Wednesday, 16 December 2009

2500 वर्ष पुराना है उत्तराखंडी मूर्ति शिल्प

-विद्वान मानते हैं उत्तराखंड का अपना कोई मूर्तिशिल्प नहीं, बल्कि प्रतिहार शैली का प्रभाव -एएसआई का कहना है कि छठी सदी ईस्वी पूर्व से विकसित होने लगी था उत्तराखंड का स्वतंत्र मूर्ति शिल्प देहरादून, आम तौर पर विद्वान मानते हैं कि उत्तराखंड का अपना कोई मूर्ति शिल्प नहीं था बल्कि मध्य हिमालय का मूर्तिशिल्प प्रतिहार कालीन मूर्तिशिल्प से प्रभावित है, लेकिन यह पूरी तौर पर सही नहीं है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई)का कहना है कि उत्तराखंड में अलग-अलग जगहों से मिली मूर्तियां यह सुबूत पेश करती हैं कि इस पूरे क्षेत्र में छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के बाद से मूर्तिकला की स्वतंत्र शैली विकसित हो रही थी जो 9वीं और 10वीं सदी में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुकी थी। एएसआई देहरादून मंडल के अधीक्षण पुरातत्वविद् डॉ. देवकी नंदन डिमरी का कहना है कि गोपेश्वर, जागेश्वर, बैजनाथ और लाखामंडल मध्य हिमालयी मूर्तिशिल्प के प्रमुख केेंद्र थे। उनका कहना है कि मध्य हिमालय में मूर्तिकला का इतिहास मानव संस्कृति की उत्पत्ति के इतिहास से जोड़ा जा सकता है। इस क्षेत्र में विभिन्न स्थानों से मिली प्रागैतिहासिक शैलाश्रयों में मानव द्वारा उकेरी गई कलाकृतियां मूर्तिकला की उत्पत्ति का प्रमाण पेश करती हैं। आद्यएतिहासिक काल में ताम्रनिधि सांस्कृतिक स्थलों से मिले मानवाकृति ताम्र उपकरण मध्य हिमालय में मूर्तिकला के क्रमिक विकास की ओर इशारा करते हैं। चमोली जिले के मलारी से मिला स्वर्ण मुखौटा महाश्म संस्कृति में प्रतिमा विज्ञान के विकास का परिचायक है। रानीहाट, मोरध्वज आदि स्थलों से खुदाई में मिली मनुष्य और पशुओं की मिट्टी की मूर्तियां इस क्षेत्र में मूर्तिकला के प्रचलन के प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। ऐतिहासिक युग में स्थानीय मूर्तिशिल्प के विकास को तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व में खोजा जा सकता है। इसमें कालसी के अशोक के चतुर्दश अभिलेख में उत्कीर्ण हाथी की आकृति प्रमुख साक्ष्य है। इसके बाद कुणिंद सिक्कों में अंकित लक्ष्मी, हिरन, शिव की आकृतियां, पुरोला अश्वमेध यज्ञ वेदिका से मिले स्वर्ण फलक पर उत्कीर्ण अग्नि की प्रतिमा उस समय मूर्तिकला के विकास के बारे में बताती हैं। इसके अलावा मोरध्वज उत्खनन में मिली कुषाणकालीन केशीवध व अन्य मिट्टी की मूर्तियां मध्य हिमालय की मूर्तिकला के विकास के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। डॉ. डिमरी के मुताबिक दूसरी सदी ई.पू. से दूसरी सदी के बीच मथुरा कला के कुछ विशिष्ट उदाहरण भी उत्तराखंड में आयातित किए गए। इनमें नैनीताल जिले के बयानधुरा से मिले यक्ष, यक्षी, कीचक गणों से युक्त वेदी स्तंभ, देहरादून जिले के ऋषिकेश के भरतमंदिर की शिव और यक्षी प्रतिमाएं, चमोली जिले के त्रिजुगी नारायण से मिले स्थानक विष्णु हरिद्वार से, पिथौरागढ़ जिले के नकुलेश्वर की चतुर्भज स्थानक विष्णु मूर्ति उल्लेखनीय हैं। डॉ.डिमरी के मुताबिक विशुद्ध रूप से स्थानीय प्रस्तर में अब तक ज्ञात प्राचीनतम प्रतिमा अल्मोड़ा जिले के गुना से मिली तीसरी सदी की यक्ष प्रतिमा है। उसके बाद छठी सदी ईस्वी से इस क्षेत्र में मूर्ति शिल्प के क्रमिक विकास के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं।

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