Tuesday, 16 June 2009
गढ़वाली-कुमाऊंनी क्यों नहीं?
किसी भी क्षेत्र की समृद्धि में वहां की भाषा-संस्कृति अहम भूमिका निभाती है।
इसीलिए संविधान में भाषा के साथ उसकी सांस्कृतिक थाती को भी संरक्षण प्रदान किया गया है, लेकिन उत्तराखंड में राज्य गठन के आठ साल बाद भी इस दिशा में कोई प्रयास नहीं हुआ। यहां की सरकारों ने कभी भी ऐसी पहल नहीं की कि इन बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान मिले। अब अखिल गढ़वाल सभा देहरादून समेत विभिन्न सांस्कृतिक संस्थाओं ने यह बीड़ा उठाया है। प्रयास है कि 2011 में होने वाली जनगणना के दौरान उत्तराखंडी संबंधित प्रपत्र में यह भी दर्ज किया जाए कि उनकी मात्रभाषा (बोली)गढ़वाली अथवा कुमाऊंनी है। जनगणना आंकड़ों के अनुसार देश में 114 भाषाएं और 216 बोलियां हैं। इनमें 22 भाषाएं संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हैं। भारतीय आर्य परिवार की कुल 20 भाषाओं में से 15, द्रविड़ परिवार की 17 में से चार, आस्ट्रो-एशियाई परिवार की 14 में से एक (संथाली) और तिब्बती-वर्मी परिवार की 62 भाषाओं में से दो (मणिपुरी व बोडो) को 8वीं अनुसूची में शामिल किया गया है। आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए 36 भाषाओं की मांग अभी भी सरकार के पास लंबित है। इनमें गढ़वाली-कुमाऊंनी भी हैं। भाषा विकास पर कार्य कर रहे साहित्यकार भगवती प्रसाद नौटियाल बताते हैं कि अब तक जो भी भाषाएं 8वीं अनुसूची में दर्ज हुई, उनके पीछे सिर्फ राजनीतिक आधार ही रहा है। वे बताते हैं कि उत्तराखंड में मुख्य रूप से गढ़वाली-कुमाऊंनी के अलावा पंजाबी व उर्दू बोली जाती है। पंजाबी व उर्दू को तो वर्षो पूर्व 8वीं अनुसूची में जगह भी मिल गई। साथ ही उनकी देश में साहित्य व ललित कला अकादमियां भी हैं, लेकिन गढ़वाली-कुमाऊंनी के मामले में ऐसा नहीं हुआ। साहित्यकार नौटियाल ने बताया कि अब अखिल गढ़वाल सभा ने बीड़ा उठाया है कि सरकार पर इसके लिए दबाव बनाया जाए। इसके तहत विभिन्न माध्यमों से उत्तराखंडियों से अपील की जा रही है कि वे वर्ष 2011 में होने वाली जनगणना में अपनी मातृभाषा गढ़वाली-कुमाऊंनी लिखवाएं, ताकि इन्हें 8वीं अनुसूची में स्थान दिलाने को हम अपना दावा मुकम्मल तौर पर पेश कर सकें। लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक मंच कोटद्वार, उदंकार भारती जैसी सांस्कृतिक संस्थाएं भी इस पहल को आगे बढ़ा रही हैं।
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