Thursday, 8 October 2009

रोजगार की आस में नौजवानों के सपने दरकने लगे हैं

नामी गिरामी कंपनियों में युवा झोल रहे ठेकेदारी प्रथा का दंश रुद्रपुर:सिडकुल में उद्योगों की स्थापना ने भले ही ऊधम सिंह नगर जिले का नाम देश के औद्योगिक नक्शे पर ला दिया हो लेकिन रोजगार की आस में बैठे हजारों नौजवानों के सपने दरकने लगे हैं। नामी गिरामी कंपनियों तक में काम करने वाले युवक-युवतियां ठेकेदारों के उत्पीडऩ का दंश झोल रहे हैं। वर्ष 2005 में उत्तराखंड को केंद्रीय औद्योगिक पैकेज का तोहफा मिलने पर रुद्रपुर, सितारगंज तथा हरिद्वार में सिडकुल के तहत औद्योगिक क्षेत्र की स्थापना हुई थी। तीनों जगहों पर सैकड़ों उद्योग लगे। रुद्रपुर में 316 तथा सितारगंज में 50 के करीब उद्योग लग चुके हैं। रुद्रपुर में लगभग 150 तथा सितारगंज में 60 उद्योग निर्माणाधीन हैं। पैकेज के मुताबिक वर्ष 2010 तक लगने वाले उद्योगों के एक्साइज, अन्य करों की अगले 10 वर्षों तक सहूलियत मिलेगी। पैकेज से आकर्षित होकर देश के विभिन्न हिस्सों में छोटे बड़े औद्योगिक घराने यहां आये हैं। इनमें टाटा, बजाज, पारले, नेस्ले, ब्रिटानिया, एक्मे, एचपी, एचसीएल, भास्कर, डाबर समेत अन्य उद्योग तथा उनकी वेंडर इकाइयां शामिल हैं। इधर सिडकुल की स्थापना तथा लगने वाले उद्योगों में राज्य के युवाओं ने रोजगार पाने तथा बेहतर भविष्य के जो सपने देखे थे या सरकारों ने दिखाये थे। वे उद्योगों की शुरूआत में ही दरकने लगे थे। अब तो सपने बिखरने भी लगे हैं। इसकी वजह है कि सिडकुल की प्रत्येक फैक्ट्री ने अपने यहां जो स्टाफ रखा है, वह अधिकांश संविदा पर ठेेकेदारी प्रथा पर हंै। शुरूआत से चली आ रही प्रथा आज भी कायम है। राज्य के बेरोजगार यहां रोजगार की तलाश में आये तो अधिकांश उद्योगों के गेट पर 'नो वैकेंसी' के बोर्ड मिले अथवा उनके आवेदन पत्र तक रिसीव करने से इनकार कर दिये गये। इससे उन्हें निराशा का सामना करना पड़ा और मजबूरन ठेकेदारों की शरण लेनी पड़ी। सिडकुल कार्यालय से मिले आंकड़ों के मुताबिक रुद्रपुर के उद्योगों में 35000 तथा सितारगंज में 2000 व्यक्ति कार्यरत हैं। इन लोगों को रोजगार अवश्य मिला हुआ है पर अधिकांश ठेकेदारी प्रथा पर चल रहे हैं। ऐसे में वे तीन से पांच हजार रुपया महीने की पगार पा रहे हंै जबकि 12-12 घंटे की ड्यूटी ली जा रही है। उनकी हालत तो और भी दयनीय है जो लोग दिहाड़ी पर हैं। ऐसे लोग रोजाना ठेकेदारों के कार्यालय या संबंधित उद्योग के गेट पर शिफ्टों के शुरू होते समय खड़े हो जाते हैं। काम हुआ तो अंदर बुला लिये जाते हैं वरना उन्हें अगले दिन आने को कहा जाता है। ऐसे श्रमिक मात्रा दो से ढाई हजार रुपया महीना ही कमा पाते हैं। खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों तथा भारी भरकम वाले किराये के कारण सिडकुल में लगे युवक-युवतियों का जीना दुश्वार हो रहा है। एक तो कम पगार ऊपर से 12 घंटे की ड्यूटी ने इनके जीवन को लगभग नरक सा बना रखा है। काम के समय जब लोग दुर्घटना का शिकार होते हैं तो और भी दुर्दशा हो जाती है। ऐसे लोग ठेकेदारों के आदमी होते हैं, इसलिए फैक्ट्रियां इन्हें इलाज की सुविधा भी नहीं देती।

1 comment:

  1. Its a shame on our Govt and the system. Our Govt must do something regarding that.

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