Friday, 31 December 2010
Tuesday, 28 December 2010
पहाड़ की रामलीला राष्ट्रीय धरोहर
पिथौरागढ़। लंबी जद्दोजहद के बाद पहाड़ की रामलीला को राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर दिया गया है। केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने संगीत नाटक अकादमी को रामलीला के संरक्षण की जिम्मेदारी सौंपी है। फरवरी 2011 में अल्मोड़ा में होने वाले सेमीनार में राष्ट्रीय स्तर पर पहाड़ की रामलीला के मंचन की रूपरेखा तय की जाएगी। संगीत नाट अकादमी की ओर से पहाड़ी रामलीला को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करने की जानकारी प्रो.डीआर पुरोहित और संगीतज्ञ डा.पंकज उप्रेती को दी गई है। अकादमी ने प्रो.डीआर पुरोहित को गढ़वाल और हिमालय संगीत शोध समिति के निदेशक डा.पंकज उप्रेती को कुमाऊं में रामलीला के जानकारों से जनसंपर्क का काम सौंपा गया है। हिमालय संगीत शोध समिति के निदेशक डा.पंकज उप्रेती ने पहाड़ की रामलीला पर काफी विस्तार से शोध का काम किया है। डा.उप्रेती पहाड़ी रामलीला की गायनशैली पर एक तथ्यपूर्ण पुस्तक भी लिख चुके हैं। उन्होंने ही संस्कृति मंत्रालय के सामने पहाड़ की रामलीला का खाका रखा था।
संगीत नाटक अकादमी को मिला संरक्षण का काम
आरक्षण विरोधियों को मिलेंगी सुविधाएं!
राज्य आंदोलनकारियों की तरह दर्जा देने पर किया जा रहा है विचार
देहरादून। स्कूलों और कॉलेजों में ओबीसी आरक्षण के खिलाफ संघर्ष करने वाले आंदोलनकारियों के लिए भी सरकार सुविधाओं का दरवाजा खोलने पर गौर कर रही है।
मुख्य सचिव सुभाष कुमार ने इस मुद्दे पर शासन स्तर पर बैठक बुलाई है। शुरुआत में सिर्फ नैनीताल के आंदोलनकारियों पर ही गौर किया जाएगा।
नैनीताल के आंदोलनकारियों को भी उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों सरीखी सुविधाएं देने की आवाज वहां के विधायक खड़क सिंह बोरा ने उठाई है। उनका तर्क है कि वर्ष 1994 तक के ओबीसी आंदोलनकारियों को उत्तराखंड आंदोलन के जुझारुओं की तरह सुविधा देने की अनुशंसा कुमाऊं के आयुक्त रहे प्रमुख सचिव राकेश शर्मा ने भी की थी। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में नारायणदत्त तिवारी भी इस पर सैद्धांतिक सहमति जता चुके हैं। आरक्षण विरोधियों को उत्तराखंड आंदोलनकारियों सरीखी सुविधा देने के बाबत शासन स्तर पर प्रारंभिक दौर की कार्रवाई शुरू हो गई है। नैनीताल के आंदोलनकारियों को यह सुविधा मिलती है, तो बाकी जिलों के आरक्षण विरोधियों के लिए भी राह खुल सकती है। आंदोलन पूरे राज्य में छिड़ा था। बाद में यही आंदोलन उत्तराखंड आंदोलन की शक्ल में बदल गया था। सरकार ने अभी यह मानक तय नहीं किया है कि किन्हें और किस तरह के लोगों को आंदोलनकारियों का दरजा दिया जाए। यह भी देखा जाएगा कि इसका असर क्या और कितना पड़ सकता है।
फिलहाल, नैनीताल को लेकर कसरत हुई शुरू
मुख्य सचिव ने बुलाई आला अफसरों की बैठक
आरक्षण विरोधियों को भी उत्तराखंड आंदोलनकारियों की तरह दर्जा देने पर बैठक बुलाई है। अभी यह सिर्फ नैनीताल के लोगों पर केंद्रित होगा। साथ ही प्रक्रिया प्रारंभिक स्तर पर है। मांग की व्यावहारिकता और पहलुओं पर शासन विचार करेगा।
-सुभाष कुमार, मुख्य सचिव
नैनीताल के आंदोलनकारियों ने ओबीसी और उत्तराखंड आंदोलन, दोनों में शिरकत की थी। उनकी सूची भी संयुक्त ही बनाई गई है। वहां के ओबीसी आंदोलनकारियों को उत्तराखंड आंदोलनकारियों के समान दरजा मिलना ही चाहिए। -खड़क सिंह बोरा
भाजपा विधायक, नैनीताल
Thursday, 23 December 2010
दो हजार भर्तियों पर फंसा विभाग
नहीं हो पा रही है ग्राम पंचायत अधिकारियों की नियुक्ति को परीक्षा
देहरादून। करीब दो हजार ग्राम पंचायत अधिकारियों की भरती पर पंचायत विभाग एक बार फिर से फंस गया है। ढाई साल पहले 1.16 लाख आवेदनों की फीस एकत्रित करने के बाद भी पंचायत विभाग इस मसले को नहीं सुलझा पा रहा है। आवेदनकर्ताओं की ओर से कोर्ट का दरवाजा खटखटाए जाने से पंचायत विभाग अब फिर दबाव में है।
जुलाई 2008 में पंचायत विभाग की ओर से 1923 ग्राम पंचायत विकास अधिकारियों की भरती के लिए आवेदन मांगे थे। इसके एवज में विभाग को 1.16 लाख आवेदन मिले। फार्म फीस के सौ रुपये के हिसाब से विभाग को करीब सवा करोड़ रुपये की आय भी हुई। ढाई साल बाद भी पंचायत विभाग यह परीक्षा नहीं करा पाया। हाल यह है कि पंतनगर विश्वविद्यालय को परीक्षा कराने के 40 लाख रुपये दिए जा चुके हैं। इसके बाद भी मामला आगे नहीं बढ़ पाया है। भरती की यह प्रक्रिया वित्त की आपत्ति के कारण अटका था।
वित्त का कहना था कि विभागीय ढांचे में केवल 670 पदों की ही व्यवस्था है। कैबिनेट ने 2409 पदों के लिए स्वीकृति दी थी। बाद में जो शासनादेश जारी हुआ उसमें 670 पदों की व्यवस्था ही दर्शाई गई। अब उत्तरकाशी से उत्तम सिंह गुसांई की ओर से इस मसले में अदालत का दरवाजा खटखटाने से पंचायत विभाग दबाव में हैं। पंचायत विभाग इस समय जवाब तैयार करने में जुटा हुआ है।
ढाई साल से मामले को लटकाए हुए हैं। बेरोजगारों का साथ कोई नहीं दे रहा है। एक लाख युवाओं से जो पैसा लिया है उसका ब्याज कौन खा रहा है, यह तो बताएं। ऐसे पंचायत कैसे मजबूत होंगी।
-सुरेंद्र नौटियाल, आवेदनकर्ता, माजरा देहरादून।
परीक्षा कराने के 40 लाख देने के बाद भी स्थिति जस की तस
वन विभाग में खुली भरती की राह
मंत्रिमंडल में सेवा नियमावली मंजूर, ऋषिकेश, हरिद्वार को संस्कृत नगरी का दरजा
देहरादून। राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में मंगलवार को वन विभाग में रेंजर, गार्ड और ड्राफ्ट्समैन की सेवा नियमावली को मंजूरी देने के साथ ही भरती का रास्ता खुल गया। ऋषिकेश और हरिद्वार को संस्कृत नगरी का दरजा देने और कुमाऊं व गढ़वाल में एक-एक संस्कृत ग्राम स्थापित करने का फैसला किया गया।
उत्तराखंड संस्कृत शिक्षा परिषद के गठन और उसके कार्यों को मंजूरी दी गई। इसका मुख्यालय देहरादून में होगा। सरकारी अफसर दफ्तरों में पद नाम संस्कृत में भी लिखेंगे। पीडीएस को सशक्त बनाने को खाद्य मंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट सब कमेटी बनाई गई। शिक्षकों को सत्रांत लाभ की सुविधा फिर दी गई। गैर बीएड वाले एलटी शिक्षकों को प्रवक्ता पद पर प्रोन्नति के लिए बीएड की बाध्यता खत्म की गई। शासन से जुड़े विभागों, सचिवालय, विधानसभा, राज्य लोक सेवा आयोग, महाधिवक्ता कार्यालय को छोड़ बाकी विभागों में पदनामों की समरूपता पर फैसला करने को आबकारी मंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट सबकमेटी बनाई। उत्तराखंड होमगार्ड सेवा नियमावली का प्रख्यापन किया गया। शव जलाने को वन निगम की लकड़ी लेने पर वैट खत्म किया गया। उत्तराखंड राजस्व सेवा नियमावली में भी संशोधन किया गया। हरिद्वार के लोगों का घरेलू और निजी नलकूपों के लंबित बिल 31 मार्च 2011 तक भरने पर सरचार्ज माफ कर दिया गया। वन विभाग की सेवा नियमावली को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद वन रेंजर, प्रधान ड्राफ्ट्समैन, ड्राफ्ट्समैन की भरती होगी। रेंजर के 308 पदों में 50 फीसदी डिप्टी रेंजर से भरे जाएंगे। बाकी पद राज्य लोक सेवा आयोग से भरे जाएंगे। ड्राफ्ट्समैन संवर्ग में 14 पद प्रधान ड्राफ्ट्समैन और 41 पद ड्राफ्ट्समैन के होंगे। स्पेशल कॉर्बेट टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स की सेवा नियमावली को हरी झंडी मिलने के बाद 90 में से 63 पदों पर सीधी भरती होगी। इसमें 70 फीसदी पद रेग्युलर होंगे।
-----------------------------------
Wednesday, 22 December 2010
एलटी लिखित परिक्षा की संभावित तिथि ३० जनवरी २०१०
त्तराखंड प्राविधिक शिक्षा परिषद के तत्वावधान में होने वाली एलटी की प्रवेश परीक्षा के लिए परीक्षा केंद्रों का निर्धारण कर लिया गया है। परीक्षा के लिए मंडल में नैनीताल, हल्द्वानी, रुद्रपुर, काशीपुर, खटीमा, अल्मोड़ा, द्वाराहाट, बागेश्र्वर, पिथौरागढ़ को केंद्र बनाया गया है। लिखित परिक्षा की संभावित तिथि ३० जनवरी २०१० मे होने की संभावना है।
उत्तराखँड की सँस्कृति को वह पहचान मिलनी चाहिये
उत्तराखँड मेँ उत्तराखँडियोँ की आबादी 80 लाख लेकिन प्रवास मेँ
उत्तराखँडियोँ की आबादी. दिल्ली मेँ 50 लाख से ज्यादा यू पी मेँ 60 लाख के
करीबन हरियाणा पँजाब और चँडीगढ मेँ 45 लाख के करीबन मध्यप्रदेश गुजरात मेँ 25
से 30 लाख के करीबन मुँबई मेँ 10 लाख के करीबन अन्य महाराष्टर एवँ अन्य दक्षिण
भारत मेँ 10 से 15 लाख एवँ विदोशोँ मेँ 2 लाख से भी ज्यादा लेकिन फिर भी हमारी
सँस्कृति को वह पहचान नहीँ मिल पाई जितनी कि मिलनी चाहिये
Tuesday, 30 November 2010
पीसीएस (जे) के परीक्षा परिणाम घोषित
: राज्य लोक सेवा आयोग ने पीसीएस (जे) के परिणाम घोषित कर दिए।
ऊधमसिंह नगर की रिंकी साहनी ने परीक्षा में पहला स्थान हासिल किया।
मंगलवार को उत्तराखंड न्यायिक सेवा सिविल जज (पीसीएस-जे) की मुख्य परीक्षा -2009 का परिणाम घोषित किया गया। मंगलवार देर शाम घोषित हुए परीक्षा परिणाम में ऊधमसिंह नगर निवासी रिंकी साहनी पुत्री सुभाष साहनी ने सर्वोच्च स्थान हासिल किया। राजपुर रोड, देहरादून निवासी शिवानी पसबोला पुत्री महेश चंद्र ने दूसरा, इलाहाबाद निवासी रविप्रकाश पुत्र हरिशंकर शुक्ला ने तीसरा, सहारनपुर निवासी शहजाद अहमद वाहिद पुत्र इरफानुलहक ने चौथा, इलाहाबाद निवासी एकता मिश्रा पुत्री राजीव नयन मिश्रा ने पांचवा, न्यू रोड देहरादून निवासी राजीव धवन पुत्र रामनाथ धवन ने छठा और हरिद्वार ज्वालापुर निवासी मोहम्मद याकूब पुत्र शौकत अली ने सातवां स्थान हासिल किया। आयोग के सचिव कुंवर सिंह ने बताया कि प्रारंभिक परीक्षा में कुल 150 अभ्यर्थी शामिल हुए थे। इनमें से 13 अभ्यर्थियों को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था, जिसमें से सात अभ्यर्थियों का चयन किया गया। -
देवभूमि के 'सुर में पोलैंड की 'ताल
देहरादून-
'जब शब्द नहीं थे, तब इन्सान ने पत्थरों और लाठी-डंडों को टकराकर सुर उत्पन्न किए। इन्हीं सुरों पर उछल-कूदकर उसने अपने भावों की अभिव्यक्ति की। यही नृत्य का पहला स्वरूप था, जिसने बताया कि संगीत शब्दों के दायरे में कैद नहीं है। इसका अहसास मुझे अपने पोलैंड प्रवास के दौरान हुआ। देवभूमि के संगीत पर थिरकते पोलैंड के युवा। सचमुच मेरे लिए यह किसी सपने जैसा है। मेरे अपने उत्तराखंडी लोकनृत्य व गीत 'तांदीÓ और 'रासौÓ के बारे में नहीं जानते और परदेसी इनकी धुनों पर थिरक रहे हैं।Ó
यह कहना है हाल ही में इंडो-पोलिश कल्चरल कमेटी की ओर से पोलैंड के क्राको शहर में आयोजित वर्कशॉप से भाग लेकर लौटे युवा उत्तराखंडी लोकगायक रजनीकांत सेमवाल का। बकौल रजनीकांत, 'क्राको में सिर्फ दो उत्तराखंडी मिले, लेकिन वहां के युवाओं ने हमारे गीत-संगीत को हाथोंहाथ लिया। 'तांदीÓ, 'रासौÓ, 'झुमैलोÓ, 'चोपतीÓ जैसे पहाड़ी नृत्यों की धुन पर वह जमकर थिरके। वे हिमालय के लोकजीवन को जानना चाहते थे। उसे करीब से महसूस करना चाहते थे। कई युवाओं ने कहा वे उत्तराखंड आएंगे।Ó
रजनीकांत ने बताया कि जागीलांस्की यूनिवर्सिटी में यह वर्कशॉप हुई। एक-दूसरे की भाषा न जानने के बावजूद स्टूडेंट्स उनसे इस कदर घुल-मिल गए, मानो बरसों का परिचय हो। यह संभव हो पाया हमारे संगीत की वजह से। इंट्रोडक्शन अंग्रेजी में होता था और बाकी सब संगीत कह देता था। यह इसलिए भी संभव हो पाया, क्योंकि वह लोकगीतों में 'पॉपÓ, 'हिपॉपÓ व 'रीमिक्सÓ का प्रयोग करते हैं।
इसकी वजह पूछने पर उन्होंने बताया कि हमारे युवा पब या डिस्को में दूसरी भाषाओं के गानों पर थिरक रहे हैं। यदि हम अपने गानों में मूल को छेड़े बिना ऐसे प्रयोग करें तो इस बहाने वह अपनी जड़ों से तो जुड़ पाएंगे। वह कहते हैं कि जब पोलैंड के युवाओं को उत्तराखंडी लोकधुनें थिरका सकती हैं तो हमें क्यों नहीं।-
::::
एक आंदोलन से नदी में बहने लगा पानी
हल्द्वानी। एक आंदोलन चिपको, जिसने हरियाली को बचा लिया। एक आंदोलन ‘नशा नहीं रोजगार दो’ जिसने बहुतों को पीना भुला दिया। एक आंदोलन उत्तराखंड राज्य आंदोलन, जिसने अपना राज्य दिला दिया। ऐसा ही एक और आंदोलन जिसने सूखी नदियों में पानी ला दिया।
यह ऐसी तसवीर है जिसमें अपना उत्तराखंड देश में हो रहे जन आंदोलनों का अगवा दिखाई देता है। राज्य स्थापना के इस दशक में पानी के लिए मारामारी मची, तो उत्तराखंड ‘पानी बचाओ, नदी बचाओ’ की मुहिम में भी सबसे आगे निकल गया।
प्रेरणा भले ही मध्यप्रदेश के‘नर्मादा बचाओ’ आंदोलन से मिली हो, लेकिन सबसे अधिक असर अल्मोड़ा की कोसी घाटी में हुआ। वर्ष 2007-2008 में कोसी से कुछ जागरूक लोगों के साथ पदयात्रा के रूप में चला यह आंदोलन आज पूरे उत्तराखंड में पानी की तरह फैल गया है।
अल्मोड़ा की कोसी, मनसारी और लोध घाटी, चंपावत की पंचेश्वर, बागेश्वर की सरयू घाटी, पिथौरागढ़ की गोरी और काली के अलावा गढ़वाल के उत्तरकाशी, चमोली और पौड़ी में इस आंदोलन का व्यापक असर है। लाखों लोग गैर हिमालयी नदियों बचाने के लिए आगे आए हैं। प्रदेश की 27.5 प्रतिशत कृषि भूमि को सिंचित करने वाली गैर हिमालयी नदियों को बचाने की यह अनूठी पहल है। ध्यान रहे कि इन छोटी नदियों से ही इस पहाड़ी राज्य का अस्तित्व है, वरन बड़ी नदियां तो हमेशा महानगरों के ही काम आईं हैं। हमेशा की ही तरह इस आंदोलन में भी जान महिलाओं ने ही फूंकी है। सैकड़ों महिला संगठन इस पर काम कर रहे हैं।
कौसानी की तीन घाटियों में 200 से अधिक महिला संगठनों में हजारों महिलाएं चाल-खालों को बचाने में जुटी हैं। मेहनत रंग भी लाई है। गत गर्मियों में पानी के लिए भटकने वाले कोसी घाटी के करीब दो लाख लोगों को इस बार मशक्कत नहीं करनी पड़ी। कत्यूर घाटी के गोमती और गरुड़ गंगा ठ्ठके किनारे बसे कई गांवों के 25 हजार लोग इस आंदोलन के बाद अब अपनी गैर हिमालयी नदियों को बचाने निकल पड़े हैं। कभी वन विभाग से खुन्नस खाए लोग, आज विभाग के सहयोग से चाल-खाल बना रहे हैं। आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए गगास में 300 से 500 तक चालें विकसित हो चुकी हैं। इस दशक की इससे बड़ी उपलब्धी और क्या हो सकती है कि हम अब तक दो बार देश की प्रमुख 44 नदियों को बचाने के लिए मेजबानी कर चुके हैं।
इसी मंथन के निचोड़ से निकला पानी सूख चुकी उत्तराखंड की 28 गैर हिमालयी नदियों में बह रहा है। गत दिनों हुई झमाझम बरसात इंद्रदेव का आशीर्वाद बनकर बरसी। नदियों रीचार्ज हुईं तो, लोगों को समुचित पानी भी उपलब्ध हो पा रहा है।
क असर
-
Thursday, 25 November 2010
जिन्हें पहाड़ के नैसर्गिक सौंदर्य ने किया अभिभूत
नैनीताल/भीमताल/रानीखेत। रोजगार और सुविधाओं की तलाश में भले ही पहाड़ से बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा हो लेकिन इन शांत वादियों में देश के नामचीन लोगों का मन खूब रम रहा है। देश के राजनेताओं से लेकर उद्योगपतियों तक पर पहाड़ के सौंदर्य का जादू चल पड़ा है। कई बड़ी हस्तियों ने भूमि की खरीद-फरोख्त के साथ यहां अपने आशियाने भी बना लिए हैं।
नैनीताल और इसके आसपास के पिकनिक स्पॉट हों या फिर रानीखेत और मजखाली, यहां साल भर सैलानियों का जमघट रहता है। इनमें से कई ऐसे लोग भी हैं जिन्हें पहाड़ के नैसर्गिक सौंदर्य ने इतना अभिभूत किया कि उन्होंने साल में कुछ दिन शांति और सुकून से बिताने के लिए यहीं अपना आशियाना बना लिया। दिल्ली और मुंबई में रहने वाले यह लोग अब पहाड़ की धरती से भी जुड़ चुके हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल, पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. माधव राव सिंधिया और उनके परिजनों के अलावा आजमगढ़ के पूर्व सांसद अकबर अहमद डम्पी ने रामगढ़ में, पूर्व मिस इंडिया नफीसा अली, आईएफएस अधिकारी पीके भुटियानी ने भक्त्यूड़ा गांव में, तीरूबाला एक्सपोर्ट कंपनी के चेयरमैन टी अग्रवाल ने सनीलेक भक्त्यूड़ा में, सेवानिवृत्त एडमिरल सुशील कुमार ने गोलूधार मेहरागांव में, उद्योगपति रेखा खेतान ने श्यामखेत, पदमश्री डा. यशोधर मठपाल ने खुटानी भीमताल में, साहित्यकार प्रो. दयानंद ने श्यामखेत, पूर्व क्रिकेटर मनोज प्रभाकर ने जंगलियागांव (भीमताल) में, नंदा एस्काट की प्रमुख सीता नंदा, दिल्ली के प्रसिद्ध बत्रा हास्पिटल के स्वामी एलएम बत्रा और कपूर लेम्प्स के स्वामी ने श्यामखेत में, दिल्ली की प्रसिद्ध इंटीरियर डेकोरेटर पायल कपूर ने फरसौली में और शास्त्रीय गायिका शुभा मुदगल के परिजनों ने नौकुचियाताल में अचल संपत्ति जुटाई है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी गर्मियों में एक-दो दिन के लिए रामगढ़ की वादियों में पहुंचती हैं। इनमें से अधिकांश लोग यहां बंगले और कोठियां भी बनवा चुके हैं।
इसी तरह महाराजा कर्णसिंह और उनके बहनोई महाराजा ओमकार सिंह मजखाली के दिगोटी गांव में पूर्व राजदूत हर्षवर्धन सिंह मनराल मजखाली, एसएसबी के पूर्व महानिदेशक तिलक काक रानीखेत, भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव एसपी शुक्ला द्वारसौं गांव में कोठी बनवाकर रह रहे हैं। इनमें से कुछ तो अधिकतर समय यहीं रहते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो सिर्फ गर्मियां यहां बिताते हैं। शेष समय उनके बंगलों और भूमि की देखरेख केयरटेकर करते हैं।
पूर्व पीएम इंद्र कुमार गुजराल, मिस इंडिया नफीसा अली, पूर्वक्रिकेटर मनोज प्रभाकर, शास्त्रीय गायिका शुभा मुदगल के परिजनों की भी है यहां संपत्ति-
हिमालय की नब्ज है उत्तराखंड
: उत्तराखंड हिमालय की ऐसी नब्ज है, जिसे टटोलकर पूरे हिमालय का हालचाल जाना जा सकता है। यहां न सिर्फ अन्य हिमालयी राज्यों से अधिक हिमनद है, बल्कि संरक्षित वन क्षेत्र का दायरा भी सबसे अधिक है। जमीन की संवेदनशीलता ऐसी कि जरा सा भूस्खलन यहां तबाही ला देता है। हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के आंकड़े बताते हैं कि यदि राज्य के प्राकृतिक संसाधनों से अत्यधिक छेड़छाड़ किया गया तो इसका असर पूरे देश में दिखेगा।
दून में चल रहे 'हिमालय नीतिÓ जन संवाद में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने 11 हिमालयी राज्यों के प्राकृतिक संसाधनों के आंकड़ों को सामने रखा। जिसमें पता चलता है कि उत्तराखंड हर लिहाज से महत्वपूर्ण है और संवेदनशील भी। हिमालय के महत्वर्ण 26 ग्लेशियरों में 11 हिमनद सिर्फ इस राज्य में है। प्रदेश में राष्ट्रीय पार्क, वाइल्ड लाइफ सेंचुरी व संवेदनशील वनक्षेत्र भी अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक हैं। भूस्खलन की बड़ी घटनाएं सबसे अधिक बार उत्तराखंड में घटी हैं।
यानि राज्य का पर्यावरण काफी संवेदनशील है। हिमालयी शिक्षा संस्थान के विशेषज्ञ व नदी बचाओ आंदोलन से जुड़े सुरेश भाई का कहना है कि जारी किए गए आकंड़े राज्य के जल, जंगल और जमीन की कहानी बताने के लिए काफी हैं। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह भी मानते हैं कि राज्य में ऐसी कोई भी परियोजना नहीं चलाई जानी चाहिए, जिससे यहां के पर्यावरण को नुकसान पहुंचे। क्योंकि उत्तराखंड हिमालय के बड़े हिस्से में बसा है।
उत्तराखंड के ग्लेशियर
नॉर्थ नंदा देवी (19कमी), साउथ नंदा देवी (15किमी), त्रिशूल (15किमी), गंगोत्री (30किमी), डॉकरैनी (05किमी), चोरबारी (07किमी), गंगोत्री (19किमी), चैखंबा (12किमी), सतोपंथ (13किमी), पिंडारी (08किमी), मिलम (19किमी)।
::::
दस साल का उत्तराखंड
उत्तराखंड अब दस साल का हो गया है। किसी राज्य के लिए एक दशक इतना बड़ा अरसा नहीं है कि कोई फैसला दिया जा सके, हां! उसकी दिशा और दशा का अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में पीछे मुड़कर देखें तो सब कुछ आशानुरूप भले न हुआ हो, लेकिन निराशाजनक भी नहीं कहा जा सकता। श्रीनगर में मेडिकल कॉलेज शुरू हुआ और गरीब बच्चे भी डॉक्टर बनने का सपना देखने लगे। मात्र 15 हजार रुपये फीस रख सरकार ने गरीबों के लिए मेडिकल की पढ़ाई को सुगम बनाया। प्रदेश में 108 एम्बूलेंस सेवा शुरू कर स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में प्रभावी पहल की गई। औद्योगिक विकास को मिली गति भी राज्य के लिए छोटी उपलब्धि नहीं है। इससे भी आगे पर्यावरण संरक्षण में अग्रणीय भूमिका निभा उत्तराखंड ने विश्व मंच पर अपनी अहमियत सिद्ध कर दी है। इस वर्ष आयोजित महाकुंभ के सफल संचालन के बाद अब कोई शुबहा नहीं कि बड़े आयोजनों के प्रबंधन में भी नए राज्य का कोई सानी नहीं है। बावजूद इसके उल्लास के पलों पर उदासी ज्यादा हावी रही। दुनिया की आधुनिक और अस्थिर पर्वत शृंखला हिमालय की गोद में बसे नए राज्य का मिजाज भी उतना ही डांवाडोल रहा, जितनी यहां की भूगर्भीय गतिविधियां। फिर चाहे मिजाज राजनीति का हो या कुदरत का। कुदरत को तो कंट्रोल नहीं किया जा सकता, लेकिन उसके प्रभाव को न्यून करना असंभव नहीं। इसके लिए सर्वाधिक आवश्यकता है आपसी सहयोग की। यह सहयोग चाहिए राजनीति में, कर्मचारियों और आम जनता में। दस साल में पांच मुख्यमंत्री देख चुके शिशु राज्य को राजनीतिक स्थिरता की जरूरत ज्यादा है। तभी जिन सपनों की नींव पर उत्तराखंड की इमारत खड़ी की जा रही है, वह बुलंदी पर पहुंच पाएगी। इसकी जिम्मेदारी न अकेले नेताओं पर है और न ही अफसरों या कर्मचारियों पर। यह दायित्व सबका है। यह ठीक है दस साल की उम्र परिपक्व होने की नहीं है, लेकिन अपने भले बुरे के पहचान की तो है। अब समय आ गया है कि बीती ताहि बिसारने की बजाए उससे सबक ले आगे की सुध ली जाए। आओ हम मुठ्ठी बंद कर देश-दुनिया को अपनी ताकत का अहसास कराएं। -
उत्तराखंड में साहित्यकार की आस
= यह वही उत्तराखंड है, जिसने खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि गुमानी पंत, पहला गद्यकार पंडित नैन सिंह रावत, पहला डी. लिट्. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, पहला व्याकरणाचार्य किशोरीदास वाजपेयी, पहाड़ी शैली का पहला चित्रकार मौलाराम तोमर, संस्कृत का अपराजेय शास्त्री विश्वेश्वर पांडे, भारत में सोप ऑपेरा का आविष्कारक मनोहरश्याम जोशी, पहला एकांकीकार गोविंद बल्लभ पंत, प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पंत और चंद्रकुमार बर्त्वाल, मनोविज्ञान का कथा-चितेरा इलाचंद्र जोशी, स्वप्नकथा को हिंदी में जोड़ने वाला रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ और फिर आधुनिक कहानी को दिशा देने वाले शैलेश मटियानी, शिवानी, विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी, हिमांशु जोशी, पानू खोलिया, पंकज बिष्ट, मृणाल पांडे और मोहन थपलियाल जैसे रचानाकार दिए हैं।
-
हम भारतीयों के जीवन में घटनाएं अब एक सामान्य सूचना भी नहीं रह गई हैं। अखबार में खबर पढ़ते हैं, मगर दूसरे ही पल घटना मन से उसी तरह गायब हो जाती है, जैसे रसोई में आकर बिल्ली दूध चट कर जाए, और हम उसे डंडा मारकर अपने मन का गुबार भी न निकाल पाएं। साहित्यिक पत्रिका ‘वसुधा’ में वरिष्ठ साहित्यकार चंद्रकांत देवताले का पत्र छपा है, जिसमें उन्होंने जयपुर की एक घटना का जिक्र किया है कि कैसे अलवर के जिलाधिकारी कुंजीलाल मीणा ने हरिशंकर परसाई की कहानी ‘भोलाराम का जीव’ को अपने सभी अधीनस्थ कार्यालयों को भेजकर भ्रष्टाचार को खत्म करने का बीड़ा उठाया और वे उसमें काफी हद तक सफल रहे। हुआ यह कि अलवर के एक नागरिक की पेंशन का पैसा लाख कोशिशों के बाद भी नहीं मिल पाया, तो उसने अपने आवेदन के साथ हरिशंकर परसाई की कहानी ‘भोलाराम का जीव’ जिला कलेक्टर को भेज दिया। मीणा ने जिले के सभी विभागों को इस कहानी की फोटो प्रतियां भिजवाईं और साथ में पत्र भेजा कि हर विभाग के अधिकारियों और बाबुओं को यह कहानी पढ़नी होगी। तसवीर का एक पहलू यह है। दूसरा पहलू उत्तराखंड की नौकरशाही और सरकार की मिलीभगत का है। वर्ष 2003 में सरकार ने प्रदेश के लेखकों, कलाकारों को एकजुट करने के लिए एक पहल की थी, ‘साहित्य, कला और संस्कृति परिषद’ के रूप में। उस वक्त प्रदेश के मुख्य सचिव हमारे सहपाठी थे, रघुनंदन सिंह टोलिया। 1964-65 में नैनीताल के डीएसबी कॉलेज में हमने तत्कालीन प्रिंसिपल डॉ. डी. डी. पंत के नेतृत्व में ऐसी ही प्रतिभाओं का एक संगठन बनाया, ‘द क्रेंक्स’। डी. डी. पंत ने बाद में ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ (यूकेडी) को जन्म दिया और टोलिया ने राज्य बनने के बाद प्रदेश के चुनींदा कला-प्रेमियों को एक मंच पर जोड़कर उत्तराखंड की साहित्य और संस्कृति अकादमियों की आधारशिला रखी। इस अकादमी में एक ही मंच पर थे, वरिष्ठ रचनाकार रस्किन बांड और विद्यासागर नौटियाल, कवि लीलाधर जगूड़ी, लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी और रतन सिंह जौनसारी, इतिहासकार शेखर पाठक, रंगकर्मी जहूर आलम और डी. आर. पुरोहित, पुरावेत्ता यशोधर मठपाल, संस्कृतिकर्मी शेर सिंह पांगती और नंद किशोर हटवाल और दो दर्जन से अधिक अनेक दूसरे लोग।
सन् 2007 में प्रदेश की दूसरी लोकप्रिय सरकार ने सत्ता संभालते ही पहला काम यह किया कि लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों के इन दोनों संगठनों को एक फालतू वस्तु की तरह उत्तराखंड की सीमा से इतनी दूर फेंक दिया कि वे हिमाचल-उत्तर प्रदेश की सीमा से इस ओर झांक भी न सकें। यूकेडी को पूरी तरह निचोड़ कर उसके सत्व से अपना पेट भरा और टोलिया के सपनों को ऐसा निचोड़ा कि उसका कतरा भी उत्तराखंड में नहीं बचा रह सके।
यह वही उत्तराखंड है, जिसने खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि गुमानी पंत, पहला गद्यकार पंडित नैन सिंह रावत, पहला डी. लिट्. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, पहला व्याकरणाचार्य किशोरीदास वाजपेयी, पहाड़ी शैली का पहला चित्रकार मौलाराम तोमर, संस्कृत का अपराजेय शास्त्री विश्वेश्वर पांडे, भारत में सोप ऑपेरा का आविष्कारक मनोहरश्याम जोशी, पहला एकांकीकार गोविंद बल्लभ पंत, प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पंत और चंद्रकुमार बर्त्वाल, मनोविज्ञान का कथा-चितेरा इलाचंद्र जोशी, स्वप्नकथा को हिंदी में जोड़ने वाला रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ और फिर आधुनिक कहानी को दिशा देने वाले शैलेश मटियानी, शिवानी, विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी, हिमांशु जोशी, पानू खोलिया, पंकज बिष्ट, मृणाल पांडे और मोहन थपलियाल जैसे रचानाकार दिए हैं।
साहित्य का मंच भी उत्तराखंड में मौजूद है, हिंदी की पहली कवयित्री महादेवी वर्मा के रामगढ़ वाले घर के रूप में। दुर्भाग्य से इसे भी नष्ट करने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले इसके निदेशक के विरुद्ध जांच कमेटी बिठाई, कुछ हाथ नहीं लगा तो निदेशक की उम्र और योग्यता के लिए ऐसे नियम बनाए कि कोई आवेदन न कर सके।
सरकारें तो सभी राज्यों में कमोबेश एक जैसी हैं, मगर नौकरशाही से निवेदन है कि उत्तराखंड के विन्यास में वे अलवर के कलेक्टर कुंजीलाल मीणा से सबक लें। वैसे मीणा तक जाने की भी जरूरत नहीं है। उनके पास तो टोलिया मौजूद हैं और वे शुरूआत कर ही चुके हैं।
-
उत्तराखंड की लोक संस्कृति,
उत्तराखंड की लोक संस्कृति, जन मानस, पहाड़, नदी, बुग्याल जन जीवन को गहरे से समझना हो तो नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों से अच्छा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लोक संगीत के क्षेत्र में नेगी का सफर छत्तीस सालों का है। नेगी लोकगायक हैं। गीतकार हैं। साहित्यकार हैं और संस्कृतिकर्मी हैं। उन्हें उत्तराखंड का प्रतिनिधि कलाकार कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। उत्तराखंड की मिट्टी पर केंद्रित उनके तमाम गीत पर्वतीय जनमानस में भीतर तक बसे हैं। नेगी साहित्य और कला परिषद के सदस्य रह चुके हैं। तमाम अवार्ड उनके नाम हैं। लोक भाषा साहित्य संस्थान के बतौर अध्यक्ष भी वह सक्रियता से काम कर रहे हैं। उत्तराखंड के दस सालों में लोक संस्कृति की क्या दशा-दिशा रही है। उन्हीं की जुबानी।
राज्य बनने से पहले यहां की लोक संस्कृति, उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर राजनीतिक नेतृत्व की कमजोर इच्छा शक्ति दिखाई पड़ती थी। लोक संस्कृति का विषय उसे सड़क, बिजली पानी के आगे गौण लगता था। मगर अब सोच में बदलाव आ रहा है
-नरेंद्र सिंह नेगी, लोक गायक
लोक संस्कृति पर संजीदा हो रहा नेतृत्व
उत्तराखंड की लोक संस्कृति के संबंध में शुभ संकेत महसूस किए जा रहे हैं। हर नए राज्य में ऐसा होता है। बहुत पुरानी बात नहीं है, हमें याद है कोई हमसे पूछता था कि आप कहां से हैं, तो जवाब होता था देहरादून। अपने गांव कसबे का परिचय देने में हमें हिचक महसूस होती थी। मगर अब हम सीधे अपने गांव कस्बे के नाम पर आते हैं। उत्तराखंडी कहलाने में अब हमें कोई हिचक नहीं है।
मैं अपनी बात कहता हूं। जब हमने गाना शुरू किया तो उस वक्त लोग गढ़वाली की जगह तुरंत ही हिंदी गाने के लिए कह देते थे। आज विदेशों से गढ़वाली, कुमाऊंनी गानों के लिए हमें बुलाया जा रहा है। हमारे शो में लोग टिकट लेकर आते हैं। काफी पहले मोहन उप्रेती अपनी टीम के साथ विदेश जाते थे। दिल्ली उनके लिए प्लेटफार्म बनती थी। मगर आज पौड़ी, मसूरी, टिहरी से कलाकार विदेश जा रहे हैं। ये बदली हुई स्थिति राज्य बनने के कारण है। हमने खुद को उत्तराखंडी मानना शुरू किया है, तो मार्केट पर भी इसका असर दिख रहा है। यहां के लोक कलाकारों को काम मिलने लगा है। आडियो-वीडियो के बाजार में तेजी आई है।
सबसे बड़ी बात पर मैं आना चाहूंगा। राज्य बनने से पहले यहां की लोक संस्कृति, उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर राजनीतिक नेतृत्व की कमजोर इच्छा शक्ति दिखाई पड़ती थी। लोक संस्कृति का विषय उसे सड़क, बिजली पानी के आगे गौण लगता था। मगर अब सोच में बदलाव आ रहा है। राजनीतिक नेतृत्व की बदली मन:स्थिति को दो उदाहरणों के साथ बताना चाहूंगा।
एक, निशंक सरकार ने गढ़वाली और कुमाऊंनी को लोकभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संकल्प पारित कर केंद्र सरकार को भेजा है। यह बड़ी बात है। दूसरा, संसद में गढ़वाली और कुमाऊंनी को राजभाषा का दर्जा देने के संबंध में गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज की ओर से उठाई गई आवाज। मेरा मानना है कि प्राइमरी स्कूलों के पाठ्यक्रमों में गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषाओं को रखा जाना चाहिए। जिस तरह से यहां भाषा और संस्कृत एकेडमी बनाई गई है, उसी तरह लोकभाषा एकेडमी भी बने। लोक संस्कृति की मजबूती के लिए काम होंगे। साहित्य एकेडमी में जो 24 भाषाएं सूचीबद्ध हैं, उनमें 17वें नंबर पर गढ़वाली और 18वें पर कुमाऊंनी हैं। राजनीतिक नेतृत्व और पब्लिक का पूरा दबाव बना तो दोनों को राजभाषा बनने में देरी नहीं लगेगी। एनडी तिवारी सरकार ने साहित्य और कला परिषद, फिल्म परिषद का गठन कर सराहनीय कार्य किया था। हालांकि खास काम नहीं हो पाया। इन दोनों पर ही काम आगे बढ़ना चाहिए। तभी क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों के लिए संभावनाएं बन पाएंगी। -
Saturday, 23 October 2010
एलटी संवर्ग के रिक्त पदों के लिए आवेदन की मियाद बढ़ाई 27नवंबर
आवेदन की मियाद बढ़ाई
नैनीताल: एलटी संवर्ग के रिक्त पदों के लिए आवेदन की मियाद शासन ने 5 से बढ़ाकर 27 नवंबर कर दी है। मंडल में सामान्य के 679 व महिला वर्ग के 60 पदों के लिए आवेदकों में होड़ मची हुई है। प्रवेश परीक्षा केंद्रों का निर्धारण भी कर दिया गया है। उल्लेखनीय है 30 सितंबर को शिक्षा विभाग की ओर से एलटी के रिक्त पदों के लिए नियुक्ति की अधिसूचना जारी की गयी। गढ़वाल मंडल में सामान्य के 515 व महिला संवर्ग के 50 तथा कुमाऊं में सामान्य वर्ग के 679 व महिला वर्ग के 60 पदों के लिए विज्ञप्ति जारी की गई। मंडल में सामान्य वर्ग में हिंदी के 109, अंग्रेजी के 108, संस्कृत के 35,गणित के 53, विज्ञान के 90, सामान्य विषय के 86, कला के 108, शारीरिक शिक्षा के 84 व गृह विज्ञान के 6 पद शामिल हैं। जबकि महिला वर्ग में हिंदी व गणित के 5-5, अंग्रेजी व संस्कृत के 3-3, शारीरिक शिक्षा के 16, कला के 21, गृह विज्ञान के 6 व विज्ञान विषय के एक पद के लिए नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की गई है। पूर्व में शासन ने आवेदन पत्र जमा करने की अंतिम तिथि 5 नवंबर निर्धारित की थी, जिसे अब बढ़ाकर 27नवंबर कर दिया गया है। उत्तराखंड प्राविधिक शिक्षा परिषद के तत्वावधान में होने वाली एलटी की प्रवेश परीक्षा के लिए परीक्षा केंद्रों का निर्धारण कर लिया गया है। परीक्षा के लिए मंडल में नैनीताल, हल्द्वानी, रुद्रपुर, काशीपुर, खटीमा, अल्मोड़ा, द्वाराहाट, बागेश्र्वर, पिथौरागढ़ को केंद्र बनाया गया है। परीक्षा तिथि का ऐलान आवेदन जमा होने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद होने की संभावना है।
Thursday, 14 October 2010
नियुक्तियों का पिटारा
प्रदेश में एक बार फिर शिक्षा महकमे में रिक्त सैकड़ों पदों पर नियुक्तियों का पिटारा खुल गया है। प्रशिक्षित बेरोजगार युवा लंबे अरसे से एलटी शिक्षकों के पदों पर नियुक्तियों की बाट जोह रहे हैं। तकरीबन चार महीने की कड़ी मशक्कत के बाद नियुक्ति प्रक्रिया शुरू की गई है। हालांकि, इस प्रक्रिया में आवेदन तो मांगे गए, लेकिन रिक्त पदों का ब्योरा नहीं दिया गया। इस संबंध में शिक्षा महकमे को एलटी से प्रवक्ता पदों पर पदोन्नत किए गए शिक्षकों के कार्यभार ग्रहण करने का इंतजार है। इसके बाद रिक्त पदों में इजाफा हो सकता है। एक बार पदों की संख्या विज्ञापित करने के बाद उसमें संशोधन को काफी मशक्कत करनी पड़ सकती है। सरकार ने नियुक्ति के साथ ही महकमे में पदोन्नति की राह भी साफ कर दी है। निदेशक से लेकर अपर निदेशक, संयुक्त निदेशक, उप निदेशक और प्रधानाचार्यों के पद काफी संख्या में रिक्त हैं। पदोन्नति के लिए तय समय सीमा में पचास फीसदी छूट देने के कैबिनेट के निर्णय से शिक्षा महकमे को लाभ मिलना तय है। अभी महकमे में विभिन्न स्तरों पर चुस्त-दुरुस्त मुआयने की कमी महसूस की जा रही है। इससे प्राइमरी से लेकर माध्यमिक स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता पर असर तो पड़ा ही, शिक्षा से संबंधित राष्ट्रीय परियोजनाओं के क्रियान्वयन की गति मंद हो रही है। इसके मद्देनजर पदोन्नति और नियुक्ति को लेकर सरकार का फैसला अच्छा कदम है लेकिन ऐसे कदमों के बेहतर परिणाम तब ही दिखेंगे, जब उन पर सूझबूझ के साथ ही जल्द अमल किया जाए। पिछले कुछ अरसे से शिक्षा के क्षेत्र को खासी तवज्जो दी गई है। तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा के साथ विद्यालयी शिक्षा को लेकर हाल ही में लिए गए फैसलों ने इन क्षेत्रों में शैक्षिक सुधार की उम्मीदें बढ़ाई हैं। स्कूल गवर्नेंस के लिए शिक्षकों, अभिभावकों के मध्य संवाद को सशक्त करने की जरूरत भी है। विभिन्न योजनाओं में इसका प्रावधान है, लेकिन उन पर अमल को लेकर संजीदगी दिखाई नहीं दे रही। सरकार को चाहिए कि इस मामले में शिक्षा से जुड़े महकमों की कार्यप्रणाली में बुनियादी बदलाव पर भी ध्यान दे, ताकि प्रदेश में मानव संसाधन की कमी जल्द पूरी की जा सके।
-
उत्तराखण्ड अधीनस्थ शिक्षा (प्रशिक्षित स्नातक श्रेणी) सेवा में सहायक अध्यापक/अध्यापिका के पदों एवं जमा करने की अन्तिम तिथि 05 नवम्बर 2010
कार्यालय निदेशक, विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड, ननूरखेड़ा, देहरादून
विज्ञापन संख्याः/एल0टी0/ 01 /2010-11 दिनांक 30, सितम्बर, 2010
विज्ञप्ति
उत्तराखण्ड अधीनस्थ शिक्षा (प्रशिक्षित स्नातक श्रेणी) सेवा में सहायक अध्यापक/अध्यापिका के पदों एवं जमा करने की अन्तिम
तिथि 05 नवम्बर 2010 के सायं 5 बजे तक है। आवेदन पत्र मात्र पंजीकृत डाक से सचिव, उत्तराखण्ड प्राविधिक
शिक्षा परिषद् रूड़की (हरिद्वार), पिन कोड-247 667 के पते पर ही भेजा जाना है।
पूरी जानकारी के लिए देखे-http://gov.ua.nic.in/schooleducation/Announcement/vigyapan%20LT%2070%25.pdf
Friday, 8 October 2010
दुनिया की नामचीन हस्तियों में शुमार आचार्य बालकृष्ण
हरिद्वार
योग और आयुर्वेद में प्रसिद्धि की पताका फहराने वाले पतंजलि योगपीठ के महामंत्री आचार्य बालकृष्ण को दुनिया की
नामचीन हस्तियों की सूची में शुमार किया गया है। अमेरिका की बहुचर्चित पत्रिका हू-इज-हू बॉयोग्राफी ने आचार्य बालकृष्ण को योग और आयुर्वेद में बेहतर काम करने के लिए चुना है। हू-इज-हू पत्रिका अपने 29वें संकलन में आचार्य बालकृष्ण की पूरी बॉयोग्राफी प्रकाशित करेगी। पूरी दुनिया के करीब 215 देशों की जानी-मनी हस्तियों की जीवनी से सजी से किताब नवम्बर में प्रकाशित होगी।
बेहद शांत स्वभाव और काम के प्रति गंभीर व्यक्तित्व के धनी आचार्य बालकृष्ण की प्रतिभा का लोहा दुनिया मानने लगी है। योग गुरु बाबा रामदेव के सबसे करीबी आचार्य बालकृष्ण को योग और आयुर्वेद पर अनूठा काम करने के लिए अमेरिका की हू-इज-हू मैगजीन ने वर्ष 2010-11 के अंक के लिए चुना है।
हू-इज-हू मैगजीन के लिए कला, विज्ञान, बिजनेस, स्वास्थ्य आदि क्षेत्र में असाधारण कार्य करने वाली शख्सियतों का चयन करने वाली निर्णायक मंडली ने आचार्य बालकृष्ण को आयुर्वेद में उनके प्रयासों और मेहनत को आधार बनाया है। पत्रिका नवम्बर में प्रकाशित की जाएगी। 345 डॉलर की इस वार्षिक पत्रिका को अमेरिका के साथ-साथ दुनियाभर में सर्कुलेट किया जाएगा।
हू-इज-हू में चयनित होने पर आचार्य बालकृष्ण ने बताया कि इस सफलता का सारा श्रेय उनके मिशन के साथ जुड़े हजारों लोगों को जाता है। उन्होंने बताया कि वे कर्म को ही प्रधान मानते हैं। पूरी दुनिया में योग और आयुर्वेद का प्रचार हो रहा है। एक बार फिर भारत विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है।
ये है हू-इज-हू
हरिद्वार: अमेरिका की जानी-मानी वार्षिक पत्रिका हू-इज-हू पूरे विश्व से कला, स्वास्थ्य और विज्ञान में अनूठा कार्य करने वाले लोगों की बॉयोग्राफी प्रकाशित करती है।
संस्कृति से जुड़े हैं परंपरागत जलस्रोत
नौलों में दिखती है आस्था, संस्कृति व परंपरा की जीवंतता
नवीन बिष्ट, अल्मोड़ा: जल, वायु, अग्नि में जीवन निहित है। आदिकाल से ही मानव तीनों जीवनदायिनी तत्वों का पूजक रहा है। हमारी संस्कृति से परंपरागत जलस्रोतों के संरक्षण, संवद्र्धन से गहरा रिश्ता है।
संस्कृति के साथ ही जलस्रोतों का संरक्षण, संवद्र्धन आज तक अनवरत चल रहा है। जल ही जीवन है की उक्ति को लेकर आदिमानव से ही चिंतन की शुरूआत हुई थी। इस बात को अनेक शोधकर्ताओं ने अपने शोध पत्रों में उल्लिखित किया है।
पर्वतीय क्षेत्रों में जब मानव विकास की दिशा में कदम रख रहा था तो सबसे पहले उसने ऐसे स्थानों में अपना आवास या आश्रय बनाया जहां जल था। इस विषय पर पुरातत्ववेत्ता डा.चन्द्र सिंह चौहान ने अपने शोध में परंपरागत जलस्रोत व संस्कृति विषय पर हर पहलू को छुआ है। उनका कहना है कि साधारणतया जल व्यवस्था प्रकृति द्वारा संचालित है। नदी, नाले, जलस्रोतों की स्थिति को देखकर मानव ने अपनी बस्तियां बसाई। जहां-जहां जलस्रोत सूखते गए बस्तियां भी जलस्रोतों के साथ वीरान हो गई। प्राचीनकाल से ही मानव ने प्राकृतिक जल प्रणाली में परिवर्तन के प्रयास किए। डा.चौहान ने गंगा के उद्गम पर भगीरथ का भी उल्लेख किया है। अपने शोध पत्र में देवल शिलालेख में पीलीभीत के छिन्दवंशी राजा लल्ल द्वारा कठ नदी के जल को अपनी राजधानी तक मिट्टी के पाइपों द्वारा पहुंचाने का जिक्र किया है। इसके अतिरिक्त गढ़वाल में चांदपुर गढ़ी, कुमाऊं में चंपावत के लोहाघाट के पास चौमेल, दौनकोट, पिथौरागढ़ में दुगईआगर, अल्मोड़ा के कुंवाली नैणी में भी मिट्टी के पाइप मिले हैं। उनका कहना है कि मध्यकाल से लेकर कुमाऊं में अंग्रेजों के हस्तक्षेप से पूर्व पर्वतीय क्षेत्र में जल के उपयोग के लिए अनेक व्यवस्थाएं थी। जिसमें संचय के लिए नौलों की तकनीकी पर्वतीय क्षेत्रों में ही देखने को मुख्यत: मिलती है। पर्वतीय क्षेत्रों में नदी, घाटी, नालों, गधेरों को छोड़कर संभवत: ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में जब मानव ने बसना शुरू किया तो शुद्ध जल संचय के लिए छोटे-छोटे चुपटौले बनाए गए होंगे। मध्य घाटी में जहां पानी नहीं मिलता होगा चुपटौलों का ही उपयोग किया होगा। लंबे समय तक यह प्रक्रिया चलने के बाद विकास के साथ नौलों का विकास यहां तक हुआ कि उसमें आस्था, कला, संस्कृति व परंपराओं का अनूठे दर्शन देखने को मिलते हैं। हालांकि आज नौलों की परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। पानी के संरक्षण के लिए चाल, खाल व खंती की परंपरा नई नहीं है, बल्कि आदिमानव द्वारा खोजी गई विधि है। जो आज के वैज्ञानिक युग में पहले से ज्यादा महत्व रख रही है। प्राचीनकाल से आधुनिककाल तक पर्वतीय क्षेत्र में विभिन्न राजवंशों ने शासन किया। प्राकृतिक जलस्रोतों, नौलों, धारों के संरक्षण को लेकर राजशाही के दौरान सैकड़ों ताम्र पत्र आज भी जल के संरक्षण के प्रति चिंता व जागरूकता को प्रदर्शित करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं जल के संरक्षण, संवद्र्धन के साथ संस्कृति का गहरा रिश्ता है।
-पौड़ी की रामलीला पहुंची यूनेस्को
पौड़ी गढ़वाल,\ संस्कृति नगरी के तौर पर जानी जाने वाली पौड़ी ने रंगमंचीय स्तर पर एक और मुकाम हासिल कर लिया है। पौड़ी की 112 वर्ष पुरानी रामलीला अब यूनेस्को में पहुंच गई है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला मंच ने रामलीला को नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय में स्थान देकर इसे पुरातात्विक धरोहर घोषित किया गया है।
112 वर्ष पूर्व पौड़ी में रामलीला शुरू की गई थी, तब आज जैसी बिजली व अन्य तकनीकी सुविधाएं मौजूद नहीं थीं। ग्रामीण छिलके जलाकर रामलीला देखा करते थे। उस समय चंद लोगों की पहल पर शुरू हुआ यह आयोजन अब विस्तृत रूप ले चुका है। आधुनिक तकनीक, विद्युत प्रकाश व अन्य सुविधाएं उपलब्ध हो गई हैं, लेकिन स्वरूप आज भी वही पुराना है। अंतर है तो बस इतना कि अब महिला पात्रों की भूमिकाएं महिलाएं ही निभाती हैं। पौड़ीवासियों में हर वर्ष होने वाले रामलीला आयोजन को लेकर उत्साह देखते ही बनता है। महीनों पहले से लोग आयोजन की तैयारियों में जुट जाते हैं। रामलीला से जुड़े कुछ कलाकारों ने अपनी अभिनय क्षमता की ऐसी छाप छोड़ी कि आज भी वे अपने पात्रों के नाम से ही जाने जाते हैं। एजेंसी मोहल्ले में राशन की दुकान चलाने वाले श्रीधर ऐसे ही शख्स थे। रावण की भूमिका में उन्होंने ऐसा जीवंत अभिनय किया कि उनका नाम ही रावण लाला पड़ गया। वह जब तक जीवित रहे, लोग उन्हें इसी नाम से पुकारते रहे।
यहां यह भी बता दें कि पौड़ी की रामलीला अन्य जगहों की अपेक्षा खास है। यहां शास्त्रीय रागों पर आधारित गेय शैली में लीला आयोजित होती है। विशेषत: रागदेश, राग विहाग, जैजवंती, मालकोश, जौनपुरी, आशावरी, बागेश्री, रागदरबारी आदि शामिल हैं।
रामलीला समिति से लंबे समय जुड़े उमाचरण बड़थ्वाल, अरविंद मुदगिल बताते हैं कि वरिष्ठ रंगकर्मी व कमेटी अध्यक्ष हरीश रावत के नेतृत्व में वर्ष 2008 में 40 सदस्यों ने इंदिरा गांधी कला केंद्र नई दिल्ली में मंचन किया था। इसके बाद केंद्र ने पौड़ी की रामलीला को संग्रहालय में स्थान तो दिया ही, इसे यूनेस्को में भी भेजा। अब यूनेस्को इसे धरोहर के रूप में संग्रहीत कर रही है। इस वर्ष आठ अक्टूबर से शुरू हो रही रामलीला के दौरान इंदिरा गांधी केंद्र समेत यूनेस्को के अधिकारी भी पहुंच रहे हैं। वे यहां रामलीला का रेकार्ड तैयार करेंगे।
रामलीला कमेटी के अध्यक्ष हरीश रावत बताते हैं कि वे रामलीला मंचन को और अधिक आकर्षक बनाना चाहते हैं, लेकिन धन की कमी इसमें बड़ा रोड़ा है।
Friday, 1 October 2010
एलटी शिक्षकों की भर्ती
एलटी शिक्षकों की भर्ती
परीक्षा यूटीयू के हवाले
करीब 1500 एलटी शिक्षकों की होनी है भर्ती
Pahar1- एलटी शिक्षकों की भर्ती परीक्षा का जिम्मा उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय को सौंपा गया है। विद्यालयी शिक्षा विभाग ने मंगलवार को इसका जीओ जारी कर दिया। परीक्षा कराने और रिजल्ट जारी करने की सारी प्रक्रिया अगले तीन महीने में पूरी की जानी है। विवि के अधिकारी इस जीओ से अनभिज्ञ हैं।
विद्यालयी शिक्षा विभाग में एलटी की करीब 1400 वैकेंसी है। उच्चीकरण से भी काफी पद रिक्त हुए हैं। इन पदों के साथ ही राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा मिशन और शिक्षा का अधिकार कानून के तहत और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए करीब 1700 पदों के लिए भर्ती परीक्षा कराने का निर्णय हुआ है। इन्हीं के साथ 5 प्रतिशत वे पद भी शामिल किए जाएंगे जो सीधी परीक्षा से भरे जाने हैं।
सचिव विद्यालयी शिक्षा, मनीषा पवार के मुताबिक शनिवार को हुई बैठक में मुख्यमंत्री ने विशेष रूप से एलटी भर्ती प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दिया। इसके लिए परीक्षा एजेंसी तकनीकी विश्वविद्यालय को बनाए जाने को कहा। इसी को ध्यान में रखते हुए मंगलवार को जीओ जारी कर दिया गया। 30 सितंबर से पहले हर हाल में इसकी विज्ञप्ति जारी होनी है। अगले तीन महीने में विवि परीक्षा कराकर रिजल्ट देगा। दूसरी ओर, तकनीकी विवि के अधिकारियों को विद्यालयी शिक्षा विभाग के इस जीओ की जानकारी तक नहीं। कुलपति प्रो. दुर्ग सिंह चौहान का कहना है कि इस बारे में विवि से कोई राय-मशविरा भी नहीं हुआ। अक्तूबर में विवि के सेमेस्टर एग्जाम हैं। नवंबर में दीक्षांत समारोह कराना है। ऐसे में भर्ती परीक्षा कराना सहज नहीं लगता।
Wednesday, 29 September 2010
कॉमनवेल्थ गेम्स में बिखरेगी उत्तराखंड की संस्कृति
जोशीमठ। उत्तराखंड में प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है। अपनी प्रतिभाओं का लोहा मनवा चुके उत्तराखंड के लोग अब कॉमनवेल्थ गेम्स में भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करेंगे।
-
कामनवेल्थ गेम्स में ‘बीटस आफ उत्तराखंड’ के कार्यक्रम के दौरान सीमांतवासी वाद्य यंत्रों की प्रस्तुतियां देंगे। भोटिया सांस्कृतिक कला मंच के प्रमुख प्रेम हिंदवाल उत्तराखंड की ओर से लीड रोल करेंगे।
कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान नौ अक्तूबर को उत्तराखंड बीट्स के दौरान जहां पौड़ी के कलाकार बाबा केदार नृत्य, कुमाऊं से छपेली नृत्य और जौनसार के कलाकार हारूल नृत्य का प्रदर्शन करेंगे तो चमोली जनपद के सीमांत ब्लाक जोशीमठ के लोक कलाकार वाद्ययंत्रों की शानदार प्रस्तुति देकर विश्व समुदाय को उत्तराखंड के वाद्य यंत्रों की झलक से रूबरू कराएंगे।
उत्तराखंड की ओर से वाद्य यंत्रों में लीड रोल करने जा रहे लोक कलाकार प्रेम हिंदवाल के अनुसार उत्तराखंड बीट्स में उनके कलाकारों द्वारा ढोल, दमांऊ, भंकूर, भांणू, डौंर, हुडका, थाली, मुछंग, रणसिम्हा और मसक बीन आदि के वादन के साथ शानदार प्रस्तुतियां दी जाएंगी। उत्तराखंड संस्कृति विभाग के रंग मंडल संयोजक बलराज नेगी ने बताया कि 9 अक्तूबर को दिल्ली में होने वाले इस कार्यक्रम में सीमांत कलाकार न केवल वाद्य यंत्रों का बल्कि प्रसिद्ध पौंणा नृत्य का भी प्रदर्शन करेंगे। प्रख्यात लोक गायक दरबार नैथवाल, किसन महिपाल ने इस बुलावे को विश्व पटल पर उत्तराखंड की संस्कृति को पहुंचाने का शानदार अवसर बताया है।
वाद्य यंत्रों के साथ पौणा नृत्य की प्रस्तुति देंगे कलाकार
दो हजार शिक्षक 600 हेडमास्टर के नए पद बनेंगे
-
देहरादून। राज्य में बेसिक शिक्षकों के करीब दो हजार और हेडमास्टर के 600 से ज्यादा नए पद सृजित किए जा रहे हैं। इससे रोजगार तो बढ़ेगा ही, प्राइमरी शिक्षकों की पदोन्नति के अवसर भी बढ़ेंगे। ये पद शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई) के अंतर्गत बनाए जा रहे हैं।
आरटीई के तहत हर किमी पर प्राथमिक, तीन किमी. पर जूनियर हाईस्कूल खोलने के प्रावधान के तहत राज्य में बड़ी संख्या में नए स्कूल खोले जाने हैं। खुलने वाले स्कूलों की संख्या 600 से ज्यादा आंकी गई है। इससे विद्यालयी शिक्षा विभाग द्वारा शिक्षकों का स्ट्रक्चर भी बढ़ाया जा रहा है। प्रभारी निदेशक सौजन्या के मुताबिक करीब 2047 सहायक अध्यापक व 648 प्रधान अध्यापक के नए पद बनाए जाएंगे। केंद्र व राज्य सरकार की सैद्धांतिक सहमति मिल गई है। राज्य की ओर से केंद्र को भेजे गए 140 करोड़ के प्रस्ताव में इन शिक्षकों और स्कूलों का विवरण व इन पर खर्च होने वाली राशि का आगणन है। इन पदों पर भर्ती खुलने से जहां राज्य के 2047 युवाओं को रोजगार मिलने के साथ ही 648 शिक्षकों की पदोन्नति की भी राह बनेगी।
Tuesday, 28 September 2010
उत्तराखंड लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित इंटर कालेजों में प्रवक्ता परिक्षा २००९ का परिणाम २७.९.१० को घोषित- देखे -
गंगा की कहानी बयां करेगा 'संग्रहालय'
हिमालय की गोद 'गंगोत्री' से निकलकर 'गंगासागर'
तक कल-कल बहने वाली पतित पावन गंगा की यात्रा की कहानी के रहस्य को एक स्थान पर समाहित करने के लिए उत्तराखण्ड सरकार ने एक अनोखा संग्रहालय बनाने का फैसला किया है।
लगभग चालीस करोड़ की लागत से बनने वाला यह संग्रहालय हरिद्वार के हर की पैडी के ठीक सामने चण्डी द्वीप में बनाया जाएगा। इसमें गंगा के उद्गम से लेकर उसके अंतिम प्रवाह तक के रहस्य समाहित होंगे।
हरिद्वार के जिलाधिकारी आर. मीनाक्षी सुंदरम ने बताया कि प्रस्तावित गंगा संग्रहालय हर की पैडी के ठीक सामने चण्डी द्वीप में बनेगा। उन्होंने बताया कि जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन के तहत यह योजना मंजूरी के लिए राज्य के शहरी विकास मंत्रालय को भेजी गई है।
सुदंरम ने बताया कि प्रस्तावित योजना के तहत एक बड़ा संग्रहालय बनेगा। जिसमें गंगा के धार्मिक महत्वों सहित उसका ऐतिहासिक विवरण इस संग्रहालय में रहेगा।
उन्होंने बताया कि प्रस्तावित संग्रहालय हर की पैडी के सामने दीनदयाल पार्किग स्थल से उस पार चण्डी द्वीप में स्थित होगा। यहां जाने के लिए एक पुल बनाने की भी योजना है।
उधर, राज्य के शहरी विकास मंत्रालय की मानें तो सरकार ने इस योजना को मंजूरी दे दी है। हालांकि इसके मूर्त रूप लेने में अभी भी दो वर्ष का समय लगेगा।
मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया कि गंगा संग्रहालय एक अनूठा म्यूजियम होगा। जहां एक साथ बैठकर गंगा की महिमा को जाना जा सकेगा। प्रस्तावित संग्रहालय में हजार से अधिक लोगों के बैठने की क्षमता वाला आधुनिक व वातानुकूलित थियेटर भी रहेगा।
जिसमें देश दुनिया से आने वाले श्रद्धालु राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर पावन गंगा की महिमा को जान सकेंगे।
इस संग्रहालय में गंगा की गंगोत्री से गंगासागर तक की यात्रा का मनोहारी वर्णन होगा। उम्मीद जताई जा रही है तीर्थ नगरी में बनने वाला यह संग्रहालय अपने आप में अनोखा होगा जिसे देख कर लोग अचरज में रह जाएंगे।
गौरतलब है कि केन्द्र सरकार द्वारा शहरी क्षेत्रों में विकास के लिए जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन के तहत राज्यों को अलग से धन मुहैया कराया जाता है। इसी योजना के तहत हरिद्वार प्रशासन ने प्रस्तावित गंगा संग्रहालय को बनाने का निर्णय लिया है।
उत्तराखंड में एक और महाकुंभ की तैयारी
देहरादून। उत्तराखंड के हरिद्वार जिले में चल रहा सदी का सबसे बड़ा कुंभ अभी समाप्त नहीं हुआ है और दूसरी आ॓र पहाड़ के दूसरे महाकुंभ ’नंदा राजजात यात्रा’ की तैयारी शुरू कर दी गयी है।
उत्तराखंड में प्रत्येक बारह वर्ष पर मनाये जाने वाली नंदा राजजात को ’पहाड़ के महाकुंभ’ के नाम से जाना जाता है। करीब एक महीने तक चलने वाले इस महोत्सव में हजारों की संख्या में लोग श्रद्धा और विश्वास के साथ हिस्सा लेते हैं। यह महाकुंभ वर्ष 2012 में आयोजित होने वाला है लेकिन इसकी तैयारी अभी से ही शुरू कर दी गयी है।
इस बार आयोजित होने वाले इस पहाड़ के कुंभ नंदा राजजात आयोजन समिति के सचिव भुवन नौटियाल ने गोपेश्वर में बताया कि मान्यताओं के अनुसार उत्तराखंड के इष्टदेव भगवान शंकर ने मां पार्वती से विवाह करने के बाद अपने निवास कैलाश जाने के लिये जिस दुर्गम
रास्ते को चुना था, हजारों की संख्या में लोग प्रत्येक 12 वर्ष पर उसी रास्ते की परिक्रमा करते हुये जाते हैं और मां पार्वती को तरह तरह की भेंट चढ़ाते हैं।
उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में मां पार्वती को नंदा देवी के नाम से जाना जाता है। नौटियाल ने बताया कि लोग उस स्थान तक यह यात्रा करते हैं जहां तक के लिये मान्यता है कि वह इलाका देवी पार्वती के मायके के क्षेत्र में आता है। उस इलाके के बाद विशेष रूप से जन्मा चार सींग वाला भेड़ नंदा देवी के सारे सामानों को लेकर ससुराल क्षेत्र में प्रवेश करता है जो करीब 18 हजार फुट की ऊंचाई से शुरू होता है और 23 हजार फुट की ऊंचाई वाले नंदा घुंघटी तक जाता है जहां आज भी लोगों के लिये पहुंचना लगभग असंभव है।
उन्होंने बताया कि मान्यताओं के अनुसार, इस महाकुंभ के लिये नौटी के राजपरिवार के लोग आज भी मायके वालों की भूमिका में रहते हैं और जिस प्रकार से एक बेटी को पूरे सामान के साथ घर से विदा किया जाता है उसी प्रकार से नंदा देवी के लिये बडे़-बडे़ छत्र चंवर के साथ अन्य सामानों को लेकर यह यात्रा की जाती है।
नौटियाल ने बताया कि इस यात्रा के दौरान जहां हजारों लोगों को हिमालय के दुर्गम ग्लेशियरों से गुजरना पड़ता है वहीं रास्ते में एक जगह सबसे खतरनाक ज्यूरांगली दर्रे से भी यह यात्रा गुजरती है जिसे आज भी मौत की गली कहा जाता है।
नौटियाल ने कहा कि इस बार इस खतरनाक और दुरूह यात्रा में करीब एक लाख लोगों के शामिल होने की संभावना है। पिछली बार जब वर्ष 2000 में यह महाकुंभी यात्रा आयोजित हुई थी तो मौत की गली से गुजरते समय कुछ लोगों को मौत का सामना भी करना पड़ा था।
उन्होंने कहा कि इस पहाड़ी महाकुंभ के लिये अभी से तैयारी शुरू कर दी गयी है और सरकार से आग्रह किया गया है कि इसकी सफलता के लिये राजजात प्राधिकरण का गठन अभी से कर दिया जाये। नौटियाल स्वयं नौटी के राजपुरोहित परिवार से जुड़े हैं। उन्होंने बताया कि दुनिया का सबसे रहस्यमयी रूपकुंड भी इसी यात्रा के दौरान पड़ता है जहां आज भी हजारों नरकंकालों को पडे़ देखा जा सकता है। आज तक कोई भी नहीं जान पाया है कि ये नरकंकाल कहां से आये हैं और कितने पुराने हैं। यह स्थान 18 हजार फुट से भी अधिक ऊंचाई पर स्थित है और बारहों महीने बर्फ से ढका रहता है।
उन्होंने कहा कि इस यात्रा में पूरे राज्य से, गढ़वाल और कुमायूं मंडलों से हजारों लोग चंवर और छत्र लेकर अलग अलग स्थानों से आते हैं और इस पहाड़ी महाकुंभ में शामिल होते हैं। इस यात्रा के दौरान यात्री कुल 21 स्थानों पर रात में अपना पड़ाव डालते हैं। करीब एक महीने तक चलने वाले इस महाकुंभ का समापन करीब 23 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित नंदा घुंघटी के बेस नंदी कुंड में होता है जो करीब 18 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है।
उन्होंने कहा कि यह महाकुंभ गढ़वाल के राजपरिवारों द्वारा शुरू किया गया था और इसीलिये आज भी इसमें राजपरिवार के ही लोग मायके वालों की भूमिका में प्रमुख रूप से शामिल होते हैं और पूरी यात्रा में चलते हैं।
नौटियाल ने बताया कि इस महाआयोजन को सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने के लिये पहली तैयारी गत दिनों उपरायीं देवी मंदिर में मांडवी मनौती पूजा के साथ सम्पन्न हुई जिसमें नंदा देवी से इस यात्रा को सफलतापूर्वक सम्पन्न कराने की मनौती मानी गयी।
देहरादून में पर्यटन विभाग के सूत्रों ने बताया कि राज्य में अभी इस पर्वतीय महाकुंभ की तैयारी के लिये योजना बनायी जा रही है और मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल स्वयं इस महाकुंभ की सफलता के लिये कार्ययोजना पर विचार कर रहे हैं।
कानकून में लहराएगा उत्तराखंड का परचम
इस बार कानकून (मेक्सिको) विश्व वातावरण महासम्मेलन में उत्तराखंड का परचम लहराने वाला है।
मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल 'निशंक' ने इसकी मजबूत बुनियाद रख दी है। तब तक उत्तराखंड अकूत वन संपदा एवं पर्यावरण संतुलन के लिए किये गये तमाम अभिनव प्रयोगों में एक मुकाम हासिल कर लेगा। इन दिनों इन अभिनव प्रयोगों की उच्चस्तर पर समीक्षा हो रही है और धरातल पर परिणाम दिखाई देने लगे हैं।
मुख्यमंत्री हरित योजना, स्पर्श गंगा, हर्बल गार्डन और पिरूल के व्यावसायिक दोहन के लिए राज्य के तमाम इलाकों में तेजी से काम हो रहा है। इससे महासम्मेलन तक उत्तराखंड 50 लाख टन से अधिक कार्बन उत्सर्जन को कम कर भारत समेत दुनिया के तमाम राज्यों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण पेश कर देेगा। यही नहीं ग्लेशियरों को पिघलने से बचाने के लिए भोज के जंगल विकसित करने की पहल भी महासम्मेलन में उत्तराखंड को वाहवाही मिल सकती है।
उत्तराखंड के 53 हजार 657 वर्ग किमी क्षेत्रफल में 35 हजार 651 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र जंगल का है। निर्विवाद रूप से दुनिया के पर्यावरण संतुलन के लिए उत्तराखंड की महत्वपूर्ण भूमिका है। अब मुख्यमंत्री डा. निशंक इस भूमिका में एक नये 'हरित अध्याय' जोड़ने जा रहे हैं। यह अध्याय उत्तराखंड को राष्ट्रीय फलक पर एक नया मुकाम देने जा रहा है।
पर्यावरण एवं वन सलाहकार समिति के उपाध्यक्ष अनिल बलूनी ने इस संबंध में बताया कि राज्य के सभी जनपदों में उनकी मौलिक पहचान के तहत पौधरोपण किया जा रहा है। इसमें हल्दू, देवदार, बांज से लेकर तमाम छायादार पौधे लगाये जा रहे हैं। अब तक 65 लाख पौधे रोपे जा चुके हैं। सीएम की महत्वाकांक्षी 'स्पर्श गंगा' योजना यूरोप की 'राइन' और इंग्लैंड की 'थेम्स' नदी में चले अभियान से आगे निकल गई है।
उन्होंने बताया कि यूरोप और इंग्लैंड में नदियों को साफ सुथरा करने के लिए केवल सरकारी अभियान चला था, जबकि उत्तराखंड में महिला और युवक मंगल दलों की भागीदारी से स्पर्श गंगा अभियान एक जनांदोलन के रूप में सामने आया है। इससे लोगों में गंगा में मिलने वाली हजारों नदी-नाले-गदेरों को साफ-सुथरा रखने की संस्कृति विकसित हुई है। गंगा के किनारे रीवर वन विकसित किया जा रहा है।
उन्होंने बताया कि मुख्यमंत्री के नेतृत्व में देहरादून, पौड़ी, चंपावत, चमोली और अल्मोड़ा में हर्बल गार्डन तैयार किये जा रहे हैं। इन जनपदों के 5 से 10 हेक्टेयर-भूमि में हर्बल गार्डन एक अभिनव प्रयोग है जबकि राज्य भर के सबसे खतरनाक दुर्घटना क्षेत्र में 'बायो फे सिंग' किया जा रहा है। रानीबाग-भीमताल, नैनीताल-भीमताल, दुगड्डा तथा सतपुली में यह सपना साकार रूप लेने लगा है। पर्यावरण मंत्रालय पिरूल के व्यावसायिक दोहन की रूपरेखा पर भी काम कर रहा है।
राज्य सरकार इस योजना को मनरेगा की तर्ज पर शुरू कर रही है जबकि पिरूल से बिजली बनाने के लिए अगले साल फरवरी तक बेरीनाग (पिथौरागढ़) में एक 100 किलोवाट का पावर प्लांट लगाने का काम अंतिम चरण में है। पिरूल से महिलाओं को सीधा रोजगार मिल रहा है। पिछले साल हजारों महिलाओं ने केवल पिरूल एकत्र करने पर लाखों रुपये की आय अर्जित की।
श्री बलूनी के अनुसार पूरे राज्य में 12 हजार से अधिक वन पंचायत हैं। पिरूल से इन वन पंचायतों को सीधा लाभ मिलेगा। पिरूल से ऊर्जा तैयार होने से प्रतिवर्ष 20 से 25 लाख टन कार्बन उत्सर्जन वातावरण में कम हो जाएगा। श्री बलूनी ने दावा किया कि मेक्सिको सम्मेलन में इन तमाम अभिनव प्रयोगों से उत्तराखंड को पर्यावरण संरक्षण और संतुलन के लिए चौतरफा शाबाशी मिलेगी। उन्होंने कहा कि केंद्रीय योजना आयोग पहले ही उत्तराखंड की पीठ थपथपा चुका है। इस बीच उच्च सरकारी सूत्रों के अनुसार मेक्सिको सम्मेलन की उत्तराखंड ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है। इस सम्मेलन की तिथि अभी तय नहीं है।
इस दैवीय आपदा से हम उत्तराखंड को बहुत जल्द उभार देगें- 'निशंक'
ये राजनिति करने का समय नहीं,मिलकर चलने का समय है- 'निशंक'
पिछले दिनों उत्तराखंड में आयी बारिश की तबाही ने उत्तराखंड को हिलाकर रख दिया है। यही नहीं राज्य में बारिश और बादल फटने की अलग-अलग घटनाओं में इस साल करीब 150 लोग मारे जा चुके हैं। पिछले कुछ दिनों में ही 60 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। राजधानी देहरादून में बारिश ने पिछले 44 सालों के रिकॉर्ड को तोड़ दिया। बादल जिस तरह से इस देव भूमि पर कहर बनकर बरसे,उन्होंने पहाड़ के आसुओं को रोके नहीं रूकने दिया। यहां कोई मार्ग-खेत-खलिहान और मकान ऐसा नहीं बचा जिसने इस बार आई इस प्राकृतिक आपदा की त्रासदी को ना झेला हो। बिजली,पानी,संचार,संपर्क,खाद्यान्न,दवाओं का अभाव इस बाढ़ की चपेट में आए। राज्य के ज्यादातर हिस्सों में लोग मुख्यालय से कट गए तो चारों ओर तबाही का मंजर ही मंजर नज़र आया।
उत्तराखंड में आयी इस प्राकृतिक विपदा से घिरे लोग कई बार टापू पर खडे होकर मदद की गुहार लगाते रहे। ऐसे कुदरती दुर्दिन में राज्य सरकार जहां पूरी संजीदगी के साथ इस आपदा का मुकाबला करती दिखायी दी। वहीं कांग्रेस का हात आम आदमी के साथ नारा देने वाली कांग्रेस ऐसे भीषणतम् समय में भी राजनिति करती हुई दिखायी दी। जहां उत्तराखंड के युवा और कर्मठ मुख्यमंत्री खुद जान जोखिम में डालकर दूर-दराज आपदाग्रस्त क्षेत्रों में पहुंचकर,विषम परिस्थियों में भी राहत एवं बचाव कार्यों की निगरानी करने में लगे है।
उत्तराखंड को केंद्र से मिली थोड़ी सी राहत को कांग्रेस के केंद्रीय मंत्री हरीश रावत इस आपदा से ग्रस्त लोगों के घाव भरने की जगह,उनको मदद पहुंचाने जगह,पत्रकारों की बड़ी मंडली को अपने साथ घुमा-घुमाकर इस दैवीय आपदा को तराजू में तौल रहे है। यही नहीं उत्तराखंड में विपक्ष के नेता भी रावत के शुर में शुर मिलाकर कह रहे हैं कि केंद्र ने राज्य को इस आपदा से निपटने के लिए भारी धन उपलब्ध कराया है। जबकि सच्चायी सब के सामने है। आज उत्तराखंड को जिस तरह से इस प्राकृतिक आपदा से घेरा है। उसे विश्व के मानचित्र पर साफ-साफ देखा जा सकता है। लेकिन विपक्ष को इस सब की जगह खुद के लिए राजनैतिक रोटियां सैकने का ज्यादा उचित समय लग रहा है। लेकिन इसके बावजूद राज्य के मुख्यमंत्री इन तमाम नेताओं से निवेदन कर रहे हैं कि कृपया,ये राजनिति करने का समय नहीं,मिलकर चलने का समय है।
वर्षों बाद उत्तराखंड में आयी इस दैवीय आपदा ने पहाड़ों को जिस तरह से नुकसान पहुंचाया है। इसे देखते हुए डॉ.निशंक ने केंद्र से 21 हजार करोड़ रूपये की सहायता और राज्य को आपदाग्रस्त राज्य घोषित करने का अनुरोध भी किया है। साथ ही राहत कार्यों में सहयोग हेतु सैन्य बलों को भेजने की बात भी कही। मुख्यमंत्री ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी राज्य के हालातों से अवगत कराया है। भारी वर्षा,बाढ़ एवं भू-स्खलन के कारण राज्य में उत्पन्न हुई विकट स्थिति से नई दिल्ली में भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी,लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने राज्य के हालात को मजबूती से प्रधानमंत्री के समक्ष रखा। मुख्यमंत्री डॉ.निशंक के इन प्रयासों के परिणाम भी निश्चित तौर पर सामने आएं और केंद्र द्वारा तत्काल प्रभाव से 100 एन.डी.आर.एफ. के जवान उत्तराखंड के लिए रवाना किए गए और भूस्खलन एवं आपदा में मृत लोगों के परिजनों के लिए एक-एक लाख रूपये तथा घायलों को 50-50 हजार रूपये की सहायता प्रधानमंत्री द्वारा स्वीकृत की गयी। जबकि राज्य सरकार द्वारा भी मृतकों के परिजनों को एक-एक लाख रूपये मुआवजे के रूप में स्वीकृत किए गए। इस बारे में हमने जब अल्मोडा,उत्तरकाशी और यमुनोत्री-गंगोत्री राजमार्ग में फंसे लोगों से बात की तो,इन लोगों का कहना था कि,'उत्तराखंड के युवा मुख्यमंत्री खुद अपनी जान की परवा किए बगैर,विषम परिस्थियों में भी हमारे गांव आएं,हमसे मिले और हमें दि जाने वाली तमाम सुविधाओं के बारे में जानकारी भी ली,साथ ही उन्होंने सभी उचअधिकारियों को निर्देश दिए की जल्द से जल्द राहत सामग्री उन लोगों तक पहुंचनी चाहिए। जिन लोगों को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है'।
मुख्यमंत्री की संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से हैं कि उन्होंने 18 सितंबर 10 को प्रदेश में दैवीय आपदा से हुए भारी नुकसान को देखते हुए तत्काल जिलाधिकारियों और शासन के वरिष्ठ अधिकारियों को राहत और बचाव कार्यों में तेजी लाने के निर्देश जारी किए। 19 सितंबर 10 को मुख्यमंत्री सचिवालय में वरिष्ठ अधिकारियों से इस आपदा पर एक अहम बैठक कर वीडियो कांफ्रेसिंग के माध्यम से सभी जिलाधिकारियों के साथ चर्चा की और उन्हें निर्देश दिया कि वे बचाव एवं रहात कार्यों में तेजी लाए। मुख्यमंत्री ने स्पष्ट किया कि आपदा राहत के लिए धन की कमी को आड़े नहीं आने दिया जायेगा। साथ ही मुख्यमंत्री ने जिलाधिकारियों को आवश्यकता पड़ने पर हैलीकाप्टर के माध्यम से बचाव व राहत कार्य को जल्द से जल्द पूरा करने का निर्देश दिए है। मुख्यमंत्री खुद इस अधिकारियों से लगातार संपर्क बनाए हुए हैं,और पल-पल की जानकारी ले रहे है।
और तेज हुआ दैवीय आपदा से निपटने का 'मिशन राहत'
सोमवार को मौसम थोड़ा साफ होते ही उत्तराखंड में आयी दैवीय आपदा से निपटने के लिए मिशन राहत और तेज हो गया है। मुख्यमंत्री डॉ.रमेश पोखरिया निशंक ने हैलीकाप्टर औप पैदल चलकर आपदाग्रस्त क्षेत्रों का भ्रमण किया और अफसरों को राहत कार्य में तत्परता बरतने के निर्देश भी दिए। उन्होंने तमाम अधिकारियों को निर्देश दिए कि सरकार की पहली प्राथमिकता लोगों को सुरक्षित बचाना और उन्हें फौरी राहत मुहैया कराना है। इस बारे में जब हमने आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केंद्र से सूचना प्राप्त की तो,हमें प्राप्त सूचना के आधार पर, मुख्यमंत्री की अगवाही में उच्च हिमालयी क्षेत्र में फंसे पर्यटकों की खोज का कार्य राज्य सरकार द्वारा भारतीय थल सेना के दो चीता हैलीकॉप्टरों के मदद से जारी है। गंगोत्री-कालिन्दीखाल मार्ग पर फंसे पर्यटक दल की खोज के लिए 25 सिंतबर 10 से भारतीय थल सेना के चीता हैलीकॉप्टरों को लगाया गया है। जिनके द्वारा उस क्षेत्र का लगातार सर्वेक्षण किया जा रहा है। जहां यह पर्यटक हो सकते हैं,लेकिन पिछले दिनों ऊपरी हिमालयी क्षेत्रों में हुई भारी बर्फबारी के चलते इन क्षेत्रों में इन पर्यटकों के होने के कोई चिन्ह नहीं पाये गए है। दूसरी तरफ पिथौरागढ़ जनपद के गुंजी में फंसे लोगों को हैलीकाप्टर की मदद से सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया गया। गुंजी में फंसे मीडिया के पांच लोगों को धारचुला तथा तीन घायलो को हल्द्वानी के सुशीला तिवारी अस्पताल लाया गया है। जहां पर इन का उपचार किया जा रहा है। इसके साथ ही मरतोली में फंसे एक महाराज को मुंस्यारी लाया गया है।
इसी के साथ मुख्यमंत्री द्वारा उत्तराखंड के कई दूसरे आपदाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया गया है। अल्मोड़ा जनपद में आपदा से प्रभावित क्षेत्रों के 5593 लोगों को ठहराने के लिए 204 राहत कैंप स्थापित किए गए है। इसके अंतर्गत तहसील अल्मोड़ा में 57,रानीखेत में 60,द्वाराहाट में 03,जैंती में 60,सोमेश्वर में 02,भनौली में 17 एवं सल्ट में 05 राहत कैंप स्थापित किए गये है। मुख्यमंत्री के निर्देशानुसार बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में राहत सामग्री पहुंचाने का काम तेजी से किया जा रहा है। सभी राहत शिविरों में आवश्यक खाद्य सामग्री पहुंचा दी गया है और संबंधित क्षेत्र के उपजिलाधिकारी के माध्यम से उसका वितरण भी सुनिश्चित् कर दिया गया है। जनपद में रसोई गैस की आपूर्ति का प्राथमिकता के आधार पर कराए जाने के साथ ही पेट्रोल,डीजल का स्टॉक प्रर्याप्त मात्रा में रख दिया गया हैं,ताकि किसी प्रकार की असुविधा न हो। क्षतिग्रस्त सड़कों के सुधारीकरण का कार्य तेजी से किया जा रहा है। आपदा के कारण जो भी मार्ग क्षतिग्रस्त हुए हैं,उन्हें ठीक करने का काम युद्धस्तर पर जारी है। इसी के साथ उत्तराखंड को जोड़ने वाले मार्ग एवं सभी अवरुद्ध हुए मार्गों को खोलने के लिए भी युद्धस्तर पर काम किया जा रहा है।
इसी के साथ मुख्यमंत्री भी पूरे प्रदेश की स्थिति को जानने के लिए खुद दौरा भी कर रहे है। जिससे प्रदेश की जनता काफी राहत महसूस कर रही है कि उनकी समस्याओं को जानने के लिए मुख्यमंत्री स्वयं पैदल चलकर उनके पास आ रहे है। निश्चित तौर पर डॉ.निशंक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के लोगों से व्यक्तिगत तौर से मिलकर उन्हें ढांढस बंधा रहे कि इस दुःख की घड़ी में सरकार उनके साथ खड़ी है। जिससे लोगों में आशा जगी,साथ ही जिला प्रशासन भी हरकत में और प्रभावितों को तत्काल सहायता पहुंचाने में ओर तेजी लायी जा रही है। डॉ.निशंक ने शासन स्तर पर भी मुख्य सचिव को आपदा कार्यो की निगरानी के लिए कमान सौंपी है। मुख्य सचिव प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों से भली-भांती परिचित है। उन्होंने मुख्यमंत्री के निर्देश पर देर शाम तक शासन के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ एक बैठक की और राहत एवं बचाव की समीक्षा की
इस दैवीय आपदा से प्रभावित क्षेत्रों में लगातार मुख्यमंत्री जा रहे है। पिछले दिनों प्रभावित क्षेत्रों में बीमार लोगों को हैलीकॉप्टर से देहरादून लाने की व्यवस्था और उत्तरकाशी जनपद के नैटवार से 22 वर्षीय आशाराम,पुरोला से 65 वर्षीय लालचंद तथा पुरोला के ही ग्राम कण्डियाल से गंभीर रूप से बीमार 4 वर्षीय बच्चे धर्मेंद्र को हेलीकॉप्टर से देहरादून पहुंचाना मुख्यमंत्री का एक सराहनीय प्रयास रहा है। जहां दून अस्पताल में इन सभी का ईलाज चल रहा है। डॉ.निशंक प्रत्येक जनपद और गांव-गांव जाकर खुद देख रहे है कि इस दैवीय आपदा में घायल हुए लोगों और पशुओं को बेहतर चिकित्सा सुविधा प्रदान की जा रही हैं कि नहीं। इस बारे में जब हमने निशंक जी से जानना चाह की अभी उत्तराखंड के हालत कैसे है तो उन्होंने बताया कि, धीरे-धीरे जीवन खुद को संवारने की कोशिश कर रहा है। हम केवल उसे एक राह से जोड़ रहे है। क्योंकि उत्तराखंड पर इतनी भयभीत कर देने वाली दैवीय आपदा पहली बार आयी हैं,लेकिन हम अपना सब कुछ झोंक कर इस आपदा से निपटने का प्रयास कर रहे है। हमें उम्मीद हैं कि हम इस स्वर्ग में फिर से फूल खिला देगें। जहां तक इस आपदा में घायलों की बात हैं तो उनके उपचार में सरकार कोई कसर नहीं छोड़ेगी और उनका पूरा ध्यान रखा जायेगा। मैं आपको अवगत करना चाहूंगा की बड़कोट में राहत सामग्री लेकर गए हैलीकॉप्टर से 13 लोगों को देहरादून लाया गया हैं,जिनमें सात फ्रांसीसी पर्यटक है। इसके साथ ही कई अन्य लोगों में एक गर्भवती महिला और एक बीमार बच्चे को यहां लाया गया है। पुरोला से सात लोगो को और चिन्यालीसौढ़ से 22 लोगों को हैलीकॉप्टर से सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया गया है। इसी के साथ चिन्यालीसौढ़ में चार अतिरिक्त नौकाएं भी लगा दी गयी और प्रारम्भिक चरण में लगभग सौ से ज्यादा लोगों सुरक्षित स्थानों तक पहुंचा दिया गया है। कुमाऊं में बहुत से स्थानों पर सड़क मार्ग खुल जाने से कई ट्रकों से राहत सामग्री अल्मोडा़,बागेश्वर और पिथौरागढ़ के निकटतम स्थानों तक पहुंचायी दी गयी है। तीन ट्रक गैस सिलेण्डर भी कुमाऊं के विभिन्न क्षेत्रों के लिए भेज दिए गए है। जहां तक मानसरोवर यात्रा की बात हैं तो इसके 16वें समूह के 31 पुरूष एवं छः महिला समेत कुल 37 यात्रियों को गुंजी से धारचूला पहुंचाया गया। गुंजी में फंसे कैलाश मानसरोवर यात्रा के 37 यात्रियों को वायु सेना के एमआई-17 हैलीकॉप्टर से तीन चक्रों में सुरक्षित धारचूला तक लाया गया हैं और फिर टनकपुर पहुंचाया गया। जब हमने मुख्यमंत्री से इस आपदा के समय कांग्रेस के बयानों के बारे में जानना चाहा तो,डॉ.निशंक ने साफ किया की यह वक्त इस विपादा से निपटने का हैं,हमें इस पर ध्यान देना है। ये राजनिति करने का समय नहीं हैं बल्कि मिलकर चलने का प्रदेश की जनता के दुःखों को दूर करने का उन्हें राहत पहुंचाने का समय है'।
निश्चित तौर पर यह मिलकर काम करने का समय है। मुख्यमंत्री डॉ.रमेश पोखरियाल निशंक जिस प्रकार से दैवीय आपदा से प्रभावित क्षेत्रों का हवाई एवं स्थलीय निरीक्षण कर रहे है। वह अपने आप में सराहनीय है। मुख्यमंत्री के एक दिन में कई जनपदों का दौर करना और राहत कार्यों का निरीक्षण करने से आम लोगों में सरकार के प्रति और अधिक विश्वास बढ़ा है। साथ ही मुख्यमंत्री की कार्यशैली की सभी सभी सराहना कर रहे है,और उनकी इस कर्मठता और अपने राज्य के प्रति,राज्य की जनता के प्रति खुद के संर्पण को देखते हुए अब कई सामाजिक और स्वयंसेवी संगठन में अपनी ओर से हर संभव मदद के लिए आगे आ रहे है।
- जगमोहन 'आज़ाद'
Monday, 27 September 2010
सभी उत्तराखंडवासियों से एक अपील
उत्तराखंड में बारिश ने इस बार किस तरह की तबाही मचायी है...इस आपदा से निपटने के लिए हम सब को आगे आना है...क्योंकि यह हम सबके लिए बहुत जरूरी ही नहीं...बल्कि हमारा यह फ़र्ज भी है कि,हम इस आपदा के समय अपने पहाड़ों के लिए कुछ करें...इसी के लिए माननीय मुख्यमंत्री जी उत्तराखंड डॉ.रमेश पोखरियाल निशंक जी ने देश-विदेश और उत्तराखंड में बसे सभी उत्तराखंडवासियों से एक अपील की है। आप सभी लोग इस समय पहाड़ की मदद के लिए आगे आएं
Wednesday, 22 September 2010
देवभूमि में बाढ़ से बिगड़े हालात का ताजा हाल-२२ सिंतबर
देहरादून
दूसरे दिन भी कटा रहा दून का रेल संपर्क
थम नहीं रहा दैवीय आपदा से नुकसान का सिलसिला
प्रदेश में गहराया बिजली संकट
दून स्टेशन में यात्रियों की सुविधा के इंतजाम
हरिद्वार
गुस्से में है शिवालिक का यंग पर्वत
नहीं खुला हरिद्वार-देहरादून रेलवे ट्रैक
सीबीसीआईडी टीम फिर पहुंची हरिद्वार
नॉन पोस्टल स्टांप का मुख्य डिपो बनेगा हरिद्वार
पौड़ी
सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल कायम करने का आह्वान
पेड़ गिरने से एनएच रहा बाधित
चमोली, रुद्रप्रयाग, पौड़ी में संचार सेवा ठप
श्रीनगर मेडिकल कॉलेज भी खतरे की जद में
रूद्रप्रयाग
बीआरओ के वाहनों को रोका, कैंप हटाने की मांग
डेढ़ करोड़ की लागत से निर्मित टैक्सी पार्किंग पर खतरा!
अतिक्रमण के तहत जिले के १४ धार्मिक स्थल चिह्नित
हेलीकॉप्टर से लाया जा सकता है जवान का शव
टिहरी
कोटेश्वर डैम के पावर हाउस में घुसा पानी
राज्य स्तरीय हॉकी प्रतियोगिता में शामिल हुई कुल दो टीम
राज्यपाल ने लिया टिहरी बांध से हुए नुकसान का जायजा
झील का जलस्तर अब ८३१ मीटर पर स्थिर ः शाह
उत्तर काशी
यमुना के कटाव से सैकड़ों नाली कृषि भूमि बही
मेजर मनीष के निधन पर उत्तरकाशी में शोक
टिहरी झील से मनेरी भाली स्टेज टू में उत्पादन ठप
टिहरी झील से मनेरी भाली स्टेज टू में उत्पादन ठप
अल्मोड़ा
नगर में चौथे दिन भी पेयजल आपूर्ति ठप
देवली॒गांव में दो और शव निकाले गए॒
सड़क खुलने तक हैलीकाप्टरों॒से आएगा राशन
अब भी फंसे पड़े हैं प्रभावित परिवार
बागेश्वर
सरयू के कटाव से खतरा बढ़ा
बारिश के बाद गहराया पानी का संकट
बारिश ने तबाह की फसल
तेल के लिए॒मची रही रेलमपेल
चंपावत
बैराज में पांचवें दिन भी रहा रेड अलर्ट
१.८॒किलोग्राम चरस के साथ नेपाली गिरफ्तार
परीक्षण कराए बगैर बकरे काटे तो खैर नहीं
नाकाफी है प्रभावितों की मिलने वाली राहत राशि
नैनीताल
अयोध्या फैसले के मद्देनजर चौकसी
कट्टरपंथियों और मिश्रित बस्तियों की सूची तैयार
गुंजी॒से आगे नहीं बढ़ पाए कैलास यात्री
खैरना-रानीखेत॒रोड खुलने से मिली यात्रियों को राहत
पिथौरागढ़
आंवलाघाट॒से बन सकती है नई पेयजल योजना
समस्या समाधान को गांवों का दौरा करें अफसर
कांगे्रसियों ने फूंके मंत्रियों के पुतले
मुनस्यारी तहसील की संचार सेवाएं चौपट
ऊधम सिंह नगर
बारिश के बाद अब रसोई गैस की मार
अल्मोड़ा के पीड़ितों को हैलीकाप्टर से जाएगी खाद्य सामग्री
कैंटर॒ने बाइक सवारों को रौंदा, दो युवकों की मौत
भू-कटाव॒से सैकड़ों एकड़ कृषि भूमि नदियों में समाई
रामपुर
जमीन धंसने से खनोटू स्कूल का भवन क्षतिग्रस्त
आधे किन्नौर में तीन दिन से बत्ती गुल
तीन माह से बंद पड़ी सड़क खोली जाए
पंद्रह बीस क्षेत्र में ठप रहा यातायात
चमोली
नंदाकिनी घाटी में बारिश और भूस्खलन से तबाही
निजमुला-पाणा ईराणी पैदल मार्ग क्षतिग्रस्त
अब तो हद हो गइ, कब मिलेगी राहत
सड़क न खुलने से खाद्य वस्तुओं के लिए हाहाकार
किसकी नजर लगी मेरे पहाड़ को
शनिवार रातभर खबरें आती रहीं और डराती रहीं। कभी श्रीनगर में मकान ढहने की खबर आई, तो कभी अल्मोड़ा में लगातार मलबा गिरने की। हरिद्वार और ऋषिकेश से लगातार गंगा का जलस्तर बढ़ने के साथ ही बांध के धंसने की जानकारियां आती रहीं। कोई फोन पर मदद मांग रहा था, तो कोई एसएमएस कर रहा था। भोर मौत की खबरों से शुरू हुई, और दोपहर होते-होते ऐसा लगने लगा मानो प्रलय करीब हो। कुमाऊं में तो मौत साक्षात तांडव कर रही है। यहां तक कि जो रिपोर्टर जिलों से जानकारी दे रहे थे, उनकी आवाज में दर्द और रुआंसापन था। कुछ ने तो यह भी कहा कि यह क्या हो रहा है मेरे पहाड़ में। देव कहां सोए हैं। कोई तो बचाए। यह हालात हैं उत्तराखंड के। कहीं 72 घंटे से तो कहीं 60 घंटे से लगातार बारिश हो रही है। पहाड़ धंस रहा है। सड़कें बह रही हैं। भूस्खलन जारी है। मलबा सड़कों और मकानों पर आ रहा है। घरों में फर्श फोड़कर पानी की धार बह रही है। मकान बहे जा रहे हैं। पेड़ ध्वस्त हो रहे हैं। पिछले 150 सालों में ऐसे हालात न देखे, न सुने। ऐसा सूबे के बड़े-बुजुर्गों का कहना है।
चमोली, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर सहित गढ़वाल के सभी जिले एक दूसरे से कटे हुए हैं। देहरादून, हरिद्वार से कट गया तो दिल्ली से भी। कुमाऊं में भी अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, नैनीताल और ऊधमसिंहनगर के कई इलाके एक दूसरे से पूरी तरह कट गए हैं। कई जिलों में 48 घंटे से बिजली नहीं है, तो कई जगह पीने का पानी भी मयस्सर नहीं है। बिजली के खंभे सड़कों पर हैं। पाइप लाइनें बह गई हैं। घरों में बंद लोग कांप रहे हैं। कुछ तो यह भी कह रहे हैं कि यह पानी बरस रहा है या फिर काल। सिर्फ अल्मोड़ा में ही 34 से अधिक मौतों की खबर दिल दहला रही है। कितने मलबे में दबे पड़े हैं यह पक्का नहीं है। देवली, बाड़ी, पिलखी और धुरा जैसे गांवों में रूदन, बारिश की आवाज में खो गया है। मौत के आंकड़े 60 को पार कर रहे हैं। सरकार मदद पहुंचाए तो कैसे। हेलीकॉप्टर भी नहीं उड़ पा रहे हैं। पायलटों ने इनकार कर दिया है कि दुर्घटना हो जाएगी। लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है। सब्जी, दूध, दवा, खाद्य सामग्रियों, मिट्टी तेल, रसोई गैस की आपूर्ति ठप पड़ी है। यहां तक कि खबरों को जानने के लिए समाचार पत्र भी नहीं पहुंच पा रहे हैं। संचार साधन ध्वस्त पड़े हैं। कुमाऊं और गढ़वाल के बीच ट्रेन संपर्क भी टूट गया है। अब जरूरत है क्षेत्र, राजनीति और वैमनस्य सबकुछ भूलकर एक दूसरे की मदद करने की और सूबे में विपदा में फंसे लोगों को बचाने की। आइए हम सब जुट जाएं, इस अभियान में।
ड्
जरूरत है क्षेत्र, राजनीति और वैमनस्य भूलकर एक दूसरे की मदद करने की
निशीथ जोशी, देहरादून।
Tuesday, 21 September 2010
त्तराखंड में लगातार बढ़ रही हैं निशंक की लोकप्रियता
त्तराखंड में लगातार बढ़ रही हैं निशंक की लोकप्रियता
और...कैमरे-कलम तैयार कर विपक्ष ने बैठा दिए है निशंक के खिलाफ...'दलाल'
डा0 रमेश पोखरियाल 'निशंक' यानि ज़मीन से जुड़ते हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचने वाला एक ऐसा नाम जिसने खुद के हितों को दरकिनारे कर आम आदमी के भाषा
में आम आदमी से जुड़ कर,एक छोटे से कार्यकाल में स्थापित करके दिखा दिया कि विकास की भयार किस तरह बहती है। उन्होंने सिर्फ विकास ही नहीं बल्कि उत्तराखंड के जन-मानस के चेहरे पर जो मुस्कान बिखेर दि है। इसे शायद ही कोई दूसरा व्यक्ति कर पाता है। यह हम नहीं बल्कि प्रदेश का जन-मानस और युवा स्वर कह रहा है।
इन पंक्तियों के लेखक ने पिछले दिनों उत्तराखंड के तमाम गांवों का दौरा किया। ऐसे गांव जहां आज तक न बिजली-पानी की सुविधाएं थी। ना ही किसी को बुद्धु बक्से पर देश-विदेश के चेहरे दिखायी देते थे। ऐसे गांव जिन्होंने कभी विकास की राह देखी ही नहीं थी। जिन्हें सड़क के मायने ही मालूम नहीं थे। जो विश्व के मानचित्र पर खुद को सिर्फ और सिर्फ एक पहाड़ की तरह स्थिर मानते थे। जिनके लिए विकास की कोई परिभाषा ही नहीं थी। जिनके नौनिहालों ने दो कदम विकास की दौड़ तक नहीं देखी थी। लेकिन रमेश पोखरियाल 'निशंक' के लोकप्रिय फैसलों ने,इन गांवों को गांव होने का महत्व दिया है। नौनिहालों को विकास के दौड़ में शामिल किया है। ग्राम पंचायतों और प्रधानों के माध्यम से इन गांवों में निशंक सरकार ने जो विकास के नींव रखी है। वह यकीनन निशंक सरकार की लोकप्रियता के लिए कई मायने दिखाती है। सरकार के कई लोकप्रिय फैसलो ने आज जिस तरह से कई गांव की तस्वीर बदल कर रख दी है। वह किसी से आज छुप्पी नहीं है। विकास के धरातल पर प्रकृति ने भले है कहर बरपाया हो,लेकिन निशंक ने इस कहर को भी चुनौती पूर्ण स्वीकार करते हुए। इसक कहर को पिछे हटने को मजबूर कर दिया है। फिर चाहे वह सुमगढ़ का बादल हो,या उत्तकाशी की तबाही या फिर अल्मोड़ा-पौड़ी गढ़वाल के भयानक हादसे। निशंक सरकार ने हर हादसे का डट कर मुकाबला किया हैं,और इन हादसों में मारे लोगों को इनसे बाहर निकालने का बरस्क प्रयास किया है।
उत्तराखंड के गांव की जो तस्वीर आज के समय में है। निश्चित तौर पर ऐसा पहले कभी नहीं था। यहां के सुसजित रास्ते,जल-जगल और बिजली-पानी के व्यवस्था के जो मायने आज के समय में पहाड़ों में मौजूद है। उसे प्रदेश की जनता स्वयं के लिए एक बड़ा विस्तार मानती है। जिसका श्रेय वह निशंक सरकार को देने से नहीं चुकती है। उत्तराखंड के बेरोजगारों के चेहरो पर जो मुस्कान आज है वह आप रोजगार कार्यलयों में खुद का नाम लिखवाते चेहरों पर साफ तौर पर देख सकते है। फिर चाहे वह समुह 'ग' के पद हो या बीटीसी शिक्षकों के,यह अब सभी जानते हैं कि शिक्षा विभाग 4400 शिक्षकों को नियुक्ति देने जा रहा है, इसमें 18 सौ एलटी शिक्षकों के पद शामिल हैं। नियुक्तियां एनसीईटी के मानकों पर होगी। इसके लिए मंत्रालयों से हरी झंडी मिल गई है। इससे साफ है कि इससे एक ओर तो शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे विद्यालयों को राहत मिलेगी वहीं राज्य सरकार के इस कदम से भाजपा सरकार की लोकप्रियता में बढोत्तरी होगी। क्योंकि इससे पहले उत्तराखंड में कितनी सरकारें आयी और गयी लेकिन ऐसा कभी पहले नहीं हुआ। जैसा निशंक सरकार ने कर दिखाया है। कौन नहीं जानता की विकास के क्षेत्र में आज उत्तराखंड देश के 28 राज्यों में तीसरे स्थान पर हैं। केंद्रीय वित्त आयोग ने मुख्यमंत्री के प्रयासों को सराहा है और इसलिए एक हजार करोड़ की प्रोत्साहन राशि भी राज्य को अनुमोदित की, राज्य की प्रति व्यक्ति आय जो राज्य गठन के समय 14 हजार वार्षिक थी,बढ़कर आज लगभग तीन गुना हो गई है। यह देश का पहला राज्य है जिसने केंद्रीय कर्मियों की तरह सबसे पहले अपने राज्य कर्मियों को छठे वेतनमान का लाभ दिया है।
साहित्य-संस्कृति-शिक्षा की बात हो तो,इस क्षेत्र में भी निशंक सरकार तेजी के साथ आगे बढ़ रही है। खुद एक पत्रकार-साहित्याकार होने पर डॉ.निशंक द्वारा जिस तरह से उत्तराखंड के लेखक-पत्रकारों को सम्मानित करने उनकी पुस्तकों को प्रकाशित करने को जो ऐतिहासिक निर्णय लिया गया यह अपने आप श्रेय कर ही नहीं बल्कि डॉ.निशक की उपलब्धियों का एक नया आयाम है। राज्य आंदोलनकारियों की बात की जाए तो सरकार ने पूर्ण विकलांग आंदोलनकारियों को प्रतिमाह दस हजार की पेंशन सम्मान रूप में दिए जाने का फैसला भी लिया,जो अपने आप में सरकार का एक श्रेयकर फैसला है। जिसकी चौतरफा चर्चाएं हो रही है।
उत्तराखंड के दूर-दराज क्षेत्रों के बात की जाएं तो इन दिनों यहां के गांव में 'काम करों,गांव को साफ रखों और मेहनताना लेकर खुशी-खुशी घर को जाओं' जैसे अभियान चालाए जा रहे है। पिछले लगातार कई दिनों से उत्तराखंड में बारिश का प्रकोप जारी है। जिसके चलते यहां के रास्तों-सड़कों में खर-पतवार फैल गया है। इसे तुरंत हटाने के लिए सरकार के माध्यम से गांव के लोगों के सहयोग से खर-पतवार हटाओं अभियान चलाया जा रहा है। जिसके लिए गांव के लोगों को मेहनताना भी दिया जा रहा है। इस योजना से गांव के लोगों को एक तो काम मिल रहा है। दूसरी तरफ उनके गांव की सड़के और रास्ते साफ सुथरे भी हो रहे है। निशंक सरकार के इन लोकप्रिय प्रयासों से गांव के लोगों-युवाओं में जोश भरा हैं और इस जोश की चलते गांव के लोग इन कार्यों में बढ़चढ़ का अपनी भागीदारी निभा रहे हैं,साथ नार भी लगा रहे है। हमारी विकास की राह,निशंक सरकार के हाथ...और मिशन 2012,निशंक के साथ होगा वोट हमारा। जिसके सुन निश्चित तौर पर विपक्ष ही नहीं बल्कि बीजेपी के कुछ वरिष्ठ चेहरे भी घबरा गए हैं.और इन्होंने निशंक के खिलाफ मीडिया से लेकर कुछ ऐसे दलाल भी लगा दिए हैं कि जो कैमरों और कलम के माध्यम से निशंक को घेरने की तैयारी में देहरादून की चोर गलियों में दुबके के अपने कैमरों की लाईटें ओन कर बैठे है...कि किसी तरह तो निशंक के खिलाफ इन्हें कोई ख़बर मिलें...या स्टिंग मिले...जिससे यह निशंक की विकास यात्रा को रोक सकें...अब देखने वाली बात ये हैं...कि विकास रूकता है...या इन दुश्मनों की लाईटें फ्यूज होती है...।
- धन्यवाद...जगमोहन आज़ाद,दिल्ली
Saturday, 18 September 2010
बेटी ने घाट पर पिता की चिता को दी मुखाग्नि
तोड़ीं वर्जनाएं: देहरादून जिले के भानियावाला गांव निवासी गढ़वाल राइफल के पूर्व सैनिक प्रेम सिंह तोमर का शुक्रवार सुबह निधन हो गया। उनकी इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार बेटी ही करे। उनकी बेटी श्वेता ने रूढि़यों की जकड़न को तोड़कर बेटे का कर्तव्य निभाया। पार्थिव शरीर को पूर्णानंद घाट ऋषिकेश पर उसने न सिर्फ चिता को मुखाग्नि दी, बल्कि सिर मुंडवाकर कपाल क्रिया भी की। श्वेता ने दिखा दिया कि वंश का निशान सिर्फ बेटे से ही नहीं, बेटी से भी घर का चिराग रोशन है। सच तो यह है कि अपने ही खून में फर्क क्यों और कैसा।
ऋषिकेश। हिंदू धर्म में महिलाओं को अंतिम यात्रा में शामिल होने की स्पष्ट इजाजत नहीं है और न ही चिता को मुखाग्नि देने और क्रियाकर्म पर बैठने की शास्त्राज्ञा है। मगर भानियावाला निवासी एक व्यक्ति की मृत्यु के बाद उनकी पुत्रियों ने अंतिम यात्रा में शामिल होकर इन वर्जनाओं को तोड़ दिया। यह घटना चर्चा की विषय बनी रही।
भानियावाला निवासी पूर्व सैनिक प्रेम सिंह तोमर की अस्वस्थता के कारण शुक्रवार सुबह निधन हो गया। सगे-संबंधी, नाते रिश्तेदार अंतिम यात्रा के लिए निकले तो दिवंगत तोमर की चारों पुत्रियां भी शवयात्रा में निकल पड़ीं। लोगों ने समझाया मगर वह नहीं मानी। उत्तराखंड पूर्व सैनिक संगठन के केंद्रीय उपाध्यक्ष बुद्धि प्रकाश शर्मा ने बताया कि मुनिकीरेती श्मशानघाट पर चिता बनाई गई, जब मुखाग्नि देने की बात आई तो दिवंगत प्रेम सिंह के भाई बलराम तोमर और शैलेंद्र तोमर के अलावा भतीजे तैयार हुए, साथ ही उनकी बेटियां भी मुखाग्नि देने के लिए आगे आ गईं।
पारिवारिक सूत्रों के मुताबिक रिश्तेदारों और परिजनों से उन्हें समझाने की कोशिश की मगर वह नहीं मानी। बेटियों का कहना था कि उनके दिवंगत पिता की ऐसी ही इच्छा थी, लिहाजा वह उनकी इच्छा के संकल्प को पूरा करेंगी। उनके इस तर्क पर वहां मौजूद अन्य लोगों ने भी मूक सहमति दे दी।
इस मौके पर दिवंगत तोमर की तीसरी बेटी श्वेता ने पिता की चिता को मुखाग्नि दी और कपालक्रिया के बाद मुंडन भी कराया। श्वेता ही क्रियाकर्म करेंगी।
पिता की अंतिम इच्छा पूरी की : श्वेता
ऋषिकेश। दिवंगत प्रेम सिंह तोमर के अग्निदाह संस्कार में उनकी चार पुत्रियों समेत पांच महिलाओं ने भाग लिया। पुत्रियों में ममता और संगीता (दोनों विवाहित) के अलावा श्वैता और शिवानी शामिल हैं। इनमें से तीसरे नम्बर की पुत्री श्वेता ने पिता की चिता को मुखाग्नि दी और कपालक्रिया के साथ ही मुंडन कराया। जानकारी के अनुसार बताया गया कि वही संपूर्ण क्रियाकर्म सम्पन्न कराएंगी। बकौल श्वेता मेरे पिता की अंतिम इच्छा थी कि भाई नहीं बेटी ही अंतिम संस्कार करे। श्वेता के अनुसार चाचा लोग क्रियाकर्म के लिए तैयार थे, मगर हमें अपने पिता की की अंतिम इच्छा पूरी करनी थी।
पत्रकार शंकर सिंह भाटिया की पुस्तक नन्दा राजजात का विमोचन
नन्दा राजजात यात्रा का देश और दुनिया में प्रचार-प्रसार करने के लिए एक फिल्म भी तैयार कराई जाएगी।
: मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने आज पत्रकार शंकर सिंह भाटिया की पुस्तक नन्दा राजजात का विमोचन किया।इस मौके पर सीएम ने नन्दा राजजात यात्रा समिति को इस मेले की व्यवस्थाओं के लिए पांच करोड़ रुपये देने की घोषणा की।
सचिवालय परिसर स्थित मीडिया सेंटर में पुस्तक का विमोचन करने के बाद सीएम ने कहा कि नन्दा राजजात यात्रा का देश और दुनिया में प्रचार-प्रसार करने के लिए एक फिल्म भी तैयार कराई जाएगी। यात्रा के दौरान श्रद्धालुओं को बेहतर सुविधाएं देने की कोशिश की जा रही है। इस बारे में शासन स्तर पर एक समिति का गठन करने के साथ ही आयोजन समिति को पांच करोड़ रुपये दिए जाएंगे। यात्रा मार्ग में बेदनी बुग्याल समेत अन्य स्थानों पर हैलीपैड निर्माण की संभावनाओं पर भी सरकार विचार कर रही है। सीएम ने कहा कि नारी सम्मान हिमालयी सांस्कृतिक धरोहर है। नन्दा देवी की विदाई इसी परंपरा का एक प्रासंगिक दृश्य है। मुख्यमंत्री ने कहा कि सरकार ने तय किया है कि रचनात्मक कार्य करने वालों के साथ ही सृजनशील पत्रकारों को हर साल सम्मानित किया जाएगा। कार्यक्रम में मौजूद पर्यटन मंत्री मदन कौशिक ने कहा कि सदियों से चली आ रही नन्दा राजजात यात्रा की इस अनूठी परंपरा से दुनियाभर को अवगत कराया जाएगा। इस मौके पर पुस्तक के लेखर शंकर सिंह भाटिया ने इस यात्रा से जुड़े संस्मरण भी सुनाए। इस कार्यक्रम में पर्यटन विभाग के प्रमुख सचिव राकेश शर्मा समेत मीडिया जगत के तमाम लोग मौजूद रहे। इस कार्यक्रम का संचालन प्रो.डीआर पुरोहित ने किया।
Friday, 17 September 2010
मेरे गीत रहेगें ना तुम्हारे साथ - गिरीश तिवारी 'गिर्दा'
22 अगस्त 2010 उत्तराखण्ड लोक और रंगमंच इतिहास के लिए एक दुःखद दिन रहा है। इस दिन उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध रंगकर्मी-जनकवि गिरीश तिवारी 'गिर्दा' हमारे बीच नहीं रहे। यह सुनने पर विश्वाश तो नहीं होता,लेकिन यह सच है। अभी जुलाई माह की तो बात हैं,जब गिर्दा से मुलाकात हुई थी। काफी दिनों से उन्हें वरिष्ठ चित्र बी.मोहन नेगी जी के जीवन परिवेश को लेकर एक लेख लिखने का मैने निवेदन किया था। लेकिन 'गिर्दा' लिख नहीं पा रहे थे। इसलिए उन्होंने कहा था,'बबा तुम आ जाओ,मैं बोल दूगां तो लिख लेना',। बस इसी बहाने 'गिर्दा' से मिलने का मुझे शायद यह सौभाग्य प्राप्त हुआ।
'गिर्दा' से इससे पहले जब मेरी मुलाकात हुई थी,या फोन पर बातचीत हुई थी तो तब के मुकाबले गिर्दा इस बार मुझे काफी थके हुए और कमाजोर दिख रहे थे। इसकी वजह शायद यह भी रही हो की वह कुछ देर पहले ही अल्मोड़ा से लौटकर आएं थे। फिर भी 'गिर्दा' से मिलना मेरे लिए सुखद ही था। वह थके जरूर थे,लेकिन रूके नहीं थे। उनकी आवाज़ में जो मिठास थी,वह हमेशा की तरह अपनी माटी की खुशबू लिए थी। नैनीताल स्थित कैलाखान का वह घर मुझे अब रह-रहकर याद आता हैं। 'गिर्दा' का अतिथि निवेदन मेरे लिए निसंदेह बहुत बड़ा आशीर्वाद था। मुझे उनके वह शब्द बार-बार याद आते हैं कि,अब लगता हैं,समय कम रह गया है। दवाईयां भी साथ नहीं दे रही हैं,देखो बबा क्या होता है? कुछ देरे आराम करने के बाद 'गिर्दा' ने बीं.मोहन नेगी जी पर बातचीत शुरू की और इसी दौरान उनसे कुछ दूसरे विषयों पर भी बातचीत हुई। 'गिर्दा' वर्तमान लोक-सांस्कृति और रंगमंच में हो रहे बदवाल को लेकर काफी चिंतित जरूर दिख रहे थे। आख़िर क्यों इन तमाम मुद्दो पर एक अनऔपचारिक बातचीत हुई थी,उसी के कुछ अंशः-
1- 'गिर्दा' आप पहले के मुकाबले अभी काफी थके हुए लग रहे मुझे?
- नहीं-नहीं ऐसा नहीं है,गांव गया था ना। वहां बहुत सारे काम थे,उन्हें पूरा करना था। काफी भाग-दौड़ करनी पड़ी,शायद इसलिए थका सा लग रहा हूं बबा,.हंसते हुए.और अब बूढ़ा भी तो हो गया ना बबा.।
2- अभी कहां बूढ़े हैं दादा आप,अभी तो आपको एक लंबी यात्रा तय करनी है। हमारे साथ?
- हां.हां.क्यों नहीं,और नहीं भी कर पाया तो क्या। तुम लोगों के साथ मेरे गीत तो रहेगें ही ना बबा,कहते है ना व्यक्ति चला जाता है,लेकिन उसकी यादें उसकी सौगात हमारे पास हमेशा रह जाती है। इन्हें हमें हमेशा अपने पास संभाल कर रखना चाहिए।
3- इस उम्र में भी आप इतना भागा-दौड़ी इतना काम कर रहे है। कैसे कर पाते हैं,इतना कुछ?
- में संघर्ष करने में विश्वास रखता हूं.बबा.। यही मेरी शक्ति हैं,मैं निरंतर चलते रहने में विश्वास रखता हूं। क्योंकि इससे मेरे सामने नये आयाम खुलते हैं। लेकिन आज ऐसा नहीं हैं,आज बाजारवाद की डिमाण्ड के चक्कर में मानवीय गरिमा,मानवीय मूल्य,मानवीय संवेदनायें रिमाण्ड में जा रही है,नीलाम हो रही है। मैं इनसे लड़ने की क्षमता हमेशा खुद में रखता हूं। गाता हूं गुनगुनाता और आगे बढ़ता चला जाता हूं। मुझे लगता हैं,तुम जैसे युवा भी इस संघर्ष को खुद में समाहित कर एक नये दिन की शुरूआत करेगें। मुझे ऐसा लगता हैं,यह दिन जरूर आयेगा।
4- 'तो जैंता एक दिन त आलो ऊ दिन यो दुनीं में'.?
- जैंता एक दिन त आवो ऊ दिन यो दुनी में,गीत के मनुष्य के मनुष्य होने की यात्रा का गीत है। मनुष्य द्वारा जो सुंदरतम् समाज भविष्य में निर्मित होगा उसकी प्रेरणा का गीत है,यह उसका खाका भर है। इसमें अभी और कई रंग भरे जाने हैं,मनुष्य की विकास यात्रा के लिए। इसलिए वह दिन इतनी जल्दी कैसे आ जायेगा,इस वक्त तो घोर संकटग्रस्त-संक्रमणकाल से गुज़र रहे है नां हम सब,लेकिन एक दिन यह गीत-कल्पना जरूर साकार होगी,इसका विश्वास हैं और इसी विश्वास की सटीक अभिव्यक्ति वर्तमान में चाहिए।
5- गिर्दा ईश्वर को मानते है आप?
- थोड़ी देर चुप रहने के बाद.हां मानता हूं,जैसे गीत-संगीत को पूजता हूं वैसे ही ईश्वर को भी। लेकिन मैं अंधविश्वासी नहीं हूं। पहाड़ से हूं,जैसे देव भूमि कहा जाता है। फिर देवा से कैसे हम दूर हो सकते है। वो तो है ना बबा हमारे साथ.।
6- तो पूर्नजन्म में भी विश्वास करते होगें.यदि आपका पूर्नजन्म हो तो कहां जन्म लेना चाहेगें?
- जोर से हसते हुए.ऐसा हो सकता हैं क्या.यदि हां तो मैं तो बबा,इन्हीं पहाड़ की वादियों में जन्म लेना चाहूंगा.और अगर ऐसा हो ही गया तो.मैं किसी लोक गीत के धुन तो जरूर बनना चाहूंगा।
7- कुछ ऐसा,जो करने की चाहत हो.लेकिन अभी तक कर नहीं पाए हो?
- बकौल गालिब,'हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि,हर ख्वाहिश पै दम निकले' सो मेरे भाई किसी भी आदमी की हर चाहत तो कभी पूरी नहीं हो सकती,और मैं भी एक सामान्य आदमी हूं। मगर वास्तविकता यह है कि जब मानव विकास यात्रा का मर्म समझ में आ जायें तो फिर व्यक्तिगत चाहतों की कामी-नाकामी का कोई ख़ास महत्व नहीं रह जाता।
8- गिर्दा आप पुरानी पीढ़ी के कलाकारों समेत नवांकुरों तक के साथ आत्मीयता से अभी अनवरत कार्य कर रहे हैं.नई पीढ़ी के काम को कैसा मानते हैं और उसे क्या सीख देंगे आप?
- किसी भी सचेत संस्कृतिकर्मी को सभी 'वय' के लोगों के साथ काम करना ही चाहिए। दरअसल नये-पुराने वाली बात ज्यादा माने नहीं रखती बल्कि काम करने का मूल उद्देश्य महत्वपूर्ण होता हैं और नये लोगों के साथ काम करने में तो और अच्छा लगता है। कई नई-नई चीजें मिलती है। नये आयाम खुलते है। ख़ास तौर पर रंगमंच संदर्भ में कोशिश करता हूं कि बच्चों के बीच अधिक से अधिक भागीदारी हो सके। नये लोगों से इतना ही कहना चाहता हूं कि बाजारवाद के इस खतरनाक दौर को विश्लेषित करते हुए सांस्कृति कार्य का महत्व समझें और सामाजिक-ऐतिहासिक-वैज्ञानिक चेतना के साथ रतना कार्य करें।
जगमोहन आज़ाद ,दिल्ली
हिंदू-मुस्लिम एकता का गवाह है डांगी और बेडूबगड़ गांव
सौहार्द के साथ मनाया रमजान का महीना
अगस्त्यमुनि। हिन्दू-मुस्लिम एकता और आपसी भाईचारे का परिचय देते हुए मंदाकिनी घाटी के डांगी सिनघटा और बेडूबगड़ गांव में इन दिनों रमजान का पवित्र महीना सौहार्द के साथ मनाया गया। वर्षों से चली आ रही परंपरा का निर्वहन करते हुए ग्रामीण धर्म के नाम पर देश को बांटने वालों के सामने एक मिसाल कायम कर रहे हैं।
सिनघटा और बेडूबगड़ गांव में हिन्दू-मुस्लिम परिवार कई वर्षों से साथ-साथ रह रहे हैं। इतना ही नहीं सभी तीज-त्यौहार को ग्रामीण मिलजुल कर मनाते हैं। आजादी से पहले गढ़वाल के राजाओं ने यहां पर कु छ मुस्लिम परिवारों को बसाया था, जो आज भरे-पूरे गांव के रूप में विकसित हो गए हैं। ये परिवार न केवल मुस्लिम सभ्यताओं को संजोए हुए हैं, बल्कि साथ ही गढ़वाल की संस्कृति का भी निर्वहन कर रहे हैं। लोक संस्कृति के बीच रचे-बसे इन गांवों में मुस्लिम लोग ठेठ स्थानीय गढ़वाली बोली बोलते हैं।
गढ़वाल की पारंपरिक तिबारी, पठालों (पत्थर) की छत और खान-पान यहां तक की रिश्ते-नाते भी आम गांवों की तरह हैं। ये लोग हिंदुओं के देवी-देवताओं के साथ ही त्योहारों का भी ये पूरी तरह से सम्मान करते हैं। जिस उत्साह से स्थानीय निवासी ईद और रमजान मनाते हैं, उसी उत्साह से होली, दीपावली, श्रावण व बसंत का आगमन भी मनाते हैं।
डांगी और सिनघटा गांवों में हिंदुओं और मुस्लिम परिवारों के मकान आस-पास ही हैं। दोनों बस्तियों के बीच गांव की कुल देवी शाकुंभरी देवी मंदिर और इसके ऊपर मस्जिद और ईदगाह स्थित है। इन दिनों जहां गांव में शारदीय नवरात्रों की तैयारियां चल रही हैं, वहीं मुस्लिम परिवार क्षेत्र की खुशहाली के लिए नेम्मते मांगते हुए रमजान के पवित्र महीने में रोजा अदा किया।
पंचायती कार्यों में मुस्लिम परिवार भी देते हैं साथ
अगस्त्यमुनि। गांव के प्रत्येक पंचायती कार्य में सभी अपनी हिस्सेदारी निभाते हैं। मां भगवती के मंदिर में यज्ञ के अवसर पर मुस्लिम परिवार भी अपनी फाट (हिस्सा) देते हैं। गांव के प्रत्येक परिवार के जन्म से लेकर मृत्यु तक के हर संस्कार में इनकी सहभागिता देखने लायक है।
दिलों में बसता है प्यार
अगस्त्यमुनि। ग्राम पंचायत सिनघटा की मुस्लिम प्रधान सबाना और प्रधान डांगी मोहम्मद यूसुफ कहते हैं कि दुनिया चाहे कितनी भी मजहब की दीवारें खड़ी कर दे, इसका असर ग्रामीणों पर नहीं पड़ेगा। क्योंकि यहां पर हर किसी के दिल में मजहब से बढ़कर प्यार बसता है। दीवाली में अली और रमजान में राम का नाम मिला हुआ है।
देश-विदेश के लोग उत्तराखंड की संस्कृति से परिचित होंगे।
दिल्ली कामनवेल्थ गेम्स में देश-विदेश के लोग उत्तराखंड की संस्कृति से परिचित होंगे।
भागीरथी कला संगम समिति के कलाकार पहाड़ की सांस्कृतिक विरासत को मंच पर पेश करेंगे। समिति के कलाकार दो अक्टूबर को दिल्ली पहुंच रहे हैं।
आगामी तीन अक्टूबर को कामनवेल्थ गेम्स की दिल्ली के नेहरू स्टेडियम में रंगारंग शुरुआत होगी। 13 अक्तूबर तक रविंद्र भवन में विभिन्न प्रदेशों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा। संस्कृति मंत्रालय ने संगीत नाटक अकादमी को इसकी जिम्मेदारी सौंपी है।
उत्तराखंड का प्रतिनिधित्व भागीरथी कला संगम समिति से जुड़े कलाकार करेंगे। इसके लिए समिति को संगीत नाटक अकादमी का निमंत्रण प्राप्त हो गया है। इस मौके पर प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत को शानदार तरीके से प्रस्तुत करने के लिए तैयारियां भी शुरू कर दी गई हैं।
समिति के अध्यक्ष नत्थी लाल नौटियाल ने कहा कि समिति की 16 सदस्यीय कलाकारों की टीम दो अक्टूबर को दिल्ली पहुंचेगी। इससे पहले भी समिति से जुड़े कलाकार कई जगह प्रस्तुति दे चुके है। उन्होंने कहा कि कलाकार घस्यारी नृत्य और गान प्रस्तुत करेंगे। यह नृत्य संयोग और वियोग श्रृंगार से ओतप्रोत हैं।
सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में इन लोकगीतों को प्रमुखता से गाया जाता है। इसके माध्यम से यहां की सांस्कृतिक विरासत को शानदार तरीके से उकेरा जाएगा। उन्होंने बताया कि अंतराष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत शानदार हो इसके लिए कलाकार रात-दिन तैयारियों में जुटे हैं। इसके अलावा सीमांत पिथौरागढ़ जिले की पारंपरिक लोक संस्कृति के प्रमुख उत्सव 'हिलजात्रा' का मंचन भी राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान किया जाएगा।
Friday, 27 August 2010
उत्तराखंड के सपनों में रंग भर रहा रैथल गांव
- गांव की तस्वीर ऐसी कि शहर भी रश्क कर उठें
- यहां रह रहे 200 परिवारों के मन में भी नहीं पलायन की बात भी नहीं आती
गांधी का भारत गांव में बसता था, गांवों का कायाकल्प ही उनका सपना था। पर हालात बड़ी तेजी से करवट ले रहे हैं। तमाम कारणों से गांव वजूद खोने लगे हैं। उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। यहां तो गांवों से पलायन को आंतरिक सुरक्षा के खतरे के रूप में देखा जाने लगा है। भले ही सूबे की ओवरऑल तस्वीर चिंता की लकीरें खींच रही हो, लेकिन यहां ऐसा भी एक गांव है जो बापू के सपने में रंग भर रहा है। वह भी सिर्फ ' मिनी सरकार यानी पंचायत के बूते। यह गांव है सीमांत जनपद उत्तरकाशी के दुरूह इलाके का रैथल। रैथल की तस्वीर सचमुच ऐसी है कि शायद शहर भी रश्क कर उठें।
दरअसल, गांवों में एक तो अभी तक विकास की 'सड़क नहीं पहुंच पाई। दूसरा शहर की ओर जाने वाली सड़कों पर शुरू हुई आधुनिकता की अंधी दौड़ गांवों से लोगों को बाहर निकाल रही है। आलम यह कि पहाड़ों में तो गांव खाली होते जा रहे हैं। कारण तमाम गिनाए जाते हैं, लेकिन रैथल गांव अलग ही कहानी बयां करता है।
इस गांव में बिछी सीवर लाइन, टाइल्स बिछी चमचमाती गलियां और जगमगाती स्ट्रीट लाइट देख लगता ही नहीं कि आप उत्तराखंड के किसी गांव में हैं। यह सब इंगित कर रहा है कि आचार-व्यवहार से भ्रष्टाचार दूर हो जाए तो लोक का तंत्र ही सच्चे अर्थ में तस्वीर बदल सकता है।
उत्तरकाशी मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर और समुद्रतल से 1800 मीटर की ऊंचाई पर बसे रैथल गांव से अभी तक न तो कोई मंत्री बना और न ही विधायक। इस गांव की तस्वीर लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई ग्राम सभा और ग्रामीणों ने खुद ही बदल डाली। शहर जैसी सुविधाओं से सम्पन्न रैथल गांव भटवाड़ी ब्लाक मुख्यालय से दस किमी दूर है और प्रसिद्ध दयारा बुग्याल (अल्पाइन ग्रास) पहुंचने के लिए सड़क मार्ग का अंतिम पड़ाव पर है। यहीं से द्यारा के लिए आठ किमी का पैदल मार्ग शुरू होता है। रैथल गांव चमचमाती पक्की सड़क से जुड़ा है। मुख्यमार्ग से ही गांव में प्रवेश के लिए कई रास्ते हैं। गांव में जिस गली से भी प्रवेश करो वह सीसी या फिर टाइल्स से बनी है। साफ सुथरी गलियों से ही ग्रामीणों का सफाई को लेकर जागरूकता का अंदाज लगाया जा सका है। गांव में बिजली की दो लाइनें हैं। एक विद्युत विभाग की तो दूसरी पर्यटन विभाग की स्ट्रीट लाइट वाली लाइन। पहाड़ के हर गांव की तरह रैथल गांव भी सीढ़ीनुमा है। गांव के बीचोंबीच भड़ (वीर ) राणा घमेरू का चार सौ नब्बे साल पुराना लकड़ी का बना पांच मंजिला मकान आज भी खड़ा है। लगभग दो सौ परिवारों वाला यह गांव उत्तराखंड का शायद पहला गांव होगा, जहां एक भी परिवार ने पलायन नहीं किया। सेब, आलू, राजमा और गेहूं यहां की मुख्य फसल है। गांव के बीचोंबीच लाखों की लागत से बना शानदार कम्युनिटी हाल और अत्याधुनिक सार्वजनिक शौचालय गांव की समृद्धि की कहानी बयां करता है। रैथल के ग्रामीणों की सादगी तो देखिए यदि वे गांव की सुख सुविधाएं भोगते हैं तो बरसात के मौसम में दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित गुई और दयारा की छानियों (घास से बनी झोपडिय़ां) में भी यह लोग अपने जानवरों के साथ रहते हैं। रैथल के विकास की कहानी यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। गांव में गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस है तो हेलीपैड और स्टेडियम निर्माण प्रक्रिया में है।
18 साल तक गांव के प्रधान और साढ़े नौ साल तक ब्लाक प्रमुख रहे चंद्र सिंह राणा का कहना है कि पर्यटन के नक्शे पर लाने के लिए अभी बहुत किया जाना बाकी है।
गांवों की तस्वीर भयावह
देहरादून: उत्तराखंड में गांवों के खाली होने की तस्वीर पर नजर डालें तो काफी भयावह है। अर्थ एवं संख्या विभाग के वर्ष 2001 के आंकड़ों के अनुसार राज्य तेरह से में नौ जिलों मेंं कुल 59 गांव जन शून्य हो गए। उत्तरकाशी के दो, चमोली के सात, टिहरी के नौ, पौड़ी के बीस, रुद्रप्रयाग के दो, पिथौरागढ़ के आठ, अल्मोड़ा के नौ, बागेश्वर और चंपावत के एक-एक गांव जनशून्य हो चुके हैं। रूद्रप्रयाग जनपद के नए आंकड़ों के मुताबिक जन शून्य होने वाले गांवों की संख्या अब 26 पहुंच गई है।
Wednesday, 25 August 2010
देवीधुरा के पत्थर युद्ध में साक्षी बने एक लाख से अधिक लोग
-पत्थर युद्ध में 150 रणबांकुरे घायल
-मां बाराही के जयकारे के साथ जमकर चले पत्थर
लोहाघाट (चंपावत),-: मिसाइल युग में पत्थर युद्ध के लिए विश्वविख्यात ऐतिहासिक देवीधुरा का बग्वाल मेला देखने के लिए देश-विदेश से करीब एक लाख से अधिक लोग पहुंचे। 13 मिनट चले पत्थर युद्ध में करीब 150 से अधिक योद्धा घायल हुए तथा दर्शक दीर्घा में पत्थर आने के कारण एक दर्जन से अधिक दर्शक भी चोटिल हुए। परंपरा के मुताबिक मंदिर की गुफा में स्थित शक्ति की परिक्रमा व पूजा अर्चना के बाद दूबचौड़ मैदान की पांच बार परिक्रमा पूरी कर रण बांकुरे पत्थर युद्ध के लिए तैयार हुए।
ढोल नगाड़ों के बीच बग्वाल खेलने आए जत्थों के पीछे महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर सहभागिता करते हुए देव स्तुति व वीर रस एवं श्रंृगार रस पर आधारित गीता का गायन करते हुए बग्वाल खेलने वाले योद्धाओं का उत्साहवर्धन किया। इस बार सबसे पहले वालिक खाम (उपगांव) बद्री सिंह बिष्ट के नेतृत्व में मैदान में पहुंचा। उसके बाद लमगडिय़ा खाम वीरेन्द्र सिंह व लक्ष्मण सिंह लमगडिय़ा के नेतृत्व में चमयाल खाम, फिर गंगा सिंह चम्याल व गिरीश सिंगवाल के नेतृत्व में और अंत में त्रिलोक सिंह बिष्टï के नेतृत्व में गहड़वाल खाम के लोग पूरे जोश खरोश के साथ मैदान में पहुंचे। चारों खामों द्वारा अपने-अपने स्थानों पर मोर्चा जमाने के बाद अपराह्नï 2:51 बजे मंदिर से पुजारी के शंखनाद के साथ ही ऐतिहासिक बग्वाल शुरू हो गया। देखते ही देखते मैदान में चारों ओर से पत्थरों की बौछार होने लगी।
दो दलों में विभक्त बग्वाल खेलने वाले रणबांकुरों के पत्थर आसमान में इस तरह दिख रहे थे मानो कोई पुष्प वर्षा हो रही हो। 3 बजकर 04 मिनट पर पुजारी धर्मानन्द ने बग्वाल रोकने की घोषणा की लेकिन रणबांकुरों में इतना उत्साह था कि युद्ध विराम की घोषणा के बाद भी 3 मिनट तक बग्वाल चलता रहा। पत्थर युद्ध में लगभग 150 लोग घायल हुए। घायलों के सिर, हाथ, पांव खून से लथपथ थे, लेकिन उनके चेहरों पर दर्द के कोई भाव नहीं दिख रहे थे। दर्शक दीर्घा में बैठे एक दर्जन से अधिक लोग भी पत्थर लग जाने से घायल हुए। बग्वाल खत्म होने के बाद चारों खामों के लोग आपस में गले मिले। एक-दूसरे की कुशल पूछी और मां बाराही की जय-जयकार की। इस वर्ष बग्वाल में चम्याल और गहड़वाल खाम के सबसे अधिक लोग घायल हुए। विपरीत मौसम के बावजूद देश-विदेश के कोने-कोने से आज लगभग एक लाख से अधिक लोग यहां पहुंचे हुए थे।
प्रसिद्ध रंगकर्मी गिरीश तिवारी गिर्दा नहीं रहे
- उपचार के दौरान एसटीएच में हुआ निधन
- जनकवि के रूप में भी थे विख्यात
हल्द्वानी:प्रसिद्ध रंगकर्मी व जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा ने रविवार को सुशीला तिवारी चिकित्सालय में अंतिम सांस ली। उनके निधन की सूचना से शोक की लहर दौड़ गयी। पिछले कई दिनों से उनकी तबीयत खराब चल रही थी।
नैनीताल में निवास कर रहे जाने-माने रंगकर्मी 67 वर्षीय गिरीश तिवारी गिर्दा को गत 20 अगस्त को पेट में तेज दर्द होने पर सुशीला तिवारी चिकित्सालय में भर्ती कराया गया था। अगले दिन पेट का सफल ऑपरेशन भी हुआ, लेकिन उनकी तबीयत में कोई सुधार नहीं हुआ। आज दोपहर 11 बजकर 31 मिनट पर उन्होंने अंतिम सांस ली। वे अपने पीछे पत्नी हेमलता व दो बेटे प्रेम पिरम व तुहिन्नासु को छोड़ गये हैैं। उनका अंतिम संस्कार 23 अगस्त को पाइन्स श्मशान घाट नैनीताल में होगा। उनके निधन की सूचना से चारों तरफ शोक की लहर दौड़ गयी। अस्पताल में ही पद्मश्री डॉ. शेखर पाठक, राजीव लोचन साह समेत रंगकर्मी, लेखक एवं शिक्षाविदों का जमावड़ा लग गया।
वर्ष 1945 में अल्मोड़ा के ज्योली गांव में माता जीवन्ती व पिता हंसा दत्त तिवारी के घर जन्मे गिरीश तिवारी को जनमानस गिर्दा उपनाम से पुकारते थे। गिर्दा बचपन से ही जनआंदोलनों से भी जुड़े रहे। मेहनतकश अभावों से जूझती जिन्दगी को स्वर देने वाले गिर्दा का दर्द लोक गीतों में भी झलकता है। रंगकर्म के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले गिर्दा को युगों-युगों तक याद किया जाएगा। पर्यावरण को बचाने के लिए भी जुझारूपन से लगे रहे तथा पहाड़ के हर संघर्ष में लोगों का भरपूर साथ दिया। क्षेत्रीय से लेकर राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में लेखों के माध्यम से उन्होंने अपने विचार व्यक्त किये। लोक गायक झूसिया दमाई पर शोध कार्य भी किया। राजीव कुमार निर्देशित फिल्म वसीयत में गिर्दा का अभिनय भी यादगार रहेगा। वर्ष 1996 में गिर्दा को उत्तराखंड लोक संस्कृति सम्मान से नवाजा गया। जनवादी लेखन के लिए भी मसूरी में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) ने उन्हें सम्मानित किया। उनके निधन पर मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक, पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी, राज्य सभा सदस्य तरुण विजय एवं परिवहन मंत्री बंशीधर भगत ने गहरा दु:ख व्यक्त किया है।
जनगीतों में हमेशा जिंदा रहेंगे जनकवि गिर्दा
फक्कड़ी की मिसाल थे गिरीश तिवारी गिर्दा
अल्मोड़ा-कवि कभी मरता नहीं है। गिर्दा बाबा नागार्जुन की फक्कड़ी परंपरा के ऐसे जनकवि थे, जिन्होंने हर दबे-कुचले, पीडि़त जन की पीड़ा को शब्द स्वर देकर उजागर किया। उत्तराखण्ड के किसी भी इलाके में किसी गरीब पर अत्याचार हो रहा हो या कहीं संघर्ष की बात हो, उसको भी मुखर स्वर देकर बेबाक जनकवि की भूमिका में सत्ता के खिलाफ सीना ताने खड़े हो जाते थे। गिरीश तिवारी गिर्दा की प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा के जीआईसी में हुई। गिर्दा ने लिखने की शुरुआत हिंदी गीत, गजल व कविताओं से की। कुमाऊंनी में लिखने की प्रेरणा उन्हें जीआईसी में उनके गुरु रहे चारु चन्द्र पांडे से मिली। चिपको आंदोलन के दौरान उनका जनगीत-आज हिमाला तुमनकैं धत्यों छ जागो-जागो ओ मेरा लाल, नि करि दी हलो हमरि निलामी, नि करि दि हलो हमरो हलाल- कुमाऊं ही नहीं पूरे उत्तराखण्ड में आंदोलनकारियों के मुंह से निकलता था। यही नहीं मौजूदा व्यवस्था में गैर बराबरी के खिलाफ उनके तेवर बहुत ही बागी रहते थे। बल्ली सिंह चीमा की कविता गिर्दा अक्सर आंदोलनों में गाते थे-ले मशाले चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के। वहीं उनकी कुमाऊंनी रचना आंदोलनकारियों को इस प्रकार शक्ति देती थी-हम ओड़, बारुडि़, ल्वार, कुल्ली कभाडि़ जै दिना य दूनिथैं हिसाब ल्यूलों। एक हांग निमांगू, एक फांग निमांगू, सारि खसरा खतौनि किताब ल्यूंलौ। राज्य आंदोलन के दौरान उत्तराखण्ड का कोई ऐसा कोना नहीं बचा, जहां गिर्दा के इस गीत के बोल न गूंजे हों-कस होलो उत्तराखण्ड कस हमार नेता, कसि होलि विकास नीति, कसि होलि व्यवस्था। यही नहीं गिर्दा की रचनाओं में जहां आग दिखाई देती है, वहीं जीवन दर्शन का फलक इतना व्यापक है कि उनकी छोटी सी कविता विश्व का फैलाव ले लेती है। प्रकृति व गांव के जनजीवन को भी उन्होंने शब्दों से ऐसे बुना कि गांव की सांझ सामने खड़ी हो गई-सावनि सांझ अकाश खुला है ओ हो रे ओ दिगोलालि, गीली है लकड़ी की गीला धुआं है, मुश्किल से आमा का चूला जला है। गिर्दा ने हमेशा आशा और विश्वास को अपने गीतों के माध्यम से बोया। बेहतर भविष्य के प्रति हमेशा आशावान रहे। यही कारण है कि उनके गीत हमेशा जीवन का संदेश देते थे।
अब कहां सुनाई देंगे गिर्दा के मधुर बोल...
-कौन करेगा खालीपन दूर, किसके साथ होगी जुगलबंदी...
नैनीताल: रंगकर्मी गिरीश तिवारी गिर्दा के अकस्मात चले जाने से कला एवं संस्कृति के पटल पर बहुत बड़ा शून्य छा गया है। उनकी रिक्तता की पूर्ति कैसे होगी, अब यहीं ज्वलंत प्रश्न जन संघर्षों से जुड़े लोगों के समक्ष उत्पन्न हो गया है। गिर्दा के बिछोह के गम से फिलवक्त कोई भी नहीं उबर सका है। अब उनके द्वारा जलाई गयी मशाल को आगे बढ़ाकर ही उनके खालीपन को दूर करने की कोशिश भर की जा सकती है।
गिर्दा के अचानक चले जाने से हर कोई स्तब्ध है। जब तक गिर्दा सभी के बीच थे, किसी ने सोचा भी न था कि उनकी विरासत को कैसे आगे बढ़ाया जाएगा। उनके चले जाने के बाद अब यही यक्ष प्रश्न जन संघर्षों तथा रंगमंच से जुड़े लोगों के सामने खड़ा हो गया है। हर कोई मानता है कि गिर्दा की कमी अब कतई पूरी नहीं की जा सकती। गिर्दा के साथ कई यात्राओं पर जाने वाले इतिहासकार डा.शेखर पाठक का भी यही मानना है कि गिर्दा के जाने से जन संघर्षों के समक्ष बहुत बड़ा शून्य छा गया है। इस शून्य को दूर करना किसी के वश में नहीं है। गिर्दा के साथ जुगलबंदी करने वाले लोक गायक नरेन्द्र सिंह नेगी भी उन्हें इन्हीं शब्दों में श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। बकौल श्री नेगी जन संघर्षों को सुर देना वाला कुमाऊं में अब गिर्दा के समकक्ष का कोई और जनकवि मुझे नजर नहीं आ रहा है।
वरिष्ठï पत्रकार एवं जन आंदोलनों में हमेशा सक्रिय रहने वाले राजीव लोचन साह गिर्दा के बारे में कहते हैं कि उन्हें मात्र जनकवि व रंगकर्मी कहकर शब्दों में सीमित नहीं किया जा सकता है। गिर्दा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे, उनके खालीपन को अब दूर करना मुमकिन नहीं है। उत्तराखंड के चर्चित नशा नहीं-रोजगार दो आंदोलन समेत अन्य कई जन संघर्षों में गिर्दा के साथ रहे डा.शमशेर सिंह बिष्ट कहते हैं कि लोगों को साथ जोडऩे की जो कला उनमें थी, वह अब कहां से आएगी। प्रसिद्ध रंगकर्मी विश्वम्भर नाथ साह गिर्दा के उत्तराखंड राज्य आंदोलन मेें दिए गए अनुकरणीय योगदान की चर्चा करते हुए कहते हैं कि नैनीताल में उस आंदोलन में जिस तरह उन्होंने जान फंूकी थी, वह हर किसी के वश की बात नहीं है। गिर्दा के अन्य संगी साथी भी उनके बहुमुखी व्यक्तित्व को अब बस केवल याद करते हैं। इन्हीं यादों में उनकी आंखें भर आती हैं। हम सभी को मालूम है कि अब गिर्दा लौटकर नहीं आएंगे।
तो कह दिया अलविदा 'बबा
परम्परा को तोड़ महिलाओं ने भी दिया गिर्दा की अर्थी को कंधा
, नैनीताल: शव यात्रा 'गिर्दाÓ की थी, तो परम्पराएं टूटनी ही थी। महानायक की तरह रंगकर्मी व जनकवि को हर किसी ने अलविदा 'बबाÓ कहा। हर आंख में आंसू..हर हाथ अर्थी छूने को आतुर थे। महिलाओं ने परम्पराएं तोड़ कर न केवल उनकी अर्थी को कंधा दिया बल्कि घाट पहुंच कर उन्हें अंतिम विदाई भी दी। जनगीतों के साथ निकली उनकी अंतिम यात्रा में हर कोई एक दूसरे के कंधे पर सिर रख जार-जार रो रहा था।
यह गिरीश तिवारी 'गिर्दाÓ का मानव चुम्बकीय प्रभाव था, वह हमेशा लोगों को कुमाऊंनी शब्द 'बबाÓ कह कर पुकारते थे। सोमवार को उनकी शव यात्रा में प्रशासनिक अधिकारी, पत्रकार, रंगकर्मी, साहित्यकार, राजनेता, छात्र, न्यायाधीश, विभिन्न संगठनों के लोग, शिक्षक, महिलाएं, मजदूर तबका और सभी धर्मों के लोग शामिल थे। इससे झलक रहा था कि गिर्दा वह हस्ती थे जो कभी मिटेंगे नहीं। लग रहा था मानो उनकी शव यात्रा में नैनीताल ही नहीं, पूरा उत्तराखंड शामिल है। दिल्ली व लखनऊ से आये लोग भी शामिल थे। इस विराट व्यक्तित्व की अर्थी को हर हाथ छू लेना चाहता था। इस दौरान जो भी मार्ग में मिला वह यात्रा में शामिल हो गया और काफिला बढ़ता गया। गिर्दा की अन्तिम इच्छा थी कि उनकी शव यात्रा में उनके गीतों को अवश्य गाया जाय, साथियों ने यही किया भी। फिंजा में उनके लिखे, गाये जन मानस की पसंद बन चुके गीत 'जागो, जागो हो म्यारा लाल, म्यार हिमाल...Ó, 'हम ओड़, बारूड़ी, ल्वार, कुल्ली कबाड़ी, जता एक दिना तो आलो उ दिन य दुनि मां, एक हांग न मांगूलौ, एक पांख न मांगूलौ, सार खसरा खतौनी किताब ल्यूलौ..Ó, 'गिली है लकड़ी कि गिला धुंआ है, मुश्किल से आमा का चूल्हा जला है, साग क्या छौंका है पूरा गौं महका है...Ó जैसे गीत गूंज रहे थे। जन आंदोलनों के दौरान जब गिर्दा सड़कों में उतर कर अपने लिखे जन गीतों को गाते थे तो हजारों की भीड़ उन्हें घेर लेती थी। मगर आज वह गा नहीं रहे थे, तो भी हजारों लोग उन्हें घेरे हुए थे। हर तबका उनके साथ उसी तरह जुड़ा था जैसे जन आंदोलनों के दौरान उनके साथ लोग जुड़ जाते थे।
इस साल खो गये पहाड़ के दो लाल
नैनीताल: पहले सिने अभिनेता निर्मल पांडे और अब गिरीश तिवारी 'गिर्दाÓ दुनिया के मंच से रुखसत हो गये। पहाड़ ने इस साल दो लाल खो दिये यह क्षति कभी पूरी नहीं हो सकती। दोनों लोग मूल रूप से अल्मोड़ा जनपद के थे, लेकिन उनकी कर्मभूमि नैनीताल रही। निर्मल पांडे रंगमंच के साथ ही सिने जगत से भी जुड़े थे। उनका निधन इसी वर्ष 19 फरवरी को मुम्बई में हो गया। गिर्दा रंगमंच के अलावा प्रख्यात जनकवि भी थे। अच्छे लेखक व अच्छे वक्ता भी थे। रविवार को इस बहुआयामी व्यक्तित्व ने भी अलविदा कर दिया।
Subscribe to:
Posts (Atom)