Friday, 8 April 2011

शास्त्र की मर्यादाओं में ढलकर रस की वर्षा करते हैं लोकगीत

ग्ततुक नी लगा उदेख, घुनन मुनई नि टेक (सोरठ) ग्चम चमकि घाम डांड्यूं मा (मिश्र जोगकौंश) ग्सुरमा स्याली कलौ टीपि ल्यादी (मिश्र गारा) ग्दैणा हूयां खोली का गणेशा, दैणा हूयां पंचनाम द्यवतौं (दुर्गा) ग्कैला बाजी मुरूली हे बैणा..(धानी) ग्मेरी उनाल्या माणी लौ बिजी जादी (भैरवी) ग्ग्वीराल फूल फुलगिना, डांड्यूं बुरांश फुलगिना (पहाड़ी) लोकगायक स्व. मोहन उप्रेती का कालजयी गीत बेडू पाको बारामासा, नारैणा काफल पाको चैता मेरी छैला इसका प्रमाण है। राग दुर्गा में गाया गया यह गीत आज पूरी दुनिया में हृदयग्राही बन गया। रागों की उत्पत्ति लोक से मानी गई है, फिर भी लोक में स्वच्छंदता है। -लोकगीत कानों में उसी तरह रस घोलते हैं, जैसे होम्योपैथिक चिकित्सक द्वारा दी जाने वाली चीनी की बारीक गोलियां मुंह में मिठास। इन गोलियों में मदर टिंचर की चार बूंदें मिलते ही यह साधारण से असाधारण बन जाती हैं। ठीक इसी तरह लोकगीतों में भी राग-रागनियों का समावेश होने पर फिजा में सुरों की महताबी रोशनी-सी लहरा उठती है। लोकगीत तो पहाड़ी नदी की तरह हैं, जहां गए वहीं के रंग में ढल गए, लेकिन जब उन्हें शास्त्र की मर्यादाओं में ढाला गया तो रस की वर्षा करने लगे। लोकगायक स्व. मोहन उप्रेती का कालजयी गीत बेडू पाको बारामासा, नारैणा काफल पाको चैता मेरी छैला इसका प्रमाण है। राग दुर्गा में गाया गया यह गीत आज पूरी दुनिया में हृदयग्राही बन गया। रागों की उत्पत्ति लोक से मानी गई है, फिर भी लोक में स्वच्छंदता है। लोकगीत उस अल्हड़ नवयौवना की तरह हैं, जो अपने सौंदर्य के प्रति बेपरवाह है। वह कंदराओं में फ्यूंली की तरह महकते हैं, आंगन में गौरेया की तरह चहकते हैं, लेकिन मिट्टी से जुदा नहीं हो पाते। जब यही गीत षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद सुरों में गूंजते हैं तो मिट्टी की महक पूरी दुनिया में फैल जाती है। देवभूमि में गाए जाने वाले थडि़या, चौंफला, बाजूबंद, झुमैला, झोड़ा, चांचरी, न्योली, बारामासा, चौमासा, छपेली, छोपती आदि लोकगीतों में मिश्र गारा, पहाड़ी, भीम पलासी, मदमाद सारंग, मिश्र मदमाद सारंग, मिश्र धानी, भैरवी, मिश्र मालकौंश, मिश्र जोग कौंश, मालगुंजी, भूपाली, सोरठ आदि रागों का प्रयोग बहुतायत में देखने को मिलता है। यही वजह है इनकी मधुर सुरलहरियां कानों में पड़ते ही हृदय के तार झंकृत होने लगते हैं। कुछ लोकगीत ऐसे भी हैं, जो विलंबित लय और द्रुत लय में अलग-अलग अनुभूति कराते हैं।

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