Tuesday, 14 February 2012

पहाड़ के प्रेमचंद का जाना

मंगलेश डबराल-नौटियाल जी ऐसे वक्त में हमें छोड़कर चले गए, जब उनके पास लिखने के लिए काफी कुछ बचा था। वह इस वक्त एकसाथ चार किताबों पर काम कर रहे थे।
आधुनिक दौर में उत्तराखंड के वह सबसे प्रमुख सांस्कृतिक-राजनीतिक हस्ताक्षर थे। उन्होंने लेखन के जरिये टिहरी राजशाही के खिलाफ जनता के संघर्ष, वहां के वामपंथी आंदोलन तथा उस दौर के इतिहास आदि को सामने लाने में अहम योगदान दिया।
दरअसल सामंतशाही का विरोध और वामपंथ के संघर्ष का इतिहास उनके व्यक्तित्व में हमेशा मौजूद रहता था। वह इतिहास था, टिहरी जिले में राजशाही के खिलाफ जनसंघर्ष का, वह इतिहास था उत्तराखंड में वामपंथी आंदोलन को मजबूती प्रदान करने का और वह इतिहास था साहित्य में पहाड़ के जीवन को उकेरने का।

यों तो देश को 15 अगस्त, 1947 को ही आजादी मिल गई थी, पर टिहरी को आजादी उसके दो वर्षों के बाद 1949 में मिली थी। दो वर्षों तक टिहरी पर राजा का ही शासन चलता रहा था। उस राजशाही को खत्म करने के लिए हुए संघर्ष को नौटियाल जी ने देखा था और वह उसके हिस्सा रहे थे। 13 वर्ष की उम्र में ही वह राजशाही के खिलाफ आंदोलन में शामिल हो गए थे। उत्तराखंड की साहित्यिक व राजनीतिक चेतना में उनका योगदान कभी न भुलाया जा सकेगा।

वामपंथी आंदोलन से उनका जुड़ाव छात्र जीवन में ही हो गया था, जब वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने के लिए गए थे। वहां वह छात्र रजनीति से भी जुड़े। वहीं पर उनका लेखकीय व्यक्तित्व सामने आया। वहीं उन्होंने भैस का कट्या और सुच्ची डोर नामक मार्मिक यथार्थ की कहानियां लिखी। कह सकते हैं कि उन्होंने प्रेमचंद की परंपरा को एक सार्थक विस्तार दिया।

जिस तरह प्रेमचंद ने मैदानी इलाकों के यथार्थ को अपने साहित्य का विषय बनाया, उसी तरह नौटियाल जी ने पर्वतीय जीवन के यथार्थ को संजीदगी के साथ रेखांकित किया। पढ़ाई के बाद वह लौटकर टिहरी आए और वहां वकालत शुरू की। इसी दौरान ही उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय भागीदारी की और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के टिकट पर उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी चुने गए। इस दौरान उनकी राजनीतिक सक्रियता इतनी बढ़ गई थी कि उन्होंने कुछ दिनों के लिए लेखन भी छोड़ दिया। लेकिन लंबे समय बाद वह फिर से साहित्य के अपने पुराने ठिये पर लौटे। इस बार साहित्य के प्रति उनका समर्पण काफी रचनात्मक एवं ऊर्जावान रहा।

साहित्य, समाज और राजनीति के आपसी सरोकारों में गहरा विश्वास रखने वाले विद्यासागर नौटियाल ने जो कुछ लिखा, उनमें पहाड़ के जीवन के प्रति उनका गहरा लगाव दिखाई देता है। पहाड़ के जीवन और समाज का जैसा सजीव चित्रण उन्होंने किया, वह अन्यत्र दुर्लभ है। भैंस का कट्या, सुच्ची डोर, फट जा पंचधार, उत्तर बायां है, झुंड से बिछुड़ा, बागी टिहरी गाता जाए आदि उनकी प्रतिनिधि रचनाएं हैं, जिनमें पहाड़ के जीवन के क्रूर एवं मार्मिक यथार्थ का विवरण मिलता है। उनके उपन्यास उनकी मूल भूमि के सरोकारों से जुड़े हैं। उन्होंने पहाड़ की घुमंतू प्रजातियों के ऊपर भी लिखा है। उन्होंने अपने साथ के लोगों पर कई महत्वपूर्ण संस्मरण भी लिखे।

मेरे साथ उनका बहुत गहरा और आत्मीय संबंध रहा है। उनकी पहली किताब का नाम मैंने ही दिया था-टिहरी की कहानियां। जब उत्तराखंड राज्य बना और राज्य सरकार ने एक साहित्य परिषद बनाकर नौटियाल जी को उनसे जोड़ना चाहा, तो उन्होंने पूछा था कि एक लेखक के रूप में इसमें हमारी क्या भूमिका होगी। लेकिन जब उन्हें पता चला कि सारा काम सरकारी कारिंदे ही अपने ढंग से करेंगे और लेखकों की मौजूदगी मात्र शोभा की वस्तु के रूप में होगी, तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया था।

एक बार उन्होंने यह कहकर सबको चौंका दिया था कि चाहे भाजपा हो या कांग्रेस, किसी भी पार्टी के नेता को साहित्य के क ख ग का पता नहीं है। हम लोग उनके लेखन एवं जीवन से काफी कुछ सीख सकते हैं।

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