Wednesday, 16 December 2009

विकास में छूटे पीछे

उत्तराखंड समेत तीन राज्यों का गठन वर्ष 2000 में करने के दौरान यह तर्क दिया गया कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा बिहार जैसे बड़े राज्यों में उक्त क्षेत्रों का विकास अवरुद्ध हो गया है, इसलिए छोटी प्रशासनिक इकाई के तौर पर इन्हें नया राज्य बनाया जाना चाहिए। छोटे राज्य बनने के बाद उक्त क्षेत्र तेजी से विकास कर सकेंगे। इस परिकल्पना को लेकर बने उत्तराखंड, झाारखंड व छत्तीसगढ़ राज्य अब तक नौ साल के सफर में अपने उद्देश्यों पर खरे नहीं उतरे। इन राज्यों की विकास दर राष्ट्रीय विकास दर 9.4 प्रतिशत को भी नहीं छू पाई। उससे आगे निकलने की छटपटाहट तो दूर तक नजर नहीं आती। विकास की दौड़ में काफी आगे बढ़ चुके राज्यों के करीब पहुंचना इन छोटे राज्यों के लिए अब भी दूर की कौड़ी बनी हुई है। विकास के लिए नौ साल का समय ज्यादा नहीं है, लेकिन आधुनिक तकनीकी के दौर में इसे कम भी नहीं माना जाना चाहिए। इस अवधि में यदि अग्रणी राज्यों की कतार में शामिल नहीं हो पाए तो कम से कम विकास दर में राष्ट्रीय औसत के करीब रहने पर कुछ संतोष अवश्य किया जा सकता था। नए राज्यों के पीछे जनता में विकास की तीव्र उत्कंठा छिपी है। इस मामले में तीन राज्यों के गठन का प्रयोग सवाल भी खड़े करता है। देश में छोटे राज्यों की पैरवी की जा रही है। इस दिशा में नया माहौल तैयार हो रहा है। ऐसे में नवगठित और छोटे राज्यों की जवाबदेही बढ़ जाती है। विकास को लेकर उन्हें अपनी प्रतिबद्धता साबित करनी होगी। अन्यथा छोटे राज्य के गठन के औचित्य पर ही अंगुली उठने लगें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए तो युवाओं के साथ मातृशक्ति ने भी पूरी ताकत झाोंक दी थी। इसके बावजूद अभी तक राज्य आत्म निर्भरता और विकास की ठोस बुनियाद रखने में कामयाबी से दूर है। इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि उत्तराखंड राज्य विकास के बजाए राजनीतिक हलचलों के लिए सुर्खियों में ज्यादा रहा। ऐसे में जन आकांक्षा राजनीतिक स्वार्थ की भेंट चढ़े और निहित स्वार्थों की इस लड़ाई में भ्रष्टाचार मजबूती से पांव जमाने में कामयाब हो तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।

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