Tuesday, 6 October 2009
क्या बोलेगा खामोश पौड़ी ?
-8 अगस्त 1994 को पौड़ी से जली थी पृथक राज्य की ज्वाला
-इसके बाद आंदोलन ने लिया था क्रांतिकारी स्वरूप
पौड़ी
ले मशाले चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे, लोग मेरे गांव के...
जनवादी कवि बल्ली सिंह चीमा की इन पक्तियों को आत्मसात करने वाला पौड़ी राज्य बनने के बाद से खामोशी की चादर ओढ़े है। विकास के मोर्चे पर खुद को ठगा सा महसूस करने वाले इस शहर ने गैरसैंण जैसे मुद्दे पर चुप्पी साधी हुई है। हालांकि पौड़ी के ही एक छोर से लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी इस सन्नाटे को चीर रहे हैं, पर सवाल है कि गांधी जयंती पर प्रदेश बंद की गूंज में इस आवाज को पौड़ी का जनमानस धार देगा भी या नहीं।
2 अगस्त 1994 को इंद्रमणि बडोनी कलेक्ट्रेट परिसर में राज्य की मांग को लेकर भूख हड़ताल पर बैठ गए थे। इसके बाद प्रशासन के रवैये ने आग मेंं घी डालने का काम किया और 7 अगस्त 1994 की मध्यरात्रि प्रशासन ने जबरन बडोनी को उठाया दिया था। इसके विरोध में 8 अगस्त 1994 को पौड़ी में व्यापारी वर्ग, छात्र और च्वींचा गांव की सैकड़ों महिलाओं ने आंदोलन को धार देने का काम किया। यहीं से आंदोलन तेजी के साथ आगे बढ़ा। पौड़ी की समूची जनता सड़कों पर उतर गई और इसी दिन पौड़ी में ऐतिहासिक प्रदर्शन भी हुआ। आखिरकार नौ नवंबर 2000 को तमाम शहादतों के बाद पृथक राज्य अस्तित्व में आया।
अब एक दशक की यात्रा पूरी करने जा रहे उत्तराखंड में राज्य की अवधारणा के धूमिल होने को लेकर बहस-मुहासिबों का दौर चल रहा है, लेकिन पौड़ी की खामोशी सबको कचोट रही है। यह कचोटता का अहसास इसलिए भी है कि पौड़ी के स्वर में जो गर्मी है, वह ही मौजूदा सवालों से टकराने में सहायक हो सकती है। उसके बगैर कोई भी कोशिश अधूरी ही कही जाएगी। इस खामोशी के सवाल पर लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी कहते हैं कि पहाड़ में राजधानी बनने से होने वाले पहाड़ के विकास की सोच पर पौड़ीवासी ज्यादा गंभीर नहीं हैं। पौड़ी की उपेक्षा के चलते भी यहां के लोग स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि राजधानी को महज भौगोलिक दृष्टि से नजदीक देखना ठीक नहीं है। एक प्रकार की मानसिकता यह भी पनप गई है कि गैरसैंण से पौड़ी की दूरी बढ़ेगी। श्री नेगी के मुताबिक विकास के लिए पहाड़ में ही राजधानी होना बेहद जरूरी है।
राज्य आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने वाली पौड़ी गांव निवासी सावित्री देवी, रामी देवी, बसंती देवी सवाल करतीं हैं कि आखिर राज्य आंदोलन के बाद क्या हासिल हुआ है? राज्य प्राप्ति के बाद भी पौड़ी की लगातार उपेक्षा ही हो रही है। इससे पौड़ीवासी अब राजधानी समेत अन्य मसलों पर खामोश रहना ही बेहतर समझा रहे हैं। राज्य आंदोलन से जुड़े बाबा मथुरा प्रसाद बमराड़ा कहते हैं, राज्य में अब तक की सरकारों ने शहीदों के सपनों के साथ मजाक किया है। जिन उद्देश्यों के लिए पृथक राज्य की लड़ाई लड़ी गई, उनको हाशिये पर धकेल दिया गया है। राज्य निर्माण आंदोलनकारी कल्याण परिषद के सदस्य नंदन सिंह रावत कहते हैं कि राज्य प्राप्ति के बाद पौड़ी तमाम मुद्दों पर खामोश हो गया है। पौड़ी अपने आप को भी ठगा सा महसूस कर रहा है।
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Salute to ur momentum,,,,salute to all deshbhaqt....wonderfully written....JAGO HIMALAY
ReplyDeleteTumar dagaru
Sanjupahari
The corruption index has gone very high after in Uttarakhand once it became a separate state. Now even the MLAs are looting it like anything. Dehradun has become land mafia hub where some people from UP with the local police support are grabbing land plots of localites and selling them to gullible buyers.
ReplyDeleteThe corruption index has gone very high after in Uttarakhand once it became a separate state. Now even the MLAs are looting it like anything. Dehradun has become land mafia hub where some people from UP with the local police support are grabbing
ReplyDeleteMovement for separate Uttarakhand State was a unique mass movement in which every section society have actively participated. Another movement is in full swing for identification of Uttarakhand activists. For this we struggled? for this we suffered and lost several lives?
ReplyDeleteIn true sense, government employees and journalists played pivotal role for the separate state. But they are never reckoned with.
This comment has been removed by the author.
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