Sunday, 3 April 2011
ढोल के बोल में रमते हैं राम
ढोल बजता है तो पहाड़ में हर दिल धड़कता है, ढोल स्वागत करता है और विदाई भी, यह अगवानी है और नेतृत्वकारी भी। इसका संगीत मानव मन को तरंगित और देव आत्माओं को अह्लादित करता है। यानी ढोल का धर्म-अध्यात्म से गहन संबंध है। अनुष्ठान में इसकी भी उपस्थिति अनिवार्य है।
पहाड़ के पारंपरिक वाद्य यंत्र ढोल का निश्चित शास्त्रीय आधार है। ढोल सागर में इसकी तालों (वाद्य विधियां), उत्पत्ति और बनावट का वर्णन है। यूं तो इसकी कई तालें हैं, लेकिन लिपिबद्धता के अभाव में अब करीब तीन दर्जन ही अस्तित्व में हैं। ढोल सागर के विखरे अंशों को सर्वप्रथम 1926 में भवानी दत्त पर्वतीय ने ढोल सागर के नाम से प्रकाशित किया था। 1932 में ब्रह्मानंद थपलियाल और पचास के दशक में मोहन लाल बाबुलकर ने लोगों को ढोल सागर से परिचित कराने में अहम भूमिका निभाई। सत्तर के दशक में केशव अनुरागी ने इस क्षेत्र में अहम कार्य किया, जबकि 1983 में शिवानंद नौटियाल ने गढ़वाल के लोक नृत्य गीत में लोगों को इससे रूबरू कराया। उत्तराखंड में शादी-समारोहों के अलावा अनुष्ठानों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। अनेक अनुष्ठानों में ढोल के संगीत पर ही देवता अवतरण होता है। हर देवी-देवता के अवतरण की निश्चित वाद्य शैली है। यह इसके संगीत का जादू ही है कि दूर गांव में बजते ढोल की धुन सुनकर लोग अनुमान लगा लेते हैं कि वहां क्या अनुष्ठान हो रहा है। कई बार मनौती पूरी होने पर संबंधित आराध्य को ढोल भेंट चढ़ाया जाता है। ढोल का रोचक इतिहास है। प्राथमिक अवस्था में यह लकड़ी का, इसके बाद लोहे का बना। फिर चांदी का और अब तांबे व पीतल का होता है। कुमाऊं में अधिकांशत: लकड़ी का ही ढोल होता है। इसका सहायक यंत्र दमाऊं इससे छोटे आकार का होता है। दोनों की संगत और बोल बड़े और छोटे तबले की जैसे होते हैं। ढोल सागर में ढोल की दायीं पूड़ को सूर्य और बायीं को चंद्रमा का स्वरूप माना है। कंधे में डाले जाने वाले कपड़े को नाग का स्वरूप बताया गया है।
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ढोल सागर का इतिहास रोचक ढंग से परचित कराया आपने. इस दिशा में आगे भी पूर्णता लेन का प्रयास कीजियेगा
ReplyDeleteplease don't forget its.................
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