Tuesday, 22 December 2009

साक्षात्कार-उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डा. 'निशंक

मुझसे ज्यादा गरीबी शायद ही किसी ने देखी हो: निशंक - बचपन पहाड़ की पथरीली राहों पर बीता, मां को अभावों से लोहा लेते देखा, असुविधाओं से साथ-साथ किताबें भी पढ़ीं, शायद यही था अनुकूल तापमान, जिसमें डा. रमेश पोखरियाल 'निशंक में रचनाशीलता पैदा हुई। राजनीति की ऊसर और पथरीली भूमि और साहित्य के सौम्य सागर में एक साथ विचरण करना समुद्र से गंगा-यमुना के पानी को अलग-अलग करना असंभव कार्य है, लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डा. 'निशंक इस भूमि को भी उर्वरा बना रहे हैं और सागर से मोती भी चुन रहे हैं। उनकी कृतियां स्त्री के पुरुषार्थ की हिमायती हैं। राजनीति में रहकर भी सतत् साहित्य साधनारत डा. 'निशंक से डा. वीरेंद्र बत्र्वाल की बातचीत के अंश-पहला स्वाभाविक प्रश्न, राजनीति व साहित्य दोनों में संतुलन कैसे बना लेते है आप?--दरअसल मेरे लिए दोनों का उद्देश्य एक ही है। दोनों के माध्यम से समाज को जगाना चाहता हूं, आम आदमी को आगे बढ़ते देखना चाहता हूं, नारी में पुरुषार्थ जगाना चाहता हूं, राष्ट्र के लिए समर्पण भाव चाहता हूं। इसीलिए दोनों विधाओं में संतुलन बना रहता है। लिखने की प्रेरणा कहां से मिली? देखिए, किसी कलाकार-रचनाकार में बाहर से हुनर स्थापित नहीं किया जा सकता। जब भावनाएं शब्दों का रूप लेती हैं तो कविता-कहानी तो खुद ही बन जाती हैं। आपने कठिनाइयों देखी हैं, शिक्षा व साहित्य रचना में बाधाएं आई होंगी? यह सवाल अतीत में ले गया मुझे। दसवीं तक किसी तरह गांव में पढ़ाई, इसके बाद बाहर निकला। खुद परिश्रम कर और व्यवस्थाएं जुटाकर बारहवीं, बीए, एमए और पीएचडी तक की पढ़ाई की। शिक्षा हो या साहित्य मैंने कठिनाइयों को अपनी ताकत बनाया कमजोरी नहीं। मेरे लिए साहित्य समर्पण नहीं संघर्ष की प्रेरणा है। आप सक्रिय राजनीति में हैं और सक्रिय साहित्य में भी, कैसे?मैं तो राजनीति को साहित्य का पूरक मानता हूं। मैंने अनेक गंभीर सवाल जो अपनी रचनाओं में उठाएं हैं, उनका समाधान राजनीति में रहते हुए खुद कर रहा हूं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी ने भी मेरी रचनाओं पर कहा था कि 'निशंक एक दिन तुम अपने साहित्य में उठाए गई समस्याओं का समाधान खुद करोगे। आपकी कुछ रचनाएं अधूरी हैं, मुख्यमंत्री बनने के बाद आपकी व्यस्तता और बढ़ी है, इन रचनाओं को पूरा करने को समय कैसे निकाल पाते हैं?इतनी व्यस्तता के बाद भी मेरा लेखन नहीं छूटा है। मेरा साहित्य सृजन अनवरत जारी है। रात को करीब एक घंटे जब तक कुछ लिख-पढ़ न लूं, तब तक नींद ही नहीं आती। सोने से पहले मैं कुछ न कुछ लिखता जरूर हूं। आपकी रचनाओं के नायक विवश, हालात के मारे हैं। विकट परिस्थितियों में अचानक कोई मसीहा बनकर प्रकट होता है और उन्हें लक्ष्य तक पहुंचाता है। 'एन ओरडियलÓ के प्रदीप के लिए भुवन लाला और 'एक और कहानी में प्रकाश के लिए रामप्रसाद ऐसे ही फरिश्ते दिखाई दिए हैं। इससे क्या संदेश देने का प्रयास किया आपने? इसका संबंध अप्रत्यक्ष तौर पर मेरे जीवन से जुड़ा है। मैं सोचता हूं कि ऐसे फरिश्ते मुझे जिंदगी की राह में मिलते तो कई बार उन निराशाओं का सामना नहीं करना पड़ता, जो मेरे मार्ग में आईं। मैंने इससे संदेश देने का प्रयास किया कि समाज के समृद्ध वर्ग के लोगों को जरूरतमंदों और मजबूर लोगों की सहायता के लिए आगे आना चाहिए। निर्धनता के मामले में आपके पात्र प्रेमचंद की 'रंगभूमि के सूरदास, 'पूस की रात के हल्कू जैसे हैं। किन परिस्थितियों ने आपसे इन पात्रों की सृष्टि करवाई?झकझोरने वाला प्रश्न है। आपको बताऊं, मुझसे ज्यादा गरीबी शायद ही किसी ने देखी हो। जब पांचवीं में पढ़ता था तो पैरों में जूते नहीं होते थे, तन पर पूरे कपड़े नहीं होते थे। इसके बाद की पढ़ाई के दौरान भी स्थिति अच्छी नहीं रही। मैंने खेतों में हल चलाया, गोबर डाला, जंगल से लकडिय़ां लाया। जिसने इस घोर गरीबी और अभाव का जीवनयापन किया हो, उस कवि-लेखक के पात्रों में तो गरीबी झलकेगी ही न? आपका 'प्रतीक्षा खंडकाव्य देशभक्ति, एक मां की आशा-निराशा और विछोह की पीड़ा पर केंद्रित है। इसकी जमीन कहां से तैयार की?कारगिल की लड़ाई से। उत्तराखंड में अनेक फौजियों की माताओं का अहसास ही इसकी जमीन है। पहाड़ी समाज में महिला का हल चलाने और चिता को मुखाग्नि देने पर कठोर वर्जना है, फिर भी 'प्रतीक्षा में दीपू की मां को हल चलाते हुए दिखाकर आप लिखते हैं-'तब कंधे पर हल को रखकर बैलों के संग खेत गई, खेत जोतकर सीर चलाना जीवन की दशा नई? मैंने इसमें महिला के पुरुषार्थ को दिखलाया है। पहाड़ की नारी में इतनी हिम्मत-हौसला है कि वह कठिन सा कठिन कार्य कर सकती है। वह परिस्थितियों के अनुसार थोथी वर्जनाओं को तोड़ सकती है। मेरी मां ने भी हल चलाया है। 'हिंदी देश की शानमें आपने हिंदी का यशोगान किया है। अब हिंदी के लिए कोई खास पहल? की है, कर रहा हूं। महत्वपूर्ण यह है कि मैं प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों को हिंदी में ही पत्र भेजता हूं और वहां से अब उत्तर हिंदी में ही आते हैं। मां-भाई को एकाकी परिवार में रखने पर पति-पत्नी के बीच खटपट को आपने खासा उकेरा है? संयुक्त परिवार के महत्व को देखते हुए उस प्रथा को अपनाने की प्रेरणा दी मैंने। 'अनुभव शेष रहे में आप लिखते हैं- ' कौन कष्ट है शेष जगत में जो नित मैंने नही सहा आपने ऐसे कौन से भीषणतम कष्ट झेले, जो कविता के आखर बन गए? गिनती नहीं है। मौत तक के संघर्ष झेले हैं मैंने। मौत कई तरह की होती है, भावनाओं की भी तो मौत होती है। ऐसी ही परिस्थितियों से ये कविताएं फूटी हैं। शहरी जीवन को आडंबर युक्त बताते हुए आप गांव जाने की प्रेरणा देते हैं। क्या इसके लिए खुद समय निकाल पाते हैं? इस व्यस्तता में भी समय निकालकर जरूर गांव जाता हूं। कुछ ही दिन पहले मैं गांव गया था। आज के युवा पैसे और सुख-सुविधा की होड़ में अपने परिवार से दूर होते जा रहे हंै और पत्नी बच्चों को समय नहीं दे पा रहे हैं। 'चक्रव्यूह में इसका आपने एक प्रकार से विरोध किया है, क्यों?पैसा अपनी जगह है, परिवार अपनी जगह। विशेषकर संयुक्त परिवार, जिनसे हमें संस्कार मिलते हैं। और पत्नी-बच्चों को भी तो उनका वांछित प्यार मिलना चाहिए। (साभार दैनिक जागरण )

No comments:

Post a Comment