Tuesday, 16 June 2009

कला प्रेमियों ने जिंदा रखीं उम्मीदें

दुनिया की जिन भाषा-बोलियों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है, उनमें उत्तराखंड की गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनसारी बोलियां भी शामिल हैं। बदलते दौर में इन बोलियों को बोलने-समझने वालों की तादाद लगातार कम हो रही है। ऐसे में लोक कलाकार ही हैं, जो इन्हें जिंदा रखे हुए हैं। आमतौर पर कलाकारों से अभिप्राय मनोरंजन करने वालों से लिया जाता है, लेकिन उत्तराखंड में यही कलाकार यहां की भाषा-संस्कृति को संजीवनी दे रहे हैं। सदियों से पहाड़ के लोकगीतों, थडि़या, चौंफला, बाजूबंद, जागर, छपेली, छोलिया, रवांई, तांदी आदि नृत्यों को जिन्होंने जिंदा रखा है, ये वही लोग हैं। शादी-ब्याह, कौथीग आदि मौकों पर कला प्रेमियों की टोलियां यदि हमारी इस अनूठी संस्कृति को आगे न बढ़ातीं तो शायद हम अपनी पहचान कायम नहीं रख पाते। कलाकारों के यही प्रयास वर्तमान में स्थानीय बोलियों के प्रसार का माध्यम बने हुए हैं। उत्तराखंड राज्य को बने नौ साल होने को हैं। इस दौरान सरकारों के स्तर से स्थानीय बोलियों के संरक्षण को कोई प्रयास नहीं हुए, जिससे धीरे-धीरे लोग इनसे कटते चले जा रहे हैं। प्रवासी उत्तराखंडियों की नई पीढ़ी तो अपनी बोलियों को समझती भी नहीं और उत्तराखंड में रह रहे लोग भी इन्हें खास तवज्जो नहीं देते। हाल ही में यूनेस्को द्वारा जारी एटलस ऑफ दि वल्‌र्ड्स लैंग्यूएजेज इन डेंजर में उत्तराखंड की इन बोलियों को संकटग्रस्त श्रेणी में रखा गया है। इस सबके बीच लोक कलाकारों के प्रयासों ने उम्मीद की किरण जगाई है। गढ़वाली फिल्म निर्देशक अनुज जोशी बताते हैं कि राज्य गठन के बाद कलाकारों के स्व प्रयासों से उत्तराखंड में क्षेत्रीय फिल्म उद्योग को बढ़ावा मिला है। इससे जुड़े हजारों नौजवान आज उत्तराखंड की संस्कृति एवं परंपराओं को देश-दुनिया से परिचित करा रहे हैं। इन्हीं कलाकारों की देन है कि प्रवासी भी भावनात्मक रूप में अपनी माटी से जुड़े हैं। लोकगायक मंगलेश डंगवाल कहते हैं कि उत्तराखंड हमेशा से ही कला-संस्कृति का स्रोत रहा है। यहां की नैसर्गिक सुंदरता, रीति-रिवाज, बोली-भाषा, धार्मिक मान्यताएं अद्वितीय हैं। कलाकार लोक के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हुए बोली-भाषा के प्रसार में योगदान कर रहे हैं, लेकिन सरकारी स्तर पर उन्हें न तो अच्छा मानदेय मिलता है और न प्रोत्साहन ही। गढ़वाली साहित्यकार भगवती प्रसाद नौटियाल कहते हैं कि उत्तराखंडियों का अपनी बोली-भाषा से मोहभंग होने की मुख्य वजह इनके संरक्षण को सरकारी स्तर से कोई प्रयास न होना है। वह भी मानते हैं आज बोली-भाषा का जो कुछ आकर्षण है, वह कला प्रेमियों की वजह से ही है।

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