उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार से छह माह में आरक्षण नीति की समीक्षा करने को कहा कोर्ट के आदेश के बाद मुख्य सचिव ने की बैठक उत्तराखंड में 11 साल से नहीं किया गया है आरक्षण के रोस्टर में कोई परिवर्तन
देहरादून। नैनीताल उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार की आरक्षण नीति पर सवालिया निशान लगा दिया है। कोर्ट ने राज्य सरकार से अपनी आरक्षण नीति की छह माह में समीक्षा करने को कहा है। अदालत ने यह भी कहा है कि राज्य सरकार स्पष्ट आरक्षण नीति बनाकर इस बारे में उसे अवगत कराए। न्यायालय के इस आदेश से प्रदेश सरकार के अधिकारियों में खलबली मच गई। आनन- फानन में मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बैठक बुलाई गई। बैठक में इससे जुड़े बिदुंओं पर विचार-विमर्श किया गया। उच्च न्यायालय ने यह फैसला सिंचाई विभाग के सहायक अभियंता विनोद कुमार नौटियाल की याचिका पर दिया। अदालत ने मामले की सुनवाई के दौरान प्रदेश में आरक्षण नीति की समीक्षा की जरूरत बताई है। श्री नौटियाल ने राज्याधीन सेवाओं में आरक्षित कोटे के पदों पर पदोन्नति के बारे में उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। उन्होंने प्रदेश में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं ओबीसी के लिए आरक्षण अधिनियम 1994 के अनुरूप पदोन्नति में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति को आरक्षण देने के प्रावधान को चुनौती दी थी। उन्होंने मांग की थी कि उक्त जातियों को तथ्यात्मक आंकड़ों के अभाव में पदोन्नति में आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए। इस याचिका में कहा गया है कि राज्य सरकार द्वारा क्रीमीलेयर की आय का निर्धारण केवल अन्य पिछड़ा वर्ग के संबंध में किया गया है। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति में क्रीमीलेयर की आय के निर्धारण की व्यवस्था नहीं है। इन जातियों को आरक्षण 1991 की जनगणना के प्रतिशत तथा अन्य रैपिड सव्रे के आंकड़ों के आधार पर एक प्रतिशत की वृद्धि करते हुए दी गई है। यह 2001 की जनगणना के आंकड़ों के समतुल्य है। उच्च न्यायालय ने सहायक अभियंता की पदोन्नति हेतु डीपीसी की संस्तुतियों को अग्रिम आदेश तक लागू न किए जाने का निर्णय दिया। वहीं राज्य सरकार को सभी विभागों के संदर्भ में न्याय विभाग से परामर्श लेकर आरक्षण की स्पष्ट नीति निर्धारित करके छह माह में न्यायालय में प्रस्तुत करने का आदेश दिया है। न्यायालय के इस आदेश से प्रदेश सरकार के अधिकारियों में खलबली मच गई। आनन-फानन में मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बैठक बुलाई गई। इसमें कोर्ट के अंतरिम आदेश का अनुपालन करने या आदेश के विरुद्ध अपील करने पर विचार-विमर्श हुआ। इसके अलावा इन वगरे को आरक्षण देने के लिए इनके आर्थिक व सामाजिक पिछड़ेपन के मानकों को तय करने के लिए सव्रे कराने, न्यायालय के आदेश के सापेक्ष विकल्पों पर विचार करने पर भी सहमति बनी। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के संदर्भ में क्रीमीलेयर की व्यवस्था लागू करने पर भी विचार हुआ। अन्य पिछड़ा वर्ग को लेकर लागू क्रीमीलेयर की आय सीमा का निर्धारण पर भी विचार किया गया। इस प्रकरण से प्रदेश सरकार असमंजस में है। आरक्षण नीति के तहत पूर्व में दी गई पदोन्नतियां भी इस आदेश के दायरे से बाहर हैं। प्रदेश सरकार ने आरक्षण नीति के तहत जनगणना के किन आंकड़ों पर आरक्षण नीति तय की है यह भी संदेहास्पद है कि प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण किस आधार पर दिया गया है। कार्मिकों ने इसके विरुद्ध कई बार विरोध दर्ज कराया परंतु उनकी सुनी ही नहीं गई। प्रदेश सरकार की नीति के हिसाब से ओबीसी में 14 प्रतिशत, एससी में 19 प्रतिशत व एसटी में चार फीसद आरक्षण दिया गया है। राज्य में आरक्षण की स्पष्ट नीति न होने से अधिकारी इससे खिलवाड़ करते रहे हैं। कर्मचारियों ने इस बारे में वरिष्ठ अधिकारियों को बार-बार आगाह किया मगर इसके बाद भी नियमों के खिलाफ आरक्षण के आधार पर पदोन्नति दी जा रही हैं। प्रदेश में रोस्टर पण्राली के तहत प्रभावी आरक्षण नीति की व्यवस्था है। इस संबंध में अनुसूचित जाति के लिए जो रोस्टर बिंदु निर्धारित किए गए हैं उनके संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूर्व में ही मार्गदर्शन सिद्वांत निर्धारित किए गए हैं। जिसके अनुपालन में केंद्र सरकार सहित अधिकतर राज्य सरकारों ने रोस्टर बिंदु में परिवर्तन किया है परन्तु उत्तराखंड में यह मामला 11 साल से लंबित है। देखना यह है कि उच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद इस नीति पर कितना अमल किया जाता है। यह बात अहम इसलिए भी है क्योंकि प्रदेश सरकार के लिए यह चुनावी वर्ष है। इस पर सरकार को स्टैंड लेना ही होगा।
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