Thursday, 25 November 2010

हिमालय की नब्ज है उत्तराखंड

: उत्तराखंड हिमालय की ऐसी नब्ज है, जिसे टटोलकर पूरे हिमालय का हालचाल जाना जा सकता है। यहां न सिर्फ अन्य हिमालयी राज्यों से अधिक हिमनद है, बल्कि संरक्षित वन क्षेत्र का दायरा भी सबसे अधिक है। जमीन की संवेदनशीलता ऐसी कि जरा सा भूस्खलन यहां तबाही ला देता है। हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के आंकड़े बताते हैं कि यदि राज्य के प्राकृतिक संसाधनों से अत्यधिक छेड़छाड़ किया गया तो इसका असर पूरे देश में दिखेगा। दून में चल रहे 'हिमालय नीतिÓ जन संवाद में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने 11 हिमालयी राज्यों के प्राकृतिक संसाधनों के आंकड़ों को सामने रखा। जिसमें पता चलता है कि उत्तराखंड हर लिहाज से महत्वपूर्ण है और संवेदनशील भी। हिमालय के महत्वर्ण 26 ग्लेशियरों में 11 हिमनद सिर्फ इस राज्य में है। प्रदेश में राष्ट्रीय पार्क, वाइल्ड लाइफ सेंचुरी व संवेदनशील वनक्षेत्र भी अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक हैं। भूस्खलन की बड़ी घटनाएं सबसे अधिक बार उत्तराखंड में घटी हैं। यानि राज्य का पर्यावरण काफी संवेदनशील है। हिमालयी शिक्षा संस्थान के विशेषज्ञ व नदी बचाओ आंदोलन से जुड़े सुरेश भाई का कहना है कि जारी किए गए आकंड़े राज्य के जल, जंगल और जमीन की कहानी बताने के लिए काफी हैं। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह भी मानते हैं कि राज्य में ऐसी कोई भी परियोजना नहीं चलाई जानी चाहिए, जिससे यहां के पर्यावरण को नुकसान पहुंचे। क्योंकि उत्तराखंड हिमालय के बड़े हिस्से में बसा है। उत्तराखंड के ग्लेशियर नॉर्थ नंदा देवी (19कमी), साउथ नंदा देवी (15किमी), त्रिशूल (15किमी), गंगोत्री (30किमी), डॉकरैनी (05किमी), चोरबारी (07किमी), गंगोत्री (19किमी), चैखंबा (12किमी), सतोपंथ (13किमी), पिंडारी (08किमी), मिलम (19किमी)। :::: दस साल का उत्तराखंड उत्तराखंड अब दस साल का हो गया है। किसी राज्य के लिए एक दशक इतना बड़ा अरसा नहीं है कि कोई फैसला दिया जा सके, हां! उसकी दिशा और दशा का अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में पीछे मुड़कर देखें तो सब कुछ आशानुरूप भले न हुआ हो, लेकिन निराशाजनक भी नहीं कहा जा सकता। श्रीनगर में मेडिकल कॉलेज शुरू हुआ और गरीब बच्चे भी डॉक्टर बनने का सपना देखने लगे। मात्र 15 हजार रुपये फीस रख सरकार ने गरीबों के लिए मेडिकल की पढ़ाई को सुगम बनाया। प्रदेश में 108 एम्बूलेंस सेवा शुरू कर स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में प्रभावी पहल की गई। औद्योगिक विकास को मिली गति भी राज्य के लिए छोटी उपलब्धि नहीं है। इससे भी आगे पर्यावरण संरक्षण में अग्रणीय भूमिका निभा उत्तराखंड ने विश्व मंच पर अपनी अहमियत सिद्ध कर दी है। इस वर्ष आयोजित महाकुंभ के सफल संचालन के बाद अब कोई शुबहा नहीं कि बड़े आयोजनों के प्रबंधन में भी नए राज्य का कोई सानी नहीं है। बावजूद इसके उल्लास के पलों पर उदासी ज्यादा हावी रही। दुनिया की आधुनिक और अस्थिर पर्वत शृंखला हिमालय की गोद में बसे नए राज्य का मिजाज भी उतना ही डांवाडोल रहा, जितनी यहां की भूगर्भीय गतिविधियां। फिर चाहे मिजाज राजनीति का हो या कुदरत का। कुदरत को तो कंट्रोल नहीं किया जा सकता, लेकिन उसके प्रभाव को न्यून करना असंभव नहीं। इसके लिए सर्वाधिक आवश्यकता है आपसी सहयोग की। यह सहयोग चाहिए राजनीति में, कर्मचारियों और आम जनता में। दस साल में पांच मुख्यमंत्री देख चुके शिशु राज्य को राजनीतिक स्थिरता की जरूरत ज्यादा है। तभी जिन सपनों की नींव पर उत्तराखंड की इमारत खड़ी की जा रही है, वह बुलंदी पर पहुंच पाएगी। इसकी जिम्मेदारी न अकेले नेताओं पर है और न ही अफसरों या कर्मचारियों पर। यह दायित्व सबका है। यह ठीक है दस साल की उम्र परिपक्व होने की नहीं है, लेकिन अपने भले बुरे के पहचान की तो है। अब समय आ गया है कि बीती ताहि बिसारने की बजाए उससे सबक ले आगे की सुध ली जाए। आओ हम मुठ्ठी बंद कर देश-दुनिया को अपनी ताकत का अहसास कराएं। -

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