Tuesday, 30 June 2009
ऋषिकेश-एक तीर्थस्थली
उत्तराखण्ड के चारां धामों का प्रवेश द्वार ऋषिकेश,
यूं तो विश्व मानचित्र
में योग अध्यात्मिक एवं धार्मिक पर्यटन के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका
है। किन्तु प्राचीन एवं पौराणिक समय से ही इस तीर्थ नगरी में ऋषि-मुनियों
साधु-सन्यासियों के अलावा कई महापुरूषों ने भी तप किया है। आधुनिक परिपेक्ष्य
में इस स्थान की तपस्थली के रूप में प्रतिष्ठित होने का महत्व अपने आप में
अद्वितीय रहा है ।
ऋशिकेष नामः- इस स्थान के पौराणिक साहित्य में अनेक नाम आये है यथा
कुब्जाम्रक क्षेत्र,और अब ऋशिकेष। पहले यहां का नाम कुब्जाम्रक तीर्थ था महाभारत
वन पर्व 3082 में कुब्जाम्रक तीर्थ का उल्लेख इस प्रकार है।
ततः कुब्जाम्रक गच्छेतीथे सेवी यथा क्रमम।
गो सहस्रमचप्रोति स्वर्ग लोक च गच्छति।
जिसमें सहस्र गोदान का फल और स्वर्ग लोक की प्राप्ति के सुख का वर्णन किया
गया है। कालिकागम 20.25 के अनुसार महानगर के किसी कोण पर जब ऐसी बस्ती को निबिश्ट किया जाए,सौन्दर्यीकरण किया जाए जहां महानगर के लोग भीड भरी जिंदगी से,षोरगुल से बचने के लिए उस बस्ती को कुब्जक कहते है।तपस्वी,
साधु सन्यासी,ऋशि,वानप्रस्थी कोलाहल से बचने के लिये यहां रहते थे, इससे इसकानाम कुब्जाम्रक पडा। इस र्तीथ को कुब्जाम्रक कहने का आधार रूप मंे केदारखण्ड पुराण
का कथन है कि कुबडे रैभ्य मुनि को विश्णु ने यहां आम के वृक्ष के रूप में दर्षन
दिये थे इसीलिए कुब्ज$आम्रक कुब्जाम्रक तीर्थ का दूसरा नाम हृशिकेष होगा।
जब गुप्तकाल में अमर कोश की रचना हुई तो अमरकोश में विश्णु के उनतालीस
नामों में हृशिकेष नाम क्रम इस प्रकार दिया-दामोदरों हृशीकेषः केषवां माधव
स्वभूः। यह भी प्रमाण है कि महाभारत के समय हृशीकेष विश्णु को कहते थे।
अनुषासन पर्व अ0127 में उल्लेख है कि हिमालय के निकट हृशीकेष है जहां
जब पंचमहायज्ञ,त्रिविक्रम,विश्णुस्त्रोत तथा षिवस्त्रोत पारायण का विषेश महत्व है।
केदारखण्ड पुराण्कार ने कुब्जाम्रक तीर्थ नाम की अवधारणा की कथा को देते
हुए यह भी लिख दिया कि भविश्य में लोग इसे ऋशिकेष नाम से जानेगे।
ऋशिकेष नाम प्रचलित होने के सन्दर्भ में विषालमणि षर्मा ने लिखा है कि श् ऋशिक
नाम है इन्द्रियों का,जहां षमन किया जाए।श् हृशीक इन्द्रिय को जीत कर रैभ्य मुनि
ना ईष ;इन्द्रियों के अधिपति विश्णु द्धको प्राप्त किया,इसीलिए ;हृशीक$ईष अ$ई त्र ए गुणद्धहृशीकेष यह नाम सटीक है।धीरे-धीरे यह ऋशिकेष के रूप में विख्यात
गया।
तपस्थली के रूप में ऋशिकेष- देवताओं से सम्बन्धित ऋशि-मुनियों की तपस्थली
पर्वतों की तलहटी में बहती हुई देवनदी गंगा के कारण यह स्थान अति पवित्र
माना गया है। स्कन्दपुराण में वर्णन आता है कि ऋशिकेष के चन्द्रेष्वर मंदिर जहां आज मंदिर स्थित है वहाॅं चन्द्रमा ने अपने क्षय रोग की निवृत्ति के लिए चैदह
हजार वर्शो तक तपस्या की थी। बाल्मीकी रामायण में भी वर्णन आता है कि भगवान
राम ने वैराग्य से परिपूर्ण होकर इसी स्थान पर विचरण किया था। षिव पुराण
से ज्ञात होता है कि ब्रहा्रनुत्री संध्या ने भी यही तप कर षिव दर्षन प्राप्त किया
जो बाद में अरून्धती के नाम से विख्यात हुई।
केदारखण्ड पुराण के अनुसार-गंगा द्वारोत्तर विप्र स्वर्ग स्मृताः बुधैः,यस्य दर्षन
मात्रेण वियुक्तों भव बन्धनौः अर्थात गंगाद्वार हरिद्वार के उपरान्त केदारभूमि
स्वर्ग भूमि के समान षुरू होती है। जिसमें प्रवेष करते ही प्राणी भव बन्धनों
से मुक्त हो जाता है। राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के भस्म हो जाने उपरान्त
जो चार पुत्र रह गये थे उसमें से एक ह्शिकेतु ने भी यहां तप किया था। यहां पर प्राचीन तपस्वीयों के तप का जिक्र करने का तात्पर्य यह है कि ताकि जन-
मानस यह जान सके कि ऋशिकेष एक तीर्थ तो है ही साथ ही यह तपभूमि
किन लोगो की तपस्या द्वारा फलीभूत हुई है इसके अलावा आधुनिक तीर्थयात्री
भी इस पावन तीर्थस्थल की महत्ता को जान सकें।
इसी क्रम में सतयुग में सोमषर्मा ऋशि ने हृशिकेष नारायण की कठोर तपस्या की
जिससे प्रसन्न हो भगवान विश्णु नें उन्हें वर मांगने को कहा था। भगवान विश्णु
ने उन्हें वर प्रदान कर अपने दर्षन भी कराये इसका जिक्र भी केदारखण्ड में मिलता
है। यहां के जो सिद्व स्थल है जैसे -वीरभद्र,सोमेष्वर एवं चन्द्रेष्वर में रात्रि में आलौकिक
अनुभूतियां होती है। चन्द्रेष्वर में चन्द्रमा ने तप किया तो सोमेष्वर में सोमदेव
नामक ऋशि ने अपने पांव के अंगूठे के बल पर खडे होकर षिव की कठोर तपस्या
की।बालक धु्रव ने विश्णु की कठोर तपस्या यही की जिसके प्रतीक में धु्रवनारायण
मंदिर की स्थिति बतायी जाती है।
मुनि की रेती और तपोवन के उत्तर का नाम ऋशि पर्वत है इसके नीचे के भाग
में अर्थात गंगातट पर एक गुफा में षेशजी स्वयं निवास करते है। इस तपोवन
क्षेत्र में अनेकों गुफाएं थी जहां पूर्वकाल में ऋशि-मुनि तपस्यारत रहते थे।षिवपुराण
खण्ड8 अध्याय 15 के अनुसार गंगा के पष्चिमी तट पर तपोवन है जहां षिवजी
की कृपा से लक्ष्मण जी पवित्र हो गये थे । यहां लक्ष्मण जी षेश रूप में
और षिव लक्ष्मणेष्वर के नाम से विख्यात हुए।
ऋशिकेष के ही निकट षत्रुघन ने ऋशि पर्वत पर मौन तपस्या की। स्वामी विवेकानन्द ने एक वर्श यहां तप किया था। आज भी मानसिक रूप विक्षिप्त व्यक्तियों को
मनसिक षान्ति एवं पुण्य का लाभ होता है। मणिकूट पर्वत में महर्शि योगी द्वारा ध्यान पीठ की स्थापना की गई है जिसमें चैरासी सिद्वों की स्मृति में चैरासी
गुफाएं,योगसाधना के लिए सौ से अधिक गुफाएं भूमि के गर्भ में बनी है।यहां के
आश्रमां में योग व अध्यात्म की अतुलनीय धारा बहती है। देष से ही नही वरन्
विदेषों से भी काफी मात्रा में लोग तप के लिए यहां आते है।
जहां एक ओर ऋशिकेष में आधुनिक पर्यटन की समस्त सुविधायें है वही दुसरी
ओर त्रिवेणीघाट एवं परमार्थ की सांयकालीन आरती का दृष्य कितना आलौकिक
लगता है। इसका वर्णन वही कर सकता है जिसने खुद इसका दर्षन व अनुभव
किया हो । इस तपस्थली की गाथा का वर्णन हम षब्दों में नही कर सकते,इस
तपस्थली की महिमा अपरम्पार है।
सुनीता षर्मा पत्रकार
19,सुभाश नगर
ऋशिकेष देहरादून
उत्तराखण्ड।
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