घर और स्थान पर ब्याहना चाहता है जिससे वह खुशहाल रह सके। गांव के बुजुर्ग चूड़ामणि बताते हैं कि पिछले आठ साल से कुंवारों की संख्या बढ़ रही है। फिलवक्त करीब डेढ़ दर्जन से ज्यादा ऐसे युवक हैं जिनकी उम्र 35 वर्ष होने पर भी कुंवारे बैठे हैं। इसी कुंवारेपन का दर्द वर्तमान ग्राम प्रधान प्रकाश जोशी भी झोल रहे हैं। वह बतातें है कि उनकी उम्र अब चालीस पार करने ही वाली है और यदि कोई युवती उससे शादी करने को तैयार नहीं हुई तो शायद उन्हें जिंदगी भर कुंवारा बैठना पड़ सकता है।
-गैर शैक्षणिक कार्यों में लगे शिक्षकों पर शिंकजा
बीमा एजेंट, प्राइवेट कोचिंग, ट्यूशन, शेयर-मार्केट व प्रापर्टी डीलिंग करने वाले होंगे चिन्हित
-जिला शिक्षाधिकारी 15 दिन के भीतर शासन को मुहैया कराएंगे सूची
देहरादून,
अध्यापन की ताक पर गैर शैक्षणिक कार्यों में जुटे शिक्षकों पर शासन ने शिकंजा कड़ा कर दिया है। शासन ने बीमा एजेंट, प्राइवेट कोचिंग, ट्यूशन, शेयर मार्केट व प्रापर्टी डीलिंग में लगे शिक्षकों के बारे में जिला शिक्षा अधिकारियों से 15 दिन में सूची मांगी गई है।
शिक्षा सचिव डा. राकेश कुमार ने सभी जिलाधिकारियों को भेज आदेश में कहा है कि शासन की जानकारी में आया है कि अनेक शिक्षक मूल कार्य शिक्षण के अतिरिक्त अन्य व्यवसायिक गतिविधियों से जुड़े हैैं। इससे पठन-पाठन पर विपरीत असर पड़ रहा है। सभी जिला शिक्षा अधिकारी ऐसे शिक्षकों को तुरंत चिन्हित कर 15 दिन के भीतर जानकारी उपलब्ध कराएं।
शासन ने शिक्षकों के संबंध जिन में पांच बिंदुओं पर सूचना मांगी है, उनमें गैर शैक्षणिक कार्य करने वाले, गंभीर बीमारी से पीडि़त, लंबे समय से चिकित्सा अवकाश व अवैतनिक अवकाश पर रहने तथा सौ दिन से अधिक शिक्षण कार्य नहीं करने वाले शिक्षकों का ब्योरा शामिल है। जिन अध्यापकों के छात्र बोर्ड परीक्षा में संबंधित विषय में पचास प्रतिशत से कम अंक तथा और औसत से कम परीक्षाफल वाले प्रधानाध्यापकों व प्रधानाचार्यों की सूची भी तलब की गई है। ऐसे अध्यापक, जो अपनी तैनाती के विद्यालयों में किसी अन्य व्यक्ति से शिक्षण कार्य करा रहे हैैं, उनकी जानकारी भी शासन को भेजनी होगी। दुर्गम स्थानों में न्यूनतम पांच किमी की दूरी पैदल चलकर स्कूल जाने वाले शिक्षकों के संबंध में भी शासन को जानकारी मुहैया करानी होगी।
-उत्तरकाशी: यहां तप कर विश्व को दिया अध्यात्म का ज्ञान
-संतो की तपस्थली रहा है उत्तरकाशी जिला
-योगगुरु बाबा रामदेव ने दंडी आश्रम में की थी तपस्या
उत्तरकाशी
'ऊं' नाद के साथ प्रवाहित गंगा के पवित्र तट साधु-संतों की तपस्थली रहे हैं। यहां से ज्ञान प्राप्त करने के बाद कई संतों ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अध्यात्म की पताका फहराई। गढ़वाल मंडल में उत्तरकाशी भी इसी परंपरा का संवाहक रही है।
गंगा की कल-कल में 'ऊं' नाद समाहित हो जाता है और इसी पर ध्यान में बैठकर तपस्वी देवत्व को प्राप्त करते हैं। गायत्री परिवार के संस्थापक पंडित श्री राम आचार्य शर्मा की यादें आज भी यहां ताजा हैं। यहां की मुक्ति व तप शिला पर पंडित श्री राम आचार्य शर्मा कई घंटे तक ध्यान में खोए रहते थे। इसके बाद वह लोगों को धर्म के मार्ग पर चलने का भी उपदेश दिया करते थे। बाद में उन्होंने शांतिकुंज हरिद्वार की स्थापना कर देश ही नहीं, बल्कि विश्व में भारत के अध्यात्म का परचम लहराया।
भावातीत ध्यान के जनक महर्षि महेश योगी ने ज्ञानसू कुटिया में पचास के दशक में तप और ध्यान से ईश्वर की साधना की। महर्षि ने ज्ञानसू को ज्ञान का सूर्य की संज्ञा दी। उनके अनुयायी आज भी नित्य कुटिया में पूजा-अर्चना कर जलाभिषेक करते हैं। उन्होंने यहां से ज्ञान प्राप्ति के बाद विश्व के 150 सौ स्थानों पर चेतना व वेद विज्ञान संस्थानों की स्थापना की। भारत में अनगिनत ऐसे स्थान हैं, जहां महर्षि के भावातीत ध्यान की दीक्षा के लिए लाखों लोग प्रति दिन पहुंचते हैं। हिमालयन इंस्टीट्यूट जौलीग्रांट के संस्थापक स्वामीराम ने कडोला ज्ञानसू स्थित कुटिया में साठ के दशक में साधना की। दीन और दुखियों की सेवा का संकल्प के साथ शुरू हुई स्वामीराम की तपस्या से आज कई दुखियों को सहारा मिल रहा है।
योगगुरुबाबा रामदेव ने उत्तरकाशी दंडी आश्रम व गंगोत्री में साधना के साथ ही हिमालय की दुर्लभ जड़ी-बूटियों पर शोध किया। नब्बे के दशक में बाबा रामदेव ने दंडी आश्रम में तपस्या की थी। योगगुरु बाबा रामदेव अब पतंजलि योगपीठ के माध्यम से विश्व के लोगों को योग शिक्षा दे रहे हैं। पतंजलि योग पीठ के सचिव बालकृष्ण ने उत्तरकाशी स्थित दंडी आश्रम में जड़ी-बूटी और योग पर शोध किया। डुंडा के रनाड़ी में दीन बंधु महाराज ने 1970 से 94 तक कुटिया में योग-ध्यान के साथ प्रवचन से लोगों को धर्म की ओर मोड़ा। गंगोत्री की बर्फीली हवाओं में कृष्णा आश्रम महाराज हमेशा नग्न होकर तपस्या में रत रहे। दक्षिण काली की उपासक माता आनंदमयी ने भी उत्तरकाशी में ईश्वर का ध्यान किया। तपोवनी मां संत सुभद्रा ने 23 साल तपोवन के निर्जन वन में बर्फ के बीच तपस्या की।
कब होगी गायत्री शक्ति पीठ की स्थापना
उत्तरकाशी: शिवनगरी में तपस्या के बाद संतों ने देश और विदेशों में संस्थान स्थापित किए, लेकिन उत्तरकाशी में महर्षि विद्यापीठ के अलावा अन्य संतों ने उत्तरकाशी में अपने संस्थानों की स्थापना नहीं की। गायत्री परिवार के सदस्य चाहते हैं कि शांतिकुंज हरिद्वार गुरु की तपस्थली पर भी गायत्री शक्ति पीठ की स्थापना करें।
रेणु बनी यूएनओ की बाल पत्रकार
-अक्टूबर माह में विशेष सम्मेलन में भाग लेने जाएगी जेनेवा
-रुद्रप्रयाग जिले के राइंका रामाश्रम में बारहवीं की छात्रा है रेणु सकलानी
-प्राथमिक शिक्षा और जन्म पंजीकरण पर पेश की थी रिपोर्ट
रुद्रप्रयाग: बारहवीं कक्षा में अध्ययनरत 15 वर्षीय रेणु सकलानी ने छोटी सी उम्र में ऐसा मुकाम हासिल कर लिया है, जो उत्तराखंड के सुदूरवर्ती अंचलों में कम संसाधनों में भी शिक्षा की मशाल थामे प्रतिभावान छात्रों के लिए मिसाल बन गया है।
रुद्रप्रयाग जिले के जखोली की इस छात्रा का संयुक्त राष्ट्र संघ ने बाल पत्रकार के रूप में चयन किया है और अब वह अगले माह जेनेवा में आयोजित एक सम्मेलन में भाग लेने जाने वाली है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकार समिति के निर्देशानुरूप टिहरी स्थित भुवनेश्वरी महिला आश्रम की ओर से कुछ दिन पूर्व उत्तराखंड के 142 स्कूलों में छात्रों के बीच विशेष सर्वेक्षण कराया गया था। इसका उद्देश्य छात्रों में पुस्तकीय अध्ययन के अलावा विभिन्न ज्वलंत विषयों पर व्यापक दृष्टिकोण की योग्यता पैदा करना था। इसके तहत छात्रों से बाल विवाह, प्राथमिक शिक्षा, बाल अधिकार, बाल श्रम, कन्या भ्रूण हत्या, लिंग भेदभाव जैसे विषयों पर विस्तृत रिपोर्ट बनाने का प्रोजेक्ट दिया गया था।
इसके तहत रुद्रप्रयाग जिले के सकलाना गांव की रहने वाली व राइंका रामाश्रम में बारहवीं की छात्रा रेणु सकलानी ने प्राथमिक शिक्षा और जन्म पंजीकरण पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। अगले चरण में आश्रम की ओर से इस रिपोर्ट को संयुक्त राष्ट्र संघ की बाल अधिकार समिति के पास निरीक्षण के लिए भेजा। यहां यह भी बताना जरूरी है कि यूएनओ की बाल अधिकार समिति ने विभिन्न देशों से इसी तरह छात्रों से प्रोजेक्ट बनवाए थे।
समिति ने रेणु की रिपोर्ट को स्वीकृत कर उसे अपना 'बाल पत्रकार' चुन लिया है और उसे जेनेवा में आयोजित होने वाले विशेष सम्मेलन में भाग लेने के लिए बुलाया गया है। इस सम्मेलन में कई देशों के बाल पत्रकार भाग लेने वाले हैं।
रेणु ने बताया कि उक्त सम्मेलन 15 अक्टूबर को आयोजित होगा। उसने बताया कि अभी उसका पासपोर्ट व वीजा आदि बनवाया जा रहा है और अक्टूबर प्रथम सप्ताह में वह जेनेवा के लिए रवाना हो जाएगी।
Friday, 11 September 2009
स्काटलैंड के टापू पर बनेगा पतंजलि योगपीठ
हरिद्वार: विदेशी धरती पर पहली बार योग ऋषि स्वामी रामदेव पतंजलि योगपीठ स्थापित करने जा रहे हैं।
यूं तो विदेश में कई जगहों पर योगपीठ का रचनात्मक कार्य चल रहा है, लेकिन पतंजलि योगपीठ के नाम से स्थापना पहली बार हो रही है। स्काटलैंड के टापू लिटिल कैंब्री को इसके लिए चुना गया है। अनुकूल जलवायु और वातावरण को देखते हुए इस जगह को पसंद किया गया है। करीब 3000 एकड़ में फैले इस टापू की 700 एकड़ भूमि पर पतंजलि योगपीठ की स्थापना हो रही है। स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण दोनों 27 सितंबर को लिटिल कैंब्री से अनूठे अभियान का श्रीगणेश करेंगे। पतंजलि योगपीठ देश में अपनी साख बनाने के बाद विदेशी धरती पर भी पांव जमाने जा रही है। स्वामी रामदेव का योग से विश्र्व को निरोग करने का सपना साकार होता नजर आ रहा है। योग से कई गंभीर रोगों को दूर किया जा चुका है। विदेश में कई जगहों पर स्वामी रामदेव का योग से संबंधित कार्यक्रम चल रहा है, लेकिन योग ऋषि और आचार्य बालकृष्ण ने पहली बार विदेशी धरती पर पतंजलि योगपीठ की स्थापना का मन बनाया। खाका तैयार करने के बाद वहां की सरकार से इसके लिए मंजूरी ली गई। जिस जगह पर पतंजलि योगपीठ की स्थापना होने जा रही है, वह बेहद खूबसूरत है। स्काटलैंड के खूबसूरत टापू को इसके लिए चुना गया है। वैसे यह टापू तो 2500 से 3000 एकड़ में फैला हुआ है, लेकिन पतंजलि योगपीठ करीब 700 एकड़ पर होगी। आचार्य बालकृष्ण ने विदेश में पतंजलि योगपीठ खोलने की मंशा को लेकर जागरण को बताया कि योग ऋषि स्वामी रामदेव महाराज यहां से विश्र्व शांति के रूप में योग का संदेश देना चाहते हैं। यहां के पतंजलि योगपीठ में योग के माध्यम से रोगों को दूर करने की सतत कोशिश होगी। अनुसंधान कई विषयों पर होगा। लोगों को योग की शिक्षा दी जाएगी। उन्होंने बताया कि टापू पर बसने वाले पतंजलि योगपीठ की खासियत यह होगी कि यहां पर मिलने वाले औषधीय गुण वाले पौधों की खोज कर उस पर अनुसंधान किया जाएगा।
संपत्ति की घोषणा करेंगे उत्तराखंड हाईकोर्ट के जज
नैनीताल: देशभर में न्यायाधीशों के अपनी संपत्ति घोषित करने के मुद्दे पर भले ही आमराय न बन पा रही हो, लेकिन
उत्तराखंड हाईकोर्ट के न्यायाधीशों ने अपनी चल-अचल संपत्ति घोषित करने का महत्वपूर्ण फैसला किया है। हाईकोर्ट के सभी जज 31 अक्टूबर तक अपनी चल-अचल संपत्ति का ब्यौरा मुख्य न्यायाधीश को सौंप देंगे। उत्तराखंड हाईकोर्ट के न्यायाधीशों ने अपनी संपत्ति घोषित करने का ऐतिहासिक फैसला सर्वसम्मति से ले लिया है। हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल रवींद्र मैठाणी के अनुसार सभी न्यायाधीशों ने इस संबंध में सर्वसम्मति से 31 अक्टूबर तक अपनी चल-अचल संपत्ति की घोषणा करने का फैसला लिया है। उन्होंने बताया कि संपत्ति की घोषणा करने के लिए एक प्रारूप भी अनुमोदित किया गया है। इस प्रारूप में सभी न्यायाधीश अपनी चल-अचल संपत्ति का विवरण मुख्य न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत करेंगे। उल्लेखनीय है न्यायाधीशों को अपनी संपत्ति घोषित करने के मुद्दे पर देशभर में लंबे समय से बहस चल रही है। केंद्र सरकार ने पिछले सत्र में इस संबंध में एक विधेयक संसद में पेश करने की कोशिश की थी, पर आमराय न बन पाने के कारण सरकार को कदम पीछे खींचने पड़े। वहीं कर्नाटक हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश द्वारा अपनी संपत्ति का ब्यौरा वेबसाइट पर सार्वजनिक करने के बाद इस बहस को और धार मिली। इसके बाद देशभर की अदालतों के न्यायाधीशों द्वारा अपनी संपत्ति की घोषणा करने का सिलसिला चल पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जेएस वर्मा भी न्यायाधीशों द्वारा अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक किये जाने का समर्थन कर चुके हैं।
Thursday, 10 September 2009
कभी एशिया में था चीड़ महावृक्ष का जलवा
विकासनगर/त्यूणी- कभी उत्तराखंड का गौरव समझा जाने वाला एशिया का सबसे ऊंचा चीड़ महावृक्ष अब सिर्फ इतिहास का हिस्सा मात्र रह गया है। 220 वर्षो तक हर तरह के मौसमी झंझावत झेले, लेकिन 8 मई 2007 को आए तेज आंधी-तूफान में अपने ऊंचे अस्तित्व को बचाए रखने में नाकाम चीड़ महावृक्ष अब सिर्फ डाटों के रूप में हमेशा के लिए अपनी याद छोड़ गया
है। टौंस वन प्रभाग पुरोला के देवता रेंज के भासला कंपार्टमेंट खूनीगाड़ में स्थित चीड़ महावृक्ष की लंबाई पर उत्तराखंड के लोगों को नाज था। बेहतर पालन पोषण में पल-बढ़ रहे चीड़ महावृक्ष को पूरे एशिया महाद्वीप में सबसे ऊंचे पेड़ का गौरव हासिल था। हनोल से पांच किमी. दूर स्थित देवता रेंज में चीड़ महावृक्ष की लंबाई 60.65 मीटर और गोलाई 2.70 मीटर थी। इस महावृक्ष की विशेषता यह थी कि इसमें मुख्य तने से लेकर ऊपर तक कोई शाखाएं नहीं थीं, सिर्फ शीर्ष में कुछ शाखाओं का झुरमुट था, जिसके कारण इसकी सुंदरता देखते ही बनती थी। चीड़ महावृक्ष की लंबाई के चर्चे दूर-दूर तक पहुंचे तो वर्ष 1997 में भारत सरकार के वन व पर्यावरण मंत्रालय ने इस चीड़ वृक्ष को एशिया महाद्वीप का सबसे लंबा महावृक्ष घोषित कर दिया। जब इस वृक्ष ने यह गौरव हासिल किया, तब इसकी आयु करीब 220 वर्ष हो चुकी थी। गैनोडर्मा एप्लेनेटस नामक रोग ने अपना प्रकोप इस कदर फैलाया कि महावृक्ष को अंदर ही अंदर खोखला कर दिया। गिरने से कुछ समय पहले आईएफआरआई के वैज्ञानिकों ने महावृक्ष के रोग मुक्त होने की पुष्टि की थी। एक तरफ अच्छी खासी आयु और उसमें महावृक्ष की ताकत कम होने लगी और आठ मई 2007 में आए आंधी-तूफान का सामना करने की इसमें शक्ति नहीं बची, लिहाजा तीन टुकड़ों में टूटकर चीड़ महावृक्ष इतिहास का हिस्सा बन गया। इसकी यादें बरकरार रखने के लिए विभाग ने महावृक्ष के तने को काटकर उसकी 22 डाटें बनाईं, जिन्हें आज भी संग्रहालय के रूप में उसी स्थान पर संरक्षित रखा गया है, जहां कभी महावृक्ष अपनी लंबाई और सुंदरता के साथ तन कर खड़ा था। वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर इन डाटों को मोनो क्रोटाफास नामक औषधि से उपचारित किया जाता है, ताकि डाटें सुरक्षित और संरक्षित रह सकें।
उभरने से पहले ही हांफने लगा फिल्म उद्योग
छब्बीस साल कम नहीं होते किसी उद्योग को गति पाने के लिए। फिर चाहे वह आंचलिक फिल्म उद्योग ही क्यों न हो, लेकिन यहां तो गंगा ही उल्टी बह रही है। अब तो निर्माता-निर्देशक में वह हिम्मत भी नहीं दिखती, जिसने एक दौर में आंचलिक फिल्मों के सुखद भविष्य की उम्मीदें जगाई थीं। इन छब्बीस सालों में सिर्फ पचीस फिल्में ही सिनेमा हालों के चौखट तक पहुंचीं, जिनमें दो-तीन नाम ही लोगों को याद हैं। अफसोसजनक यह कि राज्य गठन के नौ साल बाद भी न तो उत्तराखंड में कोई फिल्म नीति बनी और न फिल्म परिषद ही। ऐसे में फिल्म निर्माण करना बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है। उत्तराखंडी सिनेमा के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो वर्ष, 1983 में पाराशर गौड़ ने पहली गढ़वाली फिल्म जग्वाल का निर्माण किया।
शुरुआत में यह फिल्म चली, लेकिन कमजोर तकनीकी पक्ष और प्रिंट की कमी के कारण औसत बिजनेस ही कर पाई। फिर भी इस फिल्म ने गढ़वाली फिल्मों के लिए रास्ता जरूर खोल दिया। 1984 में गढ़वाल फिल्म्स के बैनर पर कभी दु:ख-कभी सुख बनी। यह फिल्म औसत भी नहीं निकाल पाई। रुपहले पर्दे के मद्देनजर वर्ष 1986 को विशेष रूप से याद किया जाता है। इस वर्ष की सबसे यादगार गढ़वाली फिल्म घरजवैं बड़े पर्दे पर आई। निर्माता विश्वेश्वर दत्त नौटियाल ने तरण तारण धस्माना के निर्देशन में ऐसी फूलप्रुफ योजना बनाई कि इस फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। दिल्ली में सिल्वर जुबली मनाने के साथ ही मंुबई, मेरठ, कानपुर, लखनऊ जैसे शहरों में भी इसने खूब सफलता हासिल की। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के कालजयी गीतों ने इस फिल्म को नई ऊंचाइयां दीं। इस फिल्म की सफलता ने गढ़वाली फिल्मों के लिए द्वार खोल दिए और फिर वर्ष 1987 में नेपाली से डब प्यारू रुमाल, कौथिग व उदंकार जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई। इनमें कौथिग ही कुछ चल पाई। 1990 में गुजराती फिल्म निर्माता किशन पटेल ने रैबार का निर्माण किया, जो जबर्दस्त प्रचार के बावजूद औंधे मुंह गिर गई। 1992 में राजू भट्ट व संतोष खंतवाल ने नरेश खन्ना के निर्देशन में बंटवारू बनाई, जिसने कई जगह अच्छा प्रदर्शन किया। 1993 में मंुबई से गढ़वाल लौटी अभिनेत्री उर्मि नेगी ने फ्ंयूली बनाई, लेकिन इसका हश्र भी बुरा हुआ। वर्ष, 1996 में ग्वाल दंपती दीपक भट्ट व गीता भट्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित बेटी-ब्वारी लेकर आए, लेकिन यह औसत ही रही। 1997 में आई चक्रचाल को कई स्थानों पर दर्शकों ने पसंद किया। इसी वर्ष विश्वेश्वर दत्त नौटियाल ने हिंदी फिल्म हिमालय के आंचल को छ्वटि ब्वारि नाम से गढ़वाली में डब किया। यह भी फ्लाप शो साबित हुई। 1998 में महावीर नेगी ने सतमंगल्या बनाई, जो कुछ ठीकठाक चली। वर्ष 2001 में सरोज रावत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित गढ़रामी-बौराणी भी हिट न हो सकी। 2002 में अविनाश पोखरियाल ने महंगे बजट की किस्मत बनाई, जो सुपर फ्लाप रही। 2003 में रामपुर तिराहा कांड पर अनिल जोशी व भूपेंद्र चौहान ने अनुज जोशी के निर्देशन में बड़े बजट की तेरी सौं बनाई। इसे अच्छी सफलता मिली। 2004 में गजेंद्र मलिक चल कखी दूर चलि जौंला और सोहनलाल काला औंसी की रात लेकर आए। फिल्में फ्लाप रहीं, लेकिन तकनीकी पक्ष सराहा गया। वर्ष 2006 में शंकर कुंवर ने मेरी गंगा होली त मैमु आली व कैलाश चंद्र द्विवेदी ने किस्मत अपणी-अपणी का निर्माण किया। दोनों ही फिल्में असफल रहीं। इसके बाद कोई निर्माता साहस नहीं जुटा सका है।
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