Friday, 27 August 2010
उत्तराखंड के सपनों में रंग भर रहा रैथल गांव
- गांव की तस्वीर ऐसी कि शहर भी रश्क कर उठें
- यहां रह रहे 200 परिवारों के मन में भी नहीं पलायन की बात भी नहीं आती
गांधी का भारत गांव में बसता था, गांवों का कायाकल्प ही उनका सपना था। पर हालात बड़ी तेजी से करवट ले रहे हैं। तमाम कारणों से गांव वजूद खोने लगे हैं। उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है। यहां तो गांवों से पलायन को आंतरिक सुरक्षा के खतरे के रूप में देखा जाने लगा है। भले ही सूबे की ओवरऑल तस्वीर चिंता की लकीरें खींच रही हो, लेकिन यहां ऐसा भी एक गांव है जो बापू के सपने में रंग भर रहा है। वह भी सिर्फ ' मिनी सरकार यानी पंचायत के बूते। यह गांव है सीमांत जनपद उत्तरकाशी के दुरूह इलाके का रैथल। रैथल की तस्वीर सचमुच ऐसी है कि शायद शहर भी रश्क कर उठें।
दरअसल, गांवों में एक तो अभी तक विकास की 'सड़क नहीं पहुंच पाई। दूसरा शहर की ओर जाने वाली सड़कों पर शुरू हुई आधुनिकता की अंधी दौड़ गांवों से लोगों को बाहर निकाल रही है। आलम यह कि पहाड़ों में तो गांव खाली होते जा रहे हैं। कारण तमाम गिनाए जाते हैं, लेकिन रैथल गांव अलग ही कहानी बयां करता है।
इस गांव में बिछी सीवर लाइन, टाइल्स बिछी चमचमाती गलियां और जगमगाती स्ट्रीट लाइट देख लगता ही नहीं कि आप उत्तराखंड के किसी गांव में हैं। यह सब इंगित कर रहा है कि आचार-व्यवहार से भ्रष्टाचार दूर हो जाए तो लोक का तंत्र ही सच्चे अर्थ में तस्वीर बदल सकता है।
उत्तरकाशी मुख्यालय से 45 किलोमीटर दूर और समुद्रतल से 1800 मीटर की ऊंचाई पर बसे रैथल गांव से अभी तक न तो कोई मंत्री बना और न ही विधायक। इस गांव की तस्वीर लोकतंत्र की सबसे छोटी इकाई ग्राम सभा और ग्रामीणों ने खुद ही बदल डाली। शहर जैसी सुविधाओं से सम्पन्न रैथल गांव भटवाड़ी ब्लाक मुख्यालय से दस किमी दूर है और प्रसिद्ध दयारा बुग्याल (अल्पाइन ग्रास) पहुंचने के लिए सड़क मार्ग का अंतिम पड़ाव पर है। यहीं से द्यारा के लिए आठ किमी का पैदल मार्ग शुरू होता है। रैथल गांव चमचमाती पक्की सड़क से जुड़ा है। मुख्यमार्ग से ही गांव में प्रवेश के लिए कई रास्ते हैं। गांव में जिस गली से भी प्रवेश करो वह सीसी या फिर टाइल्स से बनी है। साफ सुथरी गलियों से ही ग्रामीणों का सफाई को लेकर जागरूकता का अंदाज लगाया जा सका है। गांव में बिजली की दो लाइनें हैं। एक विद्युत विभाग की तो दूसरी पर्यटन विभाग की स्ट्रीट लाइट वाली लाइन। पहाड़ के हर गांव की तरह रैथल गांव भी सीढ़ीनुमा है। गांव के बीचोंबीच भड़ (वीर ) राणा घमेरू का चार सौ नब्बे साल पुराना लकड़ी का बना पांच मंजिला मकान आज भी खड़ा है। लगभग दो सौ परिवारों वाला यह गांव उत्तराखंड का शायद पहला गांव होगा, जहां एक भी परिवार ने पलायन नहीं किया। सेब, आलू, राजमा और गेहूं यहां की मुख्य फसल है। गांव के बीचोंबीच लाखों की लागत से बना शानदार कम्युनिटी हाल और अत्याधुनिक सार्वजनिक शौचालय गांव की समृद्धि की कहानी बयां करता है। रैथल के ग्रामीणों की सादगी तो देखिए यदि वे गांव की सुख सुविधाएं भोगते हैं तो बरसात के मौसम में दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित गुई और दयारा की छानियों (घास से बनी झोपडिय़ां) में भी यह लोग अपने जानवरों के साथ रहते हैं। रैथल के विकास की कहानी यहीं समाप्त नहीं हो जाती है। गांव में गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस है तो हेलीपैड और स्टेडियम निर्माण प्रक्रिया में है।
18 साल तक गांव के प्रधान और साढ़े नौ साल तक ब्लाक प्रमुख रहे चंद्र सिंह राणा का कहना है कि पर्यटन के नक्शे पर लाने के लिए अभी बहुत किया जाना बाकी है।
गांवों की तस्वीर भयावह
देहरादून: उत्तराखंड में गांवों के खाली होने की तस्वीर पर नजर डालें तो काफी भयावह है। अर्थ एवं संख्या विभाग के वर्ष 2001 के आंकड़ों के अनुसार राज्य तेरह से में नौ जिलों मेंं कुल 59 गांव जन शून्य हो गए। उत्तरकाशी के दो, चमोली के सात, टिहरी के नौ, पौड़ी के बीस, रुद्रप्रयाग के दो, पिथौरागढ़ के आठ, अल्मोड़ा के नौ, बागेश्वर और चंपावत के एक-एक गांव जनशून्य हो चुके हैं। रूद्रप्रयाग जनपद के नए आंकड़ों के मुताबिक जन शून्य होने वाले गांवों की संख्या अब 26 पहुंच गई है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment