Sunday, 14 August 2011

देवीधुरा में आस्था के संग पत्थरों की जंग

रामनगर। परम्पराओं और संस्कृति के धनी उत्तराखंड में पत्थर युद्ध ‘बग्वाल’ अपनी अलग विशेषता रखता है। दलों में बंटे लोगों के बीच आपस में पत्थर से खूनी संघर्ष का यह खेल आज के युग में पूरे वि के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है। इसके कारण इस दिन देश ही नहीं विदेशों से लोग इस खेल को देखने के लिए खिंचे आते हैं।



आकषर्ण का केंद्र बने बग्वाल में पूर्व में देवी मां को प्रसन्न करने के लिए नरबलि देने की परम्परा थी। रक्षाबंधन के दिन कुमाऊं मंडल के चंपावत जिले में समुद्र सतह से करीब 7000 फुट की ऊंचाई पर लोहाघाट से 45 किमी. दूर पर मां बाराही धाम देवीधुरा में हर साल आयोजित होने वाला पत्थर युद्ध ‘बग्वाल’ अपने आप में अनेक धार्मिक मान्यताओं और पौराणिक गाथाओं को संजोये हुए है। बाराही मंदिर में देवी पूजन के बाद मंदिर प्रांगण में ही आसपास के अनेक गांवों से आये लोगों की भीड़ चार समूहों में बंटकर एकदू सरे समूह पर पत्थर बरसाते हैं, जिसे बग्वाल कहा जाता है। इस दौरान पत्थर की मार से बचने के लिए घास व पत्ते से बने हुए बड़े-बड़े ‘छत्यूरों’



का प्रयोग किया जाता है। बाद में मैदान में एक व्यक्ति के बराबर रक्त बह जाने पर मंदिर का पुजारी संकेत करता है। इसके बाद युद्ध समाप्त करके सभी लोग एकदू सरे के गले मिलते हैं। मान्यता है कि पूर्व में कि चम्याल खाल, वालिंग खाम, गहड़वाल खाम व लमगड़िया खाम के लोगों में से प्रति वर्ष एक व्यक्ति की बलि देवी को प्रसन्न करने के लिए दी जाती थी। एक बार चम्याल खाम की वृद्धा के एकमात्र पौत्र की बारी आई तो वृद्धा ने देवी मां बाराही की तपस्या कर नरबलि का विकल्प मांगा था, जिसमें तय किया गया कि चारों खाम के लोग अपने-अपने दल बनाकर आपस में युद्ध करें और जब इस युद्ध के दौरान मैदान में एक व्यक्ति के बराबर रक्त बह जाए तो उसे देवी मां की बलि मानकर युद्ध समाप्त कर दिया जाए। बस यहीं से नरबलि के स्थान पर देवीधूरा के प्रसिद्ध पत्थर युद्ध बग्वाल का जन्म हुआ जो आज मिसाइल युग में लिए शेष वि के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है। देवीधूरा के इस प्रसिद्ध मेले में बकरों व भैंसों की अठवार बलि की परम्परा भी कायम है। पशु प्रेमी संस्थाओं के विरोध के चलते बलि की प्रथा में कमी आयी है। साथ ही जागरूकता के चलते अब बलि को प्रतीकात्मक रूप देने के सुर भी उठने लगे हैं। अठवार की प्रक्रिया पूरी होने के बाद दूसरे दिन देवी मां का डोला उठने के तीन दिन तक यह मेला चलता है। मां का डोला उठने की प्रक्रिया भी अलग है। सदैव आवरण में ढकी मां की प्रतिमा को संदूक में रखा जाता है। श्रावण पूर्णिमा को पुजारी अंधेरे में वस्त्रों में लपेटकर बक्से से बाहर निकालते हैं और आंखों पर पट्टी बांधकर प्रतिमा को स्नान कराने के बाद डोले को मचवाल नामक स्थान पर ले जाकर वापस उसी संदूक मे रखा जाता है। वस्त्रों से आवृत प्रतिमा कैसी है कोई नहीं जानता। कहा जाता है कि प्रतिमा को निर्वस्त्र देखने वाला व्यक्ति अंधा हो जाएगा। मां बाराही देवी के 1500 हजार वर्ष पुराने मंदिर के आस-पास कणाम के विशालकाय शिलाखंडों का यह समग्र क्षेत्र महापाषाणकालीन अवशेषों को भी अपने गर्भ में समेटे हुये है जिस कारण मंदिर व पत्थरमार की इस परम्परा को कुछ लोग पाषाणयुगीन सभ्यता का चिह्न भी मानते हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसके अस्तित्व की संकल्पना आज भी शोधकर्ताओं के लिए चुनौती बनी हुई है।



बग्वाल पर विशेष आज होगी रोमांचक ‘स्टोन फाइट’ लोहाघाट के मां बाराही धाम देवीधुरा मंदिर में रक्षाबंधन को लगता है मेला



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