Thursday, 25 November 2010
उत्तराखंड में साहित्यकार की आस
= यह वही उत्तराखंड है, जिसने खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि गुमानी पंत, पहला गद्यकार पंडित नैन सिंह रावत, पहला डी. लिट्. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, पहला व्याकरणाचार्य किशोरीदास वाजपेयी, पहाड़ी शैली का पहला चित्रकार मौलाराम तोमर, संस्कृत का अपराजेय शास्त्री विश्वेश्वर पांडे, भारत में सोप ऑपेरा का आविष्कारक मनोहरश्याम जोशी, पहला एकांकीकार गोविंद बल्लभ पंत, प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पंत और चंद्रकुमार बर्त्वाल, मनोविज्ञान का कथा-चितेरा इलाचंद्र जोशी, स्वप्नकथा को हिंदी में जोड़ने वाला रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ और फिर आधुनिक कहानी को दिशा देने वाले शैलेश मटियानी, शिवानी, विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी, हिमांशु जोशी, पानू खोलिया, पंकज बिष्ट, मृणाल पांडे और मोहन थपलियाल जैसे रचानाकार दिए हैं।
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हम भारतीयों के जीवन में घटनाएं अब एक सामान्य सूचना भी नहीं रह गई हैं। अखबार में खबर पढ़ते हैं, मगर दूसरे ही पल घटना मन से उसी तरह गायब हो जाती है, जैसे रसोई में आकर बिल्ली दूध चट कर जाए, और हम उसे डंडा मारकर अपने मन का गुबार भी न निकाल पाएं। साहित्यिक पत्रिका ‘वसुधा’ में वरिष्ठ साहित्यकार चंद्रकांत देवताले का पत्र छपा है, जिसमें उन्होंने जयपुर की एक घटना का जिक्र किया है कि कैसे अलवर के जिलाधिकारी कुंजीलाल मीणा ने हरिशंकर परसाई की कहानी ‘भोलाराम का जीव’ को अपने सभी अधीनस्थ कार्यालयों को भेजकर भ्रष्टाचार को खत्म करने का बीड़ा उठाया और वे उसमें काफी हद तक सफल रहे। हुआ यह कि अलवर के एक नागरिक की पेंशन का पैसा लाख कोशिशों के बाद भी नहीं मिल पाया, तो उसने अपने आवेदन के साथ हरिशंकर परसाई की कहानी ‘भोलाराम का जीव’ जिला कलेक्टर को भेज दिया। मीणा ने जिले के सभी विभागों को इस कहानी की फोटो प्रतियां भिजवाईं और साथ में पत्र भेजा कि हर विभाग के अधिकारियों और बाबुओं को यह कहानी पढ़नी होगी। तसवीर का एक पहलू यह है। दूसरा पहलू उत्तराखंड की नौकरशाही और सरकार की मिलीभगत का है। वर्ष 2003 में सरकार ने प्रदेश के लेखकों, कलाकारों को एकजुट करने के लिए एक पहल की थी, ‘साहित्य, कला और संस्कृति परिषद’ के रूप में। उस वक्त प्रदेश के मुख्य सचिव हमारे सहपाठी थे, रघुनंदन सिंह टोलिया। 1964-65 में नैनीताल के डीएसबी कॉलेज में हमने तत्कालीन प्रिंसिपल डॉ. डी. डी. पंत के नेतृत्व में ऐसी ही प्रतिभाओं का एक संगठन बनाया, ‘द क्रेंक्स’। डी. डी. पंत ने बाद में ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ (यूकेडी) को जन्म दिया और टोलिया ने राज्य बनने के बाद प्रदेश के चुनींदा कला-प्रेमियों को एक मंच पर जोड़कर उत्तराखंड की साहित्य और संस्कृति अकादमियों की आधारशिला रखी। इस अकादमी में एक ही मंच पर थे, वरिष्ठ रचनाकार रस्किन बांड और विद्यासागर नौटियाल, कवि लीलाधर जगूड़ी, लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी और रतन सिंह जौनसारी, इतिहासकार शेखर पाठक, रंगकर्मी जहूर आलम और डी. आर. पुरोहित, पुरावेत्ता यशोधर मठपाल, संस्कृतिकर्मी शेर सिंह पांगती और नंद किशोर हटवाल और दो दर्जन से अधिक अनेक दूसरे लोग।
सन् 2007 में प्रदेश की दूसरी लोकप्रिय सरकार ने सत्ता संभालते ही पहला काम यह किया कि लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों के इन दोनों संगठनों को एक फालतू वस्तु की तरह उत्तराखंड की सीमा से इतनी दूर फेंक दिया कि वे हिमाचल-उत्तर प्रदेश की सीमा से इस ओर झांक भी न सकें। यूकेडी को पूरी तरह निचोड़ कर उसके सत्व से अपना पेट भरा और टोलिया के सपनों को ऐसा निचोड़ा कि उसका कतरा भी उत्तराखंड में नहीं बचा रह सके।
यह वही उत्तराखंड है, जिसने खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि गुमानी पंत, पहला गद्यकार पंडित नैन सिंह रावत, पहला डी. लिट्. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, पहला व्याकरणाचार्य किशोरीदास वाजपेयी, पहाड़ी शैली का पहला चित्रकार मौलाराम तोमर, संस्कृत का अपराजेय शास्त्री विश्वेश्वर पांडे, भारत में सोप ऑपेरा का आविष्कारक मनोहरश्याम जोशी, पहला एकांकीकार गोविंद बल्लभ पंत, प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पंत और चंद्रकुमार बर्त्वाल, मनोविज्ञान का कथा-चितेरा इलाचंद्र जोशी, स्वप्नकथा को हिंदी में जोड़ने वाला रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ और फिर आधुनिक कहानी को दिशा देने वाले शैलेश मटियानी, शिवानी, विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी, हिमांशु जोशी, पानू खोलिया, पंकज बिष्ट, मृणाल पांडे और मोहन थपलियाल जैसे रचानाकार दिए हैं।
साहित्य का मंच भी उत्तराखंड में मौजूद है, हिंदी की पहली कवयित्री महादेवी वर्मा के रामगढ़ वाले घर के रूप में। दुर्भाग्य से इसे भी नष्ट करने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले इसके निदेशक के विरुद्ध जांच कमेटी बिठाई, कुछ हाथ नहीं लगा तो निदेशक की उम्र और योग्यता के लिए ऐसे नियम बनाए कि कोई आवेदन न कर सके।
सरकारें तो सभी राज्यों में कमोबेश एक जैसी हैं, मगर नौकरशाही से निवेदन है कि उत्तराखंड के विन्यास में वे अलवर के कलेक्टर कुंजीलाल मीणा से सबक लें। वैसे मीणा तक जाने की भी जरूरत नहीं है। उनके पास तो टोलिया मौजूद हैं और वे शुरूआत कर ही चुके हैं।
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