Tuesday, 22 December 2009

साक्षात्कार-उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डा. 'निशंक

मुझसे ज्यादा गरीबी शायद ही किसी ने देखी हो: निशंक - बचपन पहाड़ की पथरीली राहों पर बीता, मां को अभावों से लोहा लेते देखा, असुविधाओं से साथ-साथ किताबें भी पढ़ीं, शायद यही था अनुकूल तापमान, जिसमें डा. रमेश पोखरियाल 'निशंक में रचनाशीलता पैदा हुई। राजनीति की ऊसर और पथरीली भूमि और साहित्य के सौम्य सागर में एक साथ विचरण करना समुद्र से गंगा-यमुना के पानी को अलग-अलग करना असंभव कार्य है, लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डा. 'निशंक इस भूमि को भी उर्वरा बना रहे हैं और सागर से मोती भी चुन रहे हैं। उनकी कृतियां स्त्री के पुरुषार्थ की हिमायती हैं। राजनीति में रहकर भी सतत् साहित्य साधनारत डा. 'निशंक से डा. वीरेंद्र बत्र्वाल की बातचीत के अंश-पहला स्वाभाविक प्रश्न, राजनीति व साहित्य दोनों में संतुलन कैसे बना लेते है आप?--दरअसल मेरे लिए दोनों का उद्देश्य एक ही है। दोनों के माध्यम से समाज को जगाना चाहता हूं, आम आदमी को आगे बढ़ते देखना चाहता हूं, नारी में पुरुषार्थ जगाना चाहता हूं, राष्ट्र के लिए समर्पण भाव चाहता हूं। इसीलिए दोनों विधाओं में संतुलन बना रहता है। लिखने की प्रेरणा कहां से मिली? देखिए, किसी कलाकार-रचनाकार में बाहर से हुनर स्थापित नहीं किया जा सकता। जब भावनाएं शब्दों का रूप लेती हैं तो कविता-कहानी तो खुद ही बन जाती हैं। आपने कठिनाइयों देखी हैं, शिक्षा व साहित्य रचना में बाधाएं आई होंगी? यह सवाल अतीत में ले गया मुझे। दसवीं तक किसी तरह गांव में पढ़ाई, इसके बाद बाहर निकला। खुद परिश्रम कर और व्यवस्थाएं जुटाकर बारहवीं, बीए, एमए और पीएचडी तक की पढ़ाई की। शिक्षा हो या साहित्य मैंने कठिनाइयों को अपनी ताकत बनाया कमजोरी नहीं। मेरे लिए साहित्य समर्पण नहीं संघर्ष की प्रेरणा है। आप सक्रिय राजनीति में हैं और सक्रिय साहित्य में भी, कैसे?मैं तो राजनीति को साहित्य का पूरक मानता हूं। मैंने अनेक गंभीर सवाल जो अपनी रचनाओं में उठाएं हैं, उनका समाधान राजनीति में रहते हुए खुद कर रहा हूं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी ने भी मेरी रचनाओं पर कहा था कि 'निशंक एक दिन तुम अपने साहित्य में उठाए गई समस्याओं का समाधान खुद करोगे। आपकी कुछ रचनाएं अधूरी हैं, मुख्यमंत्री बनने के बाद आपकी व्यस्तता और बढ़ी है, इन रचनाओं को पूरा करने को समय कैसे निकाल पाते हैं?इतनी व्यस्तता के बाद भी मेरा लेखन नहीं छूटा है। मेरा साहित्य सृजन अनवरत जारी है। रात को करीब एक घंटे जब तक कुछ लिख-पढ़ न लूं, तब तक नींद ही नहीं आती। सोने से पहले मैं कुछ न कुछ लिखता जरूर हूं। आपकी रचनाओं के नायक विवश, हालात के मारे हैं। विकट परिस्थितियों में अचानक कोई मसीहा बनकर प्रकट होता है और उन्हें लक्ष्य तक पहुंचाता है। 'एन ओरडियलÓ के प्रदीप के लिए भुवन लाला और 'एक और कहानी में प्रकाश के लिए रामप्रसाद ऐसे ही फरिश्ते दिखाई दिए हैं। इससे क्या संदेश देने का प्रयास किया आपने? इसका संबंध अप्रत्यक्ष तौर पर मेरे जीवन से जुड़ा है। मैं सोचता हूं कि ऐसे फरिश्ते मुझे जिंदगी की राह में मिलते तो कई बार उन निराशाओं का सामना नहीं करना पड़ता, जो मेरे मार्ग में आईं। मैंने इससे संदेश देने का प्रयास किया कि समाज के समृद्ध वर्ग के लोगों को जरूरतमंदों और मजबूर लोगों की सहायता के लिए आगे आना चाहिए। निर्धनता के मामले में आपके पात्र प्रेमचंद की 'रंगभूमि के सूरदास, 'पूस की रात के हल्कू जैसे हैं। किन परिस्थितियों ने आपसे इन पात्रों की सृष्टि करवाई?झकझोरने वाला प्रश्न है। आपको बताऊं, मुझसे ज्यादा गरीबी शायद ही किसी ने देखी हो। जब पांचवीं में पढ़ता था तो पैरों में जूते नहीं होते थे, तन पर पूरे कपड़े नहीं होते थे। इसके बाद की पढ़ाई के दौरान भी स्थिति अच्छी नहीं रही। मैंने खेतों में हल चलाया, गोबर डाला, जंगल से लकडिय़ां लाया। जिसने इस घोर गरीबी और अभाव का जीवनयापन किया हो, उस कवि-लेखक के पात्रों में तो गरीबी झलकेगी ही न? आपका 'प्रतीक्षा खंडकाव्य देशभक्ति, एक मां की आशा-निराशा और विछोह की पीड़ा पर केंद्रित है। इसकी जमीन कहां से तैयार की?कारगिल की लड़ाई से। उत्तराखंड में अनेक फौजियों की माताओं का अहसास ही इसकी जमीन है। पहाड़ी समाज में महिला का हल चलाने और चिता को मुखाग्नि देने पर कठोर वर्जना है, फिर भी 'प्रतीक्षा में दीपू की मां को हल चलाते हुए दिखाकर आप लिखते हैं-'तब कंधे पर हल को रखकर बैलों के संग खेत गई, खेत जोतकर सीर चलाना जीवन की दशा नई? मैंने इसमें महिला के पुरुषार्थ को दिखलाया है। पहाड़ की नारी में इतनी हिम्मत-हौसला है कि वह कठिन सा कठिन कार्य कर सकती है। वह परिस्थितियों के अनुसार थोथी वर्जनाओं को तोड़ सकती है। मेरी मां ने भी हल चलाया है। 'हिंदी देश की शानमें आपने हिंदी का यशोगान किया है। अब हिंदी के लिए कोई खास पहल? की है, कर रहा हूं। महत्वपूर्ण यह है कि मैं प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों को हिंदी में ही पत्र भेजता हूं और वहां से अब उत्तर हिंदी में ही आते हैं। मां-भाई को एकाकी परिवार में रखने पर पति-पत्नी के बीच खटपट को आपने खासा उकेरा है? संयुक्त परिवार के महत्व को देखते हुए उस प्रथा को अपनाने की प्रेरणा दी मैंने। 'अनुभव शेष रहे में आप लिखते हैं- ' कौन कष्ट है शेष जगत में जो नित मैंने नही सहा आपने ऐसे कौन से भीषणतम कष्ट झेले, जो कविता के आखर बन गए? गिनती नहीं है। मौत तक के संघर्ष झेले हैं मैंने। मौत कई तरह की होती है, भावनाओं की भी तो मौत होती है। ऐसी ही परिस्थितियों से ये कविताएं फूटी हैं। शहरी जीवन को आडंबर युक्त बताते हुए आप गांव जाने की प्रेरणा देते हैं। क्या इसके लिए खुद समय निकाल पाते हैं? इस व्यस्तता में भी समय निकालकर जरूर गांव जाता हूं। कुछ ही दिन पहले मैं गांव गया था। आज के युवा पैसे और सुख-सुविधा की होड़ में अपने परिवार से दूर होते जा रहे हंै और पत्नी बच्चों को समय नहीं दे पा रहे हैं। 'चक्रव्यूह में इसका आपने एक प्रकार से विरोध किया है, क्यों?पैसा अपनी जगह है, परिवार अपनी जगह। विशेषकर संयुक्त परिवार, जिनसे हमें संस्कार मिलते हैं। और पत्नी-बच्चों को भी तो उनका वांछित प्यार मिलना चाहिए। (साभार दैनिक जागरण )

Sunday, 20 December 2009

-पुरानी टिहरी डूबने के साथ ही डूब गई सांस्कृतिक गतिविधियां भी

-मास्टर प्लान शहर में न वह रौनक न पहले जैसा मेलजोल नई टिहरी,---- ऐतिहासिक पुरानी टिहरी शहर डूबने के साथ ही कभी राष्ट्रीय स्तर तक इसकी पहचान के रूप में जानी जाने वाली सांस्कृतिक गतिविधियां भी खत्म हो गईं। इसके एवज में मास्टर प्लान के तहत बसाए गए नई टिहरी शहर में न तो पुरानी टिहरी जैसी रौनक है, न ही सांस्कृतिक और खेल गतिविधियां। कंक्रीट के इस नीरस शहर में मनोरंजन के लिए लोग तरस जाते हैं। पुरानी टिहरी, जिसे गांव का शहर भी कहा जाता था, में हर तरफ चहल-पहल रहती थी। सांस्कृतिक, खेल व अन्य सामाजिक गतिविधियों से गुलजार इस शहर में वक्त कब गुजर गया, पता ही नहीं चलता था। सांस्कृतिक कार्यक्रम, विभिन्न खेल प्रतियोगिताएं या मेले शहर में समय-समय पर कोई न कोई आयोजन होता रहता था। रामलीला, बसंतोत्सव, मकर संक्रांति पर लगने वाला मेला शहर की रौनक में चार चांद लगा देते थे। दीपावली या अन्य पर्वों पर सामूहिक कार्यक्रम शहर में होते थे, लेकिन बांध की झाील में पुरानी टिहरी के डूबने के साथ ही शहर की यह पहचान भी खत्म हो गई। पुरानी टिहरी के बाशिंदों को मास्टर प्लान के तहत बने नई टिहरी शहर में बसाया गया, लेकिन इसमें वह बात कहां, जो उस शहर में थी। न रौनक, न वह मेल- जोल और न ही वे सांस्कृतिक गतिविधियां, जब भी याद आती है, नई टिहरी में बस गए बुजुर्गों की आंखें नम हो जाती हैं। हों भी क्यों नहीं, आखिर नई टिहरी में पनप रही बंद दरवाजे की संस्कृति और आधुनिक रहन-सहन का बढ़ता चलन लोगों के दिलों की दूरियां बढ़ा रहा है। सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य इस शहर में वर्ष 2001 में उत्तरांचल शरदोत्सव हुआ। उसके बाद एकाध बार नगरपालिका द्वारा शरदोत्सव का आयोजन तो किया गया, लेकिन इसके बाद यहां न कोई सांस्कृतिक और न ही कोई सामूहिक कार्यक्रम आयोजित हुए हैं। मास्टर प्लान में कल्चर सेंटर का प्राविधान था, लेकिन इसके लिए भी कोई पहल अब तक नहीं हुई है। पुरानी टिहरी जैसा मेल-जोल भी यहां नहीं। वहां लोग पैदल घूमने निकलते, तो परिचितों से मुलाकात होती और फिर परिवार, समाज, राजनीति जैसे मसलों पर रायशुमारी भी होती, लेकिन नई टिहरी की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि यहां पैदल चलना भी आसान नहीं है, सीढिय़ों के इस शहर में चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते लोग हांफ जाते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक संस्था त्रिहरी से जुड़े महिपाल नेगी कहते हैं कि नई टिहरी में सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना होनी चाहिए। सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए समाज को आगे आना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी निराशा जताई कि अब लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत की जड़ों को भूलने लगे हैं।

-उत्तराखंड के इंटर व डिग्र्री कालेजों में दिया जायेगा अब पायलट प्रशिक्षण

-उत्तराखंड के इंटर व डिग्र्री कालेजों में दिया जायेगा अब पायलट प्रशिक्षण -पंतनगर विवि, एमबी डिग्र्री कालेज हल्द्वानी के अलावा कुमाऊं के नौ इंटर कालेजों का चयन -प्रशिक्षण के लिए पंतनगर यूनिट को दो हवाई जहाज भी मिले हल्द्वानी: अभी तक सैनिक बनने की ट्रेनिंग ले रहे स्कूल-कालेज के विद्यार्थी अब उड़ान भी भरेंगे। यानि उनको पायलट की ट्रेनिंग भी दी जायेगी। इसके लिए गृहमंत्रालय और रक्षा मंत्रालय ने संयुक्त रूप से उत्तराखंड का चयन किया है। यह ट्रेनिंग सप्ताह में दो दिन पंतनगर हवाई अड्डे पर दी जाया करेगी, इसके लिए भारत सरकार ने दो हवाई जहाज भी राज्य को दे दिए हैैं। आसमान में उड़ते हवाई जहाज को देखकर हर बच्चे के मन में उसमें बैठने या चलाने की इच्छा जागती है। बचपन में आपके भी जागी होगी। मगर हवाई जहाज में बैठने या उसको चलाने की तमन्ना अधिकांश के मन में अक्सर घुटकर ही रह जाती है। मगर अब ऐसा नहीं होगा। सैनिक बनने की इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे जिस तरह स्कूल-कालेजों में नेशनल कैडिट कोर (एनसीसी) का प्रशिक्षण लेते है उसी तरह अब हवाई जहाज का पायलट बनने के लिए भी स्कूल-कालेजों में उनको प्रशिक्षण दिया जायेगा। यह नई व्यवस्था फिलहाल उत्तराखंड के कुछ इंटर व डिग्र्री कालेजों में की गई है। वायुसेना की इस पहल को गृहमंत्रालय और रक्षामंत्रालय ने हरीझांडी दे दी है। वायुसेना पंतनगर के कमांडिंग अफसर विंग कमांडर नीरज सांगुड़ी ने बताया कि वायुसेना का यह नया प्रयास है। इसके लिए फिलहाल प्रशिक्षण की यूनिट पंतनगर यूनीवर्सटी और हल्द्वानी के एमबी डिग्र्री कालेज में शुरू की जा रही हैं। इसके अलावा कुमाऊं के सात इंटर कालेजों का भी चयन किया गया है। जिसमें थारू इंटर कालेज खटीमा जेडी, पंतनगर का कैंपस इंटर कालेज, एएन झाा इंटर कालेज रुद्रपुर, राजकीय कन्या इंटर कालेज बाजपुर, जसपुर और काशीपुर, एलपी इंटर कालेज भीमताल (नैनीताल), मेजर अधिकारी राजकीय इंटर कालेज नैनीताल और बिड़ला विद्या मंदिर नैनीताल शामिल हैं। इसके प्रशिक्षण के लिए एमबी डिग्र्री कालेज हल्द्वानी और पंतनगर यूनीवर्सिटी को 50-50 सीटें दी गई हैं। मेजर अधिकारी राजकीय इंटर कालेज और बिड़ला विद्या मंदिर नैनीताल में प्रवेश की 40-40 सीटें रहेंगी। बाकी इंटर कालेजों में प्रवेश की 30-30 सीटें रहेंगी। यह पायलट प्रशिक्षण होगा। इसमें सीनियर और जूनियर की दो श्रेणी होंगी। सीनियर कैडेट्स में प्रवेश के लिए विद्यार्थी का भौतिक विज्ञान और गणित से इंटर पास होना जरूरी है, जबकि जूनियर कैडेट्स के लिए फिलहाल शैक्षिक योग्यता हाईस्कूल तय की गई है। प्रशिक्षण दो वर्षीय होगा। सप्ताह में शनिवार और रविवार को पंतनगर हवाई पट्टी पर विद्यार्थियों को प्रशिक्षण दिया जाये करेगा। प्रशिक्षण के लिऐ उत्तराखंड को दो हवाई जहाज मिल चुके हैैं। प्रशिक्षण के लिए कालेजों से बच्चों को पंतनगर हवाई पट्टी लाने और वापस ले जाने का जिम्मा वायुसेना ही उठाएगी। इसके लिए भी वायुसेना यूनिट पंतनगर को चार वाहन मिल चुके हैैं। प्रशिक्षण फीस समेत कई अन्य जानकारियों के बारे में एमबी डिग्र्री कालेज में एनसीसी के साथ अब वायुसेना प्रशिक्षण के प्रभारी डा.एसके गुरुरानी ने बताया कि प्रशिक्षण संबंधी कई चीजों की गाइड लाइन मिलना अभी बाकी है। राज्य में बाकी कालेजों का जैसे-जैसे चयन होता जायेगा, उनके प्रशिक्षण स्पॉट भी साथ में ही तय होंगे।

सेना की भर्ती

-18 से 42 वर्ष तक के अभ्यर्थी करेंगे भागीदारी -सात राज्यों से केआरसी में तीन जनवरी को शुरू होगी भर्ती रानीखेत(अल्मोड़ा): कुमाऊं रेजीमेंट रानीखेत में उत्तराखंड समेत सात राज्यों के अभ्यर्थियों के लिए आगामी 3 जनवरी से 111 पैदल वाहिनी (प्रादेशिक सेना) के विभिन्न पदों की भर्ती शुरू होगी। इस भर्ती में 42 वर्ष की उम्र तक के अभ्यर्थी हिस्सा ले सकेंगे। रानीखेत में होने वाली 111 पैदल वाहिनी (प्रादेशिक सेना) कुमाऊं की भर्ती के लिए शारीरिक परीक्षा की तिथि 3 जनवरी, 2010 निर्धारित की गई है। यह शारीरिक परीक्षा इस तिथि को कुमाऊं रेजीमेंट सेंटर रानीखेत में प्रात: 6:30 बजे से होगी। जीएसओ-1 (ट्रेनिंग) कैप्टन अनंत थापन ने बताया है कि शारीरिक दक्षता परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यर्थियों की डाक्टरी व कागजातों की जांच 4 से 6 जनवरी तक होगी। इस भर्ती में उत्तराखंड समेत उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, झाारखंड, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश के अभ्यर्थी हिस्सा लेंगे। इसके लिए आयु सीमा 18 से 42 वर्ष निर्धारित की गई है। यह भर्ती सिपाही (सामान्य), क्लर्क, हाउस कीपर (सफाई वाला) व स्टीवर्ड (मेस वेटर) के पदों के लिए होगी। सिपाही के लिए शैक्षिक योग्यता 45 प्रतिशत अंकों के साथ मैट्रिक पास, क्लर्क के लिए 50 प्रतिशत अंकों के साथ इंटर पास, मेस वेटर के लिए दसवीं पास व हाउस कीपर के लिए आठवीं पास रखी गई है। अभ्यर्थियों से अपने साथ शैक्षिक प्रमाण पत्रों समेत निवास, चरित्र प्रमाण पत्र, 12 पासपोर्ट साइज फोटो, खेलकूद प्रमाण पत्र इत्यादि लाने को कहा गया है। -

Friday, 18 December 2009

-जिन्हें बिसराया, वे ही संवार सकते हैं रीढ़

- उत्तराखंड में महत्व न मिलने से हाशिये पर गए बेडु, मेलू, घिंघोरा जैसे जंगली फल - स्वादिष्ट होने के साथ ही पौष्टिकता से भी लबरेज - लोक संस्कृति में रचे-बसे ये फल बन सकते हैं आर्थिकी का जरिया , देहरादून उत्तराखंड में महत्व न मिलने से बेडू, तिमला, काफल, मेलू, घिंघोरा, अमेस, हिंसर, किनगोड़ जैसे जंगली फल हाशिये पर चले गए। स्वादिष्ट एवं सेहत की दृष्टि से महत्वपूर्ण इन फलों को बाजार से जोडऩे पर ये आर्थिकी संवारने का जरिया बन सकते हैं, मगर अभी तक इस दिशा में कोई पहल होती नहीं दीख रही। उत्तराखंड में पाए जाने वाले जंगली फल यहां की लोकसंस्कृति में गहरे तक तो रचे बसे हैं, मगर इन्हें वह महत्व आज तक नहीं मिल पाया, जिसकी दरकार है। अलग राज्य बनने के बाद जड़ीबूटी को लेकर तो खूब हल्ला मचा, मगर इन फलों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझाी गई। देखा जाए तो ये जंगली फल न सिर्फ स्वाद, बल्कि सेहत की दृष्टि से कम अहमियत नहीं रखते। बेडू, तिमला, मेलू, काफल, अमेस, दाडि़म, करौंदा, जंगली आंवला व खुबानी, हिसर, किनगोड़, तूंग समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जिनमें विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट की भरपूर मात्रा है। विशेषज्ञों के अनुसार इन फलों की इकोलॉजिकल और इकॉनामिकल वेल्यू है। इनके पेड़ स्थानीय पारिस्थितिकीय तंत्र को सुरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, जबकि फल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। बात सिर्फ इन जंगली फलों को महत्व देने की है। अमेस (सीबक थार्म) को ही लें तो चीन में इसके दो-चार नहीं पूरे 133 प्रोडक्ट तैयार किए गए हैं और वहां के फलोत्पादकों के लिए यह आय का महत्वपूर्ण स्र्रोत बन गया है। उत्तराखंड में यह फल काफी मिलता है, पर इस दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। काफल को छोड़ अन्य फलों का यही हाल है। काफल को भी जब लोग स्वयं तोड़कर बाहर लाए तो इसे थोड़ी बहुत पहचान मिली, लेकिन अन्य फल तो अभी भी हाशिये पर ही हैं। जबकि, इन फलों को बाजार से जोड़ा जाए तो ये सूबे की आथर््िाकी का महत्वपूर्ण जरिया बन सकते हैं। जंगली फलों में पोषक तत्व काफल अन्य फलों की अपेक्षा 10 गुना ज्यादा विटामिन सी अमेस विटामिन सी खुबानी विटामिन सी, एंटी ऑक्सीडेंट आंवला विटामिन सी, एंटी ऑक्सीडेंट सेब विटामिन ए, एंटी ऑक्सीडेंट तिमला, बेडू विटामिन्स से भरपूर ''उत्तराखंड में मिलने वाले जंगली फल पौष्टिकता की खान हैं, लेकिन इन्हें अब तक महत्व नहीं मिल पाया। प्रयास यह हो कि इन्हें आगे बढ़ाया जाए। जंगली फलों की क्वालिटी डेेवलप कर इनकी खेती की जाए। इसके लिए मिशन मोड में वृहद कार्ययोजना बनाकर कार्य करने की जरूरत है। इससे जहां पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत होगा, वहीं आर्थिकी भी संवरेगी'' - पद्मश्री डा.अनिल जोशी, संस्थापक शोध संस्था हेस्को। ''जंगली फल उपेक्षित जरूर रहे हैं, लेकिन अब इन्हें पर्याप्त महत्व दिया जाएगा। प्रथम चरण में मेलू (मेहल), तिमला, आंवला, जामुन, करौंदा, बेल समेत एक दर्जन जंगली फलों की पौध तैयार कराने का निर्णय लिया गया है। एनजीओ के जरिए यह नर्सरियों में तैयार होगी। आज नहीं तो कल इन फलों को क्रॉप का दर्जा मिलना है। फिर ये तो आर्थिकी के लिए अहम हैं।''- डा.बीपी नौटियाल, निदेशक, उद्यान विभाग उत्तराखंड।

स्व-राज्य तो मिल गया, लेकिन सु-राज का अभी इंतजार-

लंबे संघर्ष के बाद उत्तराखंड के लोगों को स्व-राज्य तो मिल गया, लेकिन सु-राज का अभी इंतजार है। कर्मचारी बेफिक्र हैं और अधिकारी मस्त। जनता बेचारी क्या करे, किससे गुहार लगाए। कुछ दिनों पहले राजधानी में ही एएनएम ने अस्पताल को किराए पर चढ़ा दिया, किसी को खबर नहीं लगी। कलेक्ट्रेट में मां की बजाए बेटा नौकरी करता रहा, यहां भी महकमे के जिम्मेदार लोगों ने साथी कर्मचारी के लिए 'सद्भावना' का परिचय दिया। वो तो डीएम के निरीक्षण के दौरान पोल खुल गई, वरना न जाने कब तक यह सब चलता रहता। ये तो राजधानी में सामने आए कुछ 'नमूने' हैं। ये हाल उस जगह का है, जहां स्वयं सरकार विराजमान है। अब दूर-दराज के इलाकों की बात करें। वहां तो स्थितियां पूरी तरह अनुकूल हैं, यही वजह है कि वहां 'अपनी मर्जी अपना राज' वाले अंदाज में काम चल रहा है। बिन बताए गैरहाजिर रहने का ट्रेंड तो अब पुराना पड़ चुका है। इससे भी आगे निकल मुलाजिमों ने नए तरीके ईजाद कर लिए हैं। नए तरीके ऐसे कि देखने वाले भी दंग रह जाएं। इसके लिए माह में एकाध बार से ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराने की जरूरत नहीं है। चकराता क्षेत्र में शिक्षा विभाग के निरीक्षण में इन तरीकों का खुलासा हुआ। शिक्षकों ने स्कूल में बाकायदा ठेके पर बेरोजगारों को नियुक्त किया हुआ है। ये बेरोजगार ही उनकी जगह पर स्कूल का संचालन कर रहे हैं। अलग राज्य बनने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि जो खामियां अविभाजित उत्तर प्रदेश में थीं, उनसे मुक्ति मिल जाएगी, वजह यह मानी जा रही थी छोटी प्रशासनिक इकाइयां ज्यादा सक्रियता से जनता तक पहुंचेगी, लेकिन यह मंशा अभी तक फलीभूत न हो सकी। आखिर यह सब कब तक चलेगा। यदि नौ साल बाद भी जनता को उन्हीं समस्याओं से जूझाना पड़ रहा है तो यह गंभीर मसला है। अब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह स्वस्थ माहौल बनाए और ऐसे कर्मचारियों के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्रवाई करे, जिससे दूसरे भी सबक ले सकें। तभी जाकर अवाम का विश्वास बहाल हो सकेगा।

(नई टिहरी) सपनों के शहर में अपनों की तलाश

-पुरानी टिहरी डूबने के साथ ही डूब गई सांस्कृतिक गतिविधियां भी -मास्टर प्लान शहर में न वह रौनक न पहले जैसा मेलजोल नई टिहरी,---- ऐतिहासिक पुरानी टिहरी शहर डूबने के साथ ही कभी राष्ट्रीय स्तर तक इसकी पहचान के रूप में जानी जाने वाली सांस्कृतिक गतिविधियां भी खत्म हो गईं। इसके एवज में मास्टर प्लान के तहत बसाए गए नई टिहरी शहर में न तो पुरानी टिहरी जैसी रौनक है, न ही सांस्कृतिक और खेल गतिविधियां। कंक्रीट के इस नीरस शहर में मनोरंजन के लिए लोग तरस जाते हैं। पुरानी टिहरी, जिसे गांव का शहर भी कहा जाता था, में हर तरफ चहल-पहल रहती थी। सांस्कृतिक, खेल व अन्य सामाजिक गतिविधियों से गुलजार इस शहर में वक्त कब गुजर गया, पता ही नहीं चलता था। सांस्कृतिक कार्यक्रम, विभिन्न खेल प्रतियोगिताएं या मेले शहर में समय-समय पर कोई न कोई आयोजन होता रहता था। रामलीला, बसंतोत्सव, मकर संक्रांति पर लगने वाला मेला शहर की रौनक में चार चांद लगा देते थे। दीपावली या अन्य पर्वों पर सामूहिक कार्यक्रम शहर में होते थे, लेकिन बांध की झाील में पुरानी टिहरी के डूबने के साथ ही शहर की यह पहचान भी खत्म हो गई। पुरानी टिहरी के बाशिंदों को मास्टर प्लान के तहत बने नई टिहरी शहर में बसाया गया, लेकिन इसमें वह बात कहां, जो उस शहर में थी। न रौनक, न वह मेल- जोल और न ही वे सांस्कृतिक गतिविधियां, जब भी याद आती है, नई टिहरी में बस गए बुजुर्गों की आंखें नम हो जाती हैं। हों भी क्यों नहीं, आखिर नई टिहरी में पनप रही बंद दरवाजे की संस्कृति और आधुनिक रहन-सहन का बढ़ता चलन लोगों के दिलों की दूरियां बढ़ा रहा है। सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य इस शहर में वर्ष 2001 में उत्तरांचल शरदोत्सव हुआ। उसके बाद एकाध बार नगरपालिका द्वारा शरदोत्सव का आयोजन तो किया गया, लेकिन इसके बाद यहां न कोई सांस्कृतिक और न ही कोई सामूहिक कार्यक्रम आयोजित हुए हैं। मास्टर प्लान में कल्चर सेंटर का प्राविधान था, लेकिन इसके लिए भी कोई पहल अब तक नहीं हुई है। पुरानी टिहरी जैसा मेल-जोल भी यहां नहीं। वहां लोग पैदल घूमने निकलते, तो परिचितों से मुलाकात होती और फिर परिवार, समाज, राजनीति जैसे मसलों पर रायशुमारी भी होती, लेकिन नई टिहरी की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि यहां पैदल चलना भी आसान नहीं है, सीढिय़ों के इस शहर में चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते लोग हांफ जाते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक संस्था त्रिहरी से जुड़े महिपाल नेगी कहते हैं कि नई टिहरी में सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना होनी चाहिए। सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए समाज को आगे आना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी निराशा जताई कि अब लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत की जड़ों को भूलने लगे हैं।

Wednesday, 16 December 2009

2500 वर्ष पुराना है उत्तराखंडी मूर्ति शिल्प

-विद्वान मानते हैं उत्तराखंड का अपना कोई मूर्तिशिल्प नहीं, बल्कि प्रतिहार शैली का प्रभाव -एएसआई का कहना है कि छठी सदी ईस्वी पूर्व से विकसित होने लगी था उत्तराखंड का स्वतंत्र मूर्ति शिल्प देहरादून, आम तौर पर विद्वान मानते हैं कि उत्तराखंड का अपना कोई मूर्ति शिल्प नहीं था बल्कि मध्य हिमालय का मूर्तिशिल्प प्रतिहार कालीन मूर्तिशिल्प से प्रभावित है, लेकिन यह पूरी तौर पर सही नहीं है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई)का कहना है कि उत्तराखंड में अलग-अलग जगहों से मिली मूर्तियां यह सुबूत पेश करती हैं कि इस पूरे क्षेत्र में छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के बाद से मूर्तिकला की स्वतंत्र शैली विकसित हो रही थी जो 9वीं और 10वीं सदी में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुकी थी। एएसआई देहरादून मंडल के अधीक्षण पुरातत्वविद् डॉ. देवकी नंदन डिमरी का कहना है कि गोपेश्वर, जागेश्वर, बैजनाथ और लाखामंडल मध्य हिमालयी मूर्तिशिल्प के प्रमुख केेंद्र थे। उनका कहना है कि मध्य हिमालय में मूर्तिकला का इतिहास मानव संस्कृति की उत्पत्ति के इतिहास से जोड़ा जा सकता है। इस क्षेत्र में विभिन्न स्थानों से मिली प्रागैतिहासिक शैलाश्रयों में मानव द्वारा उकेरी गई कलाकृतियां मूर्तिकला की उत्पत्ति का प्रमाण पेश करती हैं। आद्यएतिहासिक काल में ताम्रनिधि सांस्कृतिक स्थलों से मिले मानवाकृति ताम्र उपकरण मध्य हिमालय में मूर्तिकला के क्रमिक विकास की ओर इशारा करते हैं। चमोली जिले के मलारी से मिला स्वर्ण मुखौटा महाश्म संस्कृति में प्रतिमा विज्ञान के विकास का परिचायक है। रानीहाट, मोरध्वज आदि स्थलों से खुदाई में मिली मनुष्य और पशुओं की मिट्टी की मूर्तियां इस क्षेत्र में मूर्तिकला के प्रचलन के प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। ऐतिहासिक युग में स्थानीय मूर्तिशिल्प के विकास को तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व में खोजा जा सकता है। इसमें कालसी के अशोक के चतुर्दश अभिलेख में उत्कीर्ण हाथी की आकृति प्रमुख साक्ष्य है। इसके बाद कुणिंद सिक्कों में अंकित लक्ष्मी, हिरन, शिव की आकृतियां, पुरोला अश्वमेध यज्ञ वेदिका से मिले स्वर्ण फलक पर उत्कीर्ण अग्नि की प्रतिमा उस समय मूर्तिकला के विकास के बारे में बताती हैं। इसके अलावा मोरध्वज उत्खनन में मिली कुषाणकालीन केशीवध व अन्य मिट्टी की मूर्तियां मध्य हिमालय की मूर्तिकला के विकास के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। डॉ. डिमरी के मुताबिक दूसरी सदी ई.पू. से दूसरी सदी के बीच मथुरा कला के कुछ विशिष्ट उदाहरण भी उत्तराखंड में आयातित किए गए। इनमें नैनीताल जिले के बयानधुरा से मिले यक्ष, यक्षी, कीचक गणों से युक्त वेदी स्तंभ, देहरादून जिले के ऋषिकेश के भरतमंदिर की शिव और यक्षी प्रतिमाएं, चमोली जिले के त्रिजुगी नारायण से मिले स्थानक विष्णु हरिद्वार से, पिथौरागढ़ जिले के नकुलेश्वर की चतुर्भज स्थानक विष्णु मूर्ति उल्लेखनीय हैं। डॉ.डिमरी के मुताबिक विशुद्ध रूप से स्थानीय प्रस्तर में अब तक ज्ञात प्राचीनतम प्रतिमा अल्मोड़ा जिले के गुना से मिली तीसरी सदी की यक्ष प्रतिमा है। उसके बाद छठी सदी ईस्वी से इस क्षेत्र में मूर्ति शिल्प के क्रमिक विकास के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं।

-आखिर कब तक रह पाते जड़ों से दूर

राजधानी में बढ़ रही पहाड़ी भोजन के शौकीनों की तादाद परचून की दुकान ही नहीं, डिपार्टमेंटल स्टोरों की भी शान बने पहाड़ी अनाज इन दिनों राजमा, तोर, गहथ जैसी दालों के साथ ही मंडुवे की है खासी खपत देहरादून: वक्त ने करवट ली और रहन-सहन के मायने बदल गए। दिखावे की चाह में जड़ें छूटने लगीं और चकाचौंध में अस्तित्व कहीं गुम-सा हो गया, पर अति हमेशा नुकसानदेह ही होती है, यह बात समझा में आई तो फिर जड़ों ने ही सहारा दिया। चलो अच्छा है देर से ही सही, जड़ों के छूटने की अहमियत का अंदाजा तो हुआ। संदर्भ उत्तराखंड के पहाड़ी अनाज का ही है, जिसे महानगरों में बैठे लोग बिसरा बैठे थे, अब वे इसके महत्व को समझाने लगे हैं। राजधानी देहरादून भी इससे अछूती नहीं है और गढ़भोज के शौकीनों की तादाद में लगातार इजाफा हो रहा है। यही वजह है कि पहाड़ी अनाज न सिर्फ परचून की दुकानोंं, डिपार्टमेंटल स्टोर्स की शान भी बन गए हैं। मौसम सर्दियों का है तो इन दिनों पहाड़ी राजमा, तोर, गहथ जैसी पौष्टिक दालों के साथ ही मंडुवे के आटे की खपत ज्यादा बढ़ गई है। अतीत में झाांके तो महानगरों की चकाचौंध में पहाड़ी अनाज कहीं खो सा गया था। आधुनिक दिखने की चाह में थाली में 'जहर' को भी स्वीकार किया जाने लगा। वजह यह कि रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से 'जहरीली' होती जमीन ने फसलों को भी अपने आगोश में ले लिया। जाहिर है 'जहरयुक्त' अन्न खाने से सेहत भी नासाज होने लगी। ऐसे में जंक फूड और बीमारियों के इस दौर में थाली में बदलाव के लिए फिर से याद आई पहाड़ी अनाजों की। सरकार की ओर से कुछ प्रयास हुए तो लोगों ने पहाड़ में पैदा होने वाले जैविक अनाजों मंडुवा, झांगोरा, कौणी, राजमा, उड़द, गहथ, तोर समेत अन्य पौष्टिक फसलों के महत्व को समझाा। फिर होने लगी महानगरों में इन अनाजों की खोज, यानी शुरू हुआ जड़ों की ओर लौटने का दौर। राजधानी इसका उदाहरण है। बीते पांच-छह सालों से दून में भी लोग धीरे-धीरे पहाड़ी अनाज की ओर उन्मुख हुए और आज यह उनकी पहली पसंद बन गए हैं। आज राजधानी में गली-मुहल्लों की दुकानों से लेकर डिपार्टमेंटल स्टोर्स तक में पहाड़ी अनाज अपनी चमक बिखेर रहे हैं। दून में विकास भवन स्थित सरस मार्केटिंग सेंटर का ही जिक्र करें तो वहां जैविक उत्पाद परिषद, कृषि विभाग, ग्राम्य विकास विभाग के काउंटरों से रोजाना ही बड़ी संख्या में लोग पहाड़ी अनाज खरीद रहे हैं। सरस मार्केटिंग सेंटर में जैविक उत्पाद परिषद के काउंटर के सेल्समैन भुवनेश पुरोहित बताते हैं कि सेंटर से प्रतिमाह 50 हजार से अधिक मूल्य के पहाड़ी अनाज बिकते हैं। इन दिनों तो तोर, कुलथ, नौरंगी, काला व सफेद भट, राजमा, उड़द, मंडुवे का आटा, लाल चावल, बासमती, भूरा चावल की ज्यादा डिमांड है। आने वाले दिनों में यह और बढ़ेगी। राजपुर रोड स्थित एक डिपार्टमेंटल स्टोर के प्रबंधक अजय असवाल के अनुसार पहाड़ी राजमा, सोयाबीन, तोर, कुलथ जैसी दालों की मांग बढ़ी है और लोग इन्हें ढूंढते हैं। अब तो यह दालें डिपार्टमेंटल स्टोरों की शान बन गई हैं। इधर, हनुमान चौक स्थित एक व्यवसायी एके अग्रवाल का कहना है कि पहाड़ी अनाज यूं तो अब पूरे साल पसंद किए जा रहे हैं, मगर सर्दियों के सीजन में डिमांड ज्यादा रहती है। हनुमान चौक के एक अन्य व्यवसायी जितेंद्र ने बताया कि उनकी चक्की से ही प्रतिमाह पांच-सात कुंतल मंडुवे का आटा ही बिकता है।

विकास में छूटे पीछे

उत्तराखंड समेत तीन राज्यों का गठन वर्ष 2000 में करने के दौरान यह तर्क दिया गया कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा बिहार जैसे बड़े राज्यों में उक्त क्षेत्रों का विकास अवरुद्ध हो गया है, इसलिए छोटी प्रशासनिक इकाई के तौर पर इन्हें नया राज्य बनाया जाना चाहिए। छोटे राज्य बनने के बाद उक्त क्षेत्र तेजी से विकास कर सकेंगे। इस परिकल्पना को लेकर बने उत्तराखंड, झाारखंड व छत्तीसगढ़ राज्य अब तक नौ साल के सफर में अपने उद्देश्यों पर खरे नहीं उतरे। इन राज्यों की विकास दर राष्ट्रीय विकास दर 9.4 प्रतिशत को भी नहीं छू पाई। उससे आगे निकलने की छटपटाहट तो दूर तक नजर नहीं आती। विकास की दौड़ में काफी आगे बढ़ चुके राज्यों के करीब पहुंचना इन छोटे राज्यों के लिए अब भी दूर की कौड़ी बनी हुई है। विकास के लिए नौ साल का समय ज्यादा नहीं है, लेकिन आधुनिक तकनीकी के दौर में इसे कम भी नहीं माना जाना चाहिए। इस अवधि में यदि अग्रणी राज्यों की कतार में शामिल नहीं हो पाए तो कम से कम विकास दर में राष्ट्रीय औसत के करीब रहने पर कुछ संतोष अवश्य किया जा सकता था। नए राज्यों के पीछे जनता में विकास की तीव्र उत्कंठा छिपी है। इस मामले में तीन राज्यों के गठन का प्रयोग सवाल भी खड़े करता है। देश में छोटे राज्यों की पैरवी की जा रही है। इस दिशा में नया माहौल तैयार हो रहा है। ऐसे में नवगठित और छोटे राज्यों की जवाबदेही बढ़ जाती है। विकास को लेकर उन्हें अपनी प्रतिबद्धता साबित करनी होगी। अन्यथा छोटे राज्य के गठन के औचित्य पर ही अंगुली उठने लगें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए तो युवाओं के साथ मातृशक्ति ने भी पूरी ताकत झाोंक दी थी। इसके बावजूद अभी तक राज्य आत्म निर्भरता और विकास की ठोस बुनियाद रखने में कामयाबी से दूर है। इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि उत्तराखंड राज्य विकास के बजाए राजनीतिक हलचलों के लिए सुर्खियों में ज्यादा रहा। ऐसे में जन आकांक्षा राजनीतिक स्वार्थ की भेंट चढ़े और निहित स्वार्थों की इस लड़ाई में भ्रष्टाचार मजबूती से पांव जमाने में कामयाब हो तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।

-कण्वाश्रम : समृद्ध सभ्यता का मौन साक्षी

-अस्सी के दशक में प्रकृति ने दिए थे मालिनी घाटी सभ्यता के संकेत -जमीं में दफन हैं खजुराहो मंदिर शैली से मिलती-जुलती मूर्तियां व स्तंभ -10वीं से 12-वीं सदी के मध्य की हैं कण्वाश्रम में मिली मूर्तियां कोटद्वार महर्षि कण्व की तपस्थली व देश के नामदेव चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली ऐतिहासिक कण्वाश्रम भले ही अपनी पहचान का मोहताज है, लेकिन यह जमीं स्वयं में इतिहास को समेटे हुए है। इतिहासकारों की मानें, तो कण्वाश्रम ही नहीं, पूरी मालन घाटी पुरातात्विक दृष्टि से बेहद अहम है। यहां प्राचीन समृद्ध सभ्यता का इतिहास भी दफन है। उल्लेखनीय है कि लंबे समय तक चले शोध के बाद उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. संपूर्णानंद ने वर्ष 1954 की बसंत पंचमी पर पौड़ी जनपद के कोटद्वार नगर स्थित कण्वाश्रम को देश के नामदेव चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली के रूप में प्रामाणिक करार दिया था। इसके तहत यहां राजा दुष्यंत के पुत्र भरत व कण्वाश्रम से जुड़ी जानकारियों को लेकर शिलान्यास भी किया था। इसके बावजूद कण्वाश्रम आज भी अपनी पहचान को मोहताज है। स्थिति यह है कि कण्वाश्रम व उसके आसपास के क्षेत्र स्वयं में मालिनी घाटी की पूरी सभ्यता को समेटे हैं, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। जानकारों के अनुसार, अस्सी के दशक में कण्वाश्रम क्षेत्र में बरसाती नाले ने भयंकर तबाही मचाई और जब नाले का प्रकोप शांत हुआ तो जमीं पर फैली नजर आई कई पुरानी मूर्तियां व प्रस्तर स्तंभ। प्रशासन को जानकारी मिलने से पहले ही स्थानीय ग्रामीण कई मूर्तियों व स्तंभों को साथ लेकर चलते बने। बाद में प्रशासन ने मौके से मिली कुछ मूर्तियों व स्तंभों को कण्वाश्रम स्थित स्मारक में रख दिया। तत्कालीन समाचार पत्रों में छपी खबर के आधार पर गढ़वाल विवि के प्राचीन इतिहास, संस्कृति के पुरातत्व विभाग की टीम ने प्रशासन से वार्ता कर पत्थर की तीन मूर्तियों व दो स्तंभों को अपने संग्र्रहालय में रख दिया। जांच में पता चला कि उक्त मूर्तियां व स्तंभ 10वीं व 12वीं शताब्दी के थे। गढ़वाल विवि के पुरातत्व विभाग ने कण्वाश्रम में मिली मूर्तियों व स्तंभों को जिस काल का बताया है, उस काल में उत्तराखंड में कत्यूरी वंश का एकछत्र साम्राज्य था। इसी दौर में मध्य भारत में चंदेल राजाओं ने खजुराहो के मंदिर बनाए थे। इतिहासविदों के मुताबिक, कण्वाश्रम में मिली मूर्तियां व स्तंभों की निर्माण शैली खजुराहो में बने मंदिरों की शैली से काफी मिलते-जुलते हैं। उनके मुताबिक, यदि मालन घाटी को खंगाला जाए, तो खजुराहो के समान मंदिरों की श्रृंखला भी मिल सकती है। माना जाता है कि सदियों पूर्व मालिनी नदी के तट पर बसी यह सभ्यता मालन नदी में उसी तरह समा गई होगी, जैसे सिंधु व नर्मदा घाटी सभ्यताएं। इतिहास में इस बात का भी जिक्र है कि 10वीं सदी में उत्तर भारत में मोहम्मद गजनी के भीषण नरसंहार से त्रस्त काष्ठ, मृतिका, धातु, शिला की प्रतिमाओं के निर्माताओं को कत्यूरी नरेशों ने शरण दी थी। बाद में इन कलाकारों ने उत्तराखंड में भव्य मंदिरों व प्रतिमाओं की रचना की। गढ़वाल विवि पुरातत्व विभाग के विभागाध्यक्ष डा.बीएम खंडूड़ी ने बताया कि यदि इस क्षेत्र में उत्खनन किया जाए, तो न सिर्फ एक समृद्ध सभ्यता के प्रमाण मिलेंगे बल्कि, कण्वाश्रम राष्ट्रीय/ अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भी आ जाएगा। क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी बीपी बडोनी ने भी स्वीकारा कि कण्वाश्रम व उसके आसपास के क्षेत्र इतिहास समेटे हैं, लेकिन क्षेत्र में संग्रहालय न होने के कारण इसकी खोज नहीं हो पा रही है। उधर, क्षेत्रीय विधायक शैलेंद्र सिंह रावत ने बताया कि कण्वाश्रम के विकास हेतु तैयार की गई योजनाओं में यहां संग्रहालय निर्माण किया जाना भी प्रस्तावित है। उन्होंने बताया कि इस संबंध में शासन को प्रस्ताव भेजा गया है।

-जौनसार बावर: यहां मेहमान है भगवान

जौनसार-बावर में आज भी कायम है 'अतिथि देवो भव:' की पंरपरा एक परिवार का अतिथि होता है पूरे गांव का मेहमान हंसी-खुशी का एक पल भी गंवाना नहीं चाहते क्षेत्र के लोग आधुनिक दौर में भी जनजाति क्षेत्र में अतिथि देवो भव: की परंपरा कायम है। जौनसार-बावर का जिक्र होते ही जेहन में एक ऐसे सांस्कृतिक परिवेश वाले पर्वतीय क्षेत्र की तस्वीर कौंधती है जो बाकी दुनिया से बिल्कुल अलग है। खान-पान, रहन-सहन व वेशभूषा ही नहीं, बल्कि यहां के लोगों के जीने का अंदाज भी जुदा है। मेहमानों को सिर माथे पर बिठाना क्षेत्र की संस्कृति है। तीज त्योहार से लेकर खुशी का एक पल भी यहां के लोग गंवाना नहीं चाहते। तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य में भी क्षेत्र की संस्कृति कायम है। साढ़े तीन सौ से अधिक संख्या वाले गांवों का यह जनजाति क्षेत्र अनूठी सांस्कृतिक पहचान की वजह से देश-दुनिया के लिए जिज्ञासा का विषय है। प्राकृतिक खूबसूरती, सुंदर पहाडिय़ां और संस्कृति व धार्मिक परिवेश जिज्ञासुओं को बरबस अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां की संस्कृति का एक बड़ा अध्याय अनछुआ रहा है। जमीनी हकीकत देखने से क्षेत्र को लेकर बाहरी दुनिया में व्याप्त भ्रांतियां शीशे पर जमीं गर्द की तरह साफ हो जाती हैं और तस्वीर उभरती है, उन सीधे-सादे लोगों की जो आज के दौर में भी मेहमान को भगवान का रूप मानते हैं। गांव में एक परिवार का अतिथि पूरे गांव का अतिथि होता है। मेहमाननवाजी तो कोई जौनसार-बावर के लोगों से सीखे। परंपरानुसार घर की महिलाओं द्वारा मेहमानों को घर में आदर पूर्वक बैठाकर हाथ व पैर धुलाए जाते हैं। घर आए मेहमान के लिए तरह-तरह के पारंपरिक व्यजंन व लजीज पकवान बनाए जाते हैं। मेहमानों की खातिरदारी में क्षेत्र के लोग कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ते। हर स्थिति में हंसते-गाते रहना यहां के लोगों की विशेषता है। प्रसिद्ध समाजसेवी मूरतराम शर्मा का कहना है कि आज के दौर में कहीं पर भी ऐसी संस्कृति देखने को नहीं मिलती है। उनका कहना है कि मौजूदा समय में लोग मेहमानों को छोडि़ए, परिजनों तक से दूरी बनाने लगे हैं। इसके अलावा होली, रक्षाबंधन, जातर व नुणाई आदि त्योहार भी धूमधाम से मनाए जाते हैं। हालांकि शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद क्षेत्र में काफी बदलाव आया है, पर लोगों का आज भी अपनी माटी-संस्कृति से जुड़ाव बरकरार है। मेहमानों के लिए व्यंजन त्यूणी: मेहमानों के लिए पारंपरिक व्यंजनों में चावल, मंडुवे व गेंहू के आटे के सीढ़े, अस्के, पूरी, उल्वे व पिन्नवे आदि खासतौर से बनाए जाते हैं। इसके अलावा मांसाहारी मेहमानों के लिए मीट, चावल व रोटी आदि बनाया जाता है।

चिपको आंदोलन का दूसरा नाम बचनी देवी

-अपने ही परिवार का झोलना पड़ा विरोध -ठेकेदारों के हथियार छीन, पेड़ों पर बांधी राखियां चम्बा(टिहरी): विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन के कार्यकर्ताओं में भले ही पुरुष कार्यकर्ताओं के नाम लोग अधिक जानते हैं, लेकिन इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका भी कम नहीं है। हालांकि, महिलाओं में गौरा देवी या सुदेशा बहन को ही लोग अधिकतर जानते हैं, लेकिन ऐसी कई महिलाओं ने इस आंदोलन के प्रसार में अपनी पूरी ताकत झाोंक दी थी, जिन्हें अब तक पर्याप्त सम्मान या पहचान नहीं मिल पाई है। टिहरी जिले के हेंवलघाटी क्षेत्र के अदवाणी गांव की बचनी देवी भी उन महिलाओं में एक है, जिन्होंने चिपको आंदोलन (पेड़ों को कटने से बचाने के लिए ग्रामीण उनसे चिपक जाते थे, इसे चिपको आंदोलन नाम दिया गया) में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बचनी देवी का जन्म अगस्त 1929 में पट्टी धार अक्रिया के कुरगोली गांव में हुआ। उनकी शादी अदवाणी गांव निवासी बख्तावर सिंह के साथ हुई। 30 मई 1977 को जब चिपको नेता सुंदरलाल बहुगुणा, धूम सिंह नेगी और कुंवर प्रसून अदवाणी पहुंचे, तो वहां वन निगम के ठेकेदार पेड़ों पर आरियां चला रहे थे। बहुगुणा, नेगी व प्रसून के आह्वान पर बचनी देवी गांव की महिलाओं को साथ लेकर आंदोलन में कूद पड़ी। उन्होंने पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों के हथियार छीन लिए और उन्हें वहां से भगा दिया। उस दौर में गांव के अधिकांश लोग पेड़ों के कटान के समर्थक थे, क्योंकि वन विभाग द्वारा गठित श्रमिक समितियां ठेकेदारों के माध्यम से कार्य करती थी और लोग इसे रोजगार के रूप में देखते थे। बचनी देवी से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि उनके पति बख्तावर सिंह खुद निगम के लीसा ठेकेदार थे। ऐसे में बचनी देवी ने साहस और सूझाबूझा से परिवार का विरोध भी झोला और आंदोलन में भी भागेदारी की। पति के अलावा परिवार के अन्य सदस्य भी जंगल कटने के समर्थक थे, क्योंकि इससे उनकी आजीविका जुड़ी हुई थी, लेकिन चिपको आंदोलन की विचारधारा को भलीभांति समझाने वाली बचनी देवी ने सार्वजनिक हित को महत्वपूर्ण समझाा। यहां यह भी बता दें कि चिपको आंदोलन की शुरूआत अदवाणी के जंगलों से ही हुई थी। यहां साल भर आंदोलन चला, जिसमें बचनी देवी पूर्ण रूप से सक्रिय रहीं और उन्होंने घर-घर जाकर दूसरी महिलाओं को संगठित व जागरूक किया। खास बात यह है कि सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करने के साथ उसने घर-परिवार की जिम्मेदारी, चूल्हा, चौका, घास-लकड़ी का काम भी बखूबी निभाया। इस दौरान उन्हें अनेक कष्ट भी झोलने पड़े। एक साल के संघर्ष के दौरान ठेकेदारों को खाली हाथ वापस जाना पड़ा तथा इस क्षेत्र में पेड़ों की नीलामी व कटान पर वन विभाग को रोक लगानी पड़ी। बचनी देवी धीरे-धीरे अपने पति व परिवार जनों को समझााने में भी कामयाब रही। आज उनकी उम्र 80 वर्ष है और उन दिनों की याद ताजा कर वह कहती है कि आंदोलन के दौरान कई बार उनके पति उनसे बात तक नहीं करते थे, फिर भी उन्होंने संयम से काम लिया और दोनों मोर्चों पर सफलता पाई। आंदोलन में उनके साथ रहे धूम सिंह नेगी व सुदेशा बहन का कहना है कि उनमें साहस और हिम्मत के कारण अदवाणी की दूसरी महिलाएं भी आंदोलन में शामिल हुई थी। बचनी देवी का आज भरा-पूरा परिवार है। वह चाहती हैं कि लोग अपने संसाधनों के प्रति जागरूक रहें।

-डैम बनने से पहाड़ी क्षेत्रों की खेती में आएगी क्रान्ति

सब-असिंचित क्षेत्रों में बनाये जाएंगे डैम -कुमाऊं के लिए 3.64 करोड़ का पायलट प्रोजेक्ट तैयार ---------------- :::एक डैम, फायदे सिंचाई की समस्या खत्म होगी -मुर्गी व बत्तख पालन करने से लोगों को स्वरोजगार मिलेगा -नेपियर घास के उगने से चारे का संकट भी नहीं रहेगा ,हल्द्वानी: राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में खेती जल्द क्रांति लेकर आने वाली है। कृषि विभाग ने बहुद्देश्यीय डैम प्रोजेक्ट बनाने का निर्णय लिया है। इससे किसानों को सिंचाई की समस्या का हल होगा,वहीं जानवरों को चारे के संकट का हल निकल सकेगा। उत्तराखंड में 793241 हेक्टेअर भूमि पर खेती होती है। 454487 हेक्टेअर क्षेत्रफल पर्वतीय है। इसमें राज्य की कृषि योग्य भूमि के 43.72 प्रतिशत क्षेत्रफल में ही सिंचाई की सुविधा है। मैदानी क्षेत्र में गनीमत है, यहां 87.79 प्रतिशत क्षेत्रफल में पानी पहुंच जाता है, जबकि पर्वतीय क्षेत्र की दशा बेहद खराब है। पर्वतीय क्षेत्र के 49417 हेक्टेअर कृषि भूमि में मात्र 10.87 प्रतिशत खेतों में सिंचाई की सुविधा है। बाकी के लिए किसान भगवान का भरोसा ताकते हैैं। दूसरी स्थिति में भूमि खाली पड़ी रहती है। पर्वतीय क्षेत्र में शतप्रतिशत भूमि पर खेती कराने के मकसद से कृषि विभाग का डैम प्रोजेक्ट आने वाला है। इसमें जल स्रोतों के अलावा रेन वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक के माध्यम से जल संचय किया जायेगा। इसका उपयोग खेती में होगा। इसके अलावा डैम के कई अन्य लाभ भी होंगे। इसके ऊपर मचान बनाकर मुर्गी व बत्तख का पालन किया जायेगा। इनकी बीट पानी में गिरेगी, वहां मछली पालन होगा और बीट मछलियों का भोजन बनेगी। इसके अलावा डैम के आसपास नेपियर घास लगायी जाये और केले के पौधरोपण होगा। फिलहाल कुमाऊं में 3.64 करोड़ का पायलट प्रोजेक्ट तैयार कर लिया गया है जिसे स्वीकृति के लिए केंद्र सरकार भेजा जाएगा। इसके तहत पिथौरागढ़, भिकियासैण, रानीखेत, ऊधमसिंह नगर, नैनीताल, हल्द्वानी, लोहाघाट, डीडीहाट, अल्मोड़ा व बागेश्वर में डैम बनाये जाने की योजना है। केंद्र सरकार से हरी झांडी मिलने के बाद योजना शुरू कर दी जायेगी। ::गदरपुर से मिली प्रेरणा:: पर्वतीय क्षेत्र में डैम बनाने की योजना की प्रेरणा गदरपुर से मिली है। बताया जाता है कि भारत सरकार की एक टीम पिछले दिनों जल संरक्षण का जायजा लेने ऊधमसिंह नगर में पहुंची थी। जिले के गदरपुर में बहुद्देशीय डैम की परिकल्पना टीम को बेहद पसंद आयी और टीम ने प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर इसको व्यापक स्वरूप देने को कहा था। इसके तहत ही पर्वतीय क्षेत्रों को अलग प्रोजेक्ट बनाया गया है। :: क्या है नेपियर घास:: कृषि के जानकारों का कहना है कि नेपियर घास दो माह में तैयार हो जाती है। इसे पशु भी काफी पसंद करते हैैं। पर्वतीय क्षेत्र में चारे की समस्या रहती है, जो नेपियर के उगने के बाद काफी हद तक खत्म हो जायेगी।

हरिद्वार से हर्बल गुर सीखेगा नेपाल

-नेपाली राष्ट्रपति के पुत्र-पुत्री पहुंचे पतंजलि योगपीठ -हर्बल फूड पार्क के निर्माण कार्य को देखा -बाबा रामदेव के जनहित कार्यों को सराहा हरिद्वार,: दुनिया के सबसे बड़े पतंजलि हर्बल फूड पार्क का निर्माण हरिद्वार में पूरा हो चुका है। नेपाल के राष्ट्रपति डा. रामबरन यादव ने अपने पुत्र और पुत्री को बाबा रामदेव द्वारा जनहित में किये जा रहे सेवा कार्यो तथा नेपाल में हर्बल फूड पार्क बनाने की संभावना को तलाशने के लिए पतंजलि योगपीठ भेजा। रविवार को नेपाली राष्ट्रपति के पुत्र डा. चंद्र मोहन यादव और पुत्री कुमारी अनीता ने पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने कहा कि यह मेगा फूड पार्क न केवल भारतवर्ष के किसानों के लिए अपितु पूरे विश्व के किसानों के लिए प्रेरणा और उनके रोजगार का एक सशक्त साधन बनेगा। इससे लोगों को स्वस्थ व कृषि उपज पर आधारित उन्नत उत्पाद मिल सकेंगे। दोनों ने स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण द्वारा योग और आयुर्वेद की दिशा में किए जा रहे कार्यों की भी सराहना की। उन्होंने कहा कि योगपीठ के पार्क की तकनीक व यहां उत्पादित विभिन्न औषधि पादपों के बारे में जानकारी लेने के बाद नेपाल में प्रस्तावित फूड पार्क में इनका उपयोग किया जाएगा। इस अवसर पर आचार्य बाल कृष्ण ने कहा कि पतंजलि फूड पार्क से हजारों परिवारों को रोजगार प्राप्त होगा। उन्होंने कहा कि किसानों को उन्नत बीज और खाद्य उपलब्ध कराने की तकनीक के साथ किसानों को समूचे उत्तराखंड में खोले गये केंद्रों पर पतंजलि योगपीठ तकनीकी ज्ञान का प्रशिक्षण भी देगा।

---पांच पुलिसकार्मिकों को पीएम का जीवनरक्षा पदक

-गुजरात में होने वाले समारोह में किया जाएगा सम्मानित देहरादून, उत्तराखंड के पांच पुलिसकार्मिकों को प्रधानमंत्री के जीवनरक्षा पदक के लिए चुना गया है। इन सभी को गांधीनगर गुजरात में होने वाले समारोह में सम्मानित किया जाएगा। पुलिस मुख्यालय से प्राप्त जानकारी के मुताबिक हेड कांस्टेबल आशीष कुमार सिंह ने 22 मई 2008 में एवरेस्ट शिखर फतह करने के दौरान एक वियतनामी पर्वतारोही की जान बचाई। इस पर्वतारोही की आक्सीजन खत्म हो गई थी। आशीष ने तुरंत ही अपने सिलेंडर से उसे आक्सीजन दी। इस कार्य की प्रशंसा ज्वाइंट कमिश्नर ट्रैफिक, अहमदाबाद अतुल कुमार ने भी की थी। इसके अलावा 19 सितंबर 2009 को क्षेत्राधिकारी विकासनगर डा. हरीश वर्मा कां. नरेन्द्र पाल सिंह, रविन्द्र सिंह व गीतम सिंह के साथ रात्रिगश्त पर थे। उसी समय सूचना मिली कि जलालिया पीरघाट, विकासनगर के पास यमुना नदी में भयंकर बाढ़ आ जाने के कारण मजदूर फंस गए हैैं। फंसने वालों में मजदूरों के बच्चे और महिलाएं भी शामिल थींं। इस पर उन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए बचाव कार्य शुरू किया। यमुना के टापू से 71 बच्चों, 47 महिलाओं और 55 पुरुषों को निकाला गया। उक्त कार्यों पर चारों पुलिसकार्मिकों को प्रधानमंत्री के जीवनरक्षा पदक के लिए चुना गया है। गुजरात पुलिस द्वारा 2 से 9 फरवरी 2010 को गांधीनगर में आयोजित होने वाली 53वीं आल इंडिया पुलिस ड्यूटी मीट के दौरान उन्हें पदक प्रदान किए जाएंगे। पदक के लिए चुने जाने पर डीजीपी सुभाष जोशी ने भी सभी को बधाई दी है। राज्य गठन के बाद दो अधिकारी-कर्मचारी प्रधानमंत्री का जीवनरक्षा पदक प्राप्त कर चुके हैैं, लेकिन यह पहला मौका है जब किसी राज्य के चार पुलिस कर्मियों व एक अधिकारी को एक ही वर्ष में यह पदक मिला हो।

Tuesday, 8 December 2009

पहाड़ी मड़ुआ का दीवाना हुआ यूरोप

यहां गरीबों का निवाला वहां अमीरों का स्नेक्स अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर उत्तराखण्ड की पैदावार पर अब यूरोप को भी पहाड़ी मड़ुआ का स्वाद रास आ गया है। यही कारण है कि नमकीन बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी की निगाह अब उत्तराखण्ड में मडुआ की पैदावार पर है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में गरीबों का मुख्य निवाला मडुआ ही रहा है। मडु़आ की रोटी भले ही काले रंग रंग की दिखती हो पर इसके स्वाद व पोषक तत्व के बूते इसने यूरोप के बाजार में भी जगह बना ली है। मगर हैरत की बात यह है कि जहां की यह पैदावार हैं उस क्षेत्र में आज तक व्यवसायिक उपयोग नहीं किया जा सका। बताते हैं कि एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने महराष्ट्र व गुजरात में पैदा होने वाले मडुआ (वहां का स्थानीय नाम-नाचनी) के चिप्स, नमकीन, मठरी आदि का निमार्ण कर जब विदेशी बाजार में उतारा तो वहां के लोग इसके स्वाद के दीवाने हो गये। यही कारण है कि अब उत्तराखण्ड में मडुआ की पैदावार पर विदेशी कम्पनियों की नजर गई है। नमकीन बनाने वाली मुम्बई की मल्टीनेशनल कम्पनी सावंत स्नेक्स के प्रतिनिधि राकेश बंदोपाध्याय इन दिनों नैनीताल जिले में मडुआ का प्रबंधन करने आये हैं। वे गांवों में पहुंच कर ग्रामीणों को पैदावार बढ़ाने के प्रति प्रेरित करने के अलावा उनके पास उपलब्ध मडुआ खरीद भी रहे हैं। समाज कल्याण विभाग में अपने एक जानने वाले के माध्यम से गांवों तक पहुंच बना रहे श्री बंदोपाध्याय ने बताया कि मडुआ के स्नेक्स की मांग विदेशों में काफी बढ़ी है। इसकी पैदावार बढ़ाकर किसानों के सामने अब अच्छी कमाई का रास्ता खुल गया है। उन्होंने बताया कि मडुआ स्वास्थ्य के दृष्टि से भी उत्तम है इसी कारण विदेशों में चाव से खाया जा रहा है। इसमें 71 फीसदी कार्बोहाइड्रेड, 12 फीसदी प्रोटीन तथा 5 फीसदी वसा पाया जाता है। साथ ही फाइबर की मात्रा अधिक होने के कारण मडुआ से कैलौरी अधिक मिलती है।

-यहां बर्तन नहीं पत्थरों पर होता है भोजन

-चमोली जिले में हर साल जेठ (जून) महीने में होता है उफराईं देवी की डोली यात्रा का आयोजन -यात्रा के दौरान मौडवी नामक स्थान पर पत्थर पर दिया जाता है प्रसाद गोपेश्वर(चमोली)-गढ़वाल न सिर्फ देवभूमि के रूप में जाना जाता है, बल्कि यहां की रीतियों व परंपराओं की विशिष्टताओं के चलते इसे खास पहचान भी हासिल है। ऐसी ही एक अनूठी परंपरा के तहत नौटी-मैठाणा गांव के लोगों सहित मौडवी में उफराईं देवी की डोली यात्रा में भाग लेने वाले श्रद्धालु प्रसाद के रूप पका भोजन बर्तनों या पत्तलों में नहीं, बल्कि पत्थरों पर खाते हैं। उल्लेखनीय है कि क्षेत्रीय भूमियाल उफराईं देवी की डोली यात्रा हर वर्ष जेठ के महीने मैठाणी पुजारियों द्वारा निर्धारित शुभ दिन पर आयोजित की जाती है। इसके तहत ग्रामीण देवी की डोली को गांव के उत्तर-पश्चिम में ऊंची चोटी पर स्थित उफराईं के स्थान तक ले जाते हैं। यात्रा में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती है। नौटी-मैठाणा गांव स्थित मंदिर से लगभग छह हजार फीट से अधिक की ऊंचाई पर स्थित उफरांई ठांक (स्थान) में स्थित मंदिर तक जाते हुए रास्ते में मौडवी नामक स्थान पर श्रद्धालुओं के लिए सामूहिक भोज तैयार किया जाता है। यहां से ठांक स्थित मंदिर में देवी के लिए भोग ले जाया जाता है। मंदिर में देवी को भोग लगाने व पूजा- अर्चना के बाद श्रद्धालु डोली के साथ वापस मौडवी आते हैं। यहां देवी के प्रसाद के रूप में तैयार दाल- चावल को शुद्धिकरण व देवी की डोली द्वारा परिक्रमा के बाद श्रद्धालुओं में बांटा जाता है। खास बात यह है कि भक्त इस प्रसाद को बर्तनों या पत्तलों पर नहीं, बल्कि पत्थरों पर रखकर खाते हैं। उल्लेखनीय है कि मुख्यालय से लगभग सत्तर किलोमीटर की दूरी पर तहसील कर्णप्रयाग के चांदपुर पट्टी स्थित ऐतिहासिक गांव नौटी-मैठाणा में भूमियाल उफराईं देवी का प्राचीन मन्दिर है। प्राचीनकाल में मंदिर के रखरखाव के लिए हिन्दू राजाओं ने गूंठ (महान मंदिरों के लिए स्वीकृत भूमि-राजस्व) का प्रावधान भी किया था। इस ऐतिहासिक मन्दिर में स्थापना के बाद से ही नित्य सुबह-शाम की पूजा अनवरत रूप से होती चली आ रही है। मंदिर के पुजारी भुवन चन्द्र व मदन प्रसाद ने बताया कि यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। उन्होंने बताया कि भूमियाल होने के चलते गांव के सभी घरों में किसी भी शुभ कार्य के आयोजन से पूर्व देवी मां की पूजा के लिए विशेष प्रावधान है। ग्रामीण पंकज कुमार ने बताया कि जून के महीने देवी की डोली यात्रा सांस्कृतिक विरासत होने के साथ-साथ वर्तमान में पर्यटन की दृष्टि से भी अनुकूल है। उनका कहना है कि वर्ष में एक बार देवी मां का प्रसाद पत्थर में खाने के लिए गांव के लोगों सहित बाहर नौकरी कर रहे ग्रामीण भी पहुंचते हैं। विशेष रूप से बच्चों व युवाओं को इस दिन का खासा इंतजार रहता है, क्योंकि उनके लिए यह अलग अनुभव होता है।

Saturday, 5 December 2009

-नौटियाल होंगे राज्य के पहले सूचना आयुक्त

सीएम की अध्यक्षता वाली कमेटी ने लगाई नाम पर मुहर राज्य सूचना आयोग में सूचना आयुक्तों की नियुक्ति को कवायद तेज हो गई है। नैनीताल हाईकोर्ट के एडीशनल एडवोकेट जनरल विनोद चंद्र नौटियाल राज्य के पहले सूचना आयुक्त होंगे। राज्य सूचना आयोग अभी तक मुख्य सूचना आयुक्त डा. आरएस टोलिया के सहारे ही चल रहा है। आयोग में दस सूचना आयुक्तों की नियुक्ति भी होनी है। इस दिशा में काम आगे नहीं बढ़ पा रहा था। आज मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली कमेटी ने नए सूचना आयुक्तों पर मंथन किया। बीजापुर गेस्ट हाउस में मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक, नेता प्रतिपक्ष डा. हरक सिंह रावत और काबीना मंत्री बिशन सिंह चुफाल ने इस मुद्दे पर दो घंटे तक मंथन किया। सूत्रों ने बताया कि इस बैठक में विनोद चंद्र नौटियाल के नाम पर सहमति बन गई है। श्री नौटियाल नैनीताल हाईकोर्ट में बतौर एडीशनल एडवोकेट जनरल काम कर रहे हैैं। सूत्रों ने बताया कि कमेटी ने तीन अन्य नामों पर भी विचार किया पर बाद में तय किया गया कि फिलहाल एक ही आयुक्त की तैनाती की जाए। --

-परिवहन: तीन राज्यों से समझाता, अन्य से वार्ता-परिवहन: तीन राज्यों से समझाता, अन्य से वार्ता

-परिवहन निगम को लाभ में लाने की कवायद -जेएनएनयूआरएम के तहत मिली बीस बसों का ट्रायल बाकी देहरादून: बसों के संचालन तथा रूट को लेकर उत्तराखंड परिवहन निगम का तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान व पंजाब के साथ समझाौता हो गया है। चार राज्यों के साथ बातचीत चल रही है। यूपी व दिल्ली के साथ मामला सैद्धांतिक सहमति तक पहुंच चुका है। उत्तराखंड परिवहन निगम को लाभ में लाने के तहत पड़ोसी राज्यों के परिवहन निगमों से समझाौते की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई थी, उसके नतीजे आने लगे हैैं। उत्तराखंड परिवहन निगम का राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा पंजाब के साथ बस संचालन तथा रूट को लेकर समझाौता हो गया है। उत्तर प्रदेश के साथ सचिव स्तर पर बातचीत हो गई है और समझाौते के प्रारूप पर सैद्धांतिक सहमति बनी है। अब समझाौते पर हस्ताक्षर होने बाकी हैैं। हिमाचल के साथ समझाौते को लेकर अभी एक चरण की बातचीत और होनी है। दोनों राज्यों के बीच कुछ मामलों में सहमति नहीं बन पाई है। दिल्ली के साथ समझाौते पर बातचीत तभी शुरू होगी, जबकि यूपी के साथ मसले को हरी झांडी मिल जाए। हरियाणा के साथ समझाौते के लिए नये सिरे से प्रक्रिया शुरू होनी है। अपर सचिव परिवहन विनोद शर्मा ने बताया कि यूपी व दिल्ली से जल्द समझाौते को अंतिम रूप दे दिया जाएगा, जबकि हिमाचल के साथ चंद मसलों पर फिर से सुनवाई होनी है। इन समझाौतों से निगम के बसों से संचालन को लेकर पूर्व में बने गतिरोध समाप्त हो जाएंगे। उन्होंने बताया कि जेएनएनयूआरएम के तहत नैनीताल, देहरादून व हरिद्वार के लिए निगम को 145 बसें मिलनी हों। बीस बसों की डिलीवरी हो गई है, जबकि साठ बसें टाट के डिपो में हैैं। अभी इन बसों का ट्रायल नहीं हुआ है।

यहां तो औसत से अधिक हैं कर्मी

इसके बाद भी दक्षता के मामले में पिछड़ रहा उत्तराखंड , देहरादून उत्तराखंड में राष्ट्रीय औसत से दोगुने कर्मचारी हैं। अगर बात दक्ष कार्मिकों की करें तो यहां उत्तराखंड काफी पीछे छूट जाता है। कहा जा रहा है कि राज्य के विकास में पिछडऩे और योजनाओं का सही रूप में क्रियान्वयन न हो पाने की यह भी वजह हो सकती है। सरकार के पास मौजूद आंकड़ों के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर देश की कुल आबादी का एक प्रतिशत ही सरकारी कार्मिक हैं। बात उत्तराखंड की करें तो यहां ये अनुपात दो फीसदी है। उत्तर प्रदेश में आबादी के मुकाबले कार्मिकों की संख्या मात्र 0.5 प्रतिशत है। इस तरह उत्तराखंड कार्मिकों की संख्या के मामले में राष्ट्रीय औसत से दो गुना आगे है, जबकि उत्तर प्रदेश की तुलना में चार गुना आगे है। दूसरी तरफ तकनीकी रूप से दक्ष कार्मिकों की संख्या के मामले में उत्तराखंड काफी पीछे छूट जाता है। जानकारों का कहना है कि कुल कार्मिकों में से 15 प्रतिशत तकनीकी रूप से दक्ष होने चाहिए। उत्तराखंड में ऐसे दक्ष कार्मिकों की संख्या महज पांच फीसदी पर ही सिमट गई है। एक तरफ कार्मिकों की औसत से अधिक संख्या, दूसरी तरफ दक्षता में औसत से कम होना, सरकारी कामकाज को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। शायद यही वजह है कि उत्तराखंड में सरकारी योजनाओं का सही क्रियान्वयन नहीं होने की शिकायतें बढ़ती जा रही हैं। खास बात यह है कि इस समय उत्तराखंड के समस्त आर्थिक संसाधन इन कार्मिकों के वेतन भत्तों पर ही खर्च हो रहे हैं। इस बारे में प्रमुख सचिव (कार्मिक) शत्रुघ्न सिंह का कहना है कि छोटे राज्यों में कार्मिकों की संख्या अधिक हो ही जाती है। छोटे और बड़े राज्यों में विभाग का ऊपरी ढांचा लगभग समान होता है। ऐसे में छोटे राज्यों में यह औसत गड़बड़ाया दिखाई देता है। दक्ष कार्मिकों की संख्या बढ़ाने के संबंध में श्री सिंह का कहना है कि इस बारे में देखना होगा। अभी ऐसे कोई प्रयास राज्य में नहीं हो रहे हैं।

-सफर में खिल रहीं जीवन की कलियां

-सफर में खिल रहीं जीवन की कलियां - जिसे विपदा का नाम दिए, उसी ने घर-आंगन महकाए - मुल्क के लिए 'सुरक्षा कवच' भी तैयार कर रही 108 सेवा 'आम' से 'खास' हुए 108 में जन्म लेने वाले नए मेहमान देहरादून: भले ही उसे विपदा में याद किया जाता हो, लेकिन सबब वह खुशहाली का है। असुविधा, गरीबी और पहाड़ की कठिन जीवनशैली के बीच वह अब तक एक हजार से अधिक घर-आंगन महका चुका है। उसकी घरघराहट के बीच ही गूंजने लगती हैं किलकारियां और कुछ पलों के लिए सही, सारे कष्ट काफूर हो जाते हैं। बड़ी बात तो यह कि वह मुल्क के लिए 'सुरक्षा कवच' भी तैयार कर रहा है। यही नहीं, चलते-चलते जन्म लेने वाले नये मेहमान अब 'खास' भी बनने जा रहे हैं। उसकी इन्हीं खूबियों ने उसे हर किसी का चहेता बना दिया है। स्वास्थ्य सुविधा का अभाव झोलते उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए वरदान बनी 'पं. दीनदयाल उपाध्याय देवभूमि 108 आपातकालीन सेवा' का यह सफर अनवरत जारी है। 18 माह के शैशवकाल में ही राज्यभर में करीब सवा लाख लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने और ढाई हजार लोगों के जीवन को बचाने वाली यह सेवा चालीस हजार से अधिक माताओं को सुरक्षित प्रसव के लिए अस्पताल पहुंचाने में भी अहम भूमिका निभा चुकी है। बात आपदा पीडि़तों की हो या फिर प्रसव वेदना झोल रही धात्री की, उन्हें तुरंत राहत पहुंचाने के लिए सूबेभर में दौडऩे वाली इस सेवा की सभी सुविधाओं से लैस 90 एंबुलेंस हर वक्त तत्पर रहती हैं। इधर फोन की घंटी घनघनाई और उधर एंबुलेंस फर्राटे भरने लगती हैं। फिर चाहे राह कितनी भी पथरीली क्यों न हो। सूबे में 108 सेवा की इन्हीं एंबुलेंस में अब तक चलते-चलते 1015 बच्चे जन्म ले चुके हैं। उत्तरकाशी, पौड़ी, अल्मोड़ा, देहरादून जनपदों में तो सौ-सौ बच्चों ने इन्हीं एंबुलेंस में आंखें खोली। इस सेवा के अस्तित्व में आने के बाद सूबे में संस्थागत प्रसव बढऩे से जन्म-मृत्यु दर में भी कमी आई है। बड़ी बात यह कि सैनिक बहुल उत्तराखंड में यह सेवा देश के लिए 'सुरक्षा दीवार' भी तैयार कर रही है। एक अनुमान के मुताबिक पहाड़ में पैदा होने वाला हर पांचवां बच्चा देश सेवा के लिए सेना में है। ऐसे में 108 सेवा भविष्य के स्वस्थ सैनिकों की खेप भी तैयार कर रही है। इस सबको देखते हुए यह सेवा आमजन के साथ ही सरकार की भी चहेती बन गई है। सरकार ने भी 108 सेवा की एंबुलेंस में जन्मे लेने वाले बच्चों पर इनायत बख्शी है। घोषणा की गई है कि इन बच्चों की शिक्षा के साथ ही उन्हें रोजगार देने के मामले में प्राथमिकता दी जाएगी। यानी ये बच्चे 'आम' से 'खास' होने वाले हैं, जिसका उन्हें भान भी नहीं है। अच्छा हो कि सरकार अपनी इस घोषणा को भूले नहीं और भविष्य में इसे अमलीजामा पहनाए। 108 सेवा की एंबुलेंस में जन्मे बच्चे जिला संख्या उत्तरकाशी 103 पौड़ी 100 देहरादून 98 टिहरी 87 हरिद्वार 84 चमोली 49 रुद्रप्रयाग 34 अल्मोड़ा 100 ऊधमसिंहनगर 90 नैनीताल 73 पिथौरागढ़ 56 चंपावत 51 बागेश्वर 33 (स्रोत: 108 सेवा। सूची में वे 57 बच्चे शामिल नहीं हैं, जिनका डाटा पूर्व में फीड नहीं हो पाया था)

महाकुंभ: गुम होने पर भी मिल जाएगा 'लाडला'

-मेला क्षेत्र में गुमशुदा बच्चों को ढूंढने को पुलिस लेगी तकनीक का सहारा -आतंकी व असामाजिक तत्वों की धरपकड़ को भी अपनाएगी पुलिस फार्मूला हरिद्वार: महाकुंभ का शाही स्नान और अचानक भीड़ में आपका 'लाडला' आपसे बिछड़ जाए। लाखों की भीड़ में आखिर उसे ढूंढें भी तो कहां। पुलिस ने माइक से बच्चे का हुलिया बताने के बजाय लोगों से अपने मोबाइल फोन देखने को कहा है। घबराइए मत पुलिस आपके साथ कोई मजाक नहीं कर रही, बल्कि बच्चे को खोजने के लिए आधुनिक तकनीक का सहारा लिया जा रहा है। कुंभ में बच्चों के खोने की घटनाओं के बाद मेला पुलिस आधुनिक जीपीआरएस सिस्टम का सहारा लेगी। आतंकी या असामाजिक तत्वों की धरपकड़ के लिए भी यही रणनीति होगी। सुरक्षा की दृष्टि से महाकुंभ को सकुशल निपटाना पुलिस के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। इसके लिए सुरक्षा व खोजबीन को आधुनिक तकनीक का सहारा लिया जाना आवश्यक हो गया है। आपने फिल्मों में ऐसे दृश्य तो जरूर देखे होंगे जिनमें मेले के दौरान बच्चा मां-बाप से बिछुड़ जाता है। कई बार असल जिदंगी में भी ऐसा ही हो जाता है। इस बार कुंभ में मेला पुलिस बच्चों के गुम होने की घटनाओं को लेकर अतिरिक्त सतर्क है। ऐसी स्थिति में अब तक केवल माइक से बच्चे का हुलिया बता पुलिस अपना पल्ला झााड़ लेती थी। लेकिन इस बार आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर बच्चों को बरामद करने का प्रयास किया जाएगा। दरअसल, कुंभ क्षेत्र में पुलिस जीपीआरएस सिस्टम लगाएगी। बच्चे के गुम होने की स्थिति में पुलिस उन सभी लोगों से अपने मोबाइल फोन खोलने को कहेगी जिनके मोबाइल पर ब्लू-टूथ की सुविधा होगी। ब्लू-टूथ खोलने के साथ ही आपके मोबाइल पर गुमशुदा बच्चे की तस्वीर आ जाएगी और आपको उसके बारे में पूरी जानकारी मिल जाएगी। इस तकनीक का प्रयोग केवल बच्चों के गुम होने की दशा में नहीं, बल्कि आतंकवादी या किसी असामाजिक तत्व की धरपकड़ के लिए भी किया जाएगा। वैसे भी पुलिस की असली चिंता कथित आतंकी हमले व असामाजिक तत्वों को लेकर है। मेला डीआईजी आलोक शर्मा का कहना है कि सुरक्षा को लेकर हर प्रकार की सतर्कता बरती जा रही है। आधुनिक तकनीक भी इसलिए इस्तेमाल की जा रही है क्योंकि वर्तमान में अधिकांश लोगों के पास अत्याधुनिक सुविधाओं वाले फोन हैं। ऐसे में उन्होंने उम्मीद जताई कि पुलिस का यह प्रयास सफल होगा। उन्होंने बताया कि मेला क्षेत्र में तकनीकी संचालन के लिए पांच 'ब्लू-5' मशीन लगा दी गई हैं और ऐसी कुल 12 मशीनें लगेंगी।

-गुरुकुल कांगड़ी: दिखेंगे अनूठे हिमालयी पत्थर

पुरातत्व विभाग ने सहेजा हिमालय क्षेत्र के पत्थरों को -सौ अलग-अलग तरह के पत्थर होंगे गैलरी में -23 दिसंबर से देशी-विदेशी दर्शक देख पाएंगे पत्थर हरिद्वार,: हिमालयी क्षेत्र में पग-पग पर जड़ी-बूटियों के साथ ही बेशकीमती पत्थर भी बिखरे पड़े हैं। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय का पुरातत्व विभाग ऐसे ही अनूठे पत्थरों को सहेजने का कार्य कर रहा है। विभाग के म्यूजियम में ऐसे सौ से अधिक पत्थर रखे हैं, जो विभिन्न आकृतियों के हैं। साथ ही वर्षों पुराने हैं। 23 दिसंबर से दर्शकों के लिए म्यूजियम खोला जाएगा। कांगड़ी गांव में गुरुकुल कांगड़ी विवि की 1902 में स्थापना के बाद से ही यहां का पुरातत्व विभाग धरोहरों को सहेजने का कार्य कर रहा है। यहां कई विश्व धरोहरों के साथ ही अब उच्च व मध्य हिमालयी क्षेत्र में पाए जाने वाले बेशकीमती पत्थर आगंतुक देशी-विदेशी पर्यटक देख पाएंगे। विभाग ने सौ से अधिक ऐसे अनूठे पत्थरों को सहेजा है, जो केवल हिमालयी क्षेत्र में पाए जाते हैं। साथ ही उनका अपना पुरातात्विक महत्व है। ऐसे पत्थरों को सर्वे आफ इंडिया देहरादून भेजकर उनके स्थान और वैज्ञानिक नाम रखे गए। इसमें कई मणिनुमा पत्थर से लेकर मार्बल पत्थर शामिल हैं। इनमें से कई पत्थरों को पूर्व में गुरुकुल में पढऩे वाले छात्रों द्वारा एकत्रित किया गया। इन पत्थरों का प्रयोग भूगोल के छात्रों को भू-आकृति विज्ञान का ज्ञान देने के लिए भी किया जाता रहा है। पुरातत्व विभाग म्यूजियम प्रभारी प्रभात कुमार ने बताया कि 23 दिसंबर से इन पत्थरों को म्यूजियम की गैलरी में रखा जाएगा। साथ ही इन दिनों म्यूजियम को नया लुक दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त म्यूजियम में हिमालय क्षेत्र के कई अनूठे शिल्प भी आगंतुक देख पाएंगे। उप प्रभारी दीपक घोष ने बताया कि हिंदू कैलेंडर के अनुसार 12 महीनों में होने वाले त्योहारों-पर्व से संबंधित पेंटिंग यहां लगाई गई है। जैसे श्रावण मास में झाूले की महत्ता, कार्तिक माह में कहानी सुनाने व इसी प्रकार शेष महीनों में परंपरा अनुसार होने वाले कार्यों को पेंटिंग पर उकेरा गया है। बहरहाल, पुरातत्व विभाग की गैलरी में दर्शक अब अनूठे पत्थर देखकर हिमालयी क्षेत्र में होने का अहसास करने के साथ वहां पग-पग पर बिखरे रहस्यों को समझा पाएंगे।

हर बार जुड़वा बच्चे पैदा करती है 'बरबरी'

-पहाड़ी बकरी का विकल्प बनेगी बरबरी नस्ल -पशुपालन विभाग को मिली 1.34 करोड़ की धनराशि गोपेश्वर (चमोली) बकरी की एक ऐसी नस्ल है, जो हर बार जुड़वा बच्चों को ही जन्म देती है। यह बात पढऩे में बेतुकी लग रही होगी, लेकिन है सोलह आने सच। बकरी की इस प्रजाति को 'बरबरी' कहा जाता है। पशुपालन विभाग ने बरबरी को पहाड़ी बकरी के विकल्प के रूप में चुना है। इस नस्ल को पहाड़ में चढ़ाने की कवायद सीमांत जनपद चमोली से की जा रही है। यह प्रोजेक्ट ग्वालदम में शुरू किया जाएगा। इसके लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत 1.34 करोड़ की धनराशि स्वीकृत की गई है। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बकरी की जो नस्ल पाली जाती है उसे 'हिमालन' या 'चौगरखा' नाम से जाना जाता है। ग्लोबल वार्मिंग व अन्य कारणों से इस प्रजाति की बकरियों की न सिर्फ औसत आयु कम हो गई है बल्कि उनका शरीर का विकास भी पर्याप्त नहीं हो पा रहा है। लिहाजा, कम वजन की पहाड़ी बकरियां पशुपालकों के लिए बहुत अधिक लाभदायक साबित नहीं हो पा रही हैं। ऐसे में पशुपालन विभाग बरबरी प्रजाति की बकरी को पहाड़ी बकरी के विकल्प के रूप में देख रहा है। दरअसल, बरबरी प्रजाति की बकरी यूपी के ऐटा, मैनपुरी, इटावा क्षेत्र में बहुतायत में पाई जाती है। बरबरी का वजन 20 से 25 किलो तक होता है, जबकि पहाड़ी बकरी का वजन 15 से 20 किलो तक ही होता है। बरबरी की विशेषता यह है कि यह साल में दो बार बच्चे पैदा करती है और हर बार जुड़वा बच्चों को ही जन्म देती है। मैदान के गर्म इलाकों के अलावा इसे पहाड़ के ठंडे इलाकों में भी इसे आसानी से पाला जा सकता है। इस संबंध में मुख्य पशु चिकित्साधिकारी डा. पीएस यादव ने बताया कि बकरी प्रजनन प्रक्षेत्र ग्वालदम में 250 बरबरी बकरियां प्रजजन के लिए लाई जाएंगी। इनमें से नर बकरियां राष्ट्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान मकदूम मथुरा व मादा बकरियां खुले बाजार से खरीदी जाएंगी। उन्होंने बताया कि इस प्रोजेक्ट के लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत पशुपालन विभाग चमोली को एक करोड़ 34 लाख रुपये प्राप्त हो चुके हैं।

शैक्षिक गुणवत्ता

उत्तराखंड के बुनियादी शिक्षा के नए माडल को राष्ट्रीय स्तर पर मंजूरी मिलना नि:संदेह खुशी की बात है। यह खास माडल एनसीईआरटी को न केवल पसंद आया, बल्कि उसने इसे अपनी संदर्भ पुस्तिक में भी स्थान दिया है। यह ऐसा माडल है जिसमें सीखने और सिखाने की प्रक्रिया को बेहद सरल ढंग से बताया गया है। नौनिहालों को विभिन्न प्रकार की जानकारी देने के लिए जो पद्धति इसमें बताई गई है, वह वाकई में अनूठी है। लिहाजा, इस माडल को राष्ट्रीय स्तर पर शाबासी मिलना राज्य के लिए बड़ी उपलब्धि है। इसे नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बुनियादी शिक्षा में हम कहां खड़े हैं। केवल अच्छा माडल तैयार करके और बुनियादी शिक्षा की असलियत को आंकड़ों में उलझााना कहां तक ठीक है। इस पर गौर करना होगा। उत्तराखंड में प्राथमिक शिक्षा के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। सर्वशिक्षा अभियान क्या रंग लाया, इसका कितना फायदा मिला, यह सभी के सामने है। गुणवत्ता सुधार के सरकार के प्रयास कहां तक परवान चढ़े और सरकारी तंत्र इसमें कितनी गंभीरता दिखा रहा है, यह भी बताने की जरूरत नहीं है। हां, इतना जरूर है कि आंकड़ों की बाजीगरी में सरकारी तंत्र माहिर हो गया है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या अच्छा माडल बना लेने मात्र से बुनियादी शिक्षा बदल जाएगी, नहीं, अगर ऐसा सोचते हैं तो यह खुशफहमी पालने जैसा है। लिहाजा सरकार को तमाम पहलुओं पर मंथन करना चाहिए। ऐसे हालात क्यों पैदा हुए और सूरतेहाल बेहतरी की संभावनाएं कैसे बढें्र, इस पर फोकस किया जाना चाहिए। भावी कर्णधारों का भविष्य संवारने के लिए जवाबदेही तय करनी होगी। अगर ऐसा नहीं किया गया तो नए माडल बनते जाएंगे, शाबासी भी मिलेगी, लेकिन राज्य जहां खड़ा है वहीं नजर आएगा। यानि बौद्धिक समृद्धि में सूबा लगातार पिछड़ता जाएगा। अभी भी वक्त है सरकार को असलियत से नजरें बचाने की बजाए खामियों को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए, तभी कोई मुकाम हासिल किया जा सकता है।

Sunday, 22 November 2009

बसंती देवी बनी उत्तरांचल ग्रामीण बैंक की ब्रांड एंबेस्डर

बसंती लोकगायकी की पहचान बनी ,तो उत्तरांचल ग्रामीण बैंक ने अपनी पहचान बनाने के लिए उनका सहारा लिया । बैंक की पहली महिला शाखा का न सिर्फ उनके हाथों उद्घाटन कराया गया ,बल्कि उन्हे अपना ब्रांड एबेंस्डर भी बनाया । बैंक के बाहर बसंती की पहाड़ के पारंपरिक गहनों से लकदक बसंती की बड़ी-बड़ी तस्वीर सभी को आकर्षित करती हैं उन्हें देवभूमि की तीजन कहा जा सकता है । सुर,ताल और लय के साथ उनका बहाव अद्भुत है । भले ही वे बड़े फलक पर चमकता सितारा न हों ,लेकिन वह उत्तराखंड लोकगायकी की पारंपरिक पहचान बन चुकी हैं। उन्होंने गायन के ऐसे क्षेत्र में पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती दे डाली ,जिसमें महिला स्वर के लिए कभी पहाड़ में कोई जगह नही रही। उत्तराखंड में बसंती किसी परिचय की मोहताज नही हैं। पारंपरिक जागर शैली को नए आयाम देकर न सिर्फ उन्होंने एक मुकाम तक पहुंचाया है,बल्कि एक दूरस्थ गांव में जन्मी बसंती आज एक बैक की ब्रंड एबेंसडर हैं और उन्होन अपने आप को गौरा देवी ,बेछेन्द्रीपाल और हिमानी शिवपुरी जैसी शख्सियतों के समकक्ष खड़ा कर दिया है। पारंपरिक गायक शैली का दूसरा नाम 56 वर्षीय बसंती बिष्ट का जन्म चमोली जिले के देवाल ब्लाक के ल्वाणी जैसे पिछड़े गांव में हुआ। यह क्षेत्र गढ़वाल और कुमाऊं को जोड़ता है , इसलिए बसंती को गढ़वाल और कुमाऊं दोनों भाषाओं का ज्ञान है और उन्होंने दोनों ही क्षेत्र की भाषा में पांरपरिक गीत बनाए और गाए हैं बसंती ने पहाड़ की दूसरी कलाओं की तरह जागर और गीत मांगल गान अपनी माता बिरमा देवी पिता आलम सिंह से सीखे । केवल पांचवी कक्षा तक पढी-लिखी बसंती का विवाह पंद्रह साल की उम्र में रणजीत सिंह बिष्ट के साथ हुआ। अस्सी के दशक में पहली बार पहाड़ से निकलकर पति के साथ जालंधर पहुंची । जालंधर में बसंती ने अपनी इस कला को सुर ,ताल ,और लय के साथ आगे बढ़ाने के लिए संगीत की शिक्षा ली,लेकिन पारिवारिक कारणों से संगीत की परीक्षा मे शामिल न हो सकी । इसके बाद उन्हे गांव लौटना पड़ा । नब्बे के दशक में उत्तराखंड आंदोलन उनके जीवन का महत्तवपूर्ण मोड़ था। वह कहती हैं कि आदोंलन के दौरान जनसभाओं ,रैली ,और नुक्कड़ सभाओं में उन्होंने लोगों को एक जुट करने के लिए कई गीत बनाए और गाना शुरु कर दिया । उनके सुर ,ताल और लय को प्रशंसा तो मिली ही तथा कुछ लोगों ने उन्हे आकाशवाणा की स्वर परीक्षा में शामिल होने की सलाह दी । वह कहती हैं कि वह 1996 में मैं स्वर परीक्षा में शामिल हुई और उसमें पास भी हुई आकाशवाणी से उन्हें पारंपरिक लोकगीत और जागर गाने का मौका मिला । इसके बाद गढवाल महासभा में 1998 में पहली बार गढ़वाल महोत्सव में जागर गाने का निमंत्रण दिया । उनकी जागर गायन की शैली से लोग इतने कायल हुए की दूसरे मंच पर भी उनकी मांग बढऩे लगी । इसके बाद तो बसंती ने पीछे मुड़ कर नही देखा ,और आज तो लोककलाओं पर आधारित कोई भी कार्यक्रम उनके बिना अधूरा ही माना जाता हैं । बसंती सिर्फ मंचों तक ही सिमटकर नही रह गई है ,वह गढवाल विश्वविद्यालय से लोककलाओं में डिप्लोमा लेने वाले छात्रों को लेक्चर भी देती हैं। हालांकि उनका कहना है कि जब उन्होंने मंच पर जागर गाना शुरु किया तो शुरु में उनका विरोध भी हुआ । बसंती जागर गायन की शैली को केवल पहाड़ और पहाड़ के लोगों के बीच ही नही रखना चाहती ।जागर को पहाड़ से नीचे उतारने के लिए उन्होंने प्रयोग भी शुरु कर दिए हैं । पहाड़ के देवी देवताओं के अलावा वह रामायण और महाभारत के प्रसंगों पर भी जागर बनाने लगी हैं । वह कहती है कि पहाड़ के लोगों के बीच जब वह जागर गाती हैं तो पहले रामायण और महाभारत के प्रंसगों की कहानी हिन्दी मे सुनाती हैं । फिर उन्हे जागर की शैली में गाती हैं । (पहाड़ की इस संघर्षशील महिला के इस हौसले पर आपके क्या विचार हैं लिखे .....)

Saturday, 21 November 2009

Uttarakhand Public Service Commission Examination Date November 22,

Uttarakhand Public Service Commission Uttarakhand Public Service Commission Secretariat by the Commission reviewing officer / assistant review officer (former designation senior class assistant / junior class assistant) Examination dated 28 February 2007 relating to advertising and Releases --- Publish Date November 22, 2009 to hold initial examination Purwahn 11.00 from 1.00 pm to 13 pm janapad of Uttarakhand has been fixed at 144 test centers.

-उत्तराखंड में बढ़ेगा टाटा की लखटकिया का उत्पादन

-नैनो का उत्पादन ढाई लाख कार प्रति वर्ष करने की योजना -दो माह में 800 से 1000 कार प्रति माह हो जाएगा उत्पादन : उत्तराखंड में बेहतर व्यवसायिक माहौल को देखते हुए टाटा मोटर्स पंतनगर स्थित अपने कारखाने में नैनो का उत्पादन बढ़ाने वाला है। टाटा मोटर्स की अभी पंतनगर से करीब आठ सौ नैनो प्रतिमाह का उत्पादन कर रहा है। उसकी योजना है कि अगले दो माह में इसे 1000 तक ला दिया जाए। इतना ही नहीं वह इसे बढ़ाकर ढाई लाख नैनो कार सालाना करने की जुगत में है। टाटा मोटर्स की इस योजना से प्रदेश सरकार को भी अपने राजस्व में कई गुना बढ़ोतरी की उम्मीद है। गौरतलब है कि सिंगुर विवाद के बाद पश्चिमी बंगाल से उखड़ी टाटा मोटर्स ने उत्तराखंड को कार उत्पादन के अस्थाई ठिकाने के रूप में चुना था क्योंकि उसके पंतनगर स्थित कारखाने में नैनो उत्पादन की क्षमता थी। इतना ही नहीं प्रदेश सरकार ने भी टाटा मोटर्स को नैनो उत्पादन में भरसक सहयोग दिया जिससे देश की पहली नैनो उत्तराखंड में ही बनीं। उत्तराखंड उद्योग निदेशालय के अपर निदेशक एससी नौटियाल ने बताया कि नैनो का उत्तराखंड में उत्पादन बढऩे से राज्य की टैक्स के मार्फत होने वाली आय में कई गुना की बढ़ोत्तरी होगी। एससी नौटियाल ने बताया कि पंतनगर धीरे धीरे ऑटोमोबाइल हब के रूप में प्रसिद्धी पा रहा है। टाटा मोटर्स ही नहीं बल्कि उत्तराखंड में स्थापित विभिन्न आटोमोबाइल कंपनियों ने महसूस किया है कि उत्तराखंड में उत्पादन के लिए अन्य प्रदेशों से बेहतर माहौल है। उन्होंने बताया कि नैनो को दिल्ली में चल रहे इंटरनेशनल इंडस्ट्री फेयर में उत्तराखंड के स्टाल में भी प्रदर्शित किया गया है।

पौड़ी में एडवेंचर टूरिज्म की असीम संभावनाएं

-पैराग्लाइडिंग के मामले में विश्वस्तरीय है कंडारा घाटी -सरकार के ध्यान न देने से नहीं हो पा रहा विकास पौड़ी गढ़वाल: दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियों में पंख लगाकर उडऩे की कल्पना में अक्सर बच्चे खोए रहते हैं, लेकिन पौड़ी में यह कहानी हकीकत में बदल चुकी है। यहां की कंडारा, गगवाड़स्यूं और कोट की प्राकृतिक सुंदरता से लबरेज घाटी में घंटों ग्लाइडर लगाकर आसमान चूमने वाले पर्यटक बार-बार इसी ओर दौड़ते हैं, लेकिन राज्य सरकार को यह नजर नहीं आता और यही वजह भी है कि यह खेल अभी चंद पर्यटकों को ही लुभा पा रहा है। 'पंख होते तो उड़ आती रे' इस गीत की पंक्तियां पौड़ी में साकार की जा सकती हैं। वर्ष 1994 में हिमालयन पैराग्लाइडिंग इंस्टीट्यूट के मनीष जोशी ने अपने निजी खर्चे पर पौड़ी का पहला सर्वे किया और खुलासा किया कि पौड़ी की कंडारा, कोट व गगवाड़स्यूं ऐसी घाटियां हैं, जो पौड़ी की बेरोजगारी और गरीबी को पैराग्लाइडिंग के जरिए मिटा सकती है। इसी साल उन्होंने ट्रायल के तौर पर कुछ उड़ानें भरीं, जिन्हें देखने को पौड़ी ही नहीं बल्कि आसपास के गांवों के सैकड़ों लोग भी पहुंचे। वर्ष 1997 में कंडारा वैली के 12 युवक-युवतियों को पैराग्लाइडिंग का प्रशिक्षण दिया गया। तब उत्तर प्रदेश सरकार में तत्कालीन कैबिनेट मंत्री डा. रमेश पोखरियाल 'निशंक' ने प्रशिक्षण का व्यय वहन किया। तत्कालीन आयुक्त सुभाष कुमार ने प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले छात्रों को पुरस्कार व प्रमाणपत्र वितरित किए। इसके बाद यूपी पुलिस के छह प्रशिक्षु, आईआईटी दिल्ली, आईआईटी रुड़की, दिल्ली कालेज आफ इंजीनियरिंग, आल इंडिया इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल साइंस व विदेशी छात्रों के एक दल ने भी यहां पैराग्लाइडिंग का प्रशिक्षण लिया। तब ऐसा लगा कि अब पौड़ी पैराग्लाइडिंग के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर स्थापित हो जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ हो नहीं सका। वर्ष 1989 में पैराग्लाइडिंग की बदौलत लिम्का बुक आफ रिकाडर््स में नाम दर्ज करवा चुके मनीष जोशी पौड़ी में पैराग्लाइडिंग की जिम्मेदारी संभालने को तैयार हैं। उनका कहना है कि पौड़ी की घाटियों में हवा का दबाव पैराग्लाइडिंग के लिए सबसे उपयुक्त है। यहां चलने वाले मंद हवा के झाोंके पैराग्लाइडर को आसमान की ऊंचाईयों तक पहुंचा देते हैं और यही वजह भी है कि विदेशी भी पौड़ी की घाटियों में उड़ान भरने के लिए लालायित रहते हैं। जिला साहसिक खेल अधिकारी जसपाल चौहान बताते हैं कि अभी तक करीब 60 युवक-युवतियों को पैराग्लाइडिंग का प्रशिक्षण दिया गया है और भविष्य में भी प्रशिक्षण दिए जाते रहेंगे। उन्होंने कहा कि इसके लिए शासन से बजट मांगा जाता है, लेकिन कई बार बजट आवंटित न होने से खेल नहीं हो पाते।

उत्तराखण्ड लोक सेवा आयोग

उत्तराखण्ड लोक सेवा आयोग आयोग द्वारा उत्तराखंड सचिवालय लोक सेवा आयोग समीक्षा अधिकारी /सहायक समीक्षा अधिकारी (पूर्व पदनाम प्रवर वर्ग सहायक/ अवर वर्ग सहायक )परीक्षा 2007 से सम्बन्धित दिनांक 28 फरवरी को प्रकाशित विज्ञापन तथा विज्ञप्ति --- प्रारम्भिक परीक्षा का आयोजन दिनांक 22 नवम्बर 2009 को पूर्वाहन 11.00 बजे से 1.00 बजे तक उत्तराखंड के 13 जनपदों के 144 परीक्षा केन्द्रो पर नियत गया है । Uttarakhand Public Service Commission Uttarakhand Public Service Commission Secretariat by the Commission reviewing officer / assistant review officer (former designation senior class assistant / junior class assistant) Examination dated 28 February 2007 relating to advertising and Releases --- Publish Date November 22, 2009 to hold initial examination Purwahn 11.00 from 1.00 pm to 13 pm janapad of Uttarakhand has been fixed at 144 test centers.

Friday, 20 November 2009

-महाकुंभ: हादसे पर तुरंत मिलेगा इलाज

प्रवेश द्वार पर हादसों से निपटने के लिए मौजूद रहेगा सचल दल -श्रद्धालु की हालत ज्यादा खराब होने पर पैरामेडिकल स्टाफ ले जाएगा अस्पताल -चार आउट पोस्ट बैरियरों पर मेला स्वास्थ्य विभाग रहेगा मुस्तैद हरिद्वार: महाकुंभ के दौरान सड़क हादसों से निपटने के लिए मेला स्वास्थ्य विभाग ने कमर कस ली है। तीर्थनगरी में प्रवेश करने वाले श्रद्धालुओं के साथ दुर्घटना होने पर तत्काल इलाज मिल सकेगा। मेला स्वास्थ्य विभाग ने ऐसा इंतजाम किया है कि घटना के तुरंत बाद पीडि़त लोगों तक राहत पहुंच जाए। इसके लिए प्रत्येक प्रवेश द्वार पर सचल दल व पैरामेडिकल स्टाफ आपात सुविधा के साथ मुस्तैद रहेगा। हरिद्वार में जनवरी से महाकुंभ का आयोजन होने जा रहा है। कुंभ को लेकर सभी विभाग अपनी-अपनी तैयारियों में जुटे हुए हैं। देश भर से करोड़ों श्रद्धालु महाकुंभ के लिए तीर्थनगरी पहुंचेंगे। इसके चलते स्वास्थ्य विभाग की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। ऐसे में हरिद्वार के सभी प्रवेश द्वारों पर ऐसी व्यवस्था की जा रही कि कोई हादसा या दुर्घटना होने की स्थिति में श्रद्धालुओं को तत्काल राहत प्रदान की जा सके। महाकुंभ के लिए स्वास्थ्य विभाग ने हरिद्वार में रुड़की से प्रवेश करने वालों के लिए रानीपुर झााल, नजीबाबाद मार्ग से आने वालों के लिए श्यामपुर कांगड़ी, देहरादून मार्ग से आने वालों के लिए नेपाली फार्म और पर्वतीय मार्ग मसलन श्रीनगर, पौड़ी आदि से प्रवेश करने वाले श्रद्धालुओं के लिए नटराज चौराहा ऋषिकेश में आउट पोस्ट बैरियर स्थापित किया है। मेला स्वास्थ्य विभाग की ओर से सभी आउट पोस्ट बैरियर पर एक-एक एम्बुलेंस मौजूद रहेगी। यहां पर प्रशिक्षित पैरामेडिकल स्टाफ भी मौजूद रहेगा जो आपात स्थिति में तुरंत श्रद्धालुओं को प्राथमिक उपचार के साथ राहत प्रदान करने की कोशिश करेगा। आउट पोस्ट बैरियर में किसी श्रद्धालु की स्थिति अधिक खराब होने पर उसे नजदीक के जिला, मेला अस्पताल तक यही टीम लेकर जाएगी। श्रद्धालु की स्थिति गंभीर होने पर चिकित्सा उपलब्ध कराने के बाद उसे हायर सेंटर को भी रेफर किया जा सकता है। मेलाधिकारी स्वास्थ्य डा. पी लाल ने बताया कि आउट पोस्ट बैरियर पर स्वास्थ्य विभाग हर पल चौकन्ना रहेगा। बैरियर पर मौजूद एम्बुलेंस को जरूरत की हर सुविधा से लैस किया जाएगा। अपने कार्य में दक्ष पैरामेडिकल स्टाफ को ही आउट पोस्ट बैरियर पर तैनात किया जाएगा। उन्होंने कहा कि किसी भी हादसे में समय पर उचित प्राथमिक उपचार मिलने पर पीडि़त को राहत मिलती है और आगे के इलाज में सहूलियत हो जाती है।

उत्तराखंड में बुनियादी शिक्षा बीमार

उत्तराखंड में बुनियादी शिक्षा बीमार है। ऐसा नहीं है कि विद्यालय नहीं हैं। विद्यालय हैं, लेकिन सुदूरवर्ती स्कूलों में शिक्षा देने वाले अध्यापकों का अभाव है। यूं आंकड़े देखे जाएं तो प्राइमरी शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापकों की कहीं कोई कमी नहीं है। सरकार ने इतने शिक्षक नियुक्त कर दिये हैं कि 27 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक का अनुपात पहुंच गया है, लेकिन विडंबना तो देखिये कि 1119 स्कूलों में मात्र एक ही शिक्षक है और 210 स्कूल तो मात्र शिक्षा मित्रों के भरोसे चल रहे हैं। सरकार चाहती है कि सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर निजी और पब्लिक स्कूलों के समकक्ष हो जाए। अगर हालात यही रहे तो शायद ही ऐसा संभव हो पाए। वर्तमान समय प्राइमरी स्कूलों में सरकारी शिक्षक का वेतन इतना हो गया है कि शायद ही निजी या पब्लिक स्कूलों के शिक्षकों का होता हो, लेकिन परिणाम के नाम पर स्थिति शून्य है। बीमारी साफ है, लेकिन इलाज करने वाला कोई नहीं है। न तीमारदार और न ही डाक्टर। बात-बात पर अपने अधिकारों की मांग करने वाला शिक्षक वर्ग ग्र्राम्य अंचल के स्कूलों में जाना नहीं चाहता, खासकर दूरस्थ अंचलों में स्थित स्कूलों में तो कतई नहीं। जब शिक्षक जाएंगे ही नहीं, तो वहां पढ़ायेगा कौन। नियुक्ति भले ही दूरस्थ स्कूलों के लिए हो, नियुक्त होने के बाद शिक्षक येन-केन प्रकारेण अपना स्थानांतरण शहरी या निकट के स्कूलों में कराने का प्रयास करते हैं। गांवों के स्कूलों में वे ही शिक्षक रह जाते हैं, जिनके पास महकमे के आला अफसरों के पास पहुंच के साधन नहीं होते। प्राथमिक शिक्षकों को यह बात अच्छी तरह समझा लेनी चाहिए कि उनके इन प्रयासों के चलते ही सरकारी शिक्षा की बुनियाद कमजोर हो रही है। इसके लिए उन्हें दोषमुक्त नहीं किया जा सकता। उन्हें अपने दायित्व का निर्वहन ईमानदारी के साथ करना चाहिए। जब वे अपने वेतन भत्तों के लिए बुलंद आवाज उठाते हैं तो अपने जेहन में दायित्वबोध की बात भी रखें। राज्य सरकार को भी इस मामले में सजगता का परिचय देना चाहिए। सुस्पष्ट नीति निर्धारित कर शिक्षकों के लिए सुदूरवर्ती अंचलों में सेवा अनिवार्य की जानी चाहिए। इससे बचने का प्रयास करने वाले शिक्षकों के विरुद्ध समुचित कार्यवाही होनी चाहिए। ऐसा नहीं किया गया तो बीमार हो रही बुनियादी शिक्षा लाइलाज हो जाएगी और विद्यार्थी सरकारी स्कूलों से नाता तोडऩे लगेंगे।

वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जाएगी 'राजी' बोली

-90 फीसदी राजी मानते हैं अपनी बोली बोलने से कोई फायदा नहीं -देश में महज 517 राजी,उनमें भी अपनी भाषा संस्कृति के प्रति हीनता बोध घर कर रहा देहरादून किसी भी भाषा बोली के बचे रहने की गारंटी क्या होती है, यह कि उसकी भावी पीढ़ी उसको बोले। मगर उत्तराखंड की सबसे अल्पसंख्यक जनजाति राजी की राजी बोली वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जाने वाली है। वजह साफ है उसके 20 प्रतिशत बच्चे अपनी बोली में बातचीत करना ही पसंद नहीं करते क्योंकि वे समझाते हैं कि अपने पूर्वजों की बोली की बजाय कुमाऊंनी बोलना ज्यादा फायदेमंद है। 60 प्रतिशत लोग अपनी बोली के प्रति बेपरवाह हैं, जबकि केवल 20 प्रतिशत को अपनी बोली में बात करना भाता है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में राजी या वनरावतों की आबादी महज 517 है। यह छोटी-सी खानाबदोश जनजाति नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों में रहती है। इसके महज पांच फीसदी लोग ही साक्षर हैं। ऐसे में राजी बोली का केवल मौखिक रूप जीवित है। हाल में ही दून आईं लखनऊ विश्वविद्यालय की रीडर डा. कविता रस्तोगी का सर्वेक्षण इस बोली के अंधेरे भविष्य की ओर संकेत करता है। डा.रस्तोगी के सर्वे के अनुसार 90 प्रतिशत राजियों का मानना था कि राजी बोलने से कोई फायदा नहीं, जबकि 60 फीसदी को अपनी जबान से कोई मतलब ही नहीं था। 26 से 35 साल के 65 फीसदी तो 16 से 25 साल के 60 फीसदी युवाओं को अपनी भाषा में बोलना पसंद नहीं। 26 से 35 साल के 40 प्रतिशत लोगों को अपनी भाषा संस्कृति पर कोई गर्व नहीं तो, 16 से 35 साल के 80 फीसदी तो 36 से 45 साल के 70 फीसदी राजी नहींमानते कि राजी बोलना अच्छा है। डा. रस्तोगी के मुताबिक दरअसल राजी लोगों में धीरे-धीरे अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति हीनताबोध घर कर रहा है। इसलिए वे धीरे-धीरे कुमाउंनी या हिंदी पर निर्भर होते जा रहे हैं। राजी लोग अपनी बोली का 84 फीसदी इस्तेमाल धार्मिक कर्मकांड के दौरान ही करते हैं। बोली का घरों में 75 फीसदी तो दूसरे स्थानों पर केवल 30 फीसदी ही इस्तेमाल होता है। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषा विज्ञानी डा. शोभाराम शर्मा का कहना है कि किसी भी भाषा बोली के जिंदा रहने के लिए उसके बोलने वाले समाज का उसके प्रति झाुकाव और उसकी भौतिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। उन्होंने बताया के पिछली कांग्रेस सरकार ने राजी जनजाति पर संकट भांपते हुए जनजाति के लोगों को ज्यादा संतान पैदा करने पर पुरस्कृत करने और सुविधाएं मुहैया कराने की घोषणा की थी लेकिन उसका क्या हुआ पता नहीं। जिन भाषाओं में जीविका का जुगाड़ नहीं होता वे मर जाती हैं। राजी बोली का खत्म होना देश ही नहीं दुनिया की अपूरणीय क्षति होगा। सरकार को चाहिए कि वह भाषाई विविधता की रक्षा के लिए राजी जनजाति और उनकी बोली के संरक्षण के लिए प्रयास करें।

-यह 'उपलब्धि' है तो खुदा खैर करे

-यह 'उपलब्धि' है तो खुदा खैर करे नौ साल में रोपे गए साढ़े तीन लाख पौधे, हाथ आए सिर्फ बयासी हजार - बचे हुए पौधों में से भी हजारों को 'अंकुरित हो रहे' बताया जा रहा - जानवरों के स्वच्छंद विचरण के बहाने सुरक्षा के भी कोई उपाय नहीं - वृक्षारोपण को मिली 4515092 की राशि में से 3393158 रुपये गर्त में डूबे दिनेश कुकरेती़ देहरादून: यह है राजाजी नेशनल पार्क की 'उपलब्धि'। नौ साल में पैंतालीस लाख से अधिक की धनराशि खर्च कर करीब साढ़े तीन लाख पौधे रोपे और हाथ आए सिर्फ बयासी हजार। यह तो विभागीय दावा है, जबकि हकीकत इससे कहीं अधिक निराशाजनक हो सकती है। पार्क के अधिकारियों का यह तर्क भी कम मजेदार नहीं है कि रोपे गए पौधों की सुरक्षा के लिए कारगर उपाय किया जाना जानवरों के स्वच्छंद विचरण को देखते हुए संभव नहीं है। ऐसे में लगता नहीं कि पार्क क्षेत्र में राज्य गठन के बाद वृक्षों का घनत्व बढ़ा होगा। हरिद्वार, देहरादून व गढ़वाल जनपद के 820.42 वर्ग किमी भूभाग को मिलाकर वर्ष 1983 में स्थापित राजाजी राष्ट्रीय उद्यान देश का यही एकमात्र पार्क है, जिसका भूगोल सबसे जटिल है। चारों ओर घनी आबादी है तो बीच से राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरता है। इसके अलावा बीसियों कच्चे मार्ग भी आबादी वाले इलाकों में खुलते हैं। उम्मीद की जा रही थी राज्य गठन के बाद पार्क की दशा सुधरेगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पार्क क्षेत्र में वृक्षों का घनत्व बढ़ाने के लिए बीते नौ सालों में जो नए पौधे रोपे गए, उनकी सुरक्षा भी भगवान भरोसे है। सूचना का अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार राज्य गठन के बाद पार्क क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों के 331530 पौधे रोपे गए, लेकिन इनमें से सुरक्षित होने का दावा सिर्फ 82374 पौधों का ही किया जा रहा है। इसमें भी हजारों पौधों को 'अंकुरित हो रहे' बताया जा रहा है। इन पौधों के रोपण में 4515092 की धनराशि व्यय हुई, जिसे मामूली राशि नहीं माना जा सकता। इस हिसाब से पार्क प्रशासन महज 1121933.88 रुपये के पौधों को ही बचा पाया। बाकी 3393158.12 की राशि गर्त में डूब गई। हैरत तो इस बात से होती है कि रोपी गई पौध को न बचा पाने के लिए पार्क प्रशासन सिर्फ प्राकृतिक कारणों को ही जिम्मेदार मानता है। उसका कहना है सेही, सांभर, चीतल, सुअर, हाथी आदि जानवरों द्वारा पौध नष्ट कर दिए जाने के अलावा अत्यधिक पाला व गर्मी से भी अधिकांश पौध मर गई। रही रोपित पौध की सुरक्षा की बात तो इसमें भी पार्क प्रशासन का तर्क है कि जानवरों के स्वच्छंद विचरण को देखते हुए इसके लिए कोई कारगर उपाय किया जाना संभव नहीं था। रेंज वाइज रोपित पौधे, जीवित पौधे और पौधरोपण पर हुआ व्यय रेंज रोपित जीवित व्यय धनराशि मोतीचूर 28100 4278 295897 हरिद्वार 15000 8750 613722 धौलखंड(पू.)36155 5500 629200 चिल्लावाली 93500 13205 842350 गौहरी 16500 8670 351400 धौलखंड(प.)36500 18600 707689 चीला 17500 1125 395000 कासरो 88275 22246 728244 -

दयारा बुग्याल: जंगल में मोर नाचा किसने देखा

-चालीस करोड़ की महायोजना नहीं उतर सकी धरातल पर -औली की तर्ज पर विकसित किये जाने के मिलते रहे हैं आश्वासन उत्तरकाशी कुदरत मेहरबान होने से दयारा बुग्याल में बर्फ की परत चढऩे लगी है। मौसम का यह मिजाज रहा तो कुछ ही दिनों में यह स्कीइंग के लिए फील्ड तैयार हो जाएगा। यहां से प्रकृति के मेहरबान होते हुए भी सरकार ने मुंह मोड़ा हुआ है। सब कुछ होते हुए भी सड़क न होने से रोपवे ही एक मात्र सहारा है। इसलिए दयारा पहुंचकर स्कीइंग करवाने की वर्षों पुरानी योजना सिर्फ कागजों में ही धूल फांक रही है। करीब 28 वर्ग किमी में फैला दयारा बुग्याल सर्दियों में पांच से छह फुट तक बर्फ से ढका रहता है जो लगातार चार महीनों तक जमी रहती है। यही बातें इसे स्कीइंग के लिये राज्य में सबसे आदर्श बुग्याल बनाती हैं। सबसे पहले अस्सी के दशक में कुछ स्थानीय लोगों ने इस बुग्याल से बाहरी दुनिया को रूबरू कराना शुरू किया। स्की के शौकीनों ने निजी तौर पर वहां पहुंच कर स्कीइंग भी शुरू कर दी, लेकिन सरकारी मदद के अभाव में अभी तक यह औली की तरह विश्व विख्यात नहीं हो पाया है। स्थानीय लोगों की लगातार मांग पर सूबे में रही सरकारों की ओर से रोपवे बनवाने के आश्वासन मिलते रहे, लेकिन,अभी तक अस्तित्व में नहीं आ सका है। लिहाजा दयारा की स्थिति 'जंगल में मोर नाचा, किसने देखा वाली बनी हुई है'। सूबे की पिछली सरकार ने चालीस करोड़ रुपये लागत की दयारा पर्यटन महायोजना बनाई थी। इसमें दयारा को विंटर गेम्स के लिए तैयार करने के लिये रोपवे सहित सभी बुनियादी सुविधाएं जुटाने की रुपरेखा तैयार की गई थी। इसके तहत टाटा कसंल्टेंसी से बुग्याल व आस पास के क्षेत्र का सर्वे भी कराया गया। कंपनी ने रिपोर्ट तैयार कर शासन को भी सौंप दी थी, लेकिन हैरतअंगेज तरीके से यह महायोजना गायब हो गई। इसके बाद पांच करोड़ रुपए की केंद्रीय पर्यटन निधि से दयारा बुग्याल के नजदीकी रैथल व बार्सू गांव से ट्रैक रूट निर्माण, कम्यूनिटी सेंटर, आवास गृह, सीवर लाइन, टूरिस्ट हट आदि बनवाए गये। स्थानीय लोगों की लगातार मांग व आवश्यकता को देखते हुए सरकार की ओर से रोपवे का काम पीपीपी मोड पर देने का विचार किया गया। बीते तीन वर्षों से धरातल पर इस दिशा में कोई भी कार्य नहीं हो पाया है, जबकि रैथल व बार्सू गांव दयारा के लिये बेस कैंप के रूप में लगभग तैयार हो चुके हैं। रैथल गांव के प्रधान मनोज राणा के मुताबिक दयारा बुग्याल के औली की तरह विकसित होने से पूरी गंगोत्री घाटी को नई पहचान मिलेगी, लेकिन लगातार की जा रही उपेक्षा से स्थानीय लोग हताश हैं। सरकार के प्रयास जारी : डीएम उत्तरकाशी : दयारा बुग्याल को स्की सेंटर के रूप में तैयार करने के संबंध में जिलाधिकारी डा.बीवीआरसी पुरुषोत्तम ने बताया कि सरकार की ओर से प्रयास जारी हैं। इसके लिये पहली जरूरत रोपवे की है। आईएलएफएस संस्था आगे आई है और यह प्रस्ताव शासन को भेज दिया गया है। इसके अलावा रैथल व बार्सू गांवों में भी सड़क सहित सभी जरूरी सुविधाएं विकसित कर ली गई हैं। आने वाले कुछ वर्षों में रोपवे के तैयार होने की पूरी संभावना है।

नंदा के बर्फीले मायके में हवा में नाचे विदेशी

नंदा का रहस्यमय बर्फीला मायका और उसमें हवा में झूलते हुए शानदार नृत्य। जी हां, जमा देने वाली हिमालयी ठंड के बीच प्रोजेक्ट बैंडालूप के दीवाने कलाकारों के ये नृत्य आपको दांतों तले अंगुलियां दबाने को मजबूर कर देते हैं। प्रोजेक्ट बैंडालूप खड़ी चट्टानों में रस्सियों के सहारे नृत्य करने वाले कलाकारों की जानी-मानी कंपनी है। वह दुनिया भर में ऊंचे चट्टानी क्षेत्रों में रस्सियों के जरिए अपने साहसपूर्ण और आकर्षक नृत्यों के लिए मशहूर है। वुडस्टॉक स्कूल में पढ़ीं बैंडालूप गु्रप की आर्टिस्टिक डायरेक्टर एमेलिया रुडोल्फ की देखरेख में पिछले हफ्ते बैंडालूप के कलाकार मसूरी के वुड स्टॉक स्कूल में नए जिम के उद्घाटन के लिए आए थे। वहां अपनी अनूठी नृत्य कला के प्रदर्शन के बाद वे नंदादेवी क्षेत्र की एक हफ्ते की यात्रा पर गए। वहां के ग्रामीणों की एडवेंचर ट्रैवल कंपनी माउंटेन शेफर्ड के श्रीगणेश बेस कैंप, नंदादेवी की विशाल शिलाओं और मनोरम हिमालयी दृश्यों के बीच उन्होंने दुरुह खड़ी चट्टानों में अपने अद्भुत नृत्यों को फिल्माया भी है। फिल्म निर्माता लोगन शीडर ने 16 एमएम के कैमरे से जहां फिल्म बनाई,

Thursday, 19 November 2009

=शीतकाल के लिए बदरीनाथ धाम के कपाट बंद

फूल मालाओं से सजाकर मंदिर को दिया गया था भव्य स्वरूप बदरीनाथ,: भू-बैकुंठ धाम श्री बदरीनाथ के कपाट शीतकाल के लिए पूजा अर्चना के बाद आज बंद कर दिए गए। इस मौके पर पांच हजार से अधिक श्रद्धालु मौजूद थे। कपाट बंद होने से पहले मंदिर समेत पूरे पंचशिला क्षेत्र को फूल-मालाओं से सजाया गया। मंगलवार को ब्रह्म मुहूर्त में ही रावल केशव प्रसाद ने बदरीविशाल की महाभिषेक एवं अभिषेक पूजाएं शुरू कर दी थीं। दिन भर धार्मिक परम्पराओं के अनुरूप भगवान को बाल व राज भोग चढ़ाया गया। इसके उपरान्त विशेष पूजा कर बदरीविशाल की मूर्ति का फूलों से श्रृंगार किया गया और उन्हें माणा की कुंवारी कन्याओं के निर्मित ऊन की चोली को घी का लेप लगाकर पहनाया गया। अपराक्ष करीब तीन बजे बद्रीश पंचायत में स्थापित उद्धव और कुबेर की मूर्ति को गर्भगृह से बाहर लाया गया। फिर रावल केशव नंबूदरी ने स्त्री का रूप धारण करके महालक्ष्मी की मूर्ति को गर्भगृह में भगवान नारायण के साथ छ: माह के लिए यथास्थान विराजित किया। ठीक तीन बजकर चालीस मिनट पर बदरीनाथ धाम के कपाट मंत्रोच्चारण के साथ बंद कर दिए गए। इस मौके पर गाजे-बाजे के साथ गढ़वाल स्काउट की भक्तिमय संगीत ने श्रद्धालुओं को भक्ति सागर में डुबो दिया। बदरीनाथ धाम के कपाट बंद होने के अवसर पर परम्पराओं को निभाते हुए सेना की तरफ से ब्रिगेडियर एके बडोनी के निर्देशन में गांधी घाट पर श्रद्धालुओं के लिए नि:शुल्क भंडारे का आयोजन किया गया। इस अवसर पर चार धाम यात्रा विकास परिषद के अध्यक्ष सूरत राम नौटियाल, मंदिर समिति के अध्यक्ष अनुसूया प्रसाद भट््ट, धर्माधिकारी जेपी सती सहित हजारों श्रद्धालु उपस्थित थे।

जमींदोज हो गई वीरता की विरासत

-चमोली के बडग़ांव स्थित गोरखा ओबरा पूरी तरह क्षतिग्रस्त -सैकड़ों वर्ष पूर्व गढ़वाली वीरों ने यहीं दी थी गोरखाओं को मात -संरक्षण के अभाव में टूट गया ऐतिहासिक भवन , गोपेश्वर(चमोली): सैकड़ों वर्ष पूर्व गढ़वाली जनता पर गोर्खा सेना के आक्रमण, अत्याचार और भीषण नरसंहार के बाद गढ़वाली वीरों के साहस और शौर्य की याद दिलाने वाला ऐतिहासिक भवन 'गोरखा ओबरा' बीते दिनों की याद भर बनकर रह गया है। कभी गोरखा सैनिकों की शिकस्त का प्रतीक रहा यह भवन देखरेख व संरक्षण के अभाव में पूरी तरह जमींदोज हो गया है। इसके साथ ही गढ़वाल की ऐतिहासिक विरासत का भी एक स्तंभ टूटकर बिखर गया। चमोली जिले में जोशीमठ से करीब सात किमी दूर ऋषिकेश-जोशीमठ-सोमना मार्ग पर स्थित बडग़ांव के लोगों का सिर आज भी अपने पूर्वजों की वीरता की गाथाएं सुनाते हुए फख्र से ऊंचा उठ जाता है। हो भी क्यों नहीं, आखिर यही वह गांव है, जहां गढ़वाल भर में बर्बरता का पर्याय बन चुके गोरखाओं को मुंह की खानी पड़ी थी। गांव के 82 वर्षीय बुजुर्ग दरबान सिंह रावत बताते हैं कि सन् 1803 में गोरखाओं ने राज्य विस्तार के उद्देश्य से गढ़वाल पर हमला बोल दिया। गढ़वाली जनता को मारते- काटते उन्होंने अधिकांश क्षेत्र पर अपना आधिपत्य भी जमा लिया था। गोरखाओं के जोशीमठ से आगे घाटी की तरफ बढऩे की सूचना मिलते ही बडग़ांव के लोगों ने उन्हें सबक सिखाने की योजना बनाई। इसके तहत गांव की सबसे अशक्त व बुजुर्ग महिला को गांव में अकेले छोड़ दिया गया। गांव के सभी पुरुष, महिलाएं, बच्चे पास के ही जंगल में हथियार लेकर छिप गए। गांव में एक बड़ा भवन था, बूढ़ी महिला को कहा गया था कि जब गोरखा गांव में आएं, तो वह उनका स्वागत करे और किसी तरह भवन के भीतर ले जाकर बंद कर दे। गोरखा आए, तो बुजुर्ग महिला ने उनका सत्कार किया और भोजन कराने के नाम पर बड़े भवन के भीतर बिठा दिया। इसके बाद वह बाहर आई और जलती लकड़ी से जंगल की ओर संकेत किया। इशारा पाते ही गांव के लोग गोरखाओं पर टूट पड़े। भयंकर संघर्ष के बाद गोरखा सेनापति और कई सैनिक भवन में ही मारे गए। ग्रामीणों ने उनके शव भवन के ही तहखाने में बंद कर दिए। इसके बाद भवन बंद कर दिया गया और फिर कभी गांव का कोई बाशिंदा इस भवन में नहीं गया। इसके चलते देखरेख के अभाव में यह भवन क्षतिग्रस्त हो गया। आलम यह है कि आज भवन पूरी तरह जमींदोज हो चुका है। समाजसेवी व पत्रकार शशिभूषण बताते हैं कि वह कई बार पुरातत्व विभाग के देहरादून स्थित निदेशालय में भवन के संरक्षण के संबंध में वार्ता कर चुके हैं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। ग्राम प्रधान हरीश भंडारी कहते हैं किभडग़ांव से अपभ्रंश होकर आज गांव बडग़ांव हो गया है। 'भड़' का अर्थ वीर होता है, ऐसे में यह गांव उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत भी है। वह कहते हैं कि ओबरा क्षतिग्रस्त हो चुका है, लेकिन सरकार को इसके पुनर्निर्माण की दिशा में प्रयास करना चाहिए।

उत्तराखंड की किरन ने रचा इतिहास

देहरादून,: सूबे की खेल प्रतिभाएं समय-समय पर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फलक पर चमक बिखेरती रहीं है। फिर चाहे वह सुरेंद्र भंडारी हों प्रीतम बिंद हों या फिर पंकज डिमरी। इसी कड़ी में अब एक नाम किरन तिवारी का भी जुड़ गया है। हल्द्वानी निवासी किरन तिवारी ने हाल ही में ग्वांगजोंग(चाइना)में हुई 18वीं एशियन एथलेटिक्स चैंपियनशिप की तीन हजार मीटर स्टेपलचैस में कांस्य पदक जीतकर इतिहास रच दिया। दैनिक जागरण से फोन पर हुई बातचीत में किरन ने बताया कि अभी तक भारत को स्टेपलचैस में कोई पदक नहीं मिला। उन्होंने पहली बार यह पदक जीता। स्टार एथलीट किरन का कहना है कि यह उनका पहला विदेशी टूर था, काफी मजा आया। काफी कुछ सीखने को मिला, जिसका भविष्य में होने वाली प्रतियोगिताओं में फायदा मिलेगा। भविष्य की योजनाओं के बारे में किरन का कहना है कि 2010 में होने वाले कॉमनवैल्थ गेम में भारत के लिए पदक जीतना उनकी प्राथमिकता में है। इसके लिए वह अभी पटियाला में कैंप कर रही हैं। इसके बाद चाइना में ही एशियन गेम होने हैं। रेलवे में कार्यरत किरन का अपनी जीत का श्रेय शुरुआती दौर में उनके कोच रहे विनोद पोखरियाल और ममता जोशी को देती हैं। उनका कहना है कि शुरुआती दौर में बेसिक पर ध्यान दिया। राष्ट्रीय स्तर पर कई पदक जीत चुकीं किरन को बधाई देते हुए पूर्व अंतरराष्ट्रीय धावक विनोद पोखरियाल ने कहा कि यह देश व प्रदेश के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। उत्तराखंड एथलेटिक्स एसोसिएशन के सचिव संदीप शर्मा ने उम्मीद जताई है कि वह आगे भी पदक जीतेंगी।

Tuesday, 17 November 2009

-'बैल' नहीं अब 'झब्बू' खींचेगा हल

-याक और गाय की क्रास ब्रीड है झब्बू -बैल से चार गुना अधिक होती है ताकत -पशुपालन विभाग ने तैयार की योजना -स्थानीय पशुपालकों का रहेगा सहयोग गोपेश्वर आने वाले दिनों में पहाड़ के सीढ़ीनुमा खेतों में आपको बैल की बजाय कोई अजीबोगरीब जानवर हल खींचता दिखाई दे तो हैरत में मत पडि़एगा। 'झब्बू' नाम का यह जानवर बैल से चार गुना अधिक ताकतवर तो होता ही है, इसका स्टेमिना भी गजब का होता है। दरअसल, याक और गाय के क्रास ब्रीडिंग से पैदा होने वाली संतति को झब्बू कहा जाता है। पशुपालन विभाग ने स्थानीय काश्तकारों की मदद से झब्बू की वंशवृद्धि की योजना तैयार की है। झब्बू की उपयोगिता को पर्यटन से जोड़े जाने की योजना है। इस खबर को आगे बढ़ाने से पहले 'याक' का जिक्र करना जरूरी होगा। याक एक दुर्लभ गोवंशीय पशु है, जो बर्फीले इलाकों में पाया जाता है। ग्लोबल वार्मिग और लोकसंस्कृति में आए बदलाव के कारण यह जानवर अब दुर्लभ की श्रेणी में पहुंच गया है। एक समय था जब याक का उपयोग व्यापार और दूध उत्पादन में किया जाता था। सीमांत जनपद चमोली के नीती-माणा क्षेत्र से भारत-चीन व्यापार का सारा सामान याक के कंधों पर ही ढोया जाता था। इस सीमा पर व्यापार बंद होने, ग्लोबल वार्मिग के प्रभाव और लोक संस्कृति में आये बदलाव की वजह से न सिर्फ याक की तादात कम होती चली गई, बल्कि पशुपालक भी उससे किनारा करने लगे। वर्तमान में हालात ऐसे हैं कि नीती-माणा क्षेत्र जहां हजारों याक हुआ करते थे, वहां अब मात्र छह याक ही जीवित रह गए हैं, वे भी पशुपालन विभाग के लाता स्थित याक प्रजनन केन्द्र में। याक की विलुप्ति की चिंता के मद्देनजर पशुपालन विभाग ने एक नई योजना तैयार की है। इसके तहत याक और गाय का क्रास ब्रीडिंग करवाकर 'झब्बू' पैदा करवाए जाएंगे। दरअसल, झब्बू में प्रजनन क्षमता नहीं होती, लेकिन वह काफी शक्तिशाली होता है। उसकी ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चार बैलों का काम सिर्फ एक झब्बू कर लेता है। इसके अलावा ऊंट की तर्ज पर झब्बू की सवारी भी की जा सकती है। खास बात यह कि झब्बू को याक की तरह बर्फीले या ऊंचाई वाले इलाके की जरूरत नहीं होती। वह निचले इलाकों में भी जीवित रह जाता है। ''पशुपालन विभाग झब्बू को याक के विकल्प के तौर पर देख रहा है। कुछ स्थानीय काश्तकारों के सहयोग से याक और गाय की संतति झब्बू की संख्या बढ़ाई जाएगी। इस योजना को सफल बनाने के लिए भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान मुक्तेश्वर नैनीताल से तीन याक सांड मंगवाए हैं। झब्बू का उपयोग बदरीनाथ धाम से माणा तक पर्यटकों की सवारी के रूप में भी किया जाएगा'' - डा. पीएस यादव मुख्य पशु चिकित्साधिकारी, चमोली

उन्नीसवें स्थान पर खिसका उत्तराखंड

बीस सूत्रीय कार्यक्रम: पहली तिमाही में सबसे खराब प्रदर्शन , देहरादून बीस सूत्रीय कार्यक्रम में उत्तराखंड साल दर साल नीचे फिसलता चला जा रहा है। चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में उत्तराखंड की उपलब्धि कतई संतोषजनक नहीं रही। तीस राज्यों में उत्तराखंड का स्थान उन्नीसवां है। केंद्रीय योजना आयोग ने तीस राज्यों का चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही का स्कोर कार्ड जारी किया है, जिसमें कर्नाटक 46 अंक लेकर 85 प्रतिशत उपलब्धि के साथ सबसे ऊपर है। आंध्र प्रदेश के 37 अंक हैं और 82 प्रतिशत उपलब्धि प्राप्त कर वह दूसरे स्थान पर है। 37 अंक और 82 प्रतिशत उपलब्धि हिमाचल प्रदेश की भी है, लेकिन उसके दो कार्यक्रम डी श्रेणी में हैं, इसलिए हिमाचल को तीसरे स्थान पर रखा गया है। उत्तराखंड के साथ गठित झारखंड राज्य 37 अंक और 77 प्रतिशत उपलब्धि के साथ चौथे स्थान पर है। महत्वपूर्ण बात यह है कि झारखंड का कोई भी कार्यक्रम डी श्रेणी का नहीं है। उत्तराखंड 32 अंक लेकर 59 प्रतिशत उपलब्धि के साथ उन्नीसवें स्थान पर है। उत्तराख्ंाड के तीन कार्यक्रम डी श्रेणी में, छह सी श्रेणी में और एक बी श्रेणी में हैं। उत्तराखंड के ए श्रेणी वाले कार्यक्रमों की संख्या आठ है। उत्तराखंड की खराब परफारमेंस एसजीआरवाई के अंतर्गत सहायता प्राप्त वैयक्तिक स्वरोजगार योजना, स्वयं सहायता गु्रपों को प्रदान किए गए आय अर्जन कार्यकलाप, निर्मित आवास-आईएवाई, सहायता प्राप्त अनुसूचित जाति परिवार, क्रियाशील आंगनबाडि़यां, सार्वजनिक एवं वन भूमि में रोपण, राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना के अंतर्गत गांवों का विद्युतीकरण तथा पंपसेटों को बिजली के मामले में है। आयोग ने इसे खराब श्रेणी में रखा है। हालांकि, खाद्य सुरक्षा के अंतर्गत सार्वजनिक वितरण प्रणाली एपीएल, बीपीएल तथा अंत्योदय, चालू एकीकृत बाल विकास योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अंतर्गत सड़कों का निर्माण तथा प्रदान की गई बिजली के मामले में उत्तराखंड का प्रदर्शन बेहतर रहा है, जिसे योजना आयोग ने बहुत अच्छी श्रेणी में रखा है। उत्तराखंड लगातार तीन सालों तक बीस सूत्रीय कार्यक्रम में देश में पहले स्थान पर रह चुका है। पिछले तीन सालों से राज्य की परफार्मेस लगातार खराब हो रही है। चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में उत्तराखंड को अब तक सबसे खराब श्रेणी शुमार किया गया है।

माडल स्टेट

उत्तराखंड के लिए यह गर्व का विषय है कि देश की प्रथम नागरिक, राष्ट्रपति इसे भविष्य के माडल स्टेट के तौर पर देख रही हैं। राष्ट्रपति ने यह बात नई दिल्ली में भारत-अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले के उद्घाटन के मौके पर कही। इस मेले में उत्तराखंड फोकस स्टेट रखा गया है। इस छोटे व अधिकतर पर्वतीय भू-भाग वाले राज्य में जल विद्युत, पर्यटन, जड़ी-बूटी, औद्यानिकी व वन संपदा से जुड़े क्षेत्रों में विकास की अपार संभावनाएं हैं। अंतरिम सरकार और इसके बाद निर्वाचित सरकारों की ओर से भी कई मौकों पर उत्तराखंड की इन संभावनाओं को जाहिर तो किया गया ही, इनके बूते राज्य को अपने पैरों पर खड़ा कर माडल बनाने पर जोर दिया है। हालांकि, यह भी कड़वा सच है कि उत्तराखंड को अन्य प्रदेशों के साथ प्रतिस्पर्धा में सशक्त व माडल बनाने के लिए उक्त सभी संभावनाओं पर ठोस नीतियां सामने नहीं आ सकी हैं। इसके लिए मजबूत इच्छा शक्ति की जरूरत है। इन सभी क्षेत्रों में जमीनी स्तर पर काम शुरू होने पर ही राज्यवासियों के भीतर भी उम्मीद जगेगी। उत्तराखंड राज्य के गठन के पीछे विकास को लेकर यही छटपटाहट मुख्य वजह रही है। यह भी सही है कि तमाम संभावनाओं के बावजूद उत्तराखंड के लिए अपने बलबूते पर ही मजबूत राज्य बनना आसान नहीं है। इसके लिए नियोजित तरीके से केंद्रीय मदद की दरकार है। मौजूदा सरकार विभिन्न मंचों पर इस मुद्दे को उठा भी चुकी है। पर्यावरण, पर्वतीय भू-भाग, वन अधिनियम और दो देशों की सीमा इस प्रदेश के बहुमुखी और सुचारू विकास की आकांक्षा पर अंकुश भी लगा रहे हैं। ये सभी मामले नीतिगत रूप से केंद्र से जुड़े हैं। लिहाजा, केंद्र को भी उत्तराखंड को लेकर अलग नजरिए से सोचने की जरूरत है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में राष्ट्रपति के संबोधन के साथ ही औद्योगिक पैकेज की सीमा बढ़ाने को विचार करने का केंद्रीय उद्योग व वाणिज्य मंत्री का आश्वासन भी राज्य को नई उम्मीद बंधाता है। आशा की जानी चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में फोकस स्टेट उत्तराखंड की विकास की चाहत को केंद्र और राज्य की सरकारें शिद्दत से पूरी करेंगी। राज्य को भी केंद्र से मिलने वाले संसाधनों के समुचित उपयोग और दूरदराज तक उसका फायदा पहुंचाने को कटिबद्ध हो कार्य करना होगा।

ऐतिहासिक जौलजीवी मेला शुरू

-इलाके का होगा पूर्ण विकास, बनेगा प्रवेश द्वार: चुफाल -भारत-नेपाल की साझी संस्कृति का प्रतीक है मेला -पाल वंश के वंशज कुंवर भानुराज पाल सम्मानित जौलजीवी, (पिथौरागढ़): भारत-नेपाल की साझा संस्कृति का प्रतीक जौलजीवी मेला शनिवार को शुरू हो गया। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष विशन सिंह चुफाल ने मेले का उद्घाटन किया। इस दौरान उन्होंने कहा कि मेले के विकास में सरकार कोई कसर नहीं छोड़ेगी। कैलाश मानसरोवर यात्रा के द्वार जौलजीवी में उन्होंने एक विशाल प्रवेश द्वार बनाने की घोषणा भी की। रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बीच भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने फीता काटकर मेले का विधिवत उद्घाटन किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा जौलजीवी मेला सीमांत जिले की सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक रहा है। उन्होंने कहा मुनस्यारी आने वाले पर्यटकों का रुख जौलजीवी और धारचूला की ओर करने के लिए यहां सुविधाओं का विकास किया जायेगा। उन्होंने गोरी नदी में साहसिक खेलों को बढ़ावा देने की मंशा भी जाहिर की। जौलजीवी कैलाश मानसरोवर यात्रा का द्वार है। शीघ्र ही गोरी नदी पर एक विशाल प्रवेश द्वार बनाया जाएगा। इस अवसर पर उन्होंने मेले पर प्रकाशित पुस्तक संगम का विमोचन भी किया। क्षेत्रीय विधायक गगन रजवार ने कहा मेले ने जिले को विशेष पहचान दी है। मेला क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर है और इसके विकास के लिए वे अपने स्तर से हरसंभव प्रयास करेंगे। इस अवसर पर उन्होंने जौलजीबी में स्नान घाट बनाने और सांस्कृतिक कक्ष के लिए दो लाख रुपये देने की घोषणा भी की। महिला आयोग की उपाध्यक्ष गीता ठाकुर ने सांस्कृतिक दलों को 11 हजार रुपये दिये जाने की घोषणा की। उद्घाटन अवसर पर सांस्कृतिक दलों ने रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। 1914 में मेला शुरू करने वाले पाल वंश के वंशज कुंवर भानुराज पाल को इस अवसर पर सम्मानित किया गया।
-दूधातोली में खुलेगा मोनाल कंजर्वेशन रिजर्व सेंटर -250 हेक्टेयर भूमि का हुआ चयन, मोहर लगनी बाकी -वन महकमे ने की राज्य पक्षी के लिए पहल शुरू -सूबे के केदारनाथ वन प्रभाग में मोनाल की संख्या सबसे ज्यादा , पौड़ी गढ़वाल सात रंगों की सलोनी काया के मालिक राज्य पक्षी मोनाल के संरक्षण की दिशा में वन महकमे ने पहल शुरू कर दी है। अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो राज्य पक्षी पौड़ी के आस-पास के क्षेत्रों में दिखेगा। वन महकमे ने थलीसैंण क्षेत्र के दूधातोली में मोनाल कंजर्वेशन सेंटर खोलने की कवायद शुरू कर दी है। पृथक राज्य गठन के बाद राज्य में 2005 में पहली बार राज्य पक्षी मोनाल की गणना शुरू हुई थी, गणना के आंकड़े चौंकाने वाले, लेकिन सुखद रहे। गणना के मुताबिक राज्य में राज्य पक्षी मोनाल की संख्या 919 दर्ज की गई। राज्य के कुल 31 वन प्रभागों में केदारनाथ वन प्रभाग में मोनाल की संख्या सबसे ज्यादा पाई गई। यहां अकेले 367 राज्य पक्षियों की संख्या दर्ज की गई। बर्ड आफ सेवन कलर के नाम से जाने वाले राज्य पक्षी मोनाल का वैज्ञानिक नाम लोफोफारस है और यह ठंडे इलाकों में वास करता है। अति सुंदर एवं सुकोमल काया के मालिक राज्य पक्षी मोनाल बरबस ही पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। राज्य पक्षी की कोकिली आवाज में संगीत की धुनों निकलती हैं, लेकिन गढ़वाल वन प्रभाग में राज्य पक्षी मोनाल की संख्या के आंकड़े चिंताजनक है। गढ़वाल वन प्रभाग में महज 7 मोनाल हैं। वन महकमे ने पौड़ी एवं आस-पास के क्षेत्रों में राज्य पक्षी की संख्या में इजाफा करने की पहल शुरू कर दी है। इतना यह है कि यदि यह पहल रंग लाई तो पौड़ी और आस-पास के क्षेत्रों में विचरण करते मोनाल यहां पर्यटकों को लुभाने लगेगा। असल में वन महकमे ने मंडल मुख्यालय के सटे प्रखंड थलीसैंण से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पीठसैंण के दूधातोली आरक्षित वन क्षेत्र के कंपार्टमेंट नं. 2 में मोनाल कंजर्वेशन सेंटर खोलने की योजना बनाई है। इसके लिए 250 हेक्टेयर भूमि का चयन भी कर लिया गया है, बाकायदा इसके लिए अपर वन संरक्षक को प्रस्ताव भी भेजा गया है, जिस पर अंतिम मोहर लगनी बाकी रह गई है। मुख्य वन संरक्षक गढ़वाल मंडल डीबीएस खाती का कहना है कि इस माह के अंत तक प्रस्ताव को स्वीकृति मिल जाएगी।

मारीशस के राष्ट्रीय समारोह में निशंक आमंत्रित

- देहरादून, मारीशस के राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक को फरवरी में होने वाले मारीशस के राष्ट्रीय समारोह में बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया है। राष्ट्रपति के सचिव रामबरन यादव ने आज बीजापुर गेस्ट हाउस में मुख्यमंत्री से मुलाकात की और अपने राष्ट्राध्यक्ष का आमंत्रण पत्र सौंपा। उन्होंने बताया कि समारोह का आयोजन मारीशस में बने गंगा तालाब के समीप होता है। सीएम डा. निशंक ने कहा कि संस्कृति, धर्म और परंपराओं में उत्तराखंड और मारीशस के बीच खासी समानता है। दोनों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान से दोनों की सभ्यता और संस्कृति का विकास होगा। -

Thursday, 12 November 2009

-भाई की शादी में 'खली' होंगे बाराती

छोटे भाई के विवाह समारोह में शिरकत करेंगे 'खली' पैतृक गांव हिमाचल प्रदेश के धिरायना से आज चंदौल गांव को प्रस्थान करेगी बारात गांव में 'दलबू उर्फ खली' के स्वागत को लेकर तैयारियां जोरों पर बारात में 'सिरमौरी नाटी' पर झाूमते नजर आंएगे खली त्यूणी (देहरादून) रेसलिंग (डब्ल्यूडब्ल्यूई) की दुनिया में भारत का नाम रोशन करने वाले दलीप सिंह राणा उर्फ 'दलबू' गुरुवार को छोटे भाई की शादी में बाराती होंगे। विवाह समारोह में शिरकत करने पैतृक गांव हिमाचल प्रदेश के धिरायना पहुंच रहे 'द ग्रेट खली' की एक झालक पाने को लोगों में खासा उत्साह है। गांव में खली के स्वागत को लेकर तैयारियां जोरों पर हैं। सात समुंदर पार वल्र्ड रेसलिंग एंटरटेनमेंट की दुनिया में अपनी ताकत से अंडरटेकर व बतिस्टा जैसे बलशालियों को धूल चटा चुके दलीप सिंह राणा उर्फ खली छोटे भाई भगत राणा की शादी में बाराती होंगे। गुरुवार को खली के पैतृक गांव हिमाचल प्रदेश के धिरायना से सुबह करीब ग्यारह बजे भगत राणा की बारात जिला सिरमौर की तहसील राजगढ़ के चंदौल गांव प्रस्थान करेगी। धिरायना गांव की उत्तराखंड के देहरादून जिले की तहसील त्यूणी से दूरी करीब 70 किमी है। लोक कलाकार बारात में 'ऊंडौं शाकिरो माटा खली गीतों दा गांणा' सिरमौरी नाटी पर खली को नचाने की तैयारी में हैं। विवाह समारोह की तैयारियों से ज्यादा लोगों में खली को देखने की उत्सुकता है। मां टंडी देवी बेटे दलबू उर्फ द ग्रेट खली के घर आने का समाचार पाकर उत्साहित हैं। गांव में विवाह समारोह से ज्यादा खली के स्वागत की तैयारियां की जा रही हैं। सूत्रों के मुताबिक, चंदौल गांव बारात पहुंचने से पूर्व खली का हरिपुरधार, नोराधार, चाडऩा व राजगढ़ आदि स्थानों पर जोरदार स्वागत किया जाएगा। खली के भाई भगत राणा का जालंधर में जिम है। खली को बाराती के रूप में देखने को लेकर चंदौल गांव के लोग भी खासा उत्साहित हैं। न्यूयार्क में आशियाना बना चुके खली रक्षाबंधन के दौरान गृह प्रवेश पर मां टंडी देवी व पिता ज्वाला राम को साथ लेकर न्यूयार्क गए थे। वाया पांवटा होते हुए तहसील शिलाई से 21 किमी दूर स्थित पैतृक गांव धिरायना में देर रात तक खली के पहुंचने की सूचना है। नातेदार, रिश्तेदार, दोस्त व ग्रामीण खली की एक झालक पाने को बेताब हैं।

सीमा की सुरक्षा को तैनात हुईं महिला जवान

- एसएसबी की महिला यूनिट लालकोठी पहुंची , खटीमा: भारत-नेपाल की खुली अंतर्राष्ट्रीय सीमा की सुरक्षा का जिम्मा अब महिला जवान भी संभालेंगी। सशस्त्र सीमा बल की महिला यूनिट बुधवार को लालकोठी चेक पोस्ट पहुंच गई। माना जा रहा है कि इस कदम से सीमा क्षेत्र में संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त महिलाओं की गतिविधियों पर नजर रखने के साथ ही उन पर अंकुश लगाया जा सकेगा। सुरक्षा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील नेपाल सीमा पूरी तरह खुली हुई है। दोनों देशों के बीच नागरिकों की आवाजाही पर किसी तरह का प्रतिबंध नहीं है। नेपाल सीमा के रास्ते भारत में नकली करेंसी, मादक पदार्थ, अवैध हथियार व प्रतिबंधित वस्तुओं की तस्करी की सूचनाएं बराबर मिलती रही हैं। कई बार इस तरह के मामले पकड़ में आ चुके हैं। इसके अलावा माओवादी गतिविधियों व घुसपैठ की दृष्टि से भी सीमा क्षेत्र संवेदनशील है। इधर तस्करी का नेटवर्क चलाने वाले लोगों ने अब इस धंधे में महिलाओं को बतौर कोरियर इस्तेमाल करना शुरू किया है। अब तक पकड़े गए तस्करी के कई मामलों में इसकी पुष्टि भी हुई है। यंू तो एसएसबी के जवान सीमा से आने-जाने वाले लोगों व सामान पर नजर रखते रहे हैं, लेकिन वहां से गुजरने वाली महिलाओं की व्यवहारिक दिक्कतों के कारण तलाशी नहीं ली जाती, जिसका फायदा अवांछित गतिविधियों में लिप्त लोग उठा रहे हैं। इन्हीं दिक्कतों को देखते हुए एसएसबी ने महिला बटालियन तैयार की है। जिसे खटीमा से लगी सत्रह किलोमीटर लंबी सीमा पर स्थित अलग-अलग चेक पोस्टों पर नियुक्त किया जाएगा। एसएसबी की महिला यूनिट की जवानों ने बुधवार को लालकोठी चेक पोस्ट पर आमद दर्ज कराई। विभागीय सूत्रों ने बताया कि यूनिट में दो दर्जन से अधिक महिला जवान हैं। भविष्य में इनकी संख्या बढ़ाई जा सकती है।

-जुड़ेंगी उत्तराखंड के बिखरे इतिहास की कडि़यां

-एएसआई करेगा पुरावशेषों का ब्यौरा संजोते हुए पुस्तिका प्रकाशित -जुड़ेंगी प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक इतिहास की कडि़यां देहरादून- प्रदेश में पुरातात्विक अवशेषों के रूप में बिखरे उत्तराखंड के इतिहास की कडि़यां जल्द ही जुड़ जाएंगी। बिखरे इतिहास को एक सूत्र में पिरोने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई)ने पहल की है। एएसआई के देहरादून मंडल ने प्रदेश में अब तक हुए तमाम उत्खननों में पुरावशेषों के ब्योरे को संजोते हुए एक पुस्तिका के प्रकाशन करने की योजना बनाई है। इस पुस्तिका में पुरावशेषों के माध्यम से उत्तराखंड का प्रागैतिहासिक काल से ब्रिटिश काल तक का इतिहास दर्ज होगा। यह पुस्तिका विश्व दाय सप्ताह (19 से 26 नवंबर व‌र्ल्ड हैरिटेज वीक)में लोकार्पित की जाएगी। देश के इतिहास में अक्सर उत्तराखंड का उल्लेख नहीं के बराबर ही होता है, जबकि एएसआई के अधीक्षण पुरातत्वविद डॉ. देवकी नंदन डिमरी का कहना है कि अल्मोड़ा में सुयाल नदी के दायें तट पर लखु उड्यार में प्रागैतिहासिक गुफा चित्र मिलते हैं। ये मध्य हिमालय में मिले पहले गुफा चित्र हैं। गढ़वाल मंडल की अलकनंदा घाटी के ग्वरख्या उड्यार और पिंडरघाटी के किमनी गांव में मिले गुफाचित्र भी संकेत देते हैं कि यहां प्रागैतिहासिक मानव रहता था। चंपावत के देवीधुरा में महापाषाण कालीन संस्कृति के सबूतों के तौर पर विशाल पत्थरों पर ओखलियां(कप मा‌र्क्स) मिली हैं। द्वारहाट के शैलचित्र और चंद्रेश्वर मंदिर के पास, अल्मोड़ा के नौगांव, मुनिया की ढाई, जोयो गांव, गोपेश्वर के समीप पश्चिमी नयार घाटी में भी ऐसी ही ओखलियां मिली हैं। बहादराबाद में 1953 में उत्तर-प्रस्तरयुगीन या ताम्रयुग के अवशेष मिले हैं। जिनमें कई हड़प्पा से मिलते जुलते हैं। कालसी के पास भी आरंभिक पाषाणयुगीन अवशेष मिले हैं। चमोली गढ़वाल के मलारी गांव में और पश्चिमी रामगंगा घाटी महापाषाणकालीन शवाधान (समाधियां) मिले हैं। डॉ. डिमरी का कहना है कि सातवी सदी ईस्वी पूर्व और चौथी सदी ईस्वी के मध्य हिमालय के आद्य इतिहास का प्रमाण मुख्यत: प्राचीन साहित्य है लेकिन उत्तरकाशी के पुरोला और देहरादून के जगतग्राम में कुणिंद शासक राजा शील वर्मन के अश्वमेध यज्ञ केप्रमाण मिले हैं। पूरे गढ़वाल में जगह-जगह बड़ी संख्या में कुणिंद वंश के सिक्के मिलते हैं। इतना ही नहीं काशीपुर नैनीताल से कुषाण शासकों कनिष्क और वासुदेव की मुनि की रेती (ऋषिकेश) से हविष्क की स्वर्ण मुद्राएं मिली हैं। डॉ. डिमरी के मुताबिक कुषाणों के बाद यौधेय, परवर्ती कुणिंद, छागलेश राजवंश, सिंहपुर का यदुवंश, नागवंश और फिर हर्ष के बाद कत्यूरी राजवंश के प्रमाण भी उत्तराखंड में मिलते रहे हैं। गढ़वाल के पंवार व कुमाऊं के चंद वंश ने तो 18वीं सदी तक राज किया। डॉ. डिमरी का कहना है कि 2003 में स्थापित एएसआई देहरादून मंडल द्वारा इतिहास को श्रृंखलाबद्ध करने का यह पहला प्रयास है। पुस्तिका से इतिहास के विद्यार्थियों को उत्तराखंड के क्रमिक वैज्ञानिक इतिहास का तो पता चलेगा ही। इतिहास के शोधार्थियों के लिए भी यह पुस्तिका संदर्भ पुस्तिका के रूप में लाभप्रद होगी।