Friday, 20 November 2009

वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जाएगी 'राजी' बोली

-90 फीसदी राजी मानते हैं अपनी बोली बोलने से कोई फायदा नहीं -देश में महज 517 राजी,उनमें भी अपनी भाषा संस्कृति के प्रति हीनता बोध घर कर रहा देहरादून किसी भी भाषा बोली के बचे रहने की गारंटी क्या होती है, यह कि उसकी भावी पीढ़ी उसको बोले। मगर उत्तराखंड की सबसे अल्पसंख्यक जनजाति राजी की राजी बोली वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जाने वाली है। वजह साफ है उसके 20 प्रतिशत बच्चे अपनी बोली में बातचीत करना ही पसंद नहीं करते क्योंकि वे समझाते हैं कि अपने पूर्वजों की बोली की बजाय कुमाऊंनी बोलना ज्यादा फायदेमंद है। 60 प्रतिशत लोग अपनी बोली के प्रति बेपरवाह हैं, जबकि केवल 20 प्रतिशत को अपनी बोली में बात करना भाता है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में राजी या वनरावतों की आबादी महज 517 है। यह छोटी-सी खानाबदोश जनजाति नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों में रहती है। इसके महज पांच फीसदी लोग ही साक्षर हैं। ऐसे में राजी बोली का केवल मौखिक रूप जीवित है। हाल में ही दून आईं लखनऊ विश्वविद्यालय की रीडर डा. कविता रस्तोगी का सर्वेक्षण इस बोली के अंधेरे भविष्य की ओर संकेत करता है। डा.रस्तोगी के सर्वे के अनुसार 90 प्रतिशत राजियों का मानना था कि राजी बोलने से कोई फायदा नहीं, जबकि 60 फीसदी को अपनी जबान से कोई मतलब ही नहीं था। 26 से 35 साल के 65 फीसदी तो 16 से 25 साल के 60 फीसदी युवाओं को अपनी भाषा में बोलना पसंद नहीं। 26 से 35 साल के 40 प्रतिशत लोगों को अपनी भाषा संस्कृति पर कोई गर्व नहीं तो, 16 से 35 साल के 80 फीसदी तो 36 से 45 साल के 70 फीसदी राजी नहींमानते कि राजी बोलना अच्छा है। डा. रस्तोगी के मुताबिक दरअसल राजी लोगों में धीरे-धीरे अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति हीनताबोध घर कर रहा है। इसलिए वे धीरे-धीरे कुमाउंनी या हिंदी पर निर्भर होते जा रहे हैं। राजी लोग अपनी बोली का 84 फीसदी इस्तेमाल धार्मिक कर्मकांड के दौरान ही करते हैं। बोली का घरों में 75 फीसदी तो दूसरे स्थानों पर केवल 30 फीसदी ही इस्तेमाल होता है। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषा विज्ञानी डा. शोभाराम शर्मा का कहना है कि किसी भी भाषा बोली के जिंदा रहने के लिए उसके बोलने वाले समाज का उसके प्रति झाुकाव और उसकी भौतिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। उन्होंने बताया के पिछली कांग्रेस सरकार ने राजी जनजाति पर संकट भांपते हुए जनजाति के लोगों को ज्यादा संतान पैदा करने पर पुरस्कृत करने और सुविधाएं मुहैया कराने की घोषणा की थी लेकिन उसका क्या हुआ पता नहीं। जिन भाषाओं में जीविका का जुगाड़ नहीं होता वे मर जाती हैं। राजी बोली का खत्म होना देश ही नहीं दुनिया की अपूरणीय क्षति होगा। सरकार को चाहिए कि वह भाषाई विविधता की रक्षा के लिए राजी जनजाति और उनकी बोली के संरक्षण के लिए प्रयास करें।

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